Monday, September 10, 2018

किताबों की दुनिया - 194

सिर्फ कमरे में बिछा कालीन देखा है 
आपने कालीन की दुनिया नहीं देखी
 *** 
अजब मेरी कहानी है कि जिसमें 
कहीं भी ज़िक्र मेरा ही नहीं है 
 *** 
तूने मुझे जो अच्छा बताया तो ये हुआ 
 अपनी कई बुराइयाँ फिर याद आ गईं 
 *** 
तराशी हुई नोक पर है सियासत 
 जिसे चुभ रही है वही बेखबर है
 *** 
सर उठा कर उम्र भर लड़ता रहा, अब क्या हुआ 
 जीतने के वक्त ही क्यों नीची गर्दन हो गई 
 ***
 बड़े आराम से हैं प्रश्न सारे 
 फ़ज़ीहत उत्तरों की हो रही है 
 *** 
मुझे जो सुख मिला है क्या बताऊँ 
 घड़ी जो बंद थी उसको चला कर
 *** 
मैं घर में अब अकेला हूँ बताने 
 मैं सोशल मीडिया पर छा रहा हूँ 
 *** 
कोई सीखे राह बनाना इनके रस्ते पर चलकर 
 मरने की सौ विपदाओं में हैं जीने के कौशल ख़्वाब 
 *** 
इक हरेपन की नई उम्मीद तो जागे 
 जेठ में चल चिठ्ठियां बरसात की बाँटें 

 आज से लगभग 50 साल पहले एक फिल्म आयी थी "तलाश " जिसमें मन्ना डे साहब का गाया और सचिन देव बर्मन दा के संगीत से सजा गाना "तेरे नैना तलाश करें जिसे, वो है तुझी में कहीं दीवाने " बहुत प्रचलित हुआ। इस गाने में एक बहुत सच्ची बात को आसान लफ़्ज़ों में कह दिया गया था जबकि इसी बात को अधिकतर सूफी संतों ने में भी कहा है, लेकिन क्या है न की फ़िल्मी गानों का असर हम पर देर तक रहता है इसलिए ये याद रहा। हम गाना सुन लेते हैं सूफी संतों को पढ़ लेते हैं लेकिन करते वो ही हैं जिसे हम ठीक समझते हैं ,तभी आप देखिये हर किसी को किसी न किसी चीज की तलाश है और हर कोई उसे अपने भीतर न ढूंढते हुए बाहर ढूंढता है। तलाश चाहे ज़िन्दगी की हो ,ख़ुशी की हो ,शांति की हो ,रास्ते की या किसी मंज़िल की हो, ईश्वर की हो या फिर अपनी प्रेमिका की और कुछ नहीं तो स्वर्ग की या फिर मोक्ष की-तलाशा उसे बाहर ही जाता है। हम सभी का जीवन एक लम्बी तलाश ही तो है। इस तलाश से हासिल क्या होता है ये बहस का मुद्दा हो सकता है इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं.

