आजकल जयपुर जाने पर जो एक जरूरी काम होता है वो है वहां के क्रास वर्ल्ड की सैर. अमूनन यहाँ अग्रेजी किताबों का बाहुल्य होता है लेकिन जयपुर में कुछ हिन्दी की किताबें रखने का प्रचलन भी शुरू हो गया है. इसी के चलते यहाँ जाना शुरू किया. अब ये मत समझियेगा की मैं अंग्रेज़ी में कुछ पढता नहीं लेकिन अगर हिन्दी से तुलना करें तो बहुत कम. जो भाषा मैं बोलता सुनता हूँ उसे पढने में भला शर्म कैसी. अब सौभाग्य से अंग्रेज़ी में ग़ज़लों की किताबें भी तो नहीं मिलती.
वहीं मुझे अपने प्रिय युवा शायर "आलोक श्रीवास्तव" की पुस्तक "आमीन" दिखाई दी. आलोक को मैंने अंतरजाल में यहाँ वहां पढ़ा था और ये पाया था की वे अत्यन्त प्रतिभाशाली हैं. वो अपनी बात बहुत अलग ढंग से कहते हैं और खूब कहते हैं।
घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा
सारे रिश्ते-जेठ -दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे
झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी सी पुरवाई अम्मा
बाबूजी गुजरे,आपस में सब चीजें तक्सीम हुईं, तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा
ग़ज़ल का ये नया ही नहीं, अनोखा अनुभव है. वैसे भी शेरो -शायरी में घरेलू छवियाँ बहुत कम मिलती हैं, हिन्दी कविता में से 'माँ' 'बाबूजी' वगैरह के अक्स बिल्कुल गायब ही हो गए हैं.
लीजिये, आलोक की ग़ज़लों में 'बाबूजी' से भी मिल लीजिये :-
अब तो उस सूने माथे पर कोरे पन की चादर है
अम्माजी की सारी सजधज, सब जेवर थे बाबूजी
भीतर से खालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग, अनूठा, अनभूझा सा एक तेवर थे बाबूजी
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी
आलोक ने अमीर खुसरो के अंदाज़ में भी एक ग़ज़ल कही है, पढिये उस ग़ज़ल के चंद अशहार:-
दिलों की बातें दिलों के अन्दर, जरा सी जिद से दबी हुई हैं
वो सुनना चाहें जुबाँ से सब कुछ, मैं करना चाहूँ नजर से बतियाँ
मैं कैसे मानूँ बरसते नैनों कि तुमने देखा है पी को आते
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखी कलियाँ
"आमीन" के हर पन्ने पर ग़ज़ल का ये सौन्दर्य बिखरा पढ़ा है...आप कहीं से भी इसे पढ़ें, बिना वाह वा किए नहीं रह सकते. आलोक अपने हर अश्हार से हमें चमकृत करते हैं. भाषा का ऐसा प्रयोग बहुत कम देखने को मिलता है जैसा आलोक जी ने किया है, अब बानगी के तौर पर देहरी शब्द आपने ग़ज़लों में नहीं पढ़ा होगा लेकिन उसे किस खूबसूरती से इस्तेमाल किया है पढिये :
हम उसे आंखों की देहरी नहीं चढ़ने देते
नींद आती न अगर ख्वाब तुम्हारे लेकर
एक दिन उसने मुझे पाक नज़र से चूमा
उम्र भर चलना पढ़ा मुझको सहारे लेकर
आप उनकी शायरी में जीवन दर्शन भी बखूबी पाएंगे...कहीं कहीं तो उन्होंने दार्शनिकता का बेमिसाल नमूना पेश किया है
नवाजना है तो फ़िर इस तरह नवाज़ मुझे
कि मेरे बाद मेरा जिक्र बार बार चले
ये जिस्म क्या है कोई पैरहन उधार का है
यहीं संभाल के पहना, यहीं उतार चले
आज के दौर कि त्रासदी भी उनकी ग़ज़लों में दिखाई देती है...उनके लाजवाब रंग में रंगी एक ग़ज़ल के दो शेर पढिये:
नींद कि मासूम परियां चौंकती हैं
एक बूढा ख्वाब ऐसे खांसता है
चाँद से नजदीकियां बढ़ने लगी हैं
आदमी में फासला था, फासला है
ख्यालात और लफ्जों कि जादूगरी का नायाब नमूना पेश करते हुए उनके ये दो शेर पढ़ कर आप क्या कहेंगे...वाह वा..ही ना?
