Monday, February 7, 2022

किताबों की दुनिया - 250

इश्क़ का राग जो गाना हो, मैं उर्दू बोलूंँ 
किसी रूठे को मनाना हो, मैं उर्दू बोलूंँ 

बात नफरत की हो करनी तो ज़बानें हैं कई 
जब मुझे प्यार जताना हो, मैं उर्दू बोलूंँ 

उर्दू ज़बान से बेइंतहा मुहब्बत करने वाले हमारे आज के शायर से तमाम उर्दू और हिंदी पढ़ने वाले तो मुहब्बत करते ही हैं इसके अलावा जितने भी देश-विदेश के बड़े ग़ज़ल गायक हैं वो भी इनकी ग़ज़लों के दीवाने हैं । यही कारण है कि इनकी ग़ज़लों को इतने जाने माने गायकों ने अपना स्वर दिया है कि यहाँ उन सब का नाम देना तो संभव नहीं है अलबत्ता कुछ का नाम बता देता हूँ ताकि सुधि पाठकों को उनके क़लाम के मयार और लोकप्रियता का अंदाज़ा हो जाये। इस फेहरिश्त की शुरुआत जनाब चन्दन दास जी से होती है जो जगजीत सिंह जी, पंकज उधास,अनूप जलोटा, तलत अज़ीज़ ,भूपेंद्र -मिताली, अनुराधा पौडवाल, सुरेश वाडेकर, रेखा भारद्वाज, पीनाज़ मसानी , ग़ुलाम अब्बास खान , शिशिर पारखी और सुदीप बनर्जी पर भी ख़तम नहीं होती बल्कि ग़ज़ल गायक राजेश सिंह तक जाती है। यहाँ मैं ख़ास तौर पर गायक 'राजेश सिंह' साहब का ज़िक्र जरूर करना चाहूंगा जिन्होंने हमारे आज के शायर के क़लाम को जिस अनूठे अंदाज़ में गाया है उसकी मिसाल ढूंढें नहीं मिलती।
 
उम्र भर कुछ न किया जिसकी तमन्ना के सिवा 
उसने पूछा भी नहीं मेरी तमन्ना क्या है 

इश्क़ इक ऐसा जुआ है जहांँ सब कुछ खोकर 
आप ये जान भी पाते नहीं खोया क्या है
*
मेरे अंदर जो इक फ़क़ीरी है 
यही सबसे बड़ी अमीरी है 

तुझसे रिश्ता कभी नहीं सुलझा 
इसकी फ़ितरत ही काश्मीरी है
*
अश्क का नाम भी हंसी रख कर 
हमने ग़म से निजात पायी है
*
काश लौटे मेरे पापा भी खिलौने लेकर 
काश फिर से मेरे हाथों में ख़ज़ाना आए
*
इल्म आए ना अगर काम किसी मुफ़लिस के 
आ के मुझसे मेरी दानाई को वापस ले ले 

या तो सच कहने पर सुक़रात को मारे न कोई 
या तो संसार से सच्चाई को वापस ले ले
*
हर सम्त क़त्ले आम है मज़हब के नाम पर 
सारी अक़ीदतों की खुदापरवरी की ख़ैर 

उर्दू ग़ज़ल के नाम पर चलते हैं चुटकुले 
फ़ैज़ो-फ़िराक़ो-मीर की उस साहिरी की ख़ैर
साहिरी: जादूगरी

हमारे आज के शायर जनाब अजय पांडेय 'सहाब' का जन्म 29 अप्रेल 1969 को रायपुर, छत्तीसगढ़, में हुआ जहाँ उस समय वहाँ न तो कोई उर्दू बोलता था न लिखता था और न ही कोई समझता था। हर तरफ सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदी का ही बोलबाला था। उनके घर का माहौल भी हिन्दीमय था। उनके परदादा श्री मुकुटधर पांडेय ने अपना समस्त जीवन हिंदी को समर्पित कर दिया था। मात्र 14 वर्ष की उम्र में उनकी पहली कविता आगरा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'स्वदेश बांधव' में प्रकाशित हुई तथा 24 वर्ष की आयु में उनका पहला कविता संग्रह ‘पूजा के फूल’ प्रकाशित हुआ। श्री मुकुटधर पांडेय जी की कविता 'कुरकी के प्रति' को पहली छायावादी कविता और उन्हें छायावाद का जनक माना जाता है। भारत सरकार द्वारा उन्हें सन् 1976 में `पद्म श्री’ से नवाजा गया। पं० रविशंकर विश्‍वविद्यालय द्वारा भी उन्हें मानद डी लिट की उपाधि प्रदान की गई। परदादा के अलावा दादा और पिता भी हिंदी प्रेमी थे और तो और स्वयं अजय जी ने भी हिंदी साहित्य की नेशनल कॉम्पिटिशन में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि अजय जी हिंदी छोड़ उर्दू से मुहब्बत करने लगे ?

