Thursday, September 27, 2007

मेरा जूता है जापानी!




जिस तरह कस्बे का छोटा सा स्टेशन, लाईन क्लिअर न होने पे अचानक ठहर गयी शताब्दी और दूसरी ऐसी ही तेज चलने वाली गाड़ियों को देख ये समझ बैठता है की वो जंक्शन बन गया है उसी तरह मैंने भी अपने ब्लॉग पर बड़े बड़े सूरमाओं को जब आते और कमेंट करते देखा तो लगा की मैं भी बहुत बड़ा ब्लोगिया हो गया हूँ. ये ग़लत फ़हमी जल्दी ही दूर हो गयी. थोड़े ही दिनों बाद सूरमाओं को छोड़िये यहाँ तक कि नये ब्लॉगर भाईयों तक का आवागमन भी कम से कमतर होता गया. मुझे जान लेना चाहिए था की अगर एक ही प्लेटफॉर्म हो तो लम्बी दूरी की प्रतिष्ठित गाडियां उस स्टेशन पर नहीं ठहरा करतीं चाहे ज्ञान भईया अपने कौशल से उन्हे कितना ही रोकने की कोशिश करें. इसलिए सोचा की अब शायरी के अकेले प्लेटफॉर्म के अलावा कोई दूसरा प्लेटफॉर्म भी बनाना होगा. आजकल शोपिंग मॉल का ज़माना है जबतक सब कुछ एक ही छत के नीचे न मिले कोई आता नहीं!

इसीलिये मेहरबानो, कद्रदानों मैंने शायरी के अलावा भी कुछ लिखने का सोचा है.

लेकिन क्या लिखें? राम सेतु ,फिल्में, राजनीति, क्रिकेट और साहित्य आदि के नाम पर हमारे श्रेष्ट ब्लोगियों ने अपने ज्ञान से पढने वालो का समय पहले ही काफी कुछ ले लिया है तब ऐसे में हमारे लिए लिखने को बचता क्या है? अगर हम भी वो ही सब कुछ लिखने लग गए तो हमें पढ़ेगा कौन? समस्या वहीं की वहीं रह जायेगी! सोचते हैं कुछ हट के लिखें क्यों की हट के कुछ लिखने से हिट होने की संभावना बढ़ जाती है! उदाहरण के लिए गुलज़ार साहेब को ही लें , जब उनको लगा की "नाम गुम जाएगा" जैसे गाने सुनने वाले नहीं रहे हैं तो "बीडी जलाईले जिगर से पिया" लिख के फ़िर से हिट हो गए.

अभी पिछले दिनों जापान जाना हुआ! जापान का नाम तो सुने ही होंगे आप? नहीं सुने हैं (कमाल है!) तो कृपया मेरा ब्लॉग पढ़ना छोड़िये और अपना सामान्य ज्ञान पहले बढाइये क्यों की मैं वहीँ की बात करने जा रहा हूँ! तो साहेब जापान में ऐसा बहुत कुछ है जिस से अगर हम कुछ सीखना चाहें तो सीख सकते हैं लेकिन उसके लिए हमें अपनी सिर्फ़ "सायोनारा तक सीमित" सीखने की प्रवृति को छोड़ना होगा!

मैं सिर्फ़ अनुशासन की बात ही करुंगा अभी! जापान में एक अलिखित नियम है स्वचालित सीढियों पर चलने का - वह ये की सब लोग रेलिंग के दाईं और खड़े होते हैं ताकि जिस व्यक्ति को जल्दी है, वो बाकी लोगों को बिना धक्का दिए बाईं और से तेजी से चढ़ या उतर सकता है! ये नियम पूरे जापान मैं पालन किया जाता है, बिना किसी को इसके पालन के लिए बाध्य किए हुए! आप कहीँ चले जाएँ लोग आप को एक साइड पर ही खडे नज़र आएंगे! सोचिये की यदि हमारे देश मैं भी ये सुविधा हो जाए तो बिचारे जेबकतरों को कितनी असुविधा हो जायेगी, नहीं? दूसरे हम लोगों को बिना दूसरे को धक्का दिए चलने मैं कितनी दिक्कत होगी?

