बाज़ारों में फ़िरते फ़िरते दिन भर बीत गया
काश हमारा भी घर होता, घर जाते हम भी
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तुम इक मर्तबा क्या दिखाई दिए
मिरा काम ही देखना हो गया
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सड़क पे सोए हुए आदमी को सोने दो
वो ख्वाब में तो पहुँच जायेगा बसेरे तक
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बसर की इस तरह दुनिया में गोया
गुज़ारी जेल में चक्की चला के
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मैंने ये सोच के रोका नहीं जाने से उसे
बाद में भी यही होगा तो अभी में क्या है
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और आलूदा मत करो दामन
आंसुओं रूह में उतर जाओ
आलूदा =प्रदूषित
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किया करते थे बातें ज़िन्दगी भर साथ देने की
मगर ये हौसला हम में जुदा होने से पहले था
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सिर्फ उस के होंठ कागज़ पर बना देता हूँ मैं
ख़ुद बना लेती हैं होंठो पर हंसी अपनी जगह
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गुज़ारे हैं हज़ारों साल हमने
इसी दो चार दिन की ज़िन्दगी में
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था वादा शाम का मगर आये वो देर रात
मैं भी किवाड़ खोलने फ़ौरन नहीं गया
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लोग सदमों से मर नहीं जाते
सामने की मिसाल है मेरी
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अच्छा खासा बैठे बैठे गुम हो जाता हूँ
अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता तुम हो जाता हूँ
कार-ऐ-दुनिया में उलझने से हमें क्या मिलता
हम तिरी याद में बेकार बहुत अच्छे हैं
कार-ऐ-दुनिया =दुनिया के काम
सिर्फ नाकारा हैं आवारा नहीं हैं हर्गिज़
तेरी ज़ुल्फ़ों के गिरफ़्तार बहुत अच्छे हैं
हद से गुज़रेगा अँधेरा तो सवेरा होगा
हाल अब्तर सही आसार बहुत अच्छे हैं
अब्तर =ख़राब
पहले सूली पे चढ़ाते हैं मसीहाओं को
बाद में सोग मनाते हैं मनाने वाले
मेरी बातों के मआ'नी भी समझते ऐ काश
मेरी आवाज़ से आवाज़ मिलाने वाले
नाम देते हैं मुझे आज खराबाती का
इस खराबे की तरफ खींच के लाने वाले
खराबाती-शराबी, खराबे - वीराना
कहीं दिखाई दिए एक दूसरे को हम
तो मुंह बिगाड़ लिए रंजिशें ही ऐसी थीं
बहुत इरादा किया कोई काम करने का
मगर अमल न हुआ उलझने ही ऐसी थीं
बुतों के सामने मेरी ज़बान क्या खुलती
खुदा मुआफ़ करे ख्वाहिशें ही ऐसी थीं
लिखने का शौक उन्हें बचपन से ही था। महज़ 11 साल की उम्र में उन्होंने कवितायेँ लिखनी शुरू की जो कराची से लेकर दिल्ली तक की बच्चों की पत्रिकाओं और अख़बारों में प्रकाशित होने लगीं। "सबरंग" में सब एडिटर बनने से पहले उन्होंने 1964 में अपनी मुलाजमत की शुरुआत अंजुमन तरक्की-ऐ-उर्दू से की। 1970 में उन्होंने जो सबरंग का दामन पकड़ा तो फिर 30 साल बाद सन 2000 में छोड़ा। इन तीस सालों में उनकी पहचान पाकिस्तान के बेहद लोकप्रिय शायरों में की जाने लगीं। अनवर आजकल रोजाना की घटनाओं पर पाकिस्तान के नंबर 1 अखबार 'जंग' में नियमित रूप से कतआ लिखते हैं जिसे लाखों लोग रोज नियम से पढ़ते हैं। कतआत ने उनकी लोकप्रियता में चार चाँद लगा दिए लेकिन वो खुद को मूल रूप से एक ग़ज़ल कार ही समझते हैं।