बात तब की है जब अजय जी कोई दस-बारह बरस के रहे होंगे। अजय जी की माताजी को गीत, ग़ज़ल और संगीत का बेहद शौक था,अभी भी है । घर के कैसेटप्लेयर पर अक्सर संगीत के कैसेट बजते। उन्हीं दिनों जगजीत सिंह-चित्रा सिंह जी की गायी ग़ज़लों का कैसेट 'दी अनफॉर्गेटबल' धूम मचा रहा था। अजय जी की माताजी उसे खूब सुना करतीं । एक दिन उस कैसेट में सईद राही जी की ग़ज़ल 'दोस्त बन बन के मिले --' पर अजय जी का ध्यान गया। उस ग़ज़ल में एक शेर है 'मैं तो अख़लाक़ के हाथों ही बिका करता हूँ, और होंगे तेरे बाज़ार में बिकने वाले ', बालक अजय ने अख़लाक़ शब्द को इकलाख समझा और दौड़ते हुए अपनी माताजी के पास गए और उन से बोले कि देखिये ये गायक 'इक लाख' को कैसे गलत तरीके से 'अख़लाक़' बोल रहे हैं। माताजी ने हँसते हुए उन्हें बताया कि नहीं ये लफ्ज़ 'इक लाख' नहीं 'अख़लाक़' याने नैतिकता है और ये उर्दू ज़बान का लफ्ज़ है।

अगर यूँ कहा जाय कि अजय जी की शायरी की गंगा का गोमुख 'अख़लाक़' लफ्ज़ है तो ये गलत न होगा। इस एक लफ्ज़ ने उन्हें उर्दू ज़बान सीखने को प्रेरित किया।

वही ग़ालिब है अब तो जो ख़रीदे शोहरतें अपनी 
रुबाई बेचने वाला उमर ख़य्याम है साक़ी 
*
उम्र गुज़री है जैसे कानों से 
सरसराती हवा गुज़र जाये
*
क्या लोग हैं दे जाते हैं अपनों को भी धोके 
हमको कभी दुश्मन से भी नफ़रत नहीं होती 

हर सच की ख़बर इसको हर इक झूठ पता है 
दिल से बड़ी कोई भी अदालत नहीं होती
*
दिल में हज़ार दर्द हों आंँसू छुपा के रख 
कोई तो कारोबार हो, बिन इश्तहार के
*
क्यों-कर करूं उमीद तू मुझ सा बनेगा दोस्त 
जैसा मैं चाहता हूंँ वो ख़ुद भी न बन सका 

रह कर भी दूर सुन सके अब्बा की खांसियाँ 
बेटा कभी भी बाप की बेटी न बन सका
*
वो दौर आया कि नन्हा सा एक जुगनू भी 
चमकते चांँद में कीड़े निकाल देता है
*
जिसके आने से कभी मिलती थी राहत दिल को 
आज उस शख़्स के जाने से है राहत कितनी
*
भीड़ घोंघों की है और रहबरी कछुओं को मिली 
कोई बतला दे मैं रफ़्तार कहांँ से लाऊंँ

'अख़लाक़' लफ्ज़ ने कुछ ऐसा जादू अजय साहब पर किया कि वो सब छोड़ छाड़ कर उर्दू ज़बान सीखने की क़वायद में रात-दिन एक करने लगे। जिस उम्र के लड़के सड़क पे क्रिकेट, फ़ुटबाल खेलते हैं, पार्कों में मटरगश्तियाँ करते हैं,रोमांटिक कहानियां और शायरी पढ़ते हैं उस उम्र में अजय साहब बाजार से मिर्ज़ा ग़ालिब का दीवान ख़रीद लाये। ग़ालिब की शायरी जो आज भी उर्दू के कथाकथिक धुरन्दरों को समझ में नहीं आती भला कच्ची उम्र के बच्चे को कहाँ पल्ले पड़ती ? एक हिंदी भाषी घर और हिंदी भाषी शहर में ग़ालिब को उन्हें कोई समझाता तो समझाता कौन ? सभी पहचान वाले कन्नी काट जाते। किसी ने उन्हें सलाह दी कि मस्जिद के मौलवी साहब से मिलो शायद वो समझा देंगे। एक दिन मौलवी साहब अजय साहब को सड़क पर साइकिल से आते नज़र आ गए। अजय साहब ने जब उन्हें ग़ालिब का दीवान समझाने को कहा तो वो साईकिल वहीँ पटक भागते हुए बोले तौबा करो बरखुरदार उर्दू रस्मुलख़त (याने लिपि ) पढ़ाने को कहो तो वो मैं कर सकता हूँ लेकिन ग़ालिब को समझाना मेरे बस में नहीं , मेरे ही क्या ,पूरे शहर में शायद ही किसी के बस में ग़ालिब को समझाने की समझ हो।    