गनीमत है नगर वालों, लुटेरों से लुटे हो तुम
हमें तो गाँव में अक्सर दरोगा लूट जाता है
गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे
कभी मैं रूठ जाता हूँ ,कभी वो रूठ जाता है
इस छोटी सी किताब में कुल 91 पृष्ठ हैं लेकिन लगता है जैसे ज़ज्बात का कोई खजाना छुपा हुआ है इनमें. राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य है 150 रु, इसके बारे में जानकारी आप राजकमल कि वेब साईट www.rajkamalprakashan.com , info@rajkamalprakashan.com पर पत्र व्यवहार द्वारा भी प्राप्त कर सकते हैं. इस पुस्तक की उपस्तिथि किसी भी काव्य प्रेमी द्वारा किए गए पुस्तक संकलन में चार चाँद ही लगायेगी.
चलते चलते एक शेर उनकी ग़ज़ल का जो मुझे बहुत पसंद है...आप भी पढिये और इसे खरीदने का निश्चय पक्का कीजिये
जाने क्यूँ मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते
पलकों से ही लौट गई है सपनो की बारातें सच
तो मित्रो अब आप इस किताब को खोजने के अभियान में जुटें तब तक मैं लेता हूँ विश्राम और उम्मीद करता हूँ आप से मिलने की एक और किताब के साथ थोड़े समय बाद...ऑफ विडर जेन ( जर्मन भाषा में इसका अर्थ हैं...फ़िर मिलते हैं)
वहीं मुझे अपने प्रिय युवा शायर "आलोक श्रीवास्तव" की पुस्तक "आमीन" दिखाई दी. आलोक को मैंने अंतरजाल में यहाँ वहां पढ़ा था और ये पाया था की वे अत्यन्त प्रतिभाशाली हैं. वो अपनी बात बहुत अलग ढंग से कहते हैं और खूब कहते हैं।
"आमीन" में वरिष्ठ लेखक कमलेश्वर जी और हर दिल अजीज शायर गुलज़ार साहेब के आलोक और उनकी शायरी के बारे में विचार दिए हुए हैं. अब आप ही बताईये जो मात्र पैंतीस छतीस साल की उम्र में ऐसे दोहे लिखे :
आंखों में लग जायें तो, नाहक निकले खून
बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून
गुलमोहर-सी ज़िन्दगी, धड़कन जैसे फाँस
दो तोले का जिस्म है, सो-सो तन की साँस
तो उसकी कौन तारीफ नहीं करेगा. "आमीन" एक बहुत आकर्षक आवरण में लिपटी आलोक की विभिन्न रचनाओं की ऐसी किताब है जिसके लफ्ज़ पढने वालों की आंखों से सीधे दिल में उतर जाते हैं.
कमलेश्वर लिखते हैं : आलोक की भाषा में हिन्दी के कुछ लिखित शब्द पिघल कर अपने आप आम फ़हम बन गए हैं और बेहद घरेलु शब्द 'तुरपाई' हमारी मसक गयी संवेदना की सिलाई कर देता है
बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून
गुलमोहर-सी ज़िन्दगी, धड़कन जैसे फाँस
दो तोले का जिस्म है, सो-सो तन की साँस
तो उसकी कौन तारीफ नहीं करेगा. "आमीन" एक बहुत आकर्षक आवरण में लिपटी आलोक की विभिन्न रचनाओं की ऐसी किताब है जिसके लफ्ज़ पढने वालों की आंखों से सीधे दिल में उतर जाते हैं.
कमलेश्वर लिखते हैं : आलोक की भाषा में हिन्दी के कुछ लिखित शब्द पिघल कर अपने आप आम फ़हम बन गए हैं और बेहद घरेलु शब्द 'तुरपाई' हमारी मसक गयी संवेदना की सिलाई कर देता है
घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा
सारे रिश्ते-जेठ -दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे
झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी सी पुरवाई अम्मा
बाबूजी गुजरे,आपस में सब चीजें तक्सीम हुईं, तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा
ग़ज़ल का ये नया ही नहीं, अनोखा अनुभव है. वैसे भी शेरो -शायरी में घरेलू छवियाँ बहुत कम मिलती हैं, हिन्दी कविता में से 'माँ' 'बाबूजी' वगैरह के अक्स बिल्कुल गायब ही हो गए हैं.
लीजिये, आलोक की ग़ज़लों में 'बाबूजी' से भी मिल लीजिये :-
अब तो उस सूने माथे पर कोरे पन की चादर है
अम्माजी की सारी सजधज, सब जेवर थे बाबूजी
भीतर से खालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग, अनूठा, अनभूझा सा एक तेवर थे बाबूजी
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी
आलोक ने अमीर खुसरो के अंदाज़ में भी एक ग़ज़ल कही है, पढिये उस ग़ज़ल के चंद अशहार:-
दिलों की बातें दिलों के अन्दर, जरा सी जिद से दबी हुई हैं
वो सुनना चाहें जुबाँ से सब कुछ, मैं करना चाहूँ नजर से बतियाँ
मैं कैसे मानूँ बरसते नैनों कि तुमने देखा है पी को आते
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखी कलियाँ
"आमीन" के हर पन्ने पर ग़ज़ल का ये सौन्दर्य बिखरा पढ़ा है...आप कहीं से भी इसे पढ़ें, बिना वाह वा किए नहीं रह सकते. आलोक अपने हर अश्हार से हमें चमकृत करते हैं. भाषा का ऐसा प्रयोग बहुत कम देखने को मिलता है जैसा आलोक जी ने किया है, अब बानगी के तौर पर देहरी शब्द आपने ग़ज़लों में नहीं पढ़ा होगा लेकिन उसे किस खूबसूरती से इस्तेमाल किया है पढिये :
हम उसे आंखों की देहरी नहीं चढ़ने देते
नींद आती न अगर ख्वाब तुम्हारे लेकर
एक दिन उसने मुझे पाक नज़र से चूमा
उम्र भर चलना पढ़ा मुझको सहारे लेकर
आप उनकी शायरी में जीवन दर्शन भी बखूबी पाएंगे...कहीं कहीं तो उन्होंने दार्शनिकता का बेमिसाल नमूना पेश किया है
नवाजना है तो फ़िर इस तरह नवाज़ मुझे
कि मेरे बाद मेरा जिक्र बार बार चले
ये जिस्म क्या है कोई पैरहन उधार का है
यहीं संभाल के पहना, यहीं उतार चले
आज के दौर कि त्रासदी भी उनकी ग़ज़लों में दिखाई देती है...उनके लाजवाब रंग में रंगी एक ग़ज़ल के दो शेर पढिये:
नींद कि मासूम परियां चौंकती हैं
एक बूढा ख्वाब ऐसे खांसता है
चाँद से नजदीकियां बढ़ने लगी हैं
आदमी में फासला था, फासला है
ख्यालात और लफ्जों कि जादूगरी का नायाब नमूना पेश करते हुए उनके ये दो शेर पढ़ कर आप क्या कहेंगे...वाह वा..ही ना?
गनीमत है नगर वालों, लुटेरों से लुटे हो तुम
हमें तो गाँव में अक्सर दरोगा लूट जाता है
गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे
कभी मैं रूठ जाता हूँ ,कभी वो रूठ जाता है
इस छोटी सी किताब में कुल 91 पृष्ठ हैं लेकिन लगता है जैसे ज़ज्बात का कोई खजाना छुपा हुआ है इनमें. राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य है 150 रु, इसके बारे में जानकारी आप राजकमल कि वेब साईट www.rajkamalprakashan.com , info@rajkamalprakashan.com पर पत्र व्यवहार द्वारा भी प्राप्त कर सकते हैं. इस पुस्तक की उपस्तिथि किसी भी काव्य प्रेमी द्वारा किए गए पुस्तक संकलन में चार चाँद ही लगायेगी.
चलते चलते एक शेर उनकी ग़ज़ल का जो मुझे बहुत पसंद है...आप भी पढिये और इसे खरीदने का निश्चय पक्का कीजिये
जाने क्यूँ मेरी नींदों के हाथ नहीं पीले होते
पलकों से ही लौट गई है सपनो की बारातें सच
तो मित्रो अब आप इस किताब को खोजने के अभियान में जुटें तब तक मैं लेता हूँ विश्राम और उम्मीद करता हूँ आप से मिलने की एक और किताब के साथ थोड़े समय बाद...ऑफ विडर जेन ( जर्मन भाषा में इसका अर्थ हैं...फ़िर मिलते हैं)
53 comments:
वाह बहुत सुन्दर विवरण कहाँ से कौन सी मार्केट में ढूँढ़ते हैं यह नायाब किताबें
बहुत ख़ूब, लिखते रहें
---
गुलाबी कोंपलें | चाँद, बादल और शाम | तकनीक दृष्टा/Tech Prevue | आनंद बक्षी | तख़लीक़-ए-नज़र
बहुत सुन्दर इस जानकारी के लिये शुक्रिया
नीरज जी नमस्कार,
आपने आलोक श्रीवास्तव जी के बारे में और उनकी ग़ज़ल की किताब आमीन के बारे बहोत ही उपयोगी जानकारी दी .. ढेरो आभार इसके लिए के आपने ये पुस्तक कैसे प्राप्त कर सकते है वो भी बताया है ...ढेरो आभार आपका नीरज जी ...
