Monday, February 14, 2011

जब बसेरा थी गुफा


(पेश हैं निहायत सीधी सच्ची बातें इस सीधी सादी गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल में)

देश के हालात बदतर हैं, सभी ने ये कहा
पर नहीं बतला सका, कोई भी अपनी भूमिका

बस गया शहरों में इंसां, फर्क लेकिन क्या पड़ा
आदतें अब भी हैं वैसी, जब बसेरा थी गुफा

झूठ, मक्कारी, कमीनी हरकतें अखबार में
रोज पढ़ते हैं सुबह, पर शाम को देते भुला

इस कदर धीमा, हमारे मुल्क का कानून है
फैसला आने तलक, मुजरिम की भूलें हम खता


छोड़िये फितरत समझना दूसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है सच बता

दौड़ता तितली के पीछे अब कोई बच्चा नहीं
लुत्फ़ बचपन का वो सारा, होड़ में है खो दिया

दूसरों के दुःख से 'नीरज' जो बशर अनजान है
उसको अपना दुःख, हमेशा ही लगा सबसे बड़ा

69 comments:

रश्मि प्रभा... said...

दौड़ता तितली के पीछे अब कोई बच्चा नहीं
लुत्फ़ बचपन का वो सारा, होड़ में है खो दिया
waah , bahut sachchi baat , achhi gazal

मुदिता said...

नीरज जी ,

बहुत सटीक बातें कहीं हैं आपने सरलतम शब्दों में ... बहुत बहुत बधाई आपको

संजय भास्‍कर said...

आदरणीय नीरज जी
नमस्कार !
बहुत सुंदर रचना.... अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया...

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बेहतरीन गज़ल है नीरज जी। मेरी बधाई स्वीकार करें।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

बेहतरीन गज़ल है नीरज जी। मेरी बधाई स्वीकार करें।

संजय भास्‍कर said...

वैलेंटाईन डे की हार्दिक शुभकामनायें !
कई दिनों से बाहर होने की वजह से ब्लॉग पर नहीं आ सका
बहुत देर से पहुँच पाया ....माफी चाहता हूँ..

स्वप्निल तिवारी said...

bahut kuch kah jaatee hai yah ghazal .... haalat kee khub jaanch padtaal karti hai....

mridula pradhan said...

दौड़ता तितली के पीछे अब कोई बच्चा नहीं
लुत्फ़ बचपन का वो सारा, होड़ में है खो दिया
kitna dukh hota hai...bahut hi kadwa hai ye sach.

Shiv said...

बहुत बढ़िया ग़ज़ल. वाह!

vandana gupta said...

दिल को झकझोरती आईना दिखाती गज़ल …………हर शेर गहरी मार कर रहा है……………बेहतरीन प्रस्तुति।

अमिताभ मीत said...

सीधी सादी ग़ज़ल असरदार है ..... वैसे उतनी सीधी सादी भी नहीं ....

बहुत अच्छी लगी !

Neeraj said...

koi batla nahin saka apni bhoomika... badhiya line... no one actually confess his/her responsibility

प्रवीण पाण्डेय said...

बेहतरीन पंक्तियाँ, अपना दुख सबसे भारी लगता है।

Sushant Jain said...

बस गया शहरों में इंसां, फर्क लेकिन क्या पड़ा
आदतें अब भी हैं वैसी, जब बसेरा थी गुफा

झूठ, मक्कारी, कमीनी हरकतें अखबार में
रोज पढ़ते हैं सुबह, पर शाम को देते भुला

Ye do sher vishesh rup se pasand aye....

सदा said...

दौड़ता तितली के पीछे अब कोई बच्चा नहीं
लुत्फ़ बचपन का वो सारा, होड़ में है खो दिया

दूसरों के दुःख से 'नीरज' जो बशर अनजान है
उसको अपना दुःख, हमेशा ही लगा सबसे बड़ा

बहुत खूब कहा है आपने इन पंक्तियों में ...