 जो डूबा है वही तारा तलाशूँ 
 मैं अपने में तेरा होना तलाशूँ 

 जवाबों से गई उम्मीद जबसे 
 सवालों में कोई रस्ता तलाशूँ 

 तुम्हारे लौटने तक भी तुम्हीं हो 
 ख़ुदा का शुक्र है मैं क्या तलाशूँ 

 मेरा चेहरा अगर मिल जाए मुझको 
 तो फिर गुम है जो आईना तलाशूँ 

 हमारे आज के शायर जनाब "विनय मिश्र" जी ने इस सतत तलाश को अपनी ग़ज़ल की किताब " तेरा होना तलाशूँ " में जगह जगह, अलग अलग अंदाज़ और खूबसूरत लफ़्ज़ों से कुछ इस तरह पिरोया है कि लगने लगता है ये तलाश सिर्फ उनकी अपनी नहीं बल्कि कहीं न कहीं हम सभी की है। ये बात ही उन्हें विशिष्टता प्रदान करती है। आज के इस दौर में जहाँ अंधाधुन्द ग़ज़लें कही जा रही है वहाँ अपनी अलग पहचान बनाना आसान नहीं। अति किसी भी क्षेत्र में हो बुरी होती है ,आपने देखा ही होगा कि बाढ़ में चढ़ी नदी का पानी हमेशा आम बहने वाली नदी के पानी से गदला होता है। ये ही हाल आज कल ग़ज़ल लेखन का हो गया है. सोशल मिडिया पर ग़ज़लों का उफान सा आया हुआ है। पता नहीं क्यों लोगों को ऐसा लगता है कि अगर उन्होंने ग़ज़ल नहीं कही तो कहीं आने वाले समय में ये विधा ही ख़तम न हो जाय और ये कि ये विधा उनके कारण ही जीवित रह पाएगी। उन्हें ये नहीं पता कि वो ही ग़ज़ल की जड़ में मठ्ठा डाल रहे हैं। दरअसल ग़ज़ल अभ्यास से नहीं अनुभव से आती है। अभ्यास से आप ग़ज़ल के नियमों में परिपक़्व हो सकते हैं लेकिन उसमें डाले जाने वाले भाव, अनुभव से आते हैं।

 बांटने वाली कोई जब तक हवा मौजूद है 
 हम गले मिलते रहें पर फासला मौजूद है 

 और कुछ ज्यादा संभलकर और कुछ हो कर सजग
 भीड़ में जो चल सको तो रास्ता मौजूद है 

 आंसुओं का इक समंदर चुप्पियों का एक शोर 
 इस अकेले में ग़ज़ब की सम्पदा मौजूद है 

 विनय जी का जन्म उत्तर प्रदेश के देवरिया में 12 अगस्त 1966 को हुआ , अब आप ये मत पूछना कि देवरिया कहाँ है, क्यों की अगर आप पूछेंगे तो मुझे बताना पड़ेगा कि वो गोरखपुर से कोई 50 की.मी की दूरी पर है। देवरिया में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ,वाराणसी को चुना और वहां से एम्.ऐ.(हिंदी ) और फिर 'तुलसी दास का रचनात्मक दायित्व बोध पर पी.एच.डी की डिग्री हासिल की ।अब कोई हिंदी में एम.ऐ.करे और हिंदी की किसी विधा में कलम भी चलाये ऐसा कोई नियम तो नहीं है लेकिन अक्सर देखा गया है कि हिंदी या उर्दू में डिग्रियां हासिल करने वाले उस भाषा की किसी न किसी विधा में लिखने से अपने आपको रोक नहीं पाते। लिहाज़ा लिखते हैं ,कुछ का लिखा पढ़ा जाता है और अधिकतर का लिखा किसी का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाता। कारण साफ़ है किसी भाषा का ज्ञान होना अलग बात है और उस भाषा में कुछ लिखना अलग। भाषा सम्प्रेषण का माध्यम मात्र है लेखन के लिए आपके पास भाव होना जरूरी है और अगर आप भाषा के साथ साथ भाव भी रखते हैं तो ही आप 'विनय मिश्र ' बन सकते हैं।

 राजमहलों के इरादे थे बड़े लेकिन मुझे 
 झुग्गियों का उन इरादों में दख़ल अद्भुत लगा 

 सब सफल होने की चाहत में लगे हैं रात दिन 
 इसलिए सबको मेरा होना विफल अद्भुत लगा 

 जो नहीं है उसका होना आज मुमकिन ही नहीं
 प्रश्न जैसा ही मिला उत्तर सरल अद्भुत लगा 

 विनय जी ने अपना साहित्यिक सफर कविता लेखन से शुरू किया। वाराणसी प्रवास के दौरान उनकी मुलाकात ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर उस्ताद शायर जनाब 'मेयार सनेही " साहब से हो गयी। उसके बाद उनका हाल वो हुआ जो लोहे का पारस पत्थर के स्पर्श से होता है। सनेही साहब ने उन्हें ग़ज़ल के व्याकरण के साथ साथ वो बारीकियां भी समझायीं जो एक साधारण शायर को असाधारण बनाती हैं। उन्होंने ने ही 'विनय' जी को ऊँगली पकड़ कर अपने पाँव पर खड़े होना और फिर चलना सिखाया। किसी अच्छे गुरु का मिलना किस्मत की बात होती है ,विनय जी किस्मत के धनी निकले। विनय जी भी अपनी मेहनत और लगन से इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि उनके कलाम को पढ़ कर उस्ताद को गर्व हो।
(मेयार सनेही जी का जिक्र किताबों की दुनिया-82 में हो चुका है)

