Monday, August 17, 2020

किताबों की दुनिया -211

 
(ये पोस्ट भाई अखिलेश तिवारी और जनाब लोकेश कुमार सिंह 'साहिल' जी के सहयोग के बिना संभव नहीं थी )

आज 'किताबों की दुनिया' की इस  शृंखला का आगाज़ पद्मभूषण जनाब "गोपीचंद नारंग" साहब की उस टिप्पणी से करते हैं जो उन्होंने प्रसिद्ध शायर 'प्रियदर्शी ठाकुर 'ख़याल' साहब की ग़ज़लों की किताब 'धूप, तितली, फूल' पर 'धर्मयुग' पत्रिका में बरसों पहले की गयी समीक्षा में की थी । उन्होंने लिखा कि "हमारा दुर्भाग्य है कि हम ऐसे युग को झेल रहे हैं जहाँ धरती के बंटवारे के साथ संस्कृति का भी बंटवारा हो रहा है । मेरा बरसों से ये मत है कि भाषाओं का धर्म नहीं हुआ करता । भाषा तो हर उस व्यक्ति की अपनी हो जाती है जो उसे चाहता है । जो भाषा के नाज़ उठाता है भाषा भी उसके नाज़ उठाती है । अफ़सोस की बात ये है कि अब भाषा को धर्म के साथ जोड़ दिया गया है । भाषा ही नहीं रंगों का भी विभाजन धर्मानुसार हो गया है । भाषा तो सम्प्रेषण का माध्यम है इसका धर्म से क्या लेना देना इसी तरह रंग तो ईश्वर ने सब के लिए बनाये हैं फिर क्यों उन्हें धर्म के साथ चस्पा करना ? अब ग़ज़ल को ही लें, इस विधा को भी एक भाषा और धर्म-विशेष की मिल्कियत माना जाने लगा है जबकि ऐसा है नहीं । 
 
ब-मुश्किल बचाया था चिंगारियों से,
घिरा है मगर अब चमन आरियों से

कभी कोई जयचन्द, कभी मीर जाफ़र 
भरा है ये इतिहास ग़द्दारियों से

सुनिश्चित है उसका पतन इस वतन में 
प्रशंसा सुनी जिसने दरबारियों से

हमारे आज के शायर ' जस्टिस शिव कुमार शर्मा ' हिंदी में आज से नहीं बरसों से ग़ज़लें कहते आ रहे हैं और साहित्य में अपनी धाक जमा चुके हैं। उनकी ग़ज़लों की किताब  'हिलते हाथ दरख़्तों के' तब प्रकाशित हुई थी जब वो 'कुमार शिव' के नाम से साहित्य जगत में विख्यात थे। चूँकि इस किताब की सभी ग़ज़लों की भाषा हिंदी है और इनमें उर्दू के बहुत कम शब्द हैं तो  सिर्फ इस बिना पर आप इन्हें 'हिंदी ग़ज़लों' का भले ही नाम दें लें लेकिन मेरी नज़र में ये सिर्फ़ ग़ज़लें ही हैं । जब उर्दू में कही ग़ज़लें 'उर्दू ग़ज़लें' नहीं कहलाती तो फिर हिंदी या मराठी या गुजराती या पंजाबी या ब्रज-भाषा में कही ग़ज़लें क्यों उस भाषा के नाम से सम्बोधित की जाती हैं ? ग़ज़ल अगर किसी भी भाषा में ग़ज़ल के निर्धारित व्याकरण के अंतर्गत कही जाती है तो वो ग़ज़ल ही कहलानी चाहिए। 
वैसे ये बहस का विषय हो सकता है और हमारा उद्देश्य यहाँ बहस नहीं बल्कि किताब खोलकर आपके सामने रखना है तो चलिए वो ही करते हैं :-    
   