अजय साहब की हिम्मत, जिद और हौंसले को सलाम क्यूंकि इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी उनकी उर्दू ज़बान सीखने की ललक जरा सी भी कम नहीं हुई। । गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर के गीत 'एकला चालो रे --" से प्रेरणा ले कर लेकर वो अकेले ही उर्दू सीखने के इस मुश्किल मिशन को पूरा करने में व्यस्त हो गए। इस मिशन की शुरुआत उन्होंने मोहम्मद मुस्तफ़ा खां मद्दाह की उर्दू-हिंदी डिक्शनरी खरीदने से की।उसके बाद अपनी एक डायरी बनाई जिसमें मुश्किल उर्दू अल्फ़ाज़ और उनके अर्थ उसमें नोट करने शुरू किये। अजय साहब को जल्द ही समझ में आ गया कि अगर उर्दू लफ़्ज़ों को याद करने और उनके अर्थ जानने से ही शायरी का फ़न आ जाता तो डिक्शनरी लिखने वाले लोग ही सबसे बड़े शायर होते।

डिक्शनरी के अलावा पंडित अयोध्या प्रसाद गोयलीय की उर्दू शायरी पर लिखी लम्बी सीरीज़ जो 'शेरो सुख़न' के नाम से छपी है ने भी अजय जी को उर्दू शायरी समझने का रास्ता दिखाया। कच्ची उम्र में उनके 'साहिर' फ़िराक़ और फ़ैज़ साहब की शायरी की किताबें इकठ्ठा हो गयीं। किताबें तो इकठ्ठा हो गयीं लेकिन शायरी समझना अभी भी टेढ़ी खीर थी।

इस ज़माने का चलन हमको सिखाता है यही 
अच्छा होने से बुरा कुछ नहीं होता यारो
*
इसमें खबरें हैं मुहब्बत की रफ़ाक़त की हुजूर 
ये मेरे मुल्क का अख़बार नहीं हो सकता 
रफ़ाक़त: मित्रता
*
जब तलक अश्क थेआंँखों में, तबस्सुम ढूंँढा 
आज होठों पर हंँसी है तो मैं आंँसू खोजूं
*
सुब्ह होते ही जिसे छोड़ गए हम दोनों 
रह गया रिश्ता भी हम दोनों का बिस्तर बनकर
*
दुनिया से तो छुपा गया, अपने सभी गुनाह 
लेकिन मेरे ज़मीर ने नंगा रखा मुझे
*
सारे जहांँ की आफ़तें और एक तेरी याद 
जैसे अकेली शमअ हो सूने मज़ार में
*
उस मुसाफिर ने नहीं पाई कभी भी मंजिल 
जिस की आदत है हर इक गाम से शिकवा करना
*
कैसा दुश्वार है रिश्ता कोई बुनना देखो 
जैसे काग़ज़ कोई बारिश में उड़ाया जाए

जिसके दामन में न हों दाग़ लहू के लोगो 
एक मज़हब मुझे ऐसा तो बताया जाए 

उम्र भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है 
एक लम्हा जो तहे दिल से बिताया जाए

एक कहावत आपने ज़रूर सुनी होगी 'हिम्मत-ए-मर्दां मदद-ए-ख़ुदा' याने हिम्मत वाले मर्द की मदद ख़ुदा करता है , इसी कहावत के चलते ख़ुदा ने अजय साहब की मदद को अपना नुमाइंदा उर्दू के महान विद्वान नागपुर के डॉ.'विनय वाईकर' साहब के रूप में भेज दिया। डॉ वाईकर साहब की डॉ ज़रीना सानी साहिबा के साथ हिंदी और मराठी भाषा में लिखी उर्दू-हिंदी डिक्शनरी की क़िताब 'आईना-ए-ग़ज़ल', ग़ज़ल सीखने वालों के लिए किसी वरदान से कम नहीं। तो हुआ यूँ कि 'देशबंधु' अख़बार में डॉ विनय वाईकर' जी का लेख हफ्तावार छपने लगा जिसमें वो हर हफ्ते ग़ालिब की किसी एक ग़ज़ल की विस्तार से चर्चा करते, उस ग़ज़ल में प्रयुक्त मुश्किल उर्दू फ़ारसी के लफ़्ज़ों का अर्थ समझाते और उन लफ़्ज़ों को बरतने के पीछे छुपे कारण भी बताते। उनका लेख ग़ालिब की ग़ज़ल और उसके भाव को सरल भाषा में पूरी तरह से अपने पाठक तक पहुंचाने में क़ामयाब होता। अफ़सोस की बात है कि वो लेख कहीं क़िताब की शक्ल में हिंदी में उपलब्ध नहीं हैं ,शायद मराठी में उनकी किताब 'क़लाम-ए-ग़ालिब' अमेजन पर जरूर उपलब्ध है। ख़ैर !! उन लेखों को काट काट कर अजय जी ने एक फ़ाइल बना ली जिसे वो जब समय मिलता पढ़ते। नतीज़ा ये निकला कि उन्हें न केवल ग़ालिब की ग़ज़लें याद हो गयीं बल्कि उनके अर्थ भी समझ में आ गए। यही कारण है कि उनसे ग़ालिब की ग़ज़लों पर बहस करने से उर्दू के बड़े बड़े शायर भी घबराते हैं।