 उस शहर में ऊंचे ऊंचे थे मकान 
 ज़िन्दगी का एक भी कमरा न था 

 जो उदासी में सुनाया था तुम्हें 
 कल ख़ुशी में क्या वही किस्सा न था 

 याद आने के बहाने थे कई 
 भूलने का एक भी रस्ता न था 

 विनय जी पहली पुस्तक ' सूरज तो अपने हिसाब से निकलेगा" में उनकी कवितायेँ संगृहीत हैं। उसके बाद उनका ग़ज़ल संग्रह "सच और है" मंज़र-ऐ-आम पर आया और बहुत मकबूल हुआ। उन्होंने मंजू अरुण की रचनावली का संपादन भी किया है जो 'पलाश वन दहकते हैं' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। 'तेरा होना तलाशूँ " उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह है जो अप्रेल 2018 में शिल्पायन बुक्स ,शाहदरा ,दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इस संग्रह को विनय जी ने 'हिंदी कविता में ग़ज़ल विमर्श को आगे बढ़ाने वाले ख्यातिलब्ध जनधर्मी आलोचक डा. जीवन सिंह जी को समर्पित किया है। विनय जी की कवितायेँ ,गीत ,नवगीत दोहे ,मुक्त छंद और ग़ज़लें देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहती हैं।

 ये बुरी बात है सियासत में 
 आदमी होना फिर भला होना 

 सोचकर देख कैसा लगता है 
 सूखते ज़ख्म का हरा होना 

 मंज़िलें एक जब नहीं सबकी 
 राह में तब किसी का क्या होना 

 विनय जी की ग़ज़लें विविधता लिए हुए हैं। उन्होंने सामाजिक सरोकारों पर इंसानी फितरत पर राजनितिक परिपेक्ष्य पर कलम चलायी है। इनकी ग़ज़लें हमारे आज के युग की नुमाइंदगी करती हैं। सीधी सरल भाषा में बात करना वो भी ऐसी जो सबकी हो कई बार दोहराई गयी हो उसे ही सबसे हट कर कहना बहुत मुश्किल काम होता है। विनय जी इस काम को अधिकतर बहुत खूबी से इस किताब में कुशलता पूर्वक करते नज़र आते हैं। मुझे लगता है कि वो आत्ममुग्धता के शिकार नहीं हैं वो तालियां बटोरने या सस्ती लोकप्रियता के लिए ग़ज़लें नहीं कहते। उन्हें जब जो बात लगती है कि कहनी ही चाहिए शायद तभी वो उसे शेरों में ढालते हैं। आज के दौर में ऐसा करने वाले वो अद्भुत इंसान हैं।

 कुटिलता का प्रबंधन है चतुर्दिक 
 सरलता का कोई पूजक नहीं है 

 दुखों के एक ध्रुव पर हैं खड़े हम 
 यहाँ बस बर्फ है चकमक नहीं है

 हमारे दौर का संकट न पूछो
 दिशा तो है दिशासूचक नहीं है 

 विनय जी ग़ज़लों का स्वर खुरदरा है वो अपनी बात को मखमल का मुलम्मा चढ़ा कर पेश नहीं करते। उनमें काले को काला कहने का साहस है इसीलिए वो ये जोखिम उठा लेते हैं। प्रसिद्ध समीक्षिका "रंजना गुप्ता" लिखती हैं कि " प्रतिपक्ष का सारथी बनकर जीवन समर के मध्य रथ खींचना, विनय मिश्र को बख़ूबी आता है। वे अपनी ग़ज़लों के बहाने से दुनिया भर की तकलीफ़ों और तजुर्बों का बयान करते हैं। बहुत-से मसलों पर उन्होंने बेबाक़ी से बात की है। जनसंघर्ष, सर्वहारावर्ग, बाज़ारवाद, राजनीतिक कुटिलता, अवसरवाद के साथ ही बच रहा अकेलापन, प्रेम की बेचारगी और निर्मम समय की दिनों-दिन बढ़ती दुश्वारियों को उन्होंने बहुत शिद्दत से अपनी ग़ज़लों में रेखांकित किया है