नहीं था चाहे बदन पर लिबास लोगों के,
हुज़ूर आए तो बस्ती ने झंडियाँ पहनींं
*
उदास देहरी है, गुमसुम है बंद दरवाज़े
ये एक घर का नहीं, क़िस्सा है ये घर-घर का
*
सुख धुएँँ-सा दीखता चिमनी के ऊपर
दुख तरल होकर सतह पर बह रहे हैं
*
कितना अपनापन था, बोझिल मन से हमको विदा किया,
पीछे मुड़कर देखे हमने हिलते हाथ दरख़्तों के
*
काँटे तो हँसते-हँसते सह लेता था,
उसने अब उँगली में फूल चुभाया है
*
चट्टानों से फूट पड़े हैं,
हम जल के ऐसे निर्झर हैं
*
ये रिश्ते ये नाते, ये अपने-पराए
भरा है यह घर-बार व्यापारियों से
*
जब से ये सावन आया है, वृक्ष हुए अनुशासनहीन,
युवा चांदनी ने जंगल में आना-जाना छोड़ दिया
*
मैं तो टूट चुका भीतर तक, मुझको तो परवाह न थी,
तुम तो फागुन के मौसम थे, तुमने क्यों दर्पण तोड़ा ?
*
बारिश में भीगी तो ख़ुशबू फैल गई,
हुआ देह पर जादू टोना मिट्टी का

राजस्थान के कोटा शहर में 24 सितम्बर 1945 को जन्में जनाब 'शिव कुमार शर्मा' उर्फ़ 'कुमार शिव' का बचपन अभावों में गुज़रा । परिवार के सदस्यों के आपसी क्लेश के चलते उनके परदादा द्वारा स्थापित किया गया प्रिंटिंग का जमा-जमाया व्यवसाय धीरे धीरे उजड़ गया । पिता सीधे-सादे नेक दिल इंसान थे इसलिए परिवार में चल रहे षड़यंत्र के शिकार होने के बावजूद उन्होंने किसी का बुरा नहीं चाहा । माँ के दिए संस्कारों की वजह से कठिन समय में उनमें कभी हीनता का भाव नहीं आया । उनकी माँ हमेशा अडिग चट्टान की तरह उन्हें हर मुश्किल में सम्बल देती रहीं । वो सोचते थे कि विपरीत परिस्थितियों में बिना निराश हुए वो पढ़-लिखकर इन अभावों को दूर कर लेंगे और अपनी इस सकारात्मक सोच के चलते उन्होंने ऐसा करके दिखाया भी । 

गीली लकड़ी, चूल्हा-चौका चिमटा-बेलन और धुआँ,
भीगा अंजन, बजते कंगन, यह गोरा तन और धुआँ 

यादें पीहर की सुलगी हैं धधक उठी है सीने में,
आँखों से बाहर निकला है मन का चंदन और धुआं 

द्वार-द्वार पर कढ़े माँँडने आँँगन-आँँगन रंगोली,
कमरों में लेकिन मकड़ी के जाले, सीलन और धुआँ 

उनका इंजीनियर बनने का सपना तब टूट गया जब हाईस्कूल में उनके उतने अंक नहीं आये जो उन्हें विज्ञान और गणित विषयों में प्रवेश दिला सकते इसलिए हार कर उन्हें कॉमर्स विषय चुनना पड़ा । समझौते किये बिना जीवन जीना संभव नहीं था । लालटेन की रौशनी में पढ़ते हुए आख़िर उन्होंने 1964 में बी.कॉम डिग्री हासिल कर ली और चम्बल-प्रोजेक्ट के कार्यालय में कनिष्ठ लिपिक की नौकरी से अपना घर चलाने लगे । दिन में नौकरी और शाम को राजकीय महाविद्यालय कोटा में चलने वाली कानून की कक्षाओं में जाने लगे । आख़िरकार मेहनत रंग लायी और 1967 में राजस्थान बार काउन्सिल ने उन्हें एडवोकेट के रूप में मान्यता दे दी । ये सब लिखने का मक़सद सिर्फ़ उस शायर के संघर्ष को जानना और उससे प्रेरणा लेना है जिसकी किताब आज हमारे सामने है ।  
       
एक काग़ज़ आग से कुछ दूर है,
यूं समझ लो आग को आराम है

ज़िन्दगी भर ज़िन्दगी का क्रम यहाँ,
सुबह थी, दोपहर थी, फिर शाम है 

आजकल यारों तुम्हारी दोस्ती 
दुश्मनी का ही नया उपनाम है 

इससे पहले कि हम 'कुमार शिव' साहब के साहित्य पक्ष की और चलें यहाँ उनकी प्रतिभा का एक दृष्टान्त लिखना उचित लग रहा है । वकील बन कर कुमार शिव कोटा के एक प्रसिद्ध वकील  के चेंबर में काम सीखने लगे लेकिन जब 'कुमार शिव' को वकालत में आगे बढ़ने के अधिक मौक़े नहीं नज़र आये तो उन्होंने हिंदी में प्रथम श्रेणी में एम.ए. कर किसी सरकारी कॉलेज में व्याख्याता बनने का विचार किया । हिंदी विभागाध्यक्ष ने ये सोचकर कि एक कॉमर्स ग्रेजुएट जिसने हिंदी कभी पढ़ी नहीं एम.ए. कैसे करेगा ! लिहाज़ा उन्हें हिंदी में एडमिशन देने से मना कर दिया । भला हो प्रिंसिपल साहब का जिन्होंने सिर्फ़ इसलिए कि ये लड़का अपने कॉलेज की क्रिकेट टीम का कप्तान था ; उन्हें विभागाध्यक्ष के विरोध के बावजूद एडमिशन दे दिया । वकालत की ट्रेनिंग और हिंदी की कक्षाएं साथ-साथ चलने लगीं । आख़िर वही हुआ जिसका डर था वकालत की ट्रेनिंग के चलते एम.ए. की कक्षाएँ  छूटने लगी और उनकी अटेंडेंस फ़ाइनल परीक्षा में बैठने के स्तर से कम हो गयीं । 'कुमार शिव' साहब के विभागाध्यक्ष एवं प्रिंसिपल को दिए इस आश्वासन पर भरोसा कर कि वो परीक्षा में अवश्य उत्तीर्ण होकर दिखाएंगे ; उन्हें परीक्षा में बैठने दिया । परिणाम आने पर विभागाध्यक्ष हैरान रह गए जब 'कुमार शिव ' न केवल प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए बल्कि कक्षा में प्रथम भी रहे।         

आँखें पगडंडी पर रख दी दीया जलाया देहरी पर, 
तुमने मेरे इंतज़ार में क्यों लट में उलझाई रात ?

तुमने इस जीवन में सौंपे यादों के कुछ बीज हमें,
हमने आँखों के गमलों में इनसे ही महकाई रात 

पलकें हैं बोझिल-बोझिल और चेहरे पर सिंदूर लगा,
सुबह पूछती है सूरज से बोलो कहाँँ बिताई रात 

बड़े वकील के यहाँ ट्रेनिंग के दौरान रोज़ अदालतों के चक्कर और साथ ही हिंदी में एम.ए. फ़ाइनल की तैयारी चलती रही । आख़िरकार उन्होंने हिंदी से एम.ए. प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और वकालत को छोड़-छाड़ कर विश्वविद्यालय में व्याख्याता बनने के ख़्वाब देखने शुरू कर दिए लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था । अचानक उनके हाथों एक दिन एक ऐसा मुक़दमा लगा जिसमें उनके जीतने की और ग़रीब मुवक्किल की ओर से केस लड़ने पर उससे कोई पैसे मिलने की उम्मीद नहीं थी । उन्होंने मुक़दमा लड़ा और नामी-गिरामी सरकारी वकील को पटखनी देते हुए उसे शान से जीत लिया । उनकी पैरवी से ख़ुश होकर जज ने उन्हें अपने कैबिन में बुला कर कहा,"वन डे यू विल रीच द टॉप , दिस इज माई प्रिडिक्शन ।" जज साहब के इस वाक्य से मिले हौसले ने उनके व्याख्याता बनने की सोच को सदा के लिए भुला दिया ।     

थामने कल जो चले थे रोशनी की उंगलियाँ,
हाथ में लेकर खड़े हैं तीरगी की उंगलियाँ 

जा रहा है शाम को सूरज किनारा छोड़कर, 
हिल रही है देख कर उसको नदी की उंगलियाँ 

आज इसका चप्पा चप्पा खून से है तर-ब-तर,
किन फ़सादोंं में कटी हैं इस गली की उंगलियाँ 