एक बार का वाक़या है कि किसी मुशायरे में जहाँ उर्दू के बहुत से नामचीन शायर भी शिरक़त कर रहे थे ,अजय साहब ने ग़ालिब की एक मुश्किल ज़मीन पर कही ग़ज़ल के मिसरे पर फिलबदीह ग़ज़ल पढ़ी। ग़ज़ल इस क़दर पुख्ता थी कि अगर उसे कोई कहीं बिना उसका बैक ग्राउंड जाने पढता तो उस ग़ज़ल को ग़ालिब की ही ग़ज़ल समझता। अजय साहब को मंच पर बैठे उस्ताद शायरों से दाद की उम्मीद थी लेकिन वहाँ तो जैसे सबको साँप सा सूँघ गया लगता था। कारण ? या तो उन्हें ग़ालिब की ज़मीन पर कही ग़ज़ल समझ नहीं आयी या वो अहसास-ए-कमतरी के शिकार हो गए। मंच पर नौटंकी कर वाह वाह बटोरना अलग बात है और ग़ालिब को समझना अलग।

संक्षेप में कहूँ तो डॉ विनय वाईकर साहब के ग़ालिब की ग़ज़लों पर लिखे लेखों से अजय साहब में ग़ज़ल कहने की इच्छा बलवती हो गयी और वो बाकायदा शेर कहने लगे। दोस्तों ने तारीफ़ की तो ख़ुद को शायर भी समझने लगे। उन्हीं दिनों रायपुर में एक मुशायरा हुआ जिसमें मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली साहब भी तशरीफ़ लाये। मुशायरे के बाद अजय साहब उनसे मिलने गए और उन्हें अपना एक शेर सुनाया जिसकी निदा साहब ने भरपूर तारीफ़ की और कहा की बरखुरदार तुम अपना कोई तख़ल्लुस रखो और उन्होंने फिर ख़ुद ही 'सहाब' याने बादल तख़ल्लुस सुझाया जो अजय जी को भी बेहद पसंद आया। तब से अजय पांडेय जी अजय 'सहाब' हो गए।  

अब तक कभी आया न वो आएगा बचाने 
किस दौर-ए-मुसीबत में ख़ुदा ढूंढ रहे हो
*
टूट जाता है ये शीशे का तसव्वुर मेरा 
याद तेरी किसी पत्थर की तरह आती है 

सिर्फ़ क़तरों की तरह बूंँद में मिलती है ख़ुशी 
और उदासी तो समंदर की तरह आती है
*
मैंने लगाए आज उदासी में क़हक़हे
 रोना भी इस जहान में दुश्वार देखकर 

मैं शर्म से मरा हूंँ , मेरे क़त्ल से नहीं 
सब दोस्तों के हाथ में तलवार देखकर
*
हर रिंद में अभी तक इंसानियत बची है 
इन पर नहीं पड़े हैं दैर-ओ हरम के साए
*
तू कितना लाजवाब है तुझ क पता चले 
इक बार ख़ुद को देख तू मेरी निगाह से
*
कुछ भी मजबूरियां न थी उसकी 
फिर भी वो बेवफ़ा हुआ हमसे
*
तनहाई की क़मीज़ है यादों की एक शॉल 
मेरा यही लिबास है मौसम कोई भी हो
*
रोक लूंँ मैं न कहीं हाथ पकड़ कर उसको 
अब तो तन्हाई भी घर आने से कतराती है

अक्सर ऐसा होता है कि जब आप बहुतसी किताबें पढ़ कर या शायरों को सुनकर ग़ज़ल कहने की कोशिश करते हैं तो अधिकतर ग़ज़लें ग़ज़ल के व्याकरण याने अरूज़ पर ठीक उतरती हैं। मंच के ऐसे बहुत से कामयाब शायर जो बे-बहर ग़ज़लें कहते हैं भले ही अपनी ग़ज़लों की वाह वाही के नशे में अरूज़ सीखने को महत्व न देते हों वो मंच से दूर होते ही भुला दिए जाते हैं। किसी भी ग़ज़लकार को ग़ज़ल का अरूज़ आना ही चाहिए। अजय जी को इस बात का पता तब चला जब वो बहुत सी ग़ज़लें कह चुके थे। उनकी जगह कोई और होता तो शायद इस बात को महत्त्व नहीं देता लेकिन अजय जी उर्दू ग़ज़ल के सच्चे आशिक़ हैं इसलिए उन्होंने अरूज़ सीखने के लिए ऐड़ी से चोटी तक का जोर लगा दिया। अरूज़ सीखने के इस प्रयास में उन्हें भिलाई के जनाब 'साकेत रंजन' मिल गए जिनके बारे में अजय साहब ने लिखा है कि "हिंदुस्तान में उनसे आसान ज़बान में अरूज़ समझा सकने वाला उस्ताद शायद ही कोई हो।"
 
