Monday, June 29, 2020

किताबों की दुनिया 206 /1

  
पहले तो हम छान आए ख़ाक सारे शहर की 
तब कहीं जा कर खुला उसका मकाँ है सामने 
***
तुम्हारे शहर में तोहमत है ज़िंदा रहना भी 
जिन्हें अज़ीज़ थीं जानें वो मरते जाते हैं 
***
तेरे लिए चराग़ धरे हैं मुँडेर पर 
तू भी अगर हवा की मिसाल आ गया तो बस 
मिसाल : तरह 
***
उसे न मिलने से खुशफ़हमियाँ तो रहती हैं 
मैं क्या करूँगा जो इंकार कर दिया उसने 
***
जी चाहता था रोऊँ उसे जां से मार कर 
आँखें छलक पड़ीं तो इरादा बदल दिया 
***
ये जो मैं भागता हूँ वक्त से आगे आगे 
मेरी वहशत के मुताबिक़ ये रवानी कम है 
 ***
यही इक शग्ल रखना है अज़ीयत के दिनों में भी 
किसी को भूल जाना है किसी को याद रखना है 
शग्ल : काम , अज़ीयत : तकलीफ़ 
***
मेरे इस कोशिश में बाजू कट गए 
चाहता था सुल्ह तलवारों के बीच 
***
अब तो हम यूँ रहते हैं इस हिज़्र भरे वीराने में 
जैसे आँख में आंसू गुम हो जैसे हर्फ़ किताबों में चुप 
***
लहू तो इश्क़ के आगाज़ ही में जलने लगता है 
मगर होंठों तक आता है धुआँ आहिस्ता आहिस्ता 

कहा जाता है कि अच्छी शायरी वही कर सकता है जो अच्छा इंसान हो। अब सवाल ये उठता है कि अच्छा इंसान होता कौन है ? अगर आप गूगल करेंगे तो वो बताएगा कि जो इंसान दूसरों की मदद करे , जो कमज़ोर के हक़ में खड़ा हो , जो किसी से जले नहीं सबकी तारीफ करे, दूसरों की बात का बुरा न माने, किसी को अपशब्द न कहे ,हर इंसान को इंसान समझे वगैरह वगैरह वो अच्छा इंसान होता है तो माफ़ कीजियेगा इस कसौटी पर तो बहुत कम शायर उतरेंगे जो अलबत्ता अवाम की नज़र में बेहतरीन शायर माने जाते हैं। तो इसका मतलब अच्छी शायरी के लिए अच्छा इंसान होना जरूरी नहीं? बहुत जरूरी है जनाब क्यूंकि अच्छे इंसान की शायरी देर तक ज़िंदा रहती है। अवाम ने जिसे पसंद किया वो अच्छा शायर हो ऐसा नहीं है क्यूंकि अवाम आज उस की तरफ़ है तो कल किसी दूसरे की तरफ़ हो जाएगी। हक़ीकत में अवाम किसी की तरफ नहीं होती। खैर ! अब कौन अच्छा है कौन बुरा ये बहस का विषय है और हमारी इस बहस में कोई दिलचस्पी नहीं है लेकिन एक बात है कि अगर कोई अच्छा है तो उसे ये बताने की जरुरत नहीं पड़ती कि वो अच्छा है उसकी अच्छाई खुद बोलती है। मेरी नज़र में हमारे आज के शायर उसी श्रेणी के हैं जिन्हें ये कहने की जरुरत कभी नहीं पड़ी कि वो अच्छे इंसान हैं। उनकी शख़्सियत और उनकी शायरी ही इस बात की गवाही देती है भले ही आप मेरे नज़रिये से इत्तेफ़ाक़ न रखें।  

हम हैं सूखे हुए तालाब पे बैठे हुए हंस 
जो तअल्लुक़ को निभाते हुए मर जाते हैं 

घर पहुँचता है कोई और हमारे जैसा 
हम तेरे शहर से जाते हुए मर जाते हैं 

ये मोहब्बत की कहानी नहीं मरती लेकिन 
लोग किरदार निभाते हुए मर जाते हैं 

अच्छे इंसान की चर्चा के बाद चलिए अच्छे शेर की बात करते हैं। मैं कुछ कहूंगा तो छोटा मुंह बड़ी बात लगेगी इसलिए उर्दू के कद्दावर लेखक जनाब रशीद अहमद सिद्दीकी साहब के हवाले से बताना चाहूंगा की अच्छा शेर अच्छे चेहरे की तरह होता है जो नज़र के सामने से हटने के बाद भी आपके तसव्वुर में रहता है और जिसे याद करते ही आपका हाथ अपने आप दिल पे रखा जाता है। ऐसा शेर हमेशा आपके ज़ेहन में रहता है। अक्सर देखा गया है कि आज के दौर में खास तौर पर मुशायरों में शायर शेर के मार्फ़त से आपको चौंकाने की कोशिश करते हैं। जब आप अचानक चौंकते हैं तो चौंकना अच्छा लगता है लेकिन चौंकने की गिरफ्त में खुद को बहुत देर तर गिरफ्तार नहीं रख सकते। हर बार आप चौंकते भी नहीं। ऐसे शेर थोड़े वक्त में भुला दिए जाते हैं। 

