Monday, August 19, 2024

किताब मिली - शुक्रिया -14


सच में,बहुत दुविधा पूर्ण स्थिति है साहब!!! दुविधा ये है कि क्या लिखूं ?जी हां मैं उस किताब पर क्या लिखूं जिस पर मुझसे अधिक समझदार लोग मुझसे पहले बहुत बेहतरीन लिख चुके हैं। मेरा मानना है कि जो कुछ लिखा जा चुका है जब आप उसे बेहतर या इतर नहीं लिख सकते तो आपको नहीं लिखना चाहिए।

फिर भी मैं क्यों लिख रहा हूं ? वो इसलिए कि ये जो दिल है न, ये कमबख़्त नहीं मान रहा। कह रहा है कि तू लिख और हम तो मुकेश जी के इस गाने के शुरू से मुरीद रहे हैं कि "दिल जो भी कहेगा मानेंगे, दुनिया में हमारा दिल ही तो है" इसलिए दिल की मान कर लिख रहे हैं। अब आप अपने दिल से पूछ लें कि आपको आगे पढ़ना है या नहीं। वैसे मुझे यक़ीन है कि आपका दिल मना नहीं करेगा यदि करना होता तो अब तक कर चुका होता और आप ये सब नहीं पढ़ रहे होते। है न ?

यह तो हुआ अनर्गल प्रलाप, अब मुद्दे पर आते हैं। मुद्दा है, हमसे ठीक एक साल एक महीने पहले याने, 14 सितंबर 1951 को मथुरा में पैदा हुए जनाब रवि खंडेलवाल साहब की पहली ग़ज़लों की किताब "तज कर चुप्पी हल्ला बोल" का। आप कहेंगे इसमें मुद्दा क्या है? मुद्दा वो है जो मैं ऊपर बयान कर चुका हूं यही कि इस किताब पर क्या लिखूं? पर लिखना है तो सोचा कि इस किताब में छपी शायरी पर तो आप इंटरनेट से बहुत आला विद्वानों द्वारा की गई समीक्षा में सब कुछ पढ़ ही लेंगे इसलिए  क्यों न मैं उस पर लिखूं जिसने इस अनूठी शायरी को इस किताब में पेश किया है याने इस किताब के शायर जनाब "रवि खंडेलवाल" साहब पर।
शायर और उसके संघर्ष को यदि आपने जान लिया तो समझिए कि आपने उसकी शायरी को भी जान लिया हालांकि इसमें अपवाद हो सकते हैं। कई बार शायर का चरित्र अपनी शायरी के विपरीत भी मिलता है लेकिन सौभाग्य से 'रवि खंडेलवाल' भाई अपवाद नहीं है क्योंकि वो खरे हैं और तप कर कुंदन बने हैं।

वो खा रहे हैं एकता की क़समें बारहा 
हाथों में जिनके अपने-अपने इश्तिहार हैं
*
कांच का मंदिर बना है 
और पत्थर पूजना है

आइज खुशियां मनाएं https 
आंख ने आंसू जना है
*
सर झुका कर ज़ुल्म सहना नहीं है ज़िंदगी
ज़िंदगी के तौर बदलो और हल्ला बोल दो
*
ये मध्यम वर्ग का जो आदमी दिखता है चमकीला 
मुझे मालूम है है कोट के पीछे नहीं अस्तर
*
ज़िंदगी एक ऐसी ग़ज़ल दोस्तो 
जिसमें सब कुछ मगर क़ाफ़िया ही नहीं

बात शुरू से शुरू करते हैं, याने मथुरा से। मथुरा में रवि खंडेलवाल जी के पिताजी का कारोबार था जो किन्हीं कारणों से कानपुर ले जाना पड़ा। उनके पिता स्वांत:सुखाय के लिए कविताएं लिखा करते थे। पिता को देख कर बालक रवि ने भी तुक बंदी शुरू कर दी। कानपुर के एक कवि सम्मेलन में रवि जी को उनके भाई साथ ले गए जहां उन्होंने पहली बार श्री गोपाल दास 'नीरज' जी को सुना। उस छोटी सी उम्र में वो 'नीरज' के दीवाने हो गए।