उस्ताद शायरों के क़लाम को दिल से पढ़ कर और अरूज़ का पूरा ज्ञान लेकर जब अजय 'सहाब जी ने ग़ज़लें कहने शुरू पहली की तो छा गए। उनकी उनकी शायरी की पहली किताब 'उम्मीद' सन 2014 में मंज़र-ए-आम पर आयी दूसरी 'मैं उर्दू बोलूँ' सन 2019 में दुबई से उर्दू रस्मुलख़त में और यही किताब हिंदी में सं 2021 में विजया बुक्स दिल्ली से प्रकाशित हुई है। आप इस किताब को विजया बुक्स से सीधे ही 9910189445 पर फ़ोन करके मँगवा सकते हैं। ये किताब अमेजन से ऑन लाइन भी मंगवाई जा सकती है।


घर-घर से ठुकराई अम्मा 
वृद्धाश्रम में आई अम्मा 

यूँ तो कोई हाल न पूछे 
पर गीतों मैं छाई अम्मा 

कितने ही बेटों ने बनाया 
तुझको आया, दाई अम्मा 

रिश्तों का तू देख ले चेहरा 
आएगी उबकाई अम्मा
*
सारे भगवान हैं इंसान के डर की तख़लीक़ 
तल्ख़ सच मैं यहांँ इरशाद करूं या न करूंँ 
तख़लीक़: रचना
*
उसका अपना ही सामने कर दो 
आदमी को अगर हराना हो 

पहले रोना तो सीख लो यारो 
इससे पहले कि खिलखिलाना हो
*
घोंघे रहे हैं हर तरफ यहांँ इन्सां के भेष में 
कुछ भी हुआ तो खोल में अपनी सिमट गए
*
बस सांस लिए जाते हैं इक रस्म है ये भी 
ज़िंदा हमें कहती है यह दुनिया का भरम है
*
न तो लफ़्ज़ खूँ से रंँगे हुए न शराब है कहीं अश्क की
ये सुखनवरी भी नमाज़ है इसे पढ़ सकोगे न बेवुज़ू

अजय 'सहाब' जी की ग़ज़लों के एक दर्ज़न से अधिक अल्बम बाजार में आ चुके हैं जिसमें पंकज उधास के स्वर में 'सेंटीमेंटल', 'ख़ामोशी आवाज़' और 'मदहोश' विशेष हैं , मदहोश अल्बम की सभी ग़ज़लें 'सहाब' जी की लिखी हुई हैं। एक मिलियन व्यूज के जादुई आंकड़े को फेसबुक पर पार करने वाली पहली ग़ज़ल 'काश' जिसे अनूप श्रीवास्तव साहब ने स्वर दिया अजय 'सहाब' जी की क़लम का ही करिश्मा है। इसके अलावा सुदीप बनर्जी ' के साथ  'धड़कन-धड़कन', शिशिर पारखी जी के साथ वन्स मोर' और रुमानियत, गुलाम अब्बास खान साहब के साथ रूहे ग़ज़ल' आदि उल्लेखनीय हैं।

अजय 'सहाब' जी की ग़ज़लों के एक दर्ज़न से अधिक अल्बम बाजार में आ चुके हैं जिसमें पंकज उधास के स्वर में 'सेंटीमेंटल', 'ख़ामोशी की आवाज़' और 'मदहोश' विशेष हैं , 'मदहोश' अल्बम की सभी ग़ज़लें 'सहाब' जी की लिखी हुई हैं। एक मिलियन व्यूज के जादुई आंकड़े को फेसबुक पर पार करने वाली पहली ग़ज़ल 'काश' जिसे अनूप श्रीवास्तव साहब ने स्वर दिया अजय 'सहाब' जी की क़लम का ही करिश्मा है। इसके अलावा सुदीप बनर्जी ' के साथ 'धड़कन-धड़कन', शिशिर पारखी जी के साथ 'वन्स मोर' और 'रुमानियत', गुलाम अब्बास खान साहब के साथ 'रूहे ग़ज़ल' आदि उल्लेखनीय हैं।