तमाम दिन की गुलामी के बाद दफ़्तर से
किसी बहिश्त में जाता हूँ घर नहीं जाता
सता रही है मुझे ज़िन्दगी बहुत लेकिन
कोई किसी के सताने से मर नहीं जाता
ज़ियादा वक्त टहलते हुए गुज़रता है
कफ़स में भी मेरा शौक-ऐ-सफर नहीं जाता
अनवर साहब की ज़िन्दगी बहुत उतार चढ़ाव वाली रही। बड़ी मुश्किल से गुज़ारा होता था। एक तिमंज़िला इमारत पे बनी छोटी सी कोठरी में उनका ठिकाना रहा जिसमें बमुश्किल घुस के वो देर रात आने के बाद सोया करते थे। बलानोशी के चलते उन्होंने एक काबुली से पैसा उधार लिया और चुका नहीं पाए लिहाज़ा सूद-दर-सूद के हिसाब से अस्ल रकम में कई गुना इज़ाफ़ा हो गया। सूद-खोर ने जब धमकाना शुरू किया तो उन्होंने 'सबरंग' के एडिटर जनाब मुश्फ़िक ख्वाज़ा साहब से मदद की गुहार की। ख्वाजा साहब जो अनवर साहब की पीने की आदत से वाकिफ थे ने उन्हें इस शर्त पर क़र्ज़ अदाई के लिए पैसा देना मंज़ूर किया कि वो शराब छोड़ देंगे। अनवर मान गए , उनकी हरकतों से लगने लगा कि उन्होंने शराब से तौबा कर ली है लेकिन चंद दिन ही गुज़रे कि जॉन एलिया घबराये हुए सबरंग के दफ्तर आये और ख्वाजा साहब से कहा कि अनवर को बुरी तरह नशे की हालत में पोलिस पकड़ के ले गयी है और छोड़ने के 50 रु मांग रही है। ख्वाजा साहब ने सर पकड़ लिया - और करते भी क्या। अनवर ने शायद अपने बारे में जो ग़ज़ल कही उसके ये शेर देखें :
मुझसे सरज़द होते रहते हैं गुनाह
आदमी हूँ क्यों कहूं अच्छा हूँ मैं
बीट कर जाती है चिड़िया टाट पर
अज़मत-ए- आदम का आईना हूँ मैं
अज़मत-ए- आदम =इंसान की महानता
मुझ से पूछो हुर्मत-ए-काबा कोई
मस्जिदों में चोरियां करता हूँ मैं
मैं छुपाता हूँ बरहना ख्वाहिशें
वो समझती है कि शर्मीला हूँ मैं
बरहना = नग्न
ख्वाजा साहब लिखते हैं कि "शुऊर साहब की शायरी को किसी दीबाचे याने तआरुफ़ की ज़रूरत नहीं है। अबतक उर्दू ग़ज़ल के जितने सांचे और जितने रंग मिलते हैं शुऊर की ग़ज़ल उन सब से अलग है। इसकी एक अपनी फ़िज़ा है एक अपना मिज़ाज़ है यहाँ तक कि ज़खीरा-इ-अलफ़ाज़ (शब्द भण्डार )भी आम ग़ज़लों में इस्तेमाल होने वाले अल्फ़ाज़ से अलग है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं की शुऊर की ग़ज़ल हमारी शेरी रिवायती से अलग है। अपनी शेरी रिवायत से जितनी वाक़फ़ियत शुऊर को है उतनी कम शायरों को होगी लेकिन शुऊर ने बने बनाये सांचो पर निर्भर न रहते हुए और अपनी शेरी रिवायतों से तालमेल बिठाते हुए एक अलग राह निकाली है और एक अलग लहज़े को पहचान दी है जिससे नयी ग़ज़ल के फैलाव की सम्भावना का अंदाज़ा होता है। "
तबाह सोच-समझ कर नहीं हुआ जाता
जो दिल लगाते हैं फर्ज़ाने थोड़ी होते हैं
फर्ज़ाने =समझदार
जो आते हैं मिलने तेरे हवाले से
नए तो होते हैं अनजाने थोड़ी होते हैं