मैं कैसे अपने तवाज़ुन को बरक़रार रखूं 
कदम जमाऊँ तो साँसे उखाड़ने लगती हैं 
तवाज़ुन : एक वज़न पर होना 

यूँ ही नहीं मुझे दरिया को देखने से गुरेज़ 
सुना है पानी में शक्लें बिगड़ने लगती हैं 

रहें ख़मोश तो होटों से खूं टपकता है 
करें कलाम तो खालें उधड़ने लगती हैं 
कलाम : बात करना 

अच्छे इंसान और अच्छे शेर की फिलॉसफी को यहीं छोड़ते हुए चलिए कोई 45 साल पीछे की और लौटते हैं। लाहौर पाकिस्तान के पास का एक छोटा सा गाँव है, जिसमें रहने वाला कोई चौदह पंद्रह साल का लड़का रात के वक्त स्कूल का सबक याद करने की कोशिश कर रहा है लेकिन उसका ध्यान सामने खुली किताब पर टिक नहीं रहा। पास के टाउन हाल के बाग़ से लोगों के शोर से उसका ध्यान बार बार भटका रहा है। आखिर किताब को बिस्तर पर रख वो घर से बाहर निकल कर उस और चल पड़ा है जहाँ से शोर आ रहा है। वहां जा कर देखता है कि बाग़ में करीब सौ दो सौ लोग एक छोटे से स्टेज को घेर कर बैठे हैं और स्टेज पर खड़े हो कर एक इंसान कुछ सुना रहा है जिसे सुन कर सभी सर हिलाते ऊपर की और हाथ उठाते वाह वाह कर रहे हैं। लड़का वहीँ हैरत से बैठ जाता है और ये सब देखता रहता है और सोचता है कि इसमें क्या खास बात है? स्टेज पे खड़े आदमी की तरह वो भी लिखने पढ़ने की कोशिश कर सकता है वाह वाही बटोर सकता है।

मैं ने आँखों के किनारे भी न तर होने दिए 
जिस तरफ से आया था सैलाब वापस कर दिया 
***
ये नुक़्ता कटते शजर ने मुझे किया तालीम 
कि दुःख तो मिलते हैं गर ख़्वाइश-ऐ-नुमू की जाय 
तालीम :सिखाया , ख्वाइश-ऐ-नुमू :बढ़ने फूलने की ख़्वाइश 
***
गली में खेलते बच्चों के हाथों का मैं पत्थर हूँ
मुझे इस सहन का ख़ाली शजर अच्छा नहीं लगता 
***
ये तो अब इश्क़ में भी जी लगने लगा है कुछ-कुछ  
इस तरफ़ पहले-पहल घेर के लाया गया था मैं 
***
ज़िंदा रहने की ख़्वाइश में दम-दम लौ दे उठता हूँ 
मुझ में सांस रगड़ खाती है या माचिस की तीली है 
***
बैठे रहने से तो लौ देते नहीं ये जिस्म-ओ-जां 
जुगनुओं की चाल चलिए रौशनी बन जाइए 
***
 इक सदा आई झरोखे से कि तुम कैसे हो 
फिर मुझे लौट के जाने में बड़ी देर लगी 
***
मैं ने तो जिस्म की दीवार ही ढाई है फ़क़त 
क़ब्र तक खोदते हैं लोग ख़ज़ाने के लिए 
***
तू ख़ुदा होने की कोशिश तो करेगा लेकिन 
हम तुझे आँख से ओझल नहीं होने देंगे    
***
रात भर उस लड़के ने उस शख़्स को जो मंच पे खड़ा अपने हुनर से वाह वाही बटोर रहा था अपनी आँख से ओझल नहीं होने दिया और सुबह सवेरे ही पता लगा लिया कि वो हज़रत पास ही में रहते हैं। एक दो दिन की मेहनत से लड़के ने दो चार ग़ज़लें कहीं और पहुँच गया नज़ीर साहब के सामने ,जी नज़ीर ही नाम था शायद उनका। नज़ीर साहब ने पढ़ा और कहा बरखुरदार तुम जो लिख के लाये हो वो वज़्न में नहीं है और कागज़ वापस लौटा दिए। 'वज़्न में नहीं है ?' ये जुमला तो लड़के ने कभी सुना ही नहीं था ये वज़्न क्या है ? अब चौदह पंद्रह साल की उम्र वज़्न जैसी बातों पे वक्त जाया नहीं करती (वैसे इस बात पर तो आज भी बहुत से शायर वक़्त ज़ाया नहीं करते बल्कि वज़्न में कहने को जरूरी भी नहीं समझते ), लड़के ने भी ये सोच कर कि ये झमेले का काम है लिखना छोड़ दिया। कुछ वक्त गुज़रा, नज़ीर साहब को ये लड़का अचानक बाजार में टकरा गया। मिलते ही नज़ीर साहब ने कहा 'बरखुरदार तुम उस दिन के बाद आये ही नहीं, क्यों ?' 'जी आपने कहा था कि मेरा क़लाम वज़्न में नहीं है ,तो मैंