काँटों के बीच फूलों के, गीत गा रही है
मुझको यूँ ज़िन्दगानी, जीना सिखा रही है
गद्दार हैं वतन के, दावे से कह रहा हूँ
खुशबू न जिनको इसकी, मिटटी से आ रही है
गहरे दिए हैं जबसे, यारों ने ज़ख्म मुझको
दुश्मन की याद तब से, मुझको सता रही है
भरता कभी न देखा, कासा ये हसरतों का
कोशिश में उम्र सबकी, बेकार जा रही है
कासा ( कटोरा, बर्तन )
करने कहाँ है देती, दिल की किसी को दुनिया
सदियों से लीक पर ही, चलना सिखा रही है
जी चाहता है सुर में, उसके मैं सुर मिला दूँ
आवाज कब से कोयल, पी को लगा रही है
ग़ज़लें ही मेरी साया, बन जायें काश "नीरज"
ये धूप ग़म की तीखी ,मुझको जला रही है
(गुरु देव प्राण शर्मा साहेब की रहनुमाई में लिखी ग़ज़ल)
53 comments:
नीरज भाई,
करने कहाँ है देती, दिल की किसी को दुनिया
सदियों से लीक पर ही, चलना सिखा रही है
बहुत सुन्दर प्रस्तुतु। बधाई
इसी भाव भूमि पर अपनी दो पँक्तियाँ भेज रहा हूँ-
सत्ता के रखवालों ने मिल लूट लिया है इन्सानों को।
बर्षों हमने झुकाया सर को आज जरूरी उठाये रखना।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
करने कहाँ है देती, दिल की किसी को दुनिया
सदियों से लीक पर ही, चलना सिखा रही है
जी चाहता है सुर में, उसके मैं सुर मिला दूँ
आवाज कब से कोयल, पी को लगा रही है
ग़ज़लें ही मेरी साया, बन जायें काश "नीरज"
ये धूप ग़म की तीखी ,मुझको जला रही है
bahut sundar,jitni khubsurat gazal uske aath ki tasverr mohak,bahut badhai.
करने कहाँ है देती, दिल की किसी को दुनिया
सदियों से लीक पर ही, चलना सिखा रही है
नीरज जी, बहुत लाजवाब !
रामराम !
नमस्कार नीरज जी.,
बहुत अच्छी ग़ज़ल है.
बहुत दिनों के बाद नजर आए आप। हर बार की तरह यह रचना भी अच्छी लगी।
काँटों के बीच फूलों के, गीत गा रही है
मुझको यूँ ज़िन्दगानी, जीना सिखा रही है
बहुत खूब।
काँटों के बीच फूलों के, गीत गा रही है
मुझको यूँ ज़िन्दगानी, जीना सिखा रही है
बहुत बढ़िया शेर लगा यह ...बहुत खूब
भरता कभी न देखा, कासा ये हसरतों का
कोशिश में उम्र सबकी, बेकार जा रही है
------
बहुत सुन्दर। यह कासा क्या होता है? अगर अर्थ साथ होता तो आनन्द और आता।
बहुत ही उम्दा बेहतरीन और सामयिक गजल है बधाई।
काँटों के बीच फूलों के, गीत गा रही है
मुझको यूँ ज़िन्दगानी, जीना सिखा रही है
गद्दार हैं वतन के, दावे से कह रहा हूँ
खुशबू न जिनको इसकी, मिटटी से आ रही है
एक सममिश्रित सुन्दर कृति!
गहरे दिए हैं जबसे, यारों ने ज़ख्म मुझकोदुश्मन की याद तब से, मुझको सता रही हैगहरे दिए हैं जबसे, यारों ने ज़ख्म मुझकोदुश्मन की याद तब से, मुझको सता रही है....पंक्तियाँ खूबसूरत है,बधाई
जी चाहता है सुर में, उसके मैं सुर मिला दूँ
आवाज कब से कोयल, पी को लगा रही है
-बेहतरीन!! हमेशा की तरह छाये रहे!!
वाह!! वाह!!
sunder
जी चाहता है सुर में, उसके मैं सुर मिला दूँ
आवाज कब से कोयल, पी को लगा रही है
ग़ज़लें ही मेरी साया, बन जायें काश "नीरज"
ये धूप ग़म की तीखी ,मुझको जला रही है
बहुत सुन्दर।
गद्दार हैं वतन के, दावे से कह रहा हूँ
खुशबू न जिनको इसकी, मिटटी से आ रही है
" behtrin, lajvwab"
regards
बेहतरीन प्रस्तुति ! बधाई स्वीकारें .