Anonymous said...

नीरज जी,

सच सीधी और सच्ची ग़ज़ल.......अपना असर छोड़ गयी ......बहुत खूब|

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " said...

prabhavshali gazal...
har sher dhardar...

कुमार संतोष said...

नीरज जी बहुत ही अच्छी ग़ज़ल !

सभी शेर एक से बढ़ कर एक......बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनायें !

pran sharma said...

SEEDHEE - SAADEE BHASHA MEIN
SEEDHE - BHAAV , BAHUT ACHCHHAA
LAGAA HAI . SAHAJ GAZAL KE LIYE
BADHAAEE.

Narendra Vyas said...

प्रणाम सम्मानीय नीरज जी ! आपकी सबसे बड़ी खूबी यही है कि आपके हर ग़ज़ल और शेर में जो सच्चाई बयाँ होती है, वो हमारे आस-पास बल्कि हमारे अन्दर की ही होती है. एक, दो या तीन शेर नहीं, पूरी ग़ज़ल मुकम्मल, सच्ची और धारदार लगी. जिस सच्चाई को लोग अक्सर नज़र अंदाज़ कर जाते हैं, आपने उसी सच्चाई को सच्चाई के साथ बयान किया है. हर शेर सच की आंच में तपा हुवा है, जैसे गहरी नींद में किसी ने गरम मोम टपका दिया हो. कमाल की ग़ज़ल. आपके यही तेवर और अंदाज़-ए-बयाँ आपको अपने शेरों की ही तरह सच्चा बयाँ कर रहे हैं. आभार. नमन !

Sunil Balani said...

ati sundar .....really really praisworthy

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत ही बेहतरीन.

रामराम.

mark rai said...

छोड़िये फितरत समझना दूसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है सच बता...
.......बहुत खूब|

डॉ टी एस दराल said...

बस गया शहरों में इंसां, फर्क लेकिन क्या पड़ा
आदतें अब भी हैं वैसी, जब बसेरा थी गुफा

सही कहा , हम अभी भी आदि मानव जैसे ही व्यवहार करते हैं ।
बेहतरीन ग़ज़ल ।

योगेन्द्र मौदगिल said...

wahwa bhai ji wah.....net par baithna vasool karwa diya aaj....

Manish Kumar said...

इस कदर धीमा, हमारे मुल्क का कानून है
फैसला आने तलक, मुजरिम की भूलें हम खता

दौड़ता तितली के पीछे अब कोई बच्चा नहीं
लुत्फ़ बचपन का वो सारा, होड़ में है खो दिया

hmmm bilkul wazib farmaya aapne..

Kailash Sharma said...

बस गया शहरों में इंसां, फर्क लेकिन क्या पड़ा
आदतें अब भी हैं वैसी, जब बसेरा थी गुफा

..बेहतरीन गज़ल..हरेक शेर लाज़वाब..

ज्ञानचंद मर्मज्ञ said...

बस गया शहरों में इंसां, फर्क लेकिन क्या पड़ा
आदतें अब भी हैं वैसी, जब बसेरा थी गुफा
हर शेर आज के हालात का अक्स है !

डॉ. मनोज मिश्र said...

बहुत ही उम्दा.

Rahul Singh said...

हमदर्दी से ही अपनी तकलीफ कम होती है.

राजेश उत्‍साही said...

दौड़ता तितली के पीछे अब कोई बच्चा नहीं
लुत्फ़ बचपन का वो सारा, होड़ में है खो दिया
*
सारी जान तो इसी में है।
*
शुभकामनाएं।

Suman Sinha said...

छोड़िये फितरत समझना दूसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है सच बता
kya baat kahi hai

तिलक राज कपूर said...