आपका
अर्श
वाह नीरज जी, आपकी समीक्षा पढ़कर लगता है मानो हमने भी आधी किताब पढ़ ही डाली हो. यह सिलसिला ऐसा ही चलता रहे, शुक्रिया!
आंखों में लग जायें तो, नाहक निकले खून
बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून
" इन पंक्तियों ने ही जीवन और रिश्तों का मोल और सच समझा दिया ..... "आलोक श्रीवास्तव" की पुस्तक "आमीन" से रूबरू करने का आभार...."
Regards
आलोक जी की किताब के बारे में जानकारी अच्छी लगी. गजब के रचनाकार हैं. पोस्ट हमेशा की तरह शानदार. हस्ती जी की किताब खरीद लाये हैं हम. ये किताब भी खरीदेंगे.
चाँद से नजदीकियां बढ़ने लगी हैं
आदमी में फासला था, फासला है
बहुत बढ़िया समीक्षा की है आपने नीरज जी ...शुक्रिया
आलोक श्रीवास्तव की रचनाएँ अंतर्जाल पर मैं ने भी पढ़ी हैं.
उन की लिखी किताब भी मार्केट में है जानकर हर्ष हुआ.
बहुत अच्छा विवरण आप ने लिखा है.
शेर सभी अच्छे लगे.
आखिर वाला सच में बेहद उम्दा है.
आप सही मायने में ब्लॉग को साहित्यिक सामग्री से समृद्ध कर रहें हैं। पुस्तक न पढ़ पाने की बेबसी यहॉं आकर कुछ दूर हुई। अम्मा और बाबू जी के अक्श को उभारने के लिए आभार।
अगर ये पोस्ट नही पढ़ता तो पता अँहि क्या हो जाता.. पहली ही फ़ुर्सत में ये किताब लौंगा मैं.. कुछ कुछ शेर तो जबरदस्त है.. ख़ासकर रिश्तो के नाख़ून वाला..
वाकई आप पठनीय पुस्तकों की समीक्षा कर हम सबकों उनसे अवगत करा रहे है। बहुत ही अच्छा लगता है इस प्रकार से पढना।
बाबूजी गुजरे,आपस में सब चीजें तक्सीम हुईं, तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा
पता नही क्यों हम ऐसे हिस्से करने लगे है?
अपने लिखा है कि
" हिन्दी कविता में से 'अम्मा' 'बाबूजी' वगैरह के अक्स बिल्कुल गायब ही हो गए हैं."
शायद सही ही है, क्योंकि आज के समय में "अम्मा" जयललिता जी को और "बाबूजी" जगजीवन जी का पर्यायवाची हो चुका है. आपने एक और रिश्ते का ज़िक्र तो किया ही नही, वह है "बहिनजी" जो कि आजकल मायावती जी का पर्यायवाची बन चुका है.
आशा हे नही वरन विश्वास है कि अब आप समझ ही गायें होंगे कि हिन्दी जगत के प्रबुद्ध लोग इन शब्दों के प्रयोग क्यों कर नही कर रहे हैं.
चन्द्र मोहन गुप्त
पुस्तक की इस बेहतरीन समीक्षा के लिए और आलोक श्रीवास्तव से परिचय कराने के लिए शुक्रिया ।
aalok ji ke baare me jaankar achha laga.....
आंखों में लग जायें तो, नाहक निकले खून
बेहतर है छोटे रखें, रिश्तों के नाखून
bahut achhi hain ye panktiyaan....
aur ye bade dukh aur sharm ki baat hai ki bade-bade nagron me hindi ki pustken na ke barabar hain....
neeraj ji
bahut bahut shukriya is azeem shayar, kavi aur lekhak se milane ke liye. sach mein jitna bhi aapke yahan padha usme hi shivastav ji ki lekhni dil mein utar gayi.