वकालत के साथ- साथ राजनीति में भी उनका दख़ल बढ़ने लगा और प्रदेश कांग्रेस पार्टी में उनकी साख बढ़ने लगी । इसी दौरान जयपुर से सहायक जनसम्पर्क अधिकारी के पद पर देश के प्रसिद्ध कवि 'तारादत्त 'निर्विरोध' कोटा ट्रांसफर हो कर आये । उनसे मित्रता के बाद 'कुमार शिव' का काव्य-प्रेम परवान चढ़ा । पारिवारिक गोष्ठियों से शुरू हुआ उनका काव्य-सफ़र अखिल भारतीय कवि-सम्मेलनों तक जा पहुंचा । कोटा में ही नहीं देश के अन्य भागों से भी उन्हें कवि-सम्मेलनों में काव्य-पाठ के निमंत्रण आने लगे । उनका नाम देश के काव्य-प्रेमियों में सम्मान से लिया जाने लगा ।  ये सब होते हुए भी उनके मन में देश की सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक-पत्रिका  'धर्मयुग' में अपनी रचना को स्थान न मिल पाने की कसक थी । धर्मयुग के संपादक श्री 'धर्मवीर भारती' उनकी हर रचना को खेद-पूर्वक लौटा देते थे । युवा पाठक शायद न जानते हों लेकिन उस दौर में 'धर्मयुग' में आपकी रचना का छप जाना आपके उच्च-कोटि के लेखक होने का प्रमाण हुआ करता था । आख़िर 'कुमार शिव' साहब की मेहनत रंग लायी और 1973 में उनका गीत 'सांझ निर्वसना' धर्मयुग में छप ही गया ।  
            
धूप के साधक तिरस्कृत हो गए,
तिमिर के चारण पुरस्कृत हो गए 

क्या समय बदला कि जल थे जो कभी, 
कुछ हुए नवनीत, कुछ घृत हो गए

जब चली पछुआ अँँधेरा बज उठा,
झील के सब तार झंकृत हो गए 

प्याज कच्चे और रोटी ज्वार की,
मिल गई तो लोग कृत-कृत हो गए

'धर्मयुग' में फिर वो निरंतर छपते रहे और उनकी प्रतिष्ठा को चार चाँद लगते रहे । कोटा में उनकी भेंट वहां के अज़ीम शायर जनाब 'अक़ील शादाब' साहब से हुई और उनसे उन्होंने शायरी, ख़ासतौर से ग़ज़ल कहने के गुण सीखे ; इस प्रकार गीत-ग़ज़लों से लैस हो कर वो जिस कवि सम्मेलन में जाते अपनी धाक जमा लेते । उनकी लेखनी सतत चलती रही और वो प्रसिद्ध कवि श्री वीर सक्सेना, बृजेन्द्र कौशिक ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार, कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ,गोविन्द व्यास, सोम ठाकुर, कन्हैया लाल नंदन, हरिराम आचार्य, ताराप्रकाश जोशी, रमानाथ अवस्थी, बालस्वरूप राही, कुबेर दत्त, गोपाल दास 'नीरज' तथा हरिवंश राय बच्चन आदि जैसे मूर्धन्य रचनाकारों के साथ मंच साझा करते रहे ।     
गहन कूपों के निकट हैं,
दोस्तो! हम तो रहट हैं 