पिता के आकस्मिक देहावसान के बाद पूरा परिवार फिर से वापस मथुरा आ गया। आर्थिक स्थिति बिगड़ गई, संघर्ष का कठिन दौर शुरू हो गया, लेकिन इस सब के बावजूद रवि जी का कविता प्रेम कम होने की बजाय बढ़ता गया।

रवि जी ने ढूंढ ढूंढ कर नीरज जी की किताबें पड़ी और उन्हीं की तरह लिखने की कोशिश जारी रखी सौभाग्य से ग्रेजुएशन के दौरान उन्हें डॉक्टर वेद प्रकाश शर्मा 'अमिताभ' जैसे शिक्षक मिले जिनका पढ़ने का अंदाज निराला था। वेद जी बात-बात पर क्लास में किसी कवि की कविता या किसी शायर का शेर सुनाया करते थे। एक दिन एक शेर वेद प्रकाश जी ने क्लास में सुनाया जो रवि जी के दिल ओ दिमाग पर हमेशा के लिए चस्पां हो गया और वो उसकी गिरफ्तार से आज भी नहीं निकल पा रहे।शेर था:-

समझो न दागे चेचक इस नाज़नी के मुख पर 
देखा है आशिकों ने नज़रें गड़ा गड़ा कर

मुझे यक़ीन है कि आप में से शायद ही किसी ने ये शेर सुना होगा, यदि सुना है तो कमेंट बॉक्स में शायर का नाम बता दें बड़ी मेहरबानी होगी। इस एक शेर से रवि भाई शायरी की ओर बढ़ गए। ट्रांजिस्टर पर ग़ज़लें सुनने लगे और 

आपको देख के बेगौर भी अच्छा लगा 
गौर से देखा तो फिर और भी अच्छा लगा 

या फिर 

जब ख़्याल आया कि मैंने रात छत पर क्या किया 
सोच कर देखा तो पाया चांद को देखा किया 

जैसे शेर कहने लगे और उन्हें सुना सुना कर गोष्ठियों में दाद पाने लगे ।

जब सह सका ना ज़ुल्म तो आख़िर यही हुआ 
ज़ालिम के ज़ोर-ज़ुल्म से टकरा गया हूं मैं
*
बुराई अगर आप देखेंगे मुझ में 
दिखेगी सदा ही बुराई-बुराई
*
ग़लती तो आखिर ग़लती है चाहे जिसकी हो 
फ़र्क नहीं पड़ता किसने कम-ज्यादा ग़लत कहा
*
बुत बनके रह गया क़सम से आम आदमी 
देखा है दोनों हाथ से मैंने झिंझोड़ कर 

सुखी तलाश में 'रवि' निकला था घर से मैं 
दुनिया खंगाल डाली मैंने, ख़ुद को छोड़कर

साहित्यिक के अलावा मथुरा में वो रंगमंच से भी जुड़ गये। उन दिनों स्वर्गीय श्री अमृतलाल नागर जी की सुपुत्री डॉ अचला नागर 'स्वास्तिक' नाट्यसंस्था के अंतर्गत नाटकों का मंचन किया करती थीं। रवि खंडेलवाल जी उनके साथ जुड़ कर नाटकों में अभिनय करने लगे और अपनी अभिनय क्षमता का लोहा उन्होंने 'खामोश अदालत जारी है', 'सिंहासन खाली है' तथा 'गांधी जी की बकरी' जैसे नाटकों में अभिनय कर मनवाया। उनके साथ के अभिनेता बृजेंद्र काला आज नाट्य और सिने जगत के प्रसिद्ध कलाकारों में से एक हैं।

किसी का जीवन एक गति से नहीं चलता, रवि जी भी अपवाद नहीं थे। मथुरा में जो कारोबार ठीक ठाक चल रहा था वो अपरिहार्य कारणों से डांवाडोल हो गया। आय के विकल्प जब मथुरा में नहीं दिखे तो उन्होंने इंदौर जाना तय किया वहां उनकी ससुराल भी है। इंदौर में व्यापार ज़माने में वक्त लगता इसलिए नौकरी का विकल्प सूझा और वो इंदौर की 'फैरों कंक्रीट कंस्ट्रक्शन कम्पनी' में काम करने लगे। ये सन 1993 की बात है। अपनी लगन और मेहनत के चलते अब वो इस कंपनी में महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं और आज भी उसी ऊर्जा से काम कर रहे जिस ऊर्जा से वो सन् 1993 में किया करते थे। 