नीरज जी
आप के कथा काव्य में डूबे लगता है हमने भी आमीन को पढ़ डाला. बहुत सुंदर समीक्षा है एक बेहतरीन किताब की.
जो शेर आपने चुने हैं, एक से बढ़ कर एक हैं.
आलोक को पढ़ा है ओर उनके कविता संग्रह को भी....वागर्थ में उनकी कविताओं के बारे में पढ़कर दिलचस्पी पैदा हुई थी.
इस पुस्तक परिचय के लिए बहुत आभार आपका.
रामराम.
यहाँ पुणे के क्रॉसवर्ड में तो हिन्दी का कुछ नहीं होता है. मेरे पास कूपन पड़े हैं, किसी दिन जाके अंग्रेजी किताब ही लानी पड़ेगी !
आभार इस प्रस्तुति के लिए... पुणे में हिन्दी किताबों की दूकान जल्दी ही ढूंढ ली जायेगी.
आलोक श्रीवास्तव के बारे पढ कर बहुत अच्छा लगा, आप के लेख पढ कर मै एक लिस्ट तेयार कर रहा हुं, जब भी मोका मिला सब किताबे एक दम से खरीद लूंगा.
धन्यवाद
किताब के बारे में बताने के लिये शुक्रिया!
आलोक जी २००७ में न्यूयार्क में विश्व हिनदी सम्मेलन में आये थे उन्होने उस वक्त ये कविता पाठ किया था देखिये और आनंद लिजीये
waah neeraj jee..sahi men kaafi acchi jaankaari de aapne.....laga ki hamne bhi ye kitaab padh le....
After some long time,I got to read these beautiful verses,All thanx to you,Neerajji.
खरीदते हैं इस किताब को मौका लगने पर।
घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा
सारे रिश्ते-जेठ -दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे
झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी सी पुरवाई अम्मा
बाबूजी गुजरे,आपस में सब चीजें तक्सीम हुईं, तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
बेहद उम्दा ~ आलोक जी को न्यू -योर्क अँतराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन मेँ भी शायद सुना था
आप इसी तरह बढिया किताबोँ से परिचित करवाते रहीयेगा नीरज भाई -
और मिष्टी बिटीया की तस्वीरेँ सबसे मीठी :)
गनीमत है नगर वालों, लुटेरों से लुटे हो तुम
हमें तो गाँव में अक्सर दरोगा लूट जाता है
गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे, गिले-शिकवे
कभी मैं रूठ जाता हूँ ,कभी वो रूठ जाता है
bhai wah..wa
bahut hi behtreen prastuti neeraj g
aalok dhanya ho gaye.....
aameen..
विश्वास मानिये लगा कहीं से मेरी ही बात कही जा रही है.
मेरे मन का आधा डर , आधा साहस थे बाबूजी .
श्यार से परिचय के लिए धन्यवाद .
घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा
बाबूजी गुजरे,आपस में सब चीजें तक्सीम हुईं, तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा
ये दो छंदों में तो ग़ज़ब ही कर दिया आलोकजी ने, नीरज जी। आपका बहुत बहुत आभार है, इनसे पहचान करवाने का। सच वाक़ई ये ख़जाना है। मिष्टी बिटिया की तस्वीर बड़ी प्यारी लग रही है ।
---आपका बवाल
शुक्रिया जानकारी के लिये। अब किताब तो क्या खरीदेंगे? ऐसे ही कहिये तो कह दें लेकिन आलोक के दोहे बहुत अच्छे लगे।
मैं घर में सबसे छोटा था,
मेरे हिस्से में मां आई..मुनव्वर जी का ये शे’र और आलोक जी का ये शे’र का कया महज़ इतेफ़ाक है .
घर में सबसे छोटा था,
मेरे हिस्से आई अम्मा
ऐसा टकराव संभव है पर इसके बारे मे आप सब की राये चाहता हूँ. नीरज जी ये आपने बड़े भले का काम किया कि sameeksha शुरू की है.
सादर ख्याल
बहुत सुंदर दोहे हैं.
neeraj ji
aapko maanana padhenga , kahan se ye khazana dhoondh kar le aaten hai aap .. sher padkar bahut accha lagaa. aur aap jo vivran deten hai , us se bhi bahut jyada information milti hai ..
aap yun hi nayi nayi kitaabon ke baaren mein batate jaayen..
mera dil se dhanyawaad.
aap exhibition men aayenge?
vijay
bahut acchha kaam kar rahey hain aap neeraj ji..