ग़ज़लें ही मेरी साया, बन जायें काश "नीरज"
ये धूप ग़म की तीखी ,मुझको जला रही है
सच कहा नीरज जी ....ये आखिरी शेर खास तौर से .मैंने देखा है आप हिन्दी के सामान्य बोलचाल के शब्दों का बहुधा प्रयोग अपने शेरो में करते है...कभी कोई नज़्म भी कहिये .....गुजारिश समझियेगा
करने कहाँ है देती, दिल की किसी को दुनिया
सदियों से लीक पर ही, चलना सिखा रही है
वाह भाई ! सहज शब्दों में क्या खूब कहा है आपने।
बहुत खूबसूरत !
हमेशा की तरह लाजवाब कर देने वाले शेर नीरज जी....
हम तो आश लगाये बैठे रहते हैं आपके गज़लों के लिये
आपकी लिखी गज़लेँ पढना
कुछ लम्होँ का सुकून दे जाता है
नीरज भाई
यूँ ही, लिखते रहीये ~~
स स्नेह,
- लावण्या
अबतक की पढी बेहतरीन ग़ज़लों में से एक है यह नीरज भाई ! शुभकामनायें !
जी चाहता है सुर में, उसके मैं सुर मिला दूँ
आवाज कब से कोयल, पी को लगा रही है.
वाह एक से बढ कर एक, बहुत सुंदर लगे आप के सभी शेर.
धन्यवाद
करने कहाँ है देती, दिल की किसी को दुनिया
सदियों से लीक पर ही, चलना सिखा रही है
नीरज भाई.जिंदगी तो आपके पहलू से होकर ही आ-जा रही है....
देखिये ना आपकी बिटिया आपके ब्लॉग पर मुस्कुरा रही है....!!
इतना प्यार आपने नीरज कभी कहाँ देखा होगा भला....
छोटे-छोटे हाथों से बेटी आपको खाना खिला रही है .....!!
जिन्दगी कभी किसी को रोना नहीं सिखाती "गाफिल"
हर पल हमें वो गीत गाना...और हँसना सिखा रही है....!!
करने कहाँ है देती, दिल की किसी को दुनिया
सदियों से लीक पर ही, चलना सिखा रही है
जी चाहता है सुर में, उसके मैं सुर मिला दूँ
आवाज कब से कोयल, पी को लगा रही है
ग़ज़लें ही मेरी साया, बन जायें काश "नीरज"
ये धूप ग़म की तीखी ,मुझको जला रही है
आदरणीय नीरज जी ये तीन शेरों ने तो गज़ब ही कर दिया जी. इतनी सुन्दर रचना हुई है के कह्ते ही नहीं बन रहा. बधाई और आभार.
नीरज जी, हर शेर क़ाबिले तारीफ़ है। बधाई।
नीरज भाई
असमंजस में डाल दिया आपन.
तारीफ़ गज़ल की करूँ या फोटो की. अभी यही सोच रहा हूँ
गुलशन में जाके लिक्खे, अशआर लगता नीरज
खुश्बू हज़ार गुल की इनमें से आ रही है
वैसे तो रचना बहुत सुंदर है मगर नीचे की पंक्तियाँ कुछ ज़्यादा ही सुंदर हैं:
गद्दार हैं वतन के, दावे से कह रहा हूँ
खुशबू न जिनको इसकी, मिटटी से आ रही है
गहरे दिए हैं जबसे, यारों ने ज़ख्म मुझको
दुश्मन की याद तब से, मुझको सता रही है
भरता कभी न देखा, कासा ये हसरतों का
कोशिश में उम्र सबकी, बेकार जा रही है
bahut accha likha hai aapne, mujhe ye aakhiri sher khas taur se bahut pasand aaya.
ग़ज़लें ही मेरी साया, बन जायें काश "नीरज"
ये धूप ग़म की तीखी ,मुझको जला रही है
हर शेर लाजवाब है.
काँटों के बीच फूलों के, गीत गा रही है
मुझको यूँ ज़िन्दगानी, जीना सिखा रही है
.......
yahi zindagi hai bhi,yun bhi kaanton me rahnewale,kaanton se kya darenge.......zindagi inhe hi milti hai
bahut khoobsurat ghazal
काँटों के बीच फूलों के, गीत गा रही है
मुझको यूँ ज़िन्दगानी, जीना सिखा रही है
भरता कभी न देखा, कासा ये हसरतों का
कोशिश में उम्र सबकी, बेकार जा रही है
ग़ज़लें ही मेरी साया, बन जायें काश "नीरज"
ये धूप ग़म की तीखी ,मुझको जला रही है.
bhaut hee khooooooooob.
aapki ye gazal se bada sakun mila bhai ..
zindagi ke naye aayamo ko darshati hai ye gazal.
bahut bahut badhai..