आपकी ग़ज़लों पर टिप्‍पणी देना अब कठिन हो चला है। हर बार यह कहूँ कि 'ये आपकी बेहतरीन ग़ज़लों में शामिल की जायेगी', तो शायद ठीक न लगे इसलिये कहता हूँ:
शेर में सच्‍चाईयॉं, जीवन की भर कर आपने,
आप खुद हैं बेखबर, दुनिया को क्‍या-क्‍या दे दिया।

हर शेर लाजवाब, सीधी सच्‍ची बातें, सीधे सादे लहजे में।
बधाई।

'साहिल' said...

छोड़िये फितरत समझना दूसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है सच बता

इस कदर धीमा, हमारे मुल्क का कानून है
फैसला आने तलक, मुजरिम की भूलें हम खता

सीधे सादे शब्दों में गहरी बात करना ही आपकी ग़ज़लों की खूबी है.....

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

रूमानियत से हटकर ज़मीनी हक़ीक़त बयान करती एक सच्ची ग़ज़ल, जो समाज का आईना है! बड़े भाई, ज़िंदाबाद!!

रचना दीक्षित said...

बेहतरीन गज़ल, नीरज जी बधाई.

राज भाटिय़ा said...

बहुत खुब जी आज की सचाई धन्यवाद

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...

आदरणीय नीरज जी भाईसाहब
सादर सस्नेहाभिवादन !

कुछ भी नई बात नहीं !
फिर से बस, वही सहज सशक्त , भरपूर तग़ज़्ज़ुल तख़य्युल लिये हुए ,
वज़्न से ज़रा भी झोल न खाने वाली ग़ज़ल !
बार बार यही सब… बस !!


:)

भाईजी , आलोचकों के राछ - पाती - औज़ारों का भी कभी कुछ ख़याल किया करें … :)

… अब , एक - दो या तीन अश्'आर कोट करके चला जाऊं … मुझसे तो ऐसी नाइंसाफ़ी नहीं होती ।

* * * * * * *
इन सात सितारों में पूरी ग़ज़ल को कोट मानिएगा …

आदाब !

प्रणय दिवस मंगलमय हो ! :)
बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !


- राजेन्द्र स्वर्णकार

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

इस कदर धीमा, हमारे मुल्क का कानून है
फैसला आने तलक, मुजरिम की भूलें हम खता
बहुत सही कहा आपने

ACHARYA RAMESH SACHDEVA said...

दूसरों के दुःख से 'नीरज' जो बशर अनजान है
उसको अपना दुःख, हमेशा ही लगा सबसे बड़ा
बहुत सही कहा आपने

Smart Indian said...

इस कदर धीमा, हमारे मुल्क का कानून है
फैसला आने तलक, मुजरिम की भूलें हम खता

छोड़िये फितरत समझना दूसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है सच बता


बहुत सही!

नीरज गोस्वामी said...

Comment received on mail:-


Bahut khoob Neeraj Uncle..

दूसरों के दुःख से 'नीरज' जो बशर अनजान है
उसको अपना दुःख, हमेशा ही लगा सबसे बड़ा


With love.
Ratan & Deepika

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

गजल के बहारे आपने बहुत गहरी बातें कह दीं। बधाई।

---------
अंतरिक्ष में वैलेंटाइन डे।
अंधविश्‍वास:महिलाएं बदनाम क्‍यों हैं?

नीरज गोस्वामी said...

छोड़िये फितरत समझना दूसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है सच बता

dil ki bat to khud ye sher hi kah gaya, sach chhipe bhi to kaise?

Chandra Mohan Gupta

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

नीरज भाई खोपोलीकर जी सादर अभिवादन
मान्यवर, ये विद्यार्थी भला क्या कहे आप जैसे मँझे हुए शाइर की ग़ज़ल पर| आप कहते हैं क़ि सीधी सच्ची ग़ज़ल है, वाकई ही सीधी सच्ची ग़ज़ल है| बिना किसी लाग लपेट के पर सीधी दिल पर चोट करती हुई| कुछ नया सिखा गये आप इस बार भी| बहुत बहुत बधाई नीरज जी|

हरकीरत ' हीर' said...

दूसरों के दुःख से 'नीरज' जो बशर अनजान है
उसको अपना दुःख, हमेशा ही लगा सबसे बड़ा

नीरज जी इस पंक्ति के लिए मुझे याद किया .....शुक्रिया ......
जानती हूँ ....पापा भी यही कहते हैं .....!!

Sanjay Grover said...

वाह नीरज जी, ज़ुबान सादी है पर अंदाज़ कुछ नया है। और बातें भी वो कहीं हैं जो हर कोई महसूस ही नहीं कर पाता तो कहेगा भी कैसे ! दो शेर तो बहुत ही मौजूं और सटीक हैं:

देश के हालात बदतर हैं, सभी ने ये कहा
पर नहीं बतला सका, कोई भी अपनी भूमिका

छोड़िये फितरत समझना दूसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है सच बता

Kunwar Kusumesh said...

बस गया शहरों में इंसां, फर्क लेकिन क्या पड़ा
आदतें अब भी हैं वैसी, जब बसेरा थी गुफा

बहुत प्यारा शेर है ये.
आप ग़ज़लें लाजवाब कहते हैं नीरज जी.

रजनीश तिवारी said...

छोड़िये फितरत समझना दूसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है सच बता
दुख की बात है कि हम समझना ही नहीं चाहते ....निहायत सीधी सच्ची बातें ...धन्यवाद

Zephyr said...

The realities of life in India have been expressed beautifully. Waiting eagerly for your next post.
Aruna

Asha Joglekar said...

छोड़िये फितरत समझना दूसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है सच बता ।
नीरज जी आज के हालात और आपकी गज़ल दोनो सोचने पर बाध्य करते हैं ।

रचना दीक्षित said...

हर शेर लाजवाब
दौड़ता तितली के पीछे अब कोई बच्चा नहीं
लुत्फ़ बचपन का वो सारा, होड़ में है खो दिया
बहुत कुछ कह दिया इतने में ही

डॉ. मोनिका शर्मा said...

छोड़िये फितरत समझना दूसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है सच बता

बहुत खूब..... सुंदर पंक्तियाँ

Udan Tashtari said...

छोड़िये फितरत समझना दूसरे इंसान की
खुद हमें अपनी समझ आती कहाँ है सच बता.

-शानदार१!

Atul Shrivastava said...

बदलते वक्‍त की बेहतरीन तस्‍वीर। अच्‍छी प्रस्‍तुति।

Akshitaa (Pakhi) said...

सुन्दर सी गजल....अच्छी लगी.
______________________________
'पाखी की दुनिया' : इण्डिया के पहले 'सी-प्लेन' से पाखी की यात्रा !

सुनील गज्जाणी said...

बेहतरीन गज़ल है नीरज जी। मेरी बधाई स्वीकार करें।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बस गया शहरों में इंसां, फर्क लेकिन क्या पड़ा
आदतें अब भी हैं वैसी, जब बसेरा थी गुफा

बहुत अच्छी गज़ल ...सच है अभी भी तो आदतें आदिम युग जैसी ही हैं

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" said...

दूसरों के दुःख से 'नीरज' जो बशर अनजान है
उसको अपना दुःख, हमेशा ही लगा सबसे बड़ा

वाह ! क्या बात है ... बहुत सुन्दर ग़ज़ल .. गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल लिखना वैसे भी मुश्किल है ..

Sadhana Vaid said...

दूसरों के दुःख से 'नीरज' जो बशर अनजान है
उसको अपना दुःख, हमेशा ही लगा सबसे बड़ा

हमारे समाज की कडवी सच्चाइयों को उजागर करती बहुत ही खूबसूरत गज़ल ! अनेकानेक शुभकामनायें !

girish pankaj said...