अब तो उस सूने माथे पर कोरे पन की चादर है
अम्माजी की सारी सजधज, सब जेवर थे बाबूजी
भीतर से खालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग, अनूठा, अनभूझा सा एक तेवर थे बाबूजी
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी
ye panktiya.n dil ke us hisse ko choo gai.n jo hamesha hi geela rahata hai....! kya aap mujhe ye poori gazal bhej sakte hai.n...jab tak mai kitab kharidoo us ke pahale
अब तक जितनी किताबों की आपने चर्चा की है सारी बेहतरीन लगीं हैं। अगले पुस्तक मेले में इन पर नज़र रहेगी।
आलोक साब और उनकी आमीन के हम भी जबरदस्त फैन हैं.....विगत चार एक महिनों से इस किताब के पन्नों में डूबते-उतरा रहे हैं
नीरज जी,
आपकी प्रस्तुति चुपके-चुपके
तुरपाई कर जाती है,
जीवन के कितने अभावों की
भरपाई कर जाती है !
=======================
शुक्रिया
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
नीरज जी, मैरे मित्र अलीक ने ही आपको राजीव नाम से सम्बोधित कर दिया था,मुझसे आपका परिचय पाकर्।
शायरी ही नही शायरों में भी आपका चिंतन गहन है। आलोक जी को आप के नज़रिये से देखा, बहुत अच्छा लगा।
मन्सूर हाशमी।
एक अच्छी किताब का सम्यक परीक्षण कर पाना कुशल रचनाकार के हाथों से ही सम्भव है। आपकी यह पोस्ट इसी बात की निशानी है।
नीरज जी
इलाहबाद में पुस्तक मेला लगा हुआ है (१६ जनवरी से २५ जनवरी) दूसरे दिन ही जा कर विजय वाते जी की पुस्तक खरीद ली ४० रु. मूल्य २५ % छूट मात्र ३० रु. में खजाना हाँथ लगा सब आपके परिश्रम का फल है
आमीन भी जरूर खरीदूंगा
आपका वीनस केसरी
नीरज जी जय श्री राम। क्या बात है जनाब। आलोक जी की शायरी तो शायरी ऊपर से आपकी समीक्षा सुभानअल्लाह। वैसे मैं ये किताब पहले ही पढ़ चुका हूं। क्योंकि आमीना का हमारी अख़बार में रिव्यू छपने के लिए आया था और छप भी चुका है, तो हमारे पास तो ये ख़जाना पहले से ही है।
जानकारी के लिए साधुवाद
नीरज जी नमस्कार
आमीन ये शब्द एक ऐसा है कि अगर कान में पडे या आंखों के सामने आए तो असंख्य शेर कानों में सुनाई पडते हैं दरअसल आलोक जी की आमीन मैंने भी काफी पहले पढ ली और इस बारे में आलोक जी से बात भी की थी बहुत ही पसंद की गई है यह बाकी आज आपने इसका रिव्यू देकर सोने पे सुहागा वाली रश्म अदा कर दी इसके लिए आपको और आलोक जी को हार्दिक बधाई
बाकी देरी के लिए माफी चाहता हूं कई दिनों से ब्लागजगत में ज्यादा सक्रिय नहीं रहा हूं
नीरज जी इतनी सुंदर पुस्तक की उतनी ही सुंदर समीक्षा । आपके सारे दिये उध्दरण एक लसे बढ कर एक हैं । किसे चुनें किसे छोडें । बहुत धन्यवाद ।
गणतंत्र दिवस की आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं
http://mohanbaghola.blogspot.com/2009/01/blog-post.html
इस लिंक पर पढें गणतंत्र दिवस पर विशेष मेरे मन की बात नामक पोस्ट और मेरा उत्साहवर्धन करें
गणतंत्र दिवस पर यह हार्दिक शुभकामना और विश्वास कि आपकी सृजनधर्मिता यूँ ही नित आगे बढती रहे. इस पर्व पर "शब्द शिखर'' पर मेरे आलेख "लोक चेतना में स्वाधीनता की लय'' का अवलोकन करें और यदि पसंद आये तो दो शब्दों की अपेक्षा.....!!!