फाइलों में दब गए हम,
एक निर्धन की रपट हैं 

झुर्रियाँ मुख पर लिखी हैं,
हम समय के चित्रपट हैं 

भाग्य ही अपना बुरा है,
मित्र तो सब निष्कपट हैं 

मैं आपको जयपुर के सवाई मान सिंह मेडिकल कॉलेज में हुए एक कवि-सम्मेलन का क़िस्सा बताता हूँ । कवि सम्मेलन चल रहा था लेकिन जम नहीं रहा था । छात्र हुड़दंग के मूड में थे और बिना कवि की प्रतिष्ठा का ख़याल किये उन्हें हूट किये जा रहे थे । संचालक महोदय और कवि गण असहाय नज़र आ रहे थे । तभी कुमार शिव को रचना पाठ के लिए पुकारा गया । ऐसे माहौल में माइक पर जाना जोखिम भरा काम होता है । कुमार शिव उठे माइक पर जा कर हाथ जोड़े और बोले "मेरा ये गीत जॉन्डिस का पेशेंट है, आप देश के होनहार डॉक्टर हैं इसलिए ये गीत इलाज़ के लिए आप के सामने पेश कर रहा हूँ अब आप चाहे इसे मार दें या ठीक कर दें।" छात्र हंसने लगे, अधिकांश ने इस जुमले पर तालियाँ बजाई और सभी छात्र गीत सुनने को एकदम चुप हो गए। इसके बाद उन्होंने सस्वर वो गीत पढ़ा जो आगे चलकर उनकी पहचान बना और उसे उन्हें सभी कवि सम्मेलनों में श्रोताओं की फ़रमाइश पर सुनाना पड़ता था । गीत का शीर्षक था 'पीलिया हो गया है अमलतास को' जिसकी शुरुआत इन पंक्तियों से होती है,
"तुमने छोड़ा शहर, धूप दुबली हुई , पीलिया हो गया है अमलतास को, 
नींद आती नहीं है हरी घास को ।" उसके बाद छात्रों ने उनसे एक के बाद एक ढेरों गीत सुने और तालियाँ बजाई। इस तरह एक असफल-सा होता कवि सम्मेलन अत्यधिक सफल हुआ ।     

जानते थे दूरियों के सख़्त नियमों को मगर,
आपकी नज़दीकियाँँ हम आदतन बुनते रहे

काश वो ये सोचते, जाना उन्हें भी एक दिन,
ज़िंदगी भर दूसरों का जो कफ़न बुनते रहे 

ठोकरें लगती रहींं, छोड़े नहीं पर हौसले, 
आँँधियों में भी दिए अपने सपन बुनते रहे 

कवि-सम्मेलन के मंचो से उनका जुड़ाव बहुत समय तक नहीं रहा । वो अपनी आत्मकथा 'वक़्त ने लिखा है मुझे' में लिखते हैं कि " कवि-मंचों  लोकप्रिय तो बनाया किन्तु मुझे आत्मसंतुष्टि नहीं मिली ।  मंचों पर सस्ती लोकप्रियता भुनाने की होड़ मची है और कविता शायरी के नाम पर जाने क्या-क्या परोसा जा रहा है. मेरा कविता लिखना छूटता नहीं है लेकिन मंच पर जाकर श्रोताओं की तालियाँ बटोरने में अब रुचि नहीं रही । इस देश या समाज में कविता की कितनी ही उपेक्षा हो ,जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है कविता मेरे अंतर्मन की ख़ुराक है " लोकप्रियता के शिखर से वापस लौटने का निर्णय लेना आसान नहीं होता जबकि लोग शिखर पर बने रहने के लिए कितने ही हथकंडे अपनाते हैं ।            
क्षण किसी के साथ महक के थे गुलाबों की तरह,
अब फफूँँदी छा गई उन पर अचानक सड़ गए 

फूल पलकों में सँजोकर रख लिए थे याद के,
दूरियों की धूप में झुलसे सभी फिर झड़ गए 

सोचते थे ढूंढ लेंगे ज़िन्दगी का हल कभी,
नोक वाले प्रश्न अनगिन रास्ते में अड़ गए 

'कुमार शिव' की ग़ज़लों की ये किताब विकास पेपरबैक्स, दिल्ली से सन 1991 में प्रकाशित हुई थी इसमें उनकी लगभग 100 ग़ज़लें संकलित हैं । इस किताब के बाजार में मिलने की संभावना क्षीण ही है अलबत्ता आप इस किताब के शायर रिटायर्ड जज श्री 'कुमार शिव' साहब  जो अब जयपुर शहर के निवासी हैं, आप उनके मोबाइल नम्बर 9829051118 पर कॉल कर उन्हें इन लाजवाब ग़ज़लों के लिए बधाई दे सकते हैं और उनकी कालजयी कवितायेँ 'अमलतास' और उनका चाँदनी पर लिखा अद्भुत गीत 'गोरी लड़की' सुनने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं । 
आख़िर में, उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शे'र पढ़वाता चलता हूँ :-