 मैं लौटा हूँ घर की तरफ हाथ खाली
 मैं जैसा हूँ वैसा ही संसार निकला 

 शहर घूमकर शाम तक गाँव लौटा 
 वो माटी का माधो समझदार निकला 

 कई याद की सीपियों में पला जब 
मेरा दर्द होके चमकदार निकला

 'शब्द कारखाना' ( हिंदी त्रैमासिक ) के ग़ज़ल अंक के अतिथि संपादक विनय जी इन दिनों राजकीय कला स्नातकोत्तर महाविद्यालय अलवर (राज.) के हिंदी विभाग में असोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप शिल्पायन बुक्स दिल्ली से 011-22826078 पर संपर्क करें और विनय जी को 0144-2730188 अथवा 9414810083 पर संपर्क कर बधाई दें। एक अच्छे और सच्चे शायर की हौसला अफ़ज़ाही करना आपका फ़र्ज़ बनता है। इस किताब में संगृहीत विनय जी की 105 ग़ज़लों के सभी शेर कुछ न कुछ कहते जरूर हैं लेकिन सभी को यहाँ प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। आपसे अनुरोध है कि आप इस किताब को पढ़ें और फिर विनय जी को उनके लाजवाब कलाम के लिए दिल से दुआ दें। चलने से पहले उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता हूँ :

 दुखों से बात कर ली जी घड़ी भर हो गया हल्का 
 नहीं तो कौन इस मेले में अपना यार लगता है 

 कभी यादों के झुरमुट में जहाँ चौपाल सजती थी 
वहीँ मैं देखता हूँ अब खुला बाजार लगता है 

 ये मेरा दिल तुम्हारी खुशबुओं का एक गुलशन था 
 समय बदला है तो गुलशन ये कांटेदार लगता है

26 comments:

Dr.R.Ramkumar said...

मुझे जो सुख मिला है क्या बताऊँ
घड़ी जो बंद थी उसको चला कर


ये शेर मुझसे ताल्लुक रखता है इसलिये लाजवाब।

एक यह शेर भी माशाल्लाह---


बड़े आराम से हैं प्रश्न सारे
फ़ज़ीहत उत्तरों की हो रही है।



भाई नीरज भाई!! हफ्ते की ज़रूरत हो जाना कोई आपसे सीखे!!

देवमणि पांडेय Devmani Pandey said...

विनय मिश्र ग़ज़ल को समर्पित एक सजग रचनाकार हैं। उन्होंने हिंदी ग़ज़ल को आधुनिक लिबास पहनाकर उसे सामाजिकता से जोड़ने का सराहनीय काम किया है। बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

dr.pradeep kumar said...

विनय मिश्र जी की गजलों को ही नही मैं कई वर्षों से उनकी लगभग हर विधा को सुन रहा हूँ। वे लगातार नए औऱ बेहतर की तलाश में रहते हैं। सतत लेखन, पठन और चर्चा करते रहने वाले विनय सर पर नीरज जी आपने बहुत अच्छा लिखा है। आपको बहुत बहुत बधाई।

अरुण चन्द्र रॉय said...

बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-09-2018) को "काश आज तुम होते कृष्ण" (चर्चा अंक-3084) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Dr. Lovelesh Dutt said...

विनय मिश्र की ग़ज़लों पर आपकी प्रतिक्रिया सचमुच सराहनीय है। इतने सुंदर शब्द संयोजन के लिए आपको साधुवाद। विनय मिश्र आशा और विश्वास के फूल खिलाने वाले ग़ज़लकार हैं। वे विषमताओं में शांत बैठने के स्थान पर संघर्षरत रहने की सीख देते हैं। उनकी ग़ज़लों में अभिव्यक्त एक संघर्षशील व्यक्ति का स्वर साफ सुनाई देता है। वे कहते हैं
लड़ाई हार भी जाऊँ मगर संघर्ष बोलेगा
मेरी ग़ज़लों में गूँगा देश भारतवर्ष बोलेगा

डॉ लवलेश दत्त, बरेली

Dr. Lovelesh Dutt said...
This comment has been removed by the author.
Kuldeep said...

बहुत उम्दा

Unknown said...