नीरज जी,आलोक जी को तो कोटि-कोटि प्रणाम..........मगर आपको भी कोटि-कोटि धन्यवाद,कि आपने इन अद्भुत रचनाओं का दीदार हमें कराया....ट्रेलर ही ऐसा था तो पिक्चर कैसी होगी यही सोचकर मैं अभिभूत हुआ जा रहा हूँ....!!
neeraj jee,
aapko padhne ka aanand hee alag hai.aapka to apna likha turup to hota hee hai ,hai hee,lekin hamare jaison ke liyee gota laga badhiya sundar motee pesh karna lazbab hai.
aap aanand kee manzil ko aasan kar dete hain aur vividhta se do char karate huye vistarit bhee.maze le raha hoon !
aapse milne ka maza to kabhee likhunga par pahle padh kar to adyatan ho jaoon .AAPKE SATH GUZREE VO SHAM YADON ME HAMESHA DARZ RAHEGEE . GAM-YE ROZGAR NA HOTA TO KHOPOLEE PAR KARNA , AAPSE FIR MILE BINA ,AASAN NA HOTA .HAAN KASAK AUR JIYADA HO GAYEE HAI.
रफ़्ता-रफ़्ता मेरी जानिब, मंज़िल बढ़ती आती है,
चुपके-चुपके मेरे हक़ में, कौन दुआएं करता है।
भाई, एक अर्से से अपने इस शे'र को लिए घूम रहा हूं कि कहीं तो वो शख़्स मिले जो मेरे लिए दुआगो है और मुझे उसकी ख़बर तक नहीं!? मेरी ये तलाश ख़त्म कराने के लिए, आपका शुक्रिया। आप जैसे दानिशमंद ने इस खाकसार को नवाज़ा है तो आज आपसे वादा करता हूं कि-
तुम मुझे रोज़ चिट्ठियां लिखना,
मैं तुम्हें रोज़ इक ग़ज़ल दूंगा।
आपका ही आलोक
आलोक जी
आमीन के लिए ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएं हो अलोक जी और नेर्राज को इसे हम सब तक पहुँचने के लिए.
नीरज
को बधाई देना एक मात्र लफ्जों का समूह होगा. मन की भावना को किसी
भी तरह से यहाँ ढाल नहीं पा रही हूँ. आज आलोक जी के मंच से यहाँ तक का सफ़र मुझे साहित्य के इस सफ़र नामे का अनुभव करा गया. नीरज को जानती हूँ पहचानने की कोशिश अब शुरू हुई है. प्राण जी ने बताया था नीरज कुछ लिखने वाले है मैं ग़ज़ल कहता हूँ पर, पर कहाँ ये पत्ता न था..और अब सब साफ़ साफ़ दिखाई दे रहा है. नीरज You are a walking Talking Encyclopedia.
स्नेह भरी शुभकामनाएं कबूल हो
देवी नागरानी
ये जिस्म क्या है कोई पैरहन उधार का है
यहीं संभाल के पहना, यहीं उतार चले
रफ़्ता-रफ़्ता मेरी जानिब, मंज़िल बढ़ती आती है,
चुपके-चुपके मेरे हक़ में, कौन दुआएं करता है।
जिस्म से होते हुए दिल को छू गए दोनों शेर। मेरी दिली ख्वाहिश थी कि इस सभी टिप्पणियों में केवल मैं ही सराहूँ ऊपर वाला शेर तो बेहतर होगा और ऐसा ही हुआ।
Aaj ek bar fir se ameen ke bare men padh kar bahut anand aaya. Alok jee ke aur aap ke dono ke kalam ko salam.
घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे
चुपके चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा
सारे रिश्ते-जेठ -दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे
झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी सी पुरवाई अम्मा
बाबूजी गुजरे,आपस में सब चीजें तक्सीम हुईं, तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा
अब तो उस सूने माथे पर कोरे पन की चादर है
अम्माजी की सारी सजधज, सब जेवर थे बाबूजी
भीतर से खालिस जज्बाती और ऊपर से ठेठ पिता
अलग, अनूठा, अनभूझा सा एक तेवर थे बाबूजी
कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे, कभी हथेली की सूजन
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी
बहुत आभार , अलोक जी के बारे में बताने के लिए, अम्मा और बाबूजी लगभग रोज़ एक बार तो सुन ही लेता हूँ, और हर बार आँख भर आती है, माँ बाप के लिए ऐसी गजल आज तक मैंने अपनी जिन्दगी में नही सुनी,
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