तुमने छोड़ा है गाँव सावन में,
मौसमी आँँख से झरे बादल

नभ के चौड़े-सपाट सीने से,
सट गए आज छरहरे बादल 

देख लो खिलखिला रहे कैसे,
धूप में श्वेत मसखरे बादल 

देखकर निर्वचन दुपहरी को,
आह भरते हैं छोकरे बादल

36 comments:

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत सुन्दर आलेख।

कविता रावत said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

उपयोगी पोस्ट।

तिलक राज कपूर said...

क्षण किसी के साथ महके थे गुलाबों की तरह,
अब फफूँँदी छा गई उन पर अचानक सड़ गए

फूल पलकों में सँजोकर रख लिए थे याद के,
दूरियों की धूप में झुलसे सभी फिर झड़ गए

सोचते थे ढूंढ लेंगे ज़िन्दगी का हल कभी,
नोक वाले प्रश्न अनगिन रास्ते में अड़ गए।

वाहः, क्या बात है।

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

हर सोमवार को आपकी पोस्ट की निरन्तरता प्रशंसनीय है।

Unknown said...

बहुत सुंदर आलेख न केवल "कुमार शिव" के जीवन संघर्ष को साकार किया वरन उनके उत्कृष्ट लेखन से सभी को रुबरु कराया। नीरज जी सचमुच आनंद आ गया पढ़ कर

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद सुशील जी

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद कविता जी

नीरज गोस्वामी said...

जय जय कपूर साहब

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद भाई...बल्ली की कृपा लगाए रखना...

नीरज गोस्वामी said...

बहुत धन्यवाद जी

नीरज गोस्वामी said...

"पीलिया हो गया है अमलतास को"
मुहब्बत के जज़्बात की इस क़दर ख़ूबसूरत अक़्कासी .....वाह . शाइरी इसी हस्सास कारीगरी का तकाज़ा करती है....और आपका अन्दाज़े पेशकश लाजवाब
दिली मुबारकबाद सर

ऐ एफ नज़र

नीरज गोस्वामी said...

Extraenously fantastic story of struggle of justice Shiv Kumar sharmaji & his extra ordinary poetry.🙏👌🙏

Naveen Srivastava

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद
अपनी एक और उत्कृष्ट रचना के माध्यम से रिटायर्ड जज श्री शिव कुमार जी से और अनकी उत्कृष्ट गजलों/ रचनाओं से रूबरू कराने हेतु आपका हार्दिक आभार

चन्द्र मोहन गुप्ता
जयपुर

नीरज गोस्वामी said...

कुमार शिव अच्छे ग़ज़लकार रहे हैं.. लेकिन पिछले तीन दशकों में किसी गहरी मूर्छा में चला गया है उनका रचनाकार.. इसलिए लोग उन्हें भूलते भी जा रहे हैं.. आपने अपने इस आलेख के जरिए उनके जीवन संघर्षों और उनकी रचनाओं के कुछ बेहतरीन टुकड़े प्रस्तुत कर उनके रचनाकार को पुनर्नवा कर दिया है ...आपका हार्दिक आभार

विनय मिश्र
अलवर

नीरज गोस्वामी said...

नीरज जी,
सादुवाद,
बहुत प्यारा आलेख, बढ़िया जानकारी सहित, मन बहुत ख़ुश हुआ । आपका एक और संग्रह भी निकला था ना, वो नज़र नहीं आया,यहाँ,,,
आपके कार्य की जितनी प्रशंसा की जाए, कम होगी, इसलिए इतना ही कहूँगा, आपने पहले संपर्क में ही मेरा दिल जीत लिया है,,,,आपका बहुत-बहुत आभार,,,,,नदीम

नंद किशोर पगारे

नीरज गोस्वामी said...

शानदार आलेख नीरज जी आनंद आ गया अगले लेख का इंतजार रहेगा। सादर

नरेंद्र निर्मल
भरतपुर

ओम प्रकाश नदीम said...