वह रंजिश नहीं अब प्यार में है
मेरा दुश्मन नए किरदार में है
यह शेर भी उनकी इसी किताब से है विनय मिश्र सिर्फ ग़ज़लें नहीं बल्कि जीवन को लिखते हैं जीवन के गहरे अनुभवों से आए एक-एक शेर उनमें पानी से बहने वाली भाषा दिल को छू जाती है ऐसी साहित्य की साधना करने वाले ग़ज़लकार आज कम ही है एक बहुत उम्दा किताब आई है मेरी गुजारिश है कि आप लोग इसे अवश्य पढ़ें विनय मिश्र की किताब पर नीरज जी की इतनी अच्छी प्रतिक्रिया के लिए उन्हें साधुवाद उन्होंने बहुत ही सराहनीय कार्य किया है और विनय जी को पुनः बधाई।। ज्योत्स्ना प्रवाह वाराणसी

Dr. Kamran Khan said...

बहुत अच्छी समीक्षा। विनय मिश्र साहिब की ग़ज़लों का जवाब ही नहीं। उनका यह ग़ज़ल संग्रह मेरे पास है।
एक शेर अर्ज़ किया है
जिसे दर दर भटक कर ढूंडता था
मुझे अपने ही दिल में मिल गया वो

नीरज गोस्वामी said...

विनय मिश्र जी के सद्य:प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह "तेरा होना तलाशूँ " की बेहतरीन ग़ज़लों की समीक्षा श्री गोस्वामी जी ने बड़ी खूबसूरती से की है। चाक्षुष इतनी कि जिसने इस संग्रह को अभी तक नहीं पढ़ा है उसे भी यही आभास हो कि वह पूरी पुस्तक का आनंद ले रहा है।
ग़ज़लकार और समीक्षक दोनों को साधुवाद।
डॉ. डी.एम.मिश्र
सुल्तानपुर, उत्तरप्रदेश

नीरज गोस्वामी said...

विनय मिश्र युगधर्मी रचनाकार है उनकी ग़ज़ले पूरी कौम से संवाद करती है,मुखौटा धारण किये व्यक्ति के दोहरेपन के स्वरूप को बड़े ही संजीदगी से प्रस्तुत करने वाले विनय मिश्र अपने दो-टूक और बेलाग अंदाज़े-बयाँ के कारण आधुनिक ग़ज़लकारों में विशिष्ट पहचान रखते हैं।
डॉ. मीनाक्षी मिश्र
असिस्टेंट प्रोफेसर, वाराणसी (उ.प्र.)

नीरज गोस्वामी said...

[9/10, 15:24] Vinay Mishr Alwar: Neerajji kee sameeksha bahut sateek he.kuo na ho _ Vinay ji ka lekhan Gazal ka andaj he hee anootha.samsamyik,dil ko choone wali,janmanas se judi,sahaj kintu bhavo me utani hee gahri,pravahmayi he.Mai to lambe arse se unki prashansak hu.unhe bahut see badhai,shubhkamnaye. Behtreen sath ke liye.ek bar punah padhne ka man ho aaya.jyada kya likhoo.sahitya kee bahut gahri akal nahi he.vinay ji se bahut ummeede he.
Dr. Smita, proffesor of History

नीरज गोस्वामी said...

बेहतरीन कलाम.... सटीक तब्सिरा.... दिली
मुबारकबाद सर
A.F.Nazar

नीरज गोस्वामी said...

सर नीरज जी ने आपके ग़ज़ल संग्रह के बहाने आप पर, आपकी गजलों पर, आपकी रचना यात्रा पर बहुत अच्छा लिखा है। जिसके आप हकदार भी हैं। आपको एवं नीरज जी दोनों को बधाई।
Dr.Pradeep Prasanna

RAJA AWASTHI said...

विनय मिश्र अपने समय के महत्वपूर्ण कवि हैं। उनकी कहन का तेवर बहुत पैनापन लिये हुए है। अपनी रचना में हल्कापन उन्हें स्वीकार नहीं।
आपने उनके ताजा ग़ज़ल संग्रह पर मीमांसा प्रस्तुत कर इन ग़ज़लों को समझने में मदद की है। एतदर्थ आपका आभार, साधुवाद। एक अतिरिक्त बात यह कि यहाँ विनय मिश्र पर, उनके जीवन से सम्बंधित भी कुछ जानने को मिला। बहुत धन्यवाद आपको।

नीरज गोस्वामी said...