जैसा मैंने बताया कि सभी जाने-माने ग़ज़ल गायकों ने अजय जी की ग़ज़लों को स्वर दिया लेकिन उनमें श्री राजेश सिंह जी का विशेष उल्लेख करना जरूरी है। श्री राजेश सिंह एक छोटी सी नशिस्त में कहीं गा रहे थे जिसे अजय जी ने सुन कर सोचा कि इतनी मधुर आवाज़ को जन-जन तक पहुँचना चाहिए। ये सोच कर उन्होंने 'अल्फ़ाज़ और आवाज़' ( https://www.youtube.com/channel/UCDVgZQ9dEe5lKgzFO2yORqQ/featured) कार्यक्रम की कल्पना की जिसमें राजेश जी, अजय जी की ग़ज़लें तो गाते ही हैं साथ में कुछ पुराने गाने और उस्ताद शायरों की ग़ज़लें भी गाते हैं इन गानों और ग़ज़लों में 'अजय' जी अपने लिखे नए अशआर कुछ इस तरह पिरोते हैं कि वो ओरिजिनल गाने या ग़ज़ल का ही हिस्सा लगते हैं। ये अपनी तरह का का एक अनूठा और हैरत अंगेज़ काम है जिसकी, बिना सुने और देखे, आप कल्पना भी नहीं कर सकते। यू ट्यूब पर 'अलफ़ाज़ और आवाज़' सर्च करें और इन दोनों को परफॉर्म करते देखें-सुनें तो आप दांतों तले उँगलियाँ दबाये बगैर नहीं रह पाएंगे।मुझे यक़ीन है कि जिस तरह अजय जी ने साहिर साहब की कालजयी नज़्म 'चलो इक बार फिर से...' में अपने क़लम का जलवा दिखाया उसे राजेश जी और ज्ञानिता द्विवेदी जी की आवाज़ में अगर साहिर साहब सुन पाते तो अजय जी को दाद देने से ख़ुद को नहीं रोक पाते।ये दुधारी तलवार पर चलने जैसा काम था जिसे अजय जी क्या खूब कर दिखाया है। ये नज़्म यू ट्यूब पर देखें और आप भी दाद दें.( https://youtu.be/QqFynaqDwak)

इस कार्यक्रम का आगाज़ हैदराबाद के सालारजंग म्यूजियम से हुआ उसके बाद इस कार्यक्रम ने देश में ही नहीं विदेशों में भी धूम मचा रखी है। 

अजय जी छत्तीसगढ़ में कमीश्नर और एडिशनल डायरेक्टर जनरल जी.एस.टी के रसूख़दार और अतिव्यस्त ओहदे पर होने के बावजूद अपने पैशन के लिए समय निकालते हैं और राजेश जी के साथ देश-विदेश घूमते हैं। उर्दू ज़बान के प्रति उनके समर्पण को लफ़्ज़ों में बयाँ करना मुमकिन नहीं। उर्दू से इसक़दर मुहब्बत करने वाले अजय जी को आप 9981512285 पर फोन कर बधाई दे सकते हैं।       

मुशायरे के मंचों पर जाने से अजय जी बचते हैं। उर्दू, जिसे एक धर्म विशेष की भाषा मान लिया गया है में किसी दूसरे मज़हब के इंसान को आगे बढ़ता देख कुछ संकीर्ण प्रवर्ति के तथाकथिक महान शायर असहज हो कर घटिया हरकतें करने लगते हैं। उनकी ओछी हरकतें अजय जी को बर्दाश्त नहीं होतीं। शायरी 'अजय' जी का पेशा नहीं शौक है इसलिए वो किसी से दबते नहीं और उस शायर की हैसियत की परवाह किये बगैर जिसने छींटाकशी या घटिया हरक़त की है, मुँह-तोड़ जवाब देते हैं। मुशायरों के बाज़ार में अब शायरी को भाव नहीं मिलता उसकी जगह अदाकारी और गुलूकारी को अच्छी क़ीमत मिलती है। हो सकता है ये बात किसी को ग़वारा न हो इसलिए इसे यहीं छोड़ आपको अंत में उनकी ग़ज़लों के कुछ और चुनिंदा शेर पढ़वाते हैं :- 

मेरे हमदम तू मुझे काट के छोटा कर दे 
यही चारा है तेरे क़द को बढ़ाने के लिए
*
इन्किसार आया तो चूमा है ज़मीं को मैंने 
जब तकब्बुर था, मेरा अर्श से सर लगता था
इन्किसार: नम्रता, तकब्बुर: घमंड
*
सिर्फ़ शैतान को दिखता है नतीजा इसमें 
जो है इंसान उसे जंग से डर लगता है
*
तुझको देखे बिना धड़कता है 
अब तो इस दिल पे शर्म आती है 
*
अभी भी वक्त है यलगार रोको इन अंधेरों की 
वगरना भूल जाओगे उजाला किसको कहते हैं 
यलगार: हमला
*
कितना दुश्वार है अंदाज समझना तेरा 
जिंदगी तू मुझे ग़ालिब की ग़ज़ल लगती है 
*
वो अफ़साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
मुझे हिस्सा नहीं बनना कभी ऐसी कहानी का 
*
तेरे जाने की दास्ताँ लिखकर 
मेरे लफ्जों ने ख़ुदकुशी कर ली
*
रोटी पे सुनके शेर वो भूखा तो चुप रहा 
भरपेट खाए लोगों ने बस वाह-वाह की
(ये ही वो शेर है जिसे सुनकर निदा फ़ाज़ली साहब ने तारीफ़ की और अजय पांडेय जी को 'सहाब' तख़ल्लुस रखने का मशवरा दिया था )    

40 comments:

Teena said...

बहुत ही उम्दा शायर हैं और ये लाइन्स तो बहुत ही ख़ूब। आप इस शायरी के समंदर में गोते लगाकर मोती ढूंढ ढूंढ कर लाते हैं। आपको बहुत-बहुत साधुवाद।

टूट जाता है ये शीशे का तसव्वुर मेरा
याद तेरी किसी पत्थर की तरह आती है

सिर्फ़ क़तरों की तरह बूंँद में मिलती है ख़ुशी
और उदासी तो समंदर की तरह आती है

नीरज गोस्वामी said...