बहुत ख़ूब। मज़ा आ गया।

नीरज गोस्वामी said...

Dear Neeraj ji
Please excuse me for responding in English as I don't know how to type in Hindi.
I hope you would bear with me.
I have just read your write-up for the first time.

Your excellent write-up on Shri Kumar Shiv is remarkable and as such deserves highest appreciation
His poetry is the poetry of the common man
It needs detailed analysis.
Wish you all the best.

Regarding Kumar Shivथ

Unknown said...

Sir aap mahan ho..aap jiwo hajaru sal,...aapke gyan k sawarth k liye..hum jasu par kirpa hogi 👏👏👏













Amit Thapa said...

जस्टिस शिव कुमार शर्मा जी  का नाम डॉक्टर कुमार विश्वास से कई बार उनके कथन और कहन में सुना था पर पढ़ा आज पहली बार आपकी कलम से, खैर ये बात तो पूर्णतया सही है की भाषा किसी की एक धर्म की मलकियत नहीं है, भाषा इंसानो की सहूलियत के हिसाब से ही चलती है एक छोटा सा उद्धाहरण है मेरे पास
"एक मक़ान के एक कमरे में एक गोरा चिट्टा आदमी और एक नन्हा मुन्ना बच्चा नाश्ता करने के लिए बैठे, बावर्ची नाश्ता लाया, नाश्ता करने से पहले एक बाल्टी पानी से नहा लिए, नाश्ते में उड़द   की दाल और टोस्ट था, नाश्ता करने के बाद वो उठा चिक हटाई, संदूक खोला, संदूक में पिस्तौल निकाला, दिवार पे टंगी बन्दूक ली और चला गया बच्चा बेबस देखता रहा"अब इसमें से कौनसा ऐसा शब्द हैं जो किसी को समझ ना आया हो, ये पूरा वाक़या अरबी, इटेलियन, पुर्तगाली,पंजाबी, गुजराती, इंग्लिश, तुर्की, तमिल और संस्कृत के शब्दों से बना है।

दुष्यंत जी ने जब हिंदी में गज़ल कहनी शुरू करी थी तो उनके आलोचकों ने उनकी बड़ी निंदा की थी की दो विधाओँ का घालमेल कर दिया है, तो दुष्यंत जी ने अपने कहन के तरीके से ही जवाब दिया था 

मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ  

तो वास्तव में गज़ल ऐसी ही होनी चाहिये जो भाषा के लिखने पढ़ने बोलने वालों को आसानी से समझ आ जाये जैसे राजस्थानी के लोकप्रिय कवि दुर्गादान गौड़  जी की कुछ पंक्तियाँ हैं 

तु इतरी खूब खुले छे
जेसे पाणी मे चाँद घुले छे
तेरी चाल है असि मिजाजण ...थाली मे मूंग रले छे।
तु कितनी खूब खुले छे ...पाणी मे चाँद घुले छे


अब ये तो मुझ जैसे को जो सिर्फ ६ ७ साल से राजस्थान घूम रहा है उसे भी आसानी से समझ आ सकती है तो बाकियों का तो कहना ही क्या

अब ऐसे ही नीरज जी जैसे कला के पारखी जौहरी एक बार फिर एक नगीना ढूंढ लाये है और मेरे जैसे पढ़ने वालों पे उनका ये एक और उपकार,
अब जस्टिस शिव कुमार शर्मा जी की आसानी से समझ में आने वाली जिंदगी से जुडी गज़ल और उसके अश’आर और उस पे नीरज जी की लेखनी का जादू बस कमाल ही कमाल हैं

एक बात मानने वाली है जिन्होंने अपनी जाती जिंदगी में दुःख तकलीफें देखी हो ज्यादातर वो ही लोगों के दिलों और जिंदगी से जुड़े शेऱ कह पाते हैं  

गीली लकड़ी, चूल्हा-चौका चिमटा-बेलन और धुआँ,
भीगा अंजन, बजते कंगन, यह गोरा तन और धुआँ 
यादें पीहर की सुलगी हैं धधक उठी है सीने में,
आँखों से बाहर निकला है मन का चंदन और धुआं 
द्वार-द्वार पर कढ़े माँँडने आँँगन-आँँगन रंगोली,
कमरों में लेकिन मकड़ी के जाले, सीलन और धुआँ  