आदरणीय नीरज गोस्वामी जी ने बहुत अच्छी और पुस्तक पर पूरा शोध करके अपनी समीक्षा लिखी है इसके लिए वे प्रशंसा और बधाई के अधिकारी हैं साथ ही विनय जी को हार्दिक बधाई कि उनकी पुस्तक का मात्र तीन माह के भीतर ही दूसरा संस्करण प्रेस में है जो जल्दी ही उनके प्रसंशकों के हाथ में होगा।
'तेरा होना तलाशूँ' की प्राप्ति के लिए मेरे इस नंबर पर भी सम्पर्क कर सकते हैं- 08368310904

उमेश शर्मा, प्रकाशक, शिल्पायन बॉक्स, दिल्ली |

Ranjana Gupta said...
This comment has been removed by the author.
Ranjana Gupta said...


नीरज जी को बहुत बहुत बधाई..अपने शब्दों की गंगा से विनय मिश्र जैसे ग़ज़ल कार का अभिषेक करने के लिए ..चिर नूतन और चिर पुरातन संस्कृति के मध्य एक सेतु सा बँध जाता है..जब विनय जी की लेखनी की राग वीणा झंकृत होती हैं ...और परम आश्वस्ति का एक वितान सा तन जाता है ..हृदय के असीम आकाश पर ..धीरे धीरे सब कुछ संतुलित .सुमधुर लगने लगता है ..मुझे भी अपने ब्लाग में उद्धृत कर सम्मानित करने हेतु नीरज जी आपका धन्यवाद ..🌹🙏🏼

Amit Thapa said...

जब किसी शायर की बात करते है तो हर एक शायर अपनी ही फितरत का होता है गजल का होना या ना होना या गजल किस तरह की होगी ये शायर की फितरत पे ही निर्भर करता है। जैसा की नीरज जी ने लिखा है हर इंसान कुछ ना कुछ तलाश रहा है अब वो तलाश क्या है ये एक इंसान ही अच्छे से जान सकता है। किताबों की दुनिया के आज के शायर और उनकी किताब के बारे में बात करने से पहले अल्लामा इक़बाल की लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ पढ़ते है

क्यूँ ज़याँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ

नाले बुलबुल के सुनूँ और हमा-तन गोश रहूँ
हम-नवा मैं भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूँ

जुरअत-आमोज़ मिरी ताब-ए-सुख़न है मुझ को
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-ब-दहन है मुझ को

है बजा शेवा-ए-तसलीम में, मशहूर हैं हम
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मजबूर हैं हम
साज-ए-ख़ामोश हैं, फ़रियाद से मामूर हैं हम
नाला आता है अगर लब पे, तो माज़ूर हैं हम

विनय जी की शायरी ने मुझे इकबाल की इस शिकवा की याद दिला दी भले ही वो उन्होंने खुदा से की थी पर शायद विनय जी जैसे शायर के लिए सही है की जब देश समाज में दुःख दर्द हों ; अव्यवस्था फैली हो तो एक शायर कैसे चुप रह सकता है; ये कलम की ताक़त का ही कमाल है की उसे तलवार से भी तेज़ माना जाता जाता रहा है और अच्छी से अच्छी सरकारे भी इस ताक़त से डरती आयी है

अब किताब का नाम ही ऐसा है की इंसान अपनी ही तलाश की सोच में पड़ जाए

आंसुओं का इक समंदर चुप्पियों का एक शोर
इस अकेले में ग़ज़ब की सम्पदा मौजूद है

क्या गजब का शेर है; शब्दों में अंतर्विरोध पर मतलब में नहीं

जो नहीं है उसका होना आज मुमकिन ही नहीं
प्रश्न जैसा ही मिला उत्तर सरल अद्भुत लगा

बेहतरीन शेर; अपने आप में अनेकों अर्थ समेटे ये शेर बहुत कुछ कह जाता है

मैं घर में अब अकेला हूँ बताने
मैं सोशल मीडिया पर छा रहा हूँ

आज के इंसान की हक़ीक़त; सोशल मीडिया के जाल पे हजारों हज़ार दोस्त पर घर परिवार में........ अकेला बस अकेला बिलकुल तन्हा