आपका तहे दिल से शुक्रिया... कमेंट के नीचे नाम भी लिख देते तो मेहरबानी होती 🙏

Anil Kulshrestha said...

तहे दिल से आपका शुक्रिया नीरज जी कि आपके माध्यम से अजय सहाब के जानदार व शानदार अशआर पढ़ने को मिले. उन्हें और भी पढ़ने की इच्छा जाग्रत हुई.

ऊर्दू दुनिया said...

अदभुत लेख । बहुत बहुत शुक्रिया एक बहुत अच्छे और ज़रुरी शायर से तआरुफ़ कराने और गहरी जानकारी देने के लिए ।

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया अनिल जी

नीरज गोस्वामी said...

हौंसला अफ़जाई का बेहद शुक्रिया

तिलक राज कपूर said...

साहित्य की हर विधा का अपना ही विधि-विधान होता है जो ढांचा निर्धारित करता है। इस ढांचे पर हर रचनाकार शब्दों से भावों को बुनता है। इस प्रकार जो स्वरूप सामने आता है वह पढ़ने/ सुनने वाले पर प्रभाव छोड़ता है। कुछ प्रभाव समय के साथ विलीन हो जाते हैं कुछ लम्बे समय तक चलते हैं और कुछ चिरकालीन हो जाते हैं। ग़ालिब साहब अगर आज भी सान्दर्भिक हैं तो यह उनके शेरों के चिरकालीन प्रभाव ही है। किसी भी शायर के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह शायरी के विधि-विधान को समझते हुए शब्दों आए भाव कुछ इस प्रकार बने कि उनका प्रभाव चिरकालीन रह सके।
अजय सहाब जी की शायरी की प्रस्तुति में चयनित शेर कहते हैं कि ये यूँ ही नहीं कह दिये गये, इनके पीछे शायरी की तहज़ीब और तमीज़ सीखने की उत्कट इच्छा रही है और यही इनकी शायरी को स्थापित करेगी।

नीरज गोस्वामी said...

High quality presentation of Ajay sahab n his creation,enjoyed a lot...I m going to buy this book


Mukund Agarwal
Jaipur

नीरज गोस्वामी said...

शुक्रिया तिलक साहब 🙏

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

शानदार शाइरी की जादुई प्रस्तुति के लिए आपको और सहाब साहिब को हार्दिक बधाई। एक बार पढ़ना शुरूअ किया तो फिर हर्फ़ ब हर्फ़ पढ़ गया हूँ।

एक और नायाब तोहफ़े के लिए शुक्रिया आदरणीय भाई साहिब🌺🙏

SATISH said...

Bahut umda ash'aar maza aa gaya Neeraj Ji aapka aabhar sajha karne ke liye aur Priya Ajay 'Sahab' Ji ko haardik badhai, shubhkaamnaayen aur aasheesh ... Raqeeb

Amit Thapa said...

आपने उर्दू पे शेर से बात शुरू की तो मुझे भी इक़बाल अशहर की गजल याद आ गयी

उर्दू है मिरा नाम मैं 'ख़ुसरव' की पहेली
मैं 'मीर' की हमराज़ हूँ 'ग़ालिब' की सहेली

दक्कन के 'वली' ने मुझे गोदी में खेलाया
'सौदा' के क़सीदों ने मिरा हुस्न बढ़ाया
है 'मीर' की अज़्मत कि मुझे चलना सिखाया
मैं दाग़ के आँगन में खिली बन के चमेली

उर्दू जुबाँ की नफ़ासत एक छोटा सा उद्धाहरण हैं
उर्दू में बीवी या गर्लफ्रेंड को कहे "आज बड़ी क़ातिल लग रही हो" चाय के साथ पकौड़े भी बिना बरसात के पक्के पर अपने जान का खतरा मोल लेते हुए ये ही वाक्य हिंदी या अँग्रेजी में कह कर देखे
खैर, जिस तरह से आपने अजय 'सहाब जी के उर्दू प्रेम का वर्णन किया हैं वो लाजवाब हैं बाकि जिस तरह के अजय 'सहाब जी के अश’आर आपने यहाँ प्रस्तुत किये हैं वो एक से बढ़ कर एक हैं किसी एक की तारीफ करे तो दूसरे के साथ अन्याय होगा

आपका बहुत बहुत धन्यवाद


Unknown said...

khoobsurat rachna..

नीरज गोस्वामी said...

Shukriya...Kaash aap apna naam bhi bata dete...Khir...

नीरज गोस्वामी said...

Shukriya Amit ji aap ki tareef ka andaaz bhi nirala hai...Waah

नीरज गोस्वामी said...

Behad shukriya Dwij ji

नीरज गोस्वामी said...

Shukriya satish bhai..

CrEaTiOnS said...