हमेशा हाथ में रखते हैं फूल उनके लिए
किसी को भेज के मंगवाने थोड़ी होते हैं
आज शादीशुदा और अपने अपने घरों में खुश 3 बेटियों और एक बेटे के पिता शुऊर साहब कराची के पॉश इलाके में बने गुलशन-ऐ-इक़बाल बिल्डिंग में बने अपने अपार्टमेंट में आराम और सुकून से रहते हैं जहाँ से कराची का सर्कुलर रेलवे स्टेशन और अलादीन अम्यूजमेंट पार्क साफ़ दिखाई देता है। वो अपने अपार्टमेंट की बालकनी में बैठ कर लगातार कुछ न कुछ पढ़ते रहते हैं। उनका मानना है कि लेखक को साहित्य की हर विधा पर पढ़ते रहना चाहिए। उपन्यास हो, कहानियां हों, ग़ज़लें हों, नज़्में हों, यात्रा वृत्तान्त हो , दर्शन हो या जीवनियां हों। वो मुस्कुराते हुए वो कहते हैं कि आजकल कहानीकार सिर्फ कहानियां पढता है उपन्यासकार सिर्फ उपन्यास ग़ज़लकार सिर्फ ग़ज़लें इतना ही नहीं हालात इतने ख़राब हैं कि अब तो शायर सिर्फ अपनी ही शायरी पढता है और फिक्शन लेखक सिर्फ अपना लिखा फिक्शन। वो कहते हैं कि मुझे जो भी थोड़ी बहुत पहचान मिली है वो सिर्फ शायरी की बदौलत मिली है।
दिल जुर्म-ऐ-मोहब्बत से कभी रह न सका बाज़
हालाँकि बहुत बार सज़ा पाए हुए था
हम चाहते थे कोई सुने बात हमारी
ये शौक हमें घर से निकलवाए हुए था
होने न दिया खुद पे मुसल्लत उसे मैंने
जिस शख़्स को जी जान से अपनाए हुए था
मुसल्लत =छा जाना
"अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता " शायद हिंदी में अनवर साहब की शायरी की एक मात्र किताब है जिसे रेख़्ता बुक्स ने प्रकाशित किया है। पाकिस्तान सरकार की और से अल्लामा इक़बाल सम्मान से सम्मानित अनवर शुऊर साहब के चार मजमुए "अनदोख्ता" 1995 में ,मश्क-ऐ-सुखन " 1999 में मी-रक्सम 2008 में और "दिल क्या रंग करूँ " 2009 में प्रकाशित हो चुके हैं। इस किताब को पाने के लिए आप रेख़्ता बुक्स से सम्पर्क करें या फिर अमेजन से ऑन लाइन मंगवा लें। इस किताब में अनवर साहब की 119 ग़ज़लें संग्रहित हैं जो अपने कहन और दिलकश अंदाज़ से आपका मन मोह लेंगी। आप किताब मंगवाने की कवायद करें और मैं नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ :
हमने जिस रोज़ पी नहीं होती
ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती
रात को ख़्वाब देखने के लिए
आँख में नींद ही नहीं होती
सुब्ह जिस वक्त शहर आती है
कोई खिड़की खुली नहीं होती
बे पिए कोई क्या ग़ज़ल छेड़े
कोफ़्त में शाइरी नहीं होती
6 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-07-2018) को "अज्ञानी को ज्ञान नहीं" (चर्चा अंक-3042) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Waaaah...Kya kahney... Bahut khoob...Neeraj Sahib Kamal Kiya hai aapne .....Raqeeb
Waah Neeraj ji khoob
बहुत खूब
दिल ख़ुश कर दिया हुज़ूर। बड़ी ही मुहब्बतों के साथ लिखा है। शायर मुहतरम को उनका हक़ अदा किया है। ऐसे अशआर पढ कर मज़ा आ गया। शुक्रिया।
अनवर साहिब को पढ़ना अच्छा लगा।
---शुक्रगुज़ार.
...दरवेश भारती, मो 9268798930,8383809043
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