साठ टिप्पणियाँ...? क्यों न हों...ऐसी रचनाएँ पढ़ कर आदमी न कुछ लिखने पर मजबूर हो ही जाता है. और आप तो एक और बड़ा कामकर रहे है. किताबों की चर्चा. खास कर ग़ज़ल की किताबों को आप उठाते है. और उस पर भी ऐसी-वैसी नहीं, अनमोल किताबों पर आप कुछ लिखते है. मेरी पुस्तक आयेगी तो ज़रूर भेजूंगा. पता नहीं कब आयेगी, मगर आयेगी ज़रूर. आपकी ग़ज़ले ज़बरदस्त होती है. हर शेर दिल को छूता है,

Patali-The-Village said...

बहुत सटीक बातें कहीं हैं आपने सरलतम शब्दों में|शुभकामनायें|

डॉ० डंडा लखनवी said...

भाई नीरज गोस्वामी जी!
"देश के हालात बदतर हैं, सभी ने ये कहा
पर नहीं बतला सका, कोई भी अपनी भूमिका"
आपकी गजल का मतला ही बड़ा सारगर्भित है। हर शेर लाजवाब एवं बेहतरीन संदेश से युक्त है। प्रभावकारी लेखन के लिए बधाई!
=====================
वक्त की जो नब्ज़ पहचाने वही है शायरी।
समस्याओं का न करना सामना है कायरी॥
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी

ankur goswamy said...

वाह !!

निर्मला कपिला said...

इस कदर धीमा, हमारे मुल्क का कानून है
फैसला आने तलक, मुजरिम की भूलें हम खता
सच कहा नीरज भाई । और मतला तो लाजवाब है। सुन्दर गज़ल के लिये बधाई।

गौतम राजऋषि said...

वैसे तो ग़ज़ल की असली खूबसूरती उसके रदीफ़ से ही बनती है लेकिन ये आपका कमाल हिई है नीरज जी कि इस गैर मुद्दरफ़ ग़ज़ल को भी आपने इतना खूबसूरत बना दिया है और इस शेर "बस गया शहरों में इंसां, फर्क लेकिन क्या पड़ा/आदतें अब भी हैं वैसी, जब बसेरा थी गुफा" पर हजारों दाद....

Amrita Tanmay said...

सरलतम शब्दों में...कडवी सच्चाइयों को उजागर करती ...ज़बरदस्त गज़ल..

नीरज गोस्वामी said...

Comment received through e-mail:-

shri neeraj ji
namastey,
we had a nice trip in bombay and goa, as informed earlier to you in
december-january,
we had nice beginneing of new year there.
your gazal "jab basera thi gupha" is indeed a good gazal.
especeally these lines:-

दौड़ता तितली के पीछे अब कोई बच्चा नहीं
लुत्फ़ बचपन का वो सारा, होड़ में है खो दिया

दूसरों के दुःख से 'नीरज' जो बशर अनजान है
उसको अपना दुःख, हमेशा ही लगा सबसे बड़ा

congrats, also namastey from prof kuldip salil ji.
pl send some ur or ur friends's poetry/ shairy -book
for review in magazine of shri prem vohra ji.
regds,
-om sapra
N-22, dr. mukherji nagar,
delhi-9

KESHVENDRA IAS said...

नीरज जी, क्या खूब झकझोरने वाली बात कही है आपने अपनी गज़लों में, क्या खूब कहा है कि-
“देश के हालात बदतर हैं, सभी ने ये कहा
पर नहीं बतला सका, कोई भी अपनी भूमिका”

देश और समाज की कड़वी सच्चाइयों को आईना दिखने के साथ गम होते बचपन को भी क्या खूब समेत है अपने शेर में-
“दौड़ता तितली के पीछे अब कोई बच्चा नहीं
लुत्फ़ बचपन का वो सारा, होड़ में है खो दिया”

इतनी सुंदर गज़ल के लिए आपकी लेखनी को साधुवाद. आपकी लेखनी की धार ऐसे ही पैनी और चुभनेवाली बनी रहे.