वाह लाजवाब

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (09-02-2022) को चर्चा मंच      "यह है स्वर्णिम देश हमारा"   (चर्चा अंक-4336)      पर भी होगी!
--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
-- 
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    

नीरज गोस्वामी said...

अजय सहाब की किताब मैं उर्दू बोलूं के हवाले से किताब के शेरों को तो आपने ख़ूबसूरती से हमेशा की तरह डिकोड किया ही है। उनकी ज़ाती साहित्यिक ज़िन्दगी के तमाम पहलुओ,सीखने की लगन,ग़ज़ल की फनकारी,सिंगर्स द्वारा उन्हें गाया जाना ,उनकी लेखन यात्रा आदि पर आत्मीयता और तफ़सील से कामयाब टिप्पणियां कर पुस्तक में रुचि पैदा कर दी है।शेरों काचयन विशिष्ट है और पुस्तक पढ़े जाने पर विवश करता है।अजय जी और आप दोनों को बधाइयाँ।

अखिलेश तिवारी
जयपुर

Anonymous said...

उम्र भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है
एक लम्हा जो तहे दिल से बिताया जाए
.
बेहतरीन शायर से तआरुफ़ और लाजवाब आशआर का गुलदस्ता ... बधाई आपको
उमेश मौर्य

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद उमेश जी...

AJAY 'SAHAAB' said...

नीरज जी आप को शुक्रिया कि आपने मेरे कलाम को इतना एहतेराम देते हुए अपने ब्लॉग में उसको जगह दी और सभी पढ़ने वालों का भी ममनून हूं कि इतना समय निकाल कर उसको पढ़ा।सब को दिल से शुक्रिया

मीनाक्षी कुमावत मीरा said...

प्रणाम सर, बहुत बहुत शुक्रिया।अजय साहब के कलाम और उनके बारे में जानने को मिला। बहुत उपयोगी पोस्ट।

नीरज गोस्वामी said...

आदरणीय नीरज सर सादर प्रणाम🙏

आ. अजय ‘सहाब’ जी की बेहतरीन शायरी पढ़ने को मिली। जिस सादगी से वो बात कहते हैं अपने शेर में, वो लाजवाब है!

“इस ज़माने का चलन हमको सिखाता है यही
अच्छा होने से बुरा कुछ नहीं होता यारो”

कितना सुंदर!👏👏👏

इस किताब को पूरी पढ़ने का मन बन गया🙏

धन्यवाद आदरणीय नीरज सर….’किताबों की दुनिया’ के माध्यम से आप हर बार एक बेहतरीन शायर और उनके कलाम से मिलवाते हैं।🙏🌹
सर alfaaz aur aawaaz के YouTube channel पर श्री राजेश जी की रूहानी आवाज़ सुनने को मिली। अजय जी कमाल का लिखते हैं👌🙏

विद्या चौहान

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद मीनाक्षी जी

नीरज गोस्वामी said...

नीरज जी एक और अच्छे शायर से परिचय कराने का धन्यवाद

चंदर वाहिद
शाहदरा

Unknown said...

नीरज जी ! आपकी तारीफ़ किन लफ़्ज़ों में करी जाए मेरे पास वो शब्द नहीं हैं , एक से बढ़ कर एक नायाब शायर के बारे में इतनी जानकारी आप ढूंढ कर लाते हैं , जिसका कोई जवाब नहीं है । अजय सहाब व राजेश सिंह जी के वीडियो you tube पर देखे व सुने तभी से इनके बारे में जानना चाहता था । वाक़ई बहुत कम्सल की जोड़ी है ये , इनका परिचय आपके द्वारा मिला , अजय सहाब का फ़ोन न. शेयर करने के लिए आपका थे दिल से शुक्रिया ! अवश्य ही इनसे सम्पर्क भी करूंगा । बहुत बहुत धन्यवाद ! आभार

haidabadi said...

Bahut Khoo Neeraj bhai

Madhu said...

नीरज जी! आप बहुत ही रोचक अंदाज़ में हरेक शायर का परिचय देते हैं। एक बार शुरू करने के बाद बिना साँस लिए पूरा पढ़ने को मजबूर हो जाती हूँ। आपकी लेखन-शैली और ग़ज़ल-ज्ञान को मैं नमन करती हूँ। आपको बहुत बधाई।🙏

नीरज गोस्वामी said...

जी आपका बेहद शुक्रिया...

नीरज गोस्वामी said...

धन्यवाद मधु जी

Onkar said...

बेहतरीन

mgtapish said...

Wah wah zabardast shandar kya kahna neeraj ji zindabad badhai bahut achche ashaar padhne ko mile
Moni gopal tapish

नीरज गोस्वामी said...

बहुत शुक्रिया ओंकार भाई

नीरज गोस्वामी said...

मोनी भाईसाहब आशीर्वाद बनाए रखें

vijay ki baten said...

बहुत ही बढिया
आप का साथ बना रहे

बेबाक आवाज़ said...

ला जवाब शायर
बेहतरीन शायरी
शानदार तपसरा।

ज़िंदाबाद

CEA Aviation said...


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