और सबसे अच्छी बात जो देखने मैं आयी वो थी के अंधे लोगों के लिए रेलवे स्टेशन , एअर पोर्ट , शॉपिंग मॉल , या सड़क के किनारे एक पीले रंग की पट्टी बिछाई जाती है जिस पर ब्रेल नुमा चिह्न उभरे रहते हैं जिस से की वे लोग उसपे चलते हुए ये जान लेते हैं की कहाँ आराम से चलना है कहाँ मोड़ हैं या कहाँ रुकना है !

अंधे लोगों के लिए इस प्रकार की सुविधा मैंने तो दुनिया में और कहीँ नहीं देखी आप ने देखी हो तो कह नहीं सकता! अपने मोबाइल से जैसी फोटो मैं खींच सकता था खींच लाया हूँ आप भी देखिये!


अब बात करें हमारे देश की तो साहेब ये देखिए मुम्बई की एक सड़क की फोटो जो आज के अखबार से ली गयी है (दायीं तरफ देखें) और जिसकी स्थिति आँख वालों के और यहाँ तक की वाहनों के चलने के लिए भी ठीक नहीं है तो अंधों की क्या बात करें? सोचिये और जवाब दीजिये यदि आप के पास है तो !

हमारे देश में लोग "मेरा जूता है जापानी" गाने पे ही पे अटके रह गए और जापानी जूता पहन के न जाने कहाँ से कहाँ चले गए.!

11 comments:

Shiv said...

अन्तिम फोटो देखकर एक बार लगा कि आपने ये दिखाने की कोशिश की है कि महासागर के बीच जापान कैसा दिखाई देता है.लेकिन ध्यान से देखने पर एक कार भी दिखाई दी, तब जाकर समझ में आया कि ये मुम्बई की किसी सड़क का मन मोहने वाला दृश्य है.

हाँ, हम तो 'वादा निभाऊंगी सायोनारा' और 'मेरा जूता है जापानी' ही सुनते रह गए.....लेकिन क्या पता, हो सकता है कि जापानी भी 'बीडे जलैले' सुनकर खुश हो रहे हैं...

Gyan Dutt Pandey said...

नीरजजी, कई लोग शॉपिंग मॉल सजा कर बैठे हैं. अपने ब्लॉग के वस्त्र नित नवीन करते फिरते हैं. पर ग्राहक के लिये हमारी तरह टकटकी बांधे रहते है.
कई लोगों के पास ग्राहक आते हैं चुपचाप सामान ले जाते हैं पर विजिटर बुक में हस्ताक्षर नहीं करते. उनका काउण्ट स्टैटकाउण्टर ही बताता है.
मुझे विश्वास है कि नये आये के हिसाब से आपका स्टैटकाउण्ट कई जमे जमाये को ईर्ष्या करा सकता है.
बाकी पाठक को क्या पसन्द आता है - यह तो मैं आज तक नहीं समझ पाया. इतना जरूर समझ में आया कि अगर कन्सिस्टेण्टली लिखा जाये और लेख में पाठक से संवाद कायम करने का सहज प्रयास हो तो देर सबेर बैटिन्ग जम जाती है.
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आपने जापान का बड़ा अच्छा प्रतिमान रखा. मुझे जापान बहुत फैसिनेट करता है. एक युद्ध से तबाह राष्ट्र कैसे इतनी जल्दी शिखर पर पंहुच जाता है - वह जानने के लिये जापान और जर्मनी का अध्ययन बहुत अच्छा रहेगा. आप आगे और भी बतायेंगे जापान पर!

काकेश said...

अच्छा लगा आपका जापानी वर्णन.ज्ञान जी आपके ब्लॉग सलाहकार हैं तो समझिये जम ही जायेगी आपकी शॉपिंग माल.अपन तो अपना खोमचा से ग्राहकों को ताक रहे हैं. ना बिक्री है ना आवक.

रवि रतलामी said...

किसी भी दुकानदारी में ब्रेक-इवन के लिए कम से कम दो-तीन साल का समय तो चाहिए ही... अभी तो मैं भी अपनी दुकान पर इनवेस्टमेंट ही किए जा रहा हूँ. रिटर्न (पाठकों) की उम्मीद बांधे....:)

और, क्या विरोधाभास है कि हम न्यूयॉर्क में इनक्रिडिबल इंडिया मना रहे हैं... :(

Shiv said...