इक हरेपन की नई उम्मीद तो जागे
जेठ में चल चिठ्ठियां बरसात की बाँटें

मन को भा गया ये शेर औरो का तो पता नहीं पर मुझे ये शेर बहुत बहुत पसंद आ गया; गर ये शेर मुशायरें में पढ़ा गया होता तो मेरे जैसा सुनने वाला तो बस मुकर्रर मुकर्रर ही करता रहे

ये तो ऐसे ही है जैसे
सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को
मिल जाये तरुवर की छाया

कुछ उम्मीद मिल जाये; कुछ तो जिंदगी में अच्छा हो जाये परेशानियों से भरे जीवन को कही बरसात की फुहार जैसी राहत तो मिल जाए

बांटने वाली कोई जब तक हवा मौजूद है
हम गले मिलते रहें पर फासला मौजूद है

एक देश; रहन सहन एक पर अलग क्या बस मजहब अलग और फासले कितने; भले ही कितना ही आपस में मिल कर रह ले या कितने ही नारे लगा की हम एक है पर फासले कही ना कही दिख ही जाते है; कितनी बखूबी से शायर ने बड़ी बात कह दी है।


दुखों से बात कर ली जी घड़ी भर हो गया हल्का
नहीं तो कौन इस मेले में अपना यार लगता है

कभी यादों के झुरमुट में जहाँ चौपाल सजती थी
वहीँ मैं देखता हूँ अब खुला बाजार लगता है

दोनों अश’आर बेहतरीन है शायद शायरी ऐसी ही होनी चाहिए जो आम आदमी की जुबाँ में आम आदमी से जुड़ी ही बात को सामने रख सके।
एक शायर और शायरी तब ही आगे बढ़ सकती है जब उसके सुनने वाले सामाइन को वो समझ में आ जाये।

खैर, नीरज जी का तहेदिल शुक्रिया की इतने बेहतरीन शायर से तआ'रुफ़ कराया और विनय मिश्र जी का साधुवाद करते हुए इस उम्मीद में की हमे ऐसी ही शेरों शायरी आगे भी पढ़ने को मिलती रहेगी।

Sarika Moondra said...

बहुत ही सुंदर आलेख

नीरज गोस्वामी said...

अजब मेरी कहानी है कि जिसमें
कहीं भी ज़िक्र मेरा ही नहीं है

या

बड़े आराम से हैं प्रश्न सारे
फ़जीहत उत्तरों की हो रही है

डॉ0 विनय मिश्र समकालीन हिंदी ग़ज़ल के अलबेले शायर हैं ।हिंदी ग़ज़ल को एक नया मुहावरा देने वाला यह शायर काशी की परंपरा का कबीर है ।इनके अशआर नए विचारों से लैस होते हैं पाठक को सहज ही चमत्कृत कर देते हैं, विषय में एक ताज़गी, कहन में एक बहुत ही ईमानदार कोशिश इनकी शायरी की खूबी है ।छन्दशास्त्र की दृष्टि से भाई विनय जी बेजोड़ हैं ।हिंदी ग़ज़ल के पाठकों के लिए यह किताब संग्रह एक अनमोल उपहार है।भाई नीरज गोस्वामी जी आपकी शानदार समीक्षा के लिए बधाई शब्द कम है।शायर डॉ0 विनय मिश्र जी को बहुत बहुत बधाई ।

जयकृष्ण राय तुषार , इलाहाबाद (उ. प्र.)

Dr. Seema vijayvargeeya said...
This comment has been removed by the author.
Onkar said...

बहुत सुन्दर

Dr. Seema vijayvargeeya said...

विनय मिश्र मेरे गुरु हैं ,उनकी सभी कृतियों को पढ़ने करने का सौभाग्य मुझे मिला है,आपका जवाब नहीं सर ,तेरा होना तलाशूं बहुत खूबसूरत गज़ल कृति जो समाज के सभी पहलुओं से अवगत कराती हुई ,अंतर्मन की गहराईयों को छूती है,आशा है अधिकादिक पाठक इससे लाभान्वित होंगे।

उमेश मौर्य said...

बहुत खूब सर ...
गागर मे सागर भर देते है आप ।
बधाई सर जी
- उमेश