1993 से 2013 यानी 20 साल वो नौकरी में इस कदर व्यस्त रहे कि साहित्य एक कोने में धरा रह गया। उन्हें लगने लगा कि उनके अंदर की साहित्यिक प्रतिभा धीरे-धीरे मर रही है। लेकिन ऐसी बात नहीं थी। वो प्रतिभा अंदर ही अंदर प्रगाढ़ हो रही थी ।

सन 2013 में रवि खंडेलवाल फेसबुक से जुड़े और फिर एक विस्फोट हुआ। फेसबुक के माध्यम से वो अपने उन साहित्यिक मित्रों से जुड़े जो कहीं पीछे छूट गए थे। मित्रों ने उन्हें फिर से साहित्य की धारा में बहने को प्रेरित किया।

2013 से अब तक उनका लेखन अबाध गति से चल रहा है। फेसबुक और स्थानीय गोष्ठियों में उनकी रचनाएं चर्चित होने लगीं। उनकी कलम साहित्य की सभी प्रचलित विधाओं में जैसे गीत, नवगीत, दोहे, समकालीन कविताएं और ग़ज़ल आदि पर सफलतापूर्वक चलने लगी। सन 2022- 23 में उनकी तीन पुस्तकें 'उजास की एक किरण' जिसमें समकालीन कविताएं हैं, 'मौत का उत्सव' जिसमें कोरोना कल की त्रासदी पर लिखी कविताएं हैं और 'तज कर चुप्पी हल्ला बोल' ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुईं।

रवि जी के आकाशवाणी से कई एकल काव्य पाठ हो चुके हैं। इनके बहुत से काव्यात्मक संगीत रूपकों एवं लगभग 100 गीतों का विभिन्न गायको द्वारा समय-समय पर संगीत बद्ध प्रसारण हुआ है।

युवाओं को मात देने वाली ऊर्जा वाले रवि जी की 9 पुस्तकें, जिनमें तीन ग़ज़ल संग्रह, तीन कविता संग्रह दो नवगीत संग्रह और एक दोहा संग्रह है, प्रकाशनाधीन है। अंतर्जाल और पत्र पत्रिकाओं में छपी उनकी विभिन्न रचनाओं का ज़िक्र किसी एक पोस्ट में करना असंभव है।

यहां इस बात का उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि रवि जी ने ब्रजभाषा में भी ग़ज़ले कही हैं। बृज ग़ज़लो को लोकप्रिय बनाने में 'नवीन चतुर्वेदी' भाई के योगदान की जितनी प्रशंसा की जाए कम है।ब्रज ग़ज़लों की भाषा में वो मिठास है जो मधुमक्खी के छत्ते से टपकते शहद में होती है।

निर्वसन लगने लगी है आत्मा जब से 
संस्कारों ने हैं पहने वस्त्र झीने से
*
मौन धारण कर नहीं कुछ भी तुझे मिल पाएगा 
है अगरचे चाहिए हक़ रार कर, तकरार कर
*
आदमी को और ना, बदनाम कर ऐ आदमी 
आदमी बनकर ही रहना, आदमी के वेश में
*
फूल ऐसा भी 'रवि' किस काम का 
आप फ़ेंके और पत्थर सा लगे
*
क्या आम आदमी इसी को बोलते हैं हम
आंखें खुशी में और जिसकी ग़म में भी है नम

रवि जी के इस पहले संग्रह की ग़ज़लें दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की परम्परा की तो हैं ही साथ ही इनमें गिरते मानवीय मूल्यों के प्रति आक्रोश के अलावा सामाजिक सरोकार की बातें भी हैं। अलग से तेवर वाली ये ग़ज़लें पाठक को सोचने पर मजबूर करती हैं।
'तज कर चुप्पी हल्ला बोल' की ग़ज़लों के लिए आप विलक्षण प्रतिभा के धनी रवि खंडेलवाल जी को उनके मोबाइल नंबर 7697900225 पर बधाई दे सकते हैं और श्वेत वर्णा प्रकाशन से प्रकाशित इस अद्भुत किताब को 84475 40078 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।







1 comments:

Onkar said...

बेहतरीन