कभी तो इनकी गर्माहट मिलेगी मेरे अपनों को
जो रिश्ते बुन रहा हूं मैं मुहब्बत की सलाई से
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उसूलों की तरफ़दारी का यह इनाआम है
उधर सारा जमाना है, इधर तन्हा है हम
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जहां से हम चले थे फिर वहीं आखिर में जा पहुंचे
हमारी सोच ने हमको क़बीलाई बना डाला
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उसे हम पूछते हैं रोटियों का घर
वो हमको चांद का रस्ता बताता है
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यूं तो हमारी बेटियां बेटों से कम न थीं
हम ही थे बदनसीब कि बेटों के साथ थे
किसी भी शाइर या लेखक की पहचान उसकी स्पष्टवादिता से होती है। मेरी नज़र में जो भी अपनी बात बिना लाग लपेट के सबके सामने रखने में सक्षम है वही सच्चा साहित्यकार है।
हमारे आज की शाइर 'श्री संजीव गौतम' की यही ख़ासियत सबसे पहले आकृष्ट करती है। पहली बात तो ये है कि वो ग़ज़ल की भाषा को लेकर किसी भ्रम में नहीं है इसलिए लिखते हैं कि "तमाम विद्वानों ने ग़ज़ल को हिंदी या उर्दू होने पर एतराज़ किए हैं लेकिन वे मात्र आभासी तौर पर ही सही प्रतीत होते हैं। मुझे लगता है कि ये बात सिर्फ़ हिंदी और उर्दू के सगेपन के कारण ऐसी महसूस होती है। एक अर्थ में ग़ज़ल तो ग़ज़ल ही है और हिंदी ग़ज़ल अलग कोई विद्या नहीं है।" दूसरी बात, वो देश की आज की स्थिति पर बेबाकी से अपनी राय रखते हुए कहते हैं कि "आज सबसे बड़ा अंतर जो उत्पन्न हुआ है और जो आजादी के संघर्ष काल एवं आपातकाल के दिनों से भी अलग है वो है कि आज समाज में उदार तत्व कम होता जा रहा है। जैसे-जैसे हम महात्मा गांधी से दूर होते जा रहे हैं वैसे-वैसे भारतीय समाज से नैतिकता का ह्रास होता जा रहा है। वर्तमान समय को यदि मैं एक पंक्ति में व्यक्त करना चाहूं तो आज नकारात्मकता वैद्यानिकता हासिल करना चाहती है। आपके चारों ओर ऐसे व्यक्तियों का बहुमत है जो अन्य के विषय में उदारता से नहीं सोचते। आज चिंतनशील होना अभिशाप जैसा है और बुद्धिजीवी होना गाली।
सीधी सरल बात है कि ऐसी सोच और विचारधारा का शाइर अनूठा ही होगा। धारा के विपरीत बहने का साहस करने वाले बिरले ही हुआ करते हैं और 'संजीव गौतम' उन बिरले शाइरों में से एक है।
अगर चाहें कि धरती पर रहे इंसान ज़िंदा तो
बचानी ही पड़ेंगी नरमिंया हमको जबानों में
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समझता था तुझे मैं सिर्फ़ शाइर
ग़ज़ब है तू भी हिंदू हो रहा है
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हमें तो फ़िक्र है उसकी सो हम तो टोकेंगे
हमें पता है वो हमको बुरा समझता है
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हुई है दोस्ती जो ज़िंदगी से
भरेंगे उम्र भर चालान हम भी
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ज़रूरत आ पड़ी है जब तभी खामोश है ये
हमारे दौर की भी शाइरी क्या शाइरी है
उनकी ग़ज़लें पढ़ते हुए वरिष्ठ ग़ज़ल कार श्री 'अशोक रावत' जी की इस किताब में 'संजीव गौतम' के बारे में लिखी बात पर आसानी से यक़ीन किया जा सकता है की 'संजीव गौतम की ग़ज़लों में जो आत्मविश्वास नज़र आता है वो किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है। इस आत्मविश्वास के पीछे ग़ज़ल के शिल्प का पूरा ज्ञान तो है ही उनकी स्पष्ट दृष्टि और मानवीय मूल्यों के प्रति गहरा लगाव भी है। उनके विचार और आचरण में फ़ासले नहीं है इसलिए कथ्य स्वत: ही विश्वसनीय बन जाता है जो पाठक के दिल तक पहुंचता है।
जाने माने ग़ज़ल कार 'ओमप्रकाश नदीम' जी लिखते हैं कि आम तौर पर इतिहास शासक वर्ग के आसपास ही चक्कर लगाता है लेकिन आम जन के पक्षधर प्रगतिशील चेतना के रचनाकार शोषित पीड़ित मानवता के प्रतिरोध को आवाज़ देकर प्रजा का इतिहास भी लिखते हैं। व्यवस्था के प्रति आक्रोश के साथ-साथ परिवर्तन की उम्मीद से लबरेज़ चिंतन को नुमायां करती हैं 'संजीव गौतम' की ग़ज़लें।
अब तो रिश्तों की हवेली में कहां शर्मो- हया
सारे दरवाज़े खुले हैं कोई पर्दा ही नहीं
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चलो तुम आखिरश खुश तो हुए
हमें रोना पड़ा तो क्या हुआ
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बंद करते जा रहे हो सारे दरवाज़े तो तुम
ये बताओ कैसे होगी फिर तुम्हारी वापसी
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दुनिया जिससे दुनिया है
वो ढाई आखर हूं मैं
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मई और जून में भी क्या पिघलना
दिसंबर में पिघल कर देखिए तो
श्री 'संजीव गौतम' का जन्म 3 जनवरी 1973 को आगरा में हुआ था। आपने हिंदी में एम.ए. किया है और अब सहकारिता विभाग में अपर जिला सहकारी अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं।
'बुतों की भीड़ में' उनका पहला ग़ज़ल संग्रह है जो सन 2021 में 'अयन प्रकाशन' महरौली से प्रकाशित हुआ था। इस ग़ज़ल संग्रह में उनकी 90 बेहतरीन ग़ज़लें संग्रहीत हैं। उनकी रचनाएं देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहती हैं।
इस किताब को आप 'अयन प्रकाशन' से 92113 12372 पर फोन करके या अमेजॉन से ऑनलाइन मंगवा सकते हैं और पढ़ कर संजीव जी को उनके मोबाइल नं 94562 39706 पर बात कर बधाई दे सकते हैं।
बेहतरीन शाइर डॉक्टर 'त्रिमोहन तरल' साहब की इस बात से पूरी तरह सहमत होते हुए मैं आपसे विदा लेता हूं कि "हम यहां कितना भी लिख ले अंततः इन ग़ज़लों का असली मूल्यांकन तो इनके पाठकों को ही करना है और वही आंकलन सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है।
इसे मुश्किल तो हम ही मान बैठे हैं नहीं तो
अभी भी झूठ को ललकारना कुछ भी नहीं है
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ये दुनिया जैसी थी अब भी वैसी है
अच्छे-अच्छे आये आकर चले गये
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जाने कितने ख़तरे सर पर रहते हैं
हम अपने ही घर में डर कर रहते हैं
मेरे चुप रहने की वजहें पूछो मत
मेरे भीतर कई समंदर रहते हैं
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बात बिल्कुल साफ़ है अब आइने सी
दीमको की ज़द में अब अल्मारियां हैं
2 comments:
बहुत सुंदर रचना के साथ आपकी ब्लाग बहुत अच्छी लगी,आदरणीय शुभकामनाएँ
बहुत सुंदर
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