ये गज़ल शायद उन्होंने अपने घर की परिस्थितियों को देख कर ही कही हो

फाइलों में दब गए हम,
एक निर्धन की रपट हैं 

और ये शेऱ हमारी पूरी व्यवस्था पे एक चोट हैं, वास्तव में ये ही शायरी हैं जो कुछ आसपास देखा, सुना, समझा उसे ही शब्दों के माध्यम से रूप दे दिया क्यों ना ये शेऱ हमारे राजनेता, हमारे भ्र्ष्ट अधिकारी पढ़े और समझे की मात्र २ पंक्तियों और कुल जमा ८ शब्दों से एक शायर कहा चोट कर रहा हैं और कितनी गहरी चोट कर रहा है

आपका एक बार फ़िर से तहेदिल शुक्रिया

SATISH said...

Waaaaah waaaaah ... Neeraj Sahib ... Bahut khoob ... Ek se badhkar ek ashaar padhwane ke liye bahut shukriya ... Hamari janib se dili Mubarakbaad qubool farmaayen ... Raqeeb

mgtapish said...

सुंदर, दिलचस्प प्रस्तुति बधाई नीरज जी वाह वाह
मोनी गोपाल 'तपिश'

Onkar said...

सुन्दर प्रस्तुति

नीरज गोस्वामी said...

आप की पोस्ट पढ़ कर माननीय श्री कुमार शिव जी के जीवन-संघर्ष, व्यक्तित्व तथा कृतित्व से और अधिक परिचित होने का सौभाग्य मिला। स्व० श्री तारादत्त 'निर्विरोध' और उन की मित्रता का भी परिचय मिला। मैं भी श्री कुमार शिव के पुराने प्रशंसकों में हूँ। उन के उत्तम स्वास्थ्य की मंगल-कामना करते हुए उन्हें तथा यह लेख लिख कर ब्लॉग पर डालने हेतु आप को प्रणाम करता हूँ।

Anil Anwar
Jodhpur

नीरज गोस्वामी said...

Shukriya ji

नीरज गोस्वामी said...

जियो अमित बाबू.?आपके कमेंट ने लिखना सार्थक कर दिया

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया सतीश जी

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद आदरणीय

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया भाई

Himkar Shyam said...

वाह वा..वा... बहुत अच्छे शेर हैं। सभी एक से बढ़कर एक हैं। बेहतरीन समीक्षा...।

Ashish Anchinhar said...

निश्चित तौर पर Kumar Shiv जी की गजलें मौन में मुखरित हुई है। और इनके दोहे और भी कमाल के हैं

भाग्य ही अपना बुरा है,
मित्र तो सब निष्कपट हैं

Dinesh Thakur said...

आपने बहुत उम्दा लिखा है नीरज जी। माननीय कुमार शिव जी की ग़ज़लें इधर-उधर पढ़ने को मिलती रही हैं, आपकी इस पोस्ट से उनके संग्रह की जानकारी पाकर ख़ुशी हुई। कुमार शिव जी नाम के अनुरूप शिव हैं। वे दुःख-दर्द पीकर अमृत के रूप में प्रस्फुटित करते हैं। उनकी ग़ज़लें पढ़ कर लगता है कि उन्होंने ग़ज़ल का सच पा लिया है। अपने आसपास के, नज़दीक के रिश्तों और माहौल के प्रति सहज विकलता उनकी ग़ज़लों में महसूस होती है। वे बेहद सरल परिभाषा बन कर ग़ज़ल के पास जाते हैं और दूसरों को भी ले जाते हैं। क़लम को इस तरह सरल बनाना बहुत मुश्किल काम है। कुमार शिव जी के लिए अनंत शुभ कामनाएँ। उनके संग्रह पर इस ख़ूबसूरत तहरीर के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया। हमेशा ख़ुश रहिए।

नीरज गोस्वामी said...

आभार दिनेश जी इतने खूबसूरत कमेंट के लिए

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया आशीष भाई...

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद भाई