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com/
ग़ज़लें ही मेरी साया, बन जायें काश "नीरज"
ये धूप ग़म की तीखी ,मुझको जला रही है.
वाह...!!
ये आपकी ग़ज़ल में जो भाव अपना देखा
मेरी कलम उठी है, मिसरे बना रही है
भरता कभी न देखा, कासा ये हसरतों का
कोशिश में उम्र सबकी, बेकार जा रही है
अद्भुत!
'भरता कभी न देखा, कासा ये हसरतों का
कोशिश में उम्र सबकी, बेकार जा रही है'
क्या खूब कही नीरज जी, सचमुच तारीफ को लफ्ज ही नहीं मिल रहे .
गद्दार हैं वतन के, दावे से कह रहा हूँ
खुशबू न जिनको इसकी, मिटटी से आ रही है
हमेशा कि तरह बेहतरीन ग़ज़ल
नीरज जी सुंदर रचना कि लिए बधाई
गद्दार हैं वतन के, दावे से कह रहा हूँ
खुशबू न जिनको इसकी, मिटटी से आ रही है
गहरे दिए हैं जबसे, यारों ने ज़ख्म मुझको
दुश्मन की याद तब से, मुझको सता रही है
वाह...!!aapki ye lekhni मुझको जला रही है ...लाजवाब!
बहुत कठिन कार्य है सर काँटों की बीच फ्हूलों की गीत गाना
काँटों के बीच फूलों के, गीत गा रही है
मुझको यूँ ज़िन्दगानी, जीना सिखा रही है
waaaaah bahut khoob
गहरे दिए हैं जबसे, यारों ने ज़ख्म मुझको
दुश्मन की याद तब से, मुझको सता रही है
नीरज जी क्या खूब कहा है आपने बहोत ही उम्दा ग़ज़ल .. मकता तो कमाल का है बहोत ही करीने से लिखी है आपने ढेरो बधाई साहब ...
अर्श
... अत्यंत प्रभावशाली व प्रसंशनीय ।
बहुत सुन्दर ........
बहुत सुन्दर गज़ल कहना सूरज को दर्पण दिखाना होगा...आप हमेशा ही बहुत सुन्दर लिखते हैं...
करने कहाँ है देती, दिल की किसी को दुनिया
सदियों से लीक पर ही, चलना सिखा रही है'
sabhi sher qabiley taarif hain.
bahut hi khubsurat ghazal.
badhayee
ग़ज़लें ही मेरी साया, बन जायें काश "नीरज"
ये धूप ग़म की तीखी ,मुझको जला रही है
नीरज जी बहुत ही शानदार ग़ज़ल है !!!!!!
रेवा स्मृति said...
काँटों के बीच फूलों के, गीत गा रही है
मुझको यूँ ज़िन्दगानी, जीना सिखा रही है
Bahut khub likha hai aapne
बहुत खूब सर जी साया जरूर बनेगी.......
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने सारे के सारे शेर एक से बड़कर एक हैं......
आपको खूब सारी बधाई......
सर जी आपका मार्गदर्शन मेरे ब्लॉग पर भी ..
अक्षय-मन
गहरे दिए हैं जबसे, यारों ने ज़ख्म मुझको
दुश्मन की याद तब से, मुझको सता रही है
बहुत ही शानदार ग़ज़ल है....बहुत सुन्दर लिखते हैं.बधाई..
अच्छा िलखा है आपने । जीवन के सच को प्रभावशाली तरीके से शब्दबद्ध िकया है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है -आत्मिवश्वास के सहारे जीतें िजंदगी की जंग-समय हो तो पढें और कमेंट भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
नीरज जी
आपकी ये ग़ज़ल पढ़ी और दाद दिए बग़ैर ना रह सका। निहायत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल है। इस शे'र में बहुत बड़ी सच्चाई उजागर की है।
गद्दार हैं वतन के, दावे से कह रहा हूँ
खुशबू न जिनको इसकी, मिटटी से आ रही है
सारे ही अशा'र दाद के हक़दार हैं।
bahut bahut bahut bahut sundar.............
वाह नीरज भाई वाह
आपकी ग़ज़लें बार-बार पढता हूं और आपकी गज़लों की ख़ासियत ये है कि ये सभी बहर और मीटर में फिट बैठ रही है और साथ आपकी ग़ज़ल आपके कहे को स्पष्ट रूप से कह रही है। बधाई।
गद्दार हैं वतन के, दावे से कह रहा हूँ
खुशबू न जिनको इसकी, मिटटी से आ रही है
गहरे दिए हैं जबसे, यारों ने ज़ख्म मुझको
दुश्मन की याद तब से, मुझको सता रही है
भरता कभी न देखा, कासा ये हसरतों का
कोशिश में उम्र सबकी, बेकार जा रही है
Post a Comment