एक ही पोस्ट में
दोनों को देखा
जापानी जूते और;
मुम्बई की सड़क
सड़क के गड्ढे और;
जूते की तड़क-भड़क

लेकिन शिकायत के लिए
जगह है कहाँ?
सड़क पर हैं गड्ढे
तो गड्ढे में
सारा जहाँ

अब गड्ढे में रहनेवाले
क्यों भला शिकायत करें?
जूता अगर जापानी है
तो मुम्बई के सड़क की
अपनी भी कहानी है

यही सड़क हमें
रास्ता बताती है
थोड़ी दिक्कत होगी
अगर मौसम
'बरसाती' है

हम सभी की सड़कें
अलग-अलग हैं
यही वजह है कि;
हम एक दूसरे से
अलग-थलग हैं

हमसे अच्छे तो;
जापानी जूते हैं
जहाँ भी जायेंगे
रहेंगे साथ-साथ
कभी नहीं करते
एक-दूसरे से
दो-दो हाथ

जापानी जूतों से भी
कुछ सीख सकते हैं
उनकी तरह रहें
तो इंसान दिख सकते हैं

नीरज गोस्वामी said...

प्रिये शिव
क्या बात है...वाह.

कई बार यौं भी देखा है
ये जो बंधु तेरा लेखा है
एक पोस्ट सा लगता है .....

इस ब्लॉग को हमारे
कितना भी हम सवारें
सब तुमको ही पढता है ....
(मुकेश के एक पुराने गाने की परोडी....फ़िल्म आनंद)

नीरज

Sanjeet Tripathi said...

शुक्रिया इस विवरण के लिए!! अच्छा लगा आपका यह विवरण!!

जापानी तरक्की के पीछे वहां के नागरिकों में राष्ट्रीय स्वाभिमान और सामुदायिकता की भावना का बहुतायत मे होना भी एक प्रमुख कारण है जबकि हमारे यहां इन्ही दो बातों की मुख्य रुप से कमी दिखती है, हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान तभी जागृत होता सा लगता है जब हम पाकिस्तान या आस्ट्रेलिया से कोई मैच हार या जीत जाएं या फ़िर तो कोई बड़ा विदेशी नेता हमारे देश की तारीफ़ या बुराई कर दे!

Pankaj Oudhia said...

आपको जापान अच्छा लगा ये ठीक है। पर सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा। जैसा भी है, है तो अपना ही। फिर यहाँ हम आप जैसे लोग है जो हर विपरीत परिस्थितियो मे मुस्कुरा रहे है। आपने ऐसे अनोखे लोग दुनिया मे कही नही देखे होंगे।

haidabadi said...

नीरज साहिब ,
वैसे तो में आपकी कविता का लोहा मानता हूँ वोह इस लिए के साधारण शब्दों से आप बहुत अच्छे शेर ढाल देते हो. कई बार तो यकीन नही होता के लोहे का कारोबार करने वाला इन्सान अपने भीतर दिल में कितना मोम रखता है यानी कितना मर्मस्पर्शी है कितना चिन्तक है. कवि अब "सफ़रनामे" भी लिखने लगा है यह जान कर बहुत ही अछा लगा "भगवान करे ज़ोरे कलम और ज्यादा"

गया हूँ लंदन भी
गया हूँ पेरिस भी गया हूँ बर्मा तुर्की टर्की वा रंगून में
के हिरणी जैसी आँखें देखी देहरादून में
चाँद शुक्ला डेनमार्क
फुरसित में आपके लिए

Udan Tashtari said...

चलिये, यह भी बढ़िया रहा गजल से जानकारी पूर्ण पोस्ट की तरफ रुख.

कनाडा में भी एक्सेलेटर पर यही नियम सब फालो करते हैं.

ब्लाईन्ड रुट का कान्सेप्ट एक जानकारी है नई.

आभार इस पोस्ट के लिये.

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लिखा संस्मरण। और लिखिये जापान के बारे में। जमने की चिंता मत करिये। ऐसे ही लिखते रहिये फिर आपको उखड़ने के लिये मेहनत करनी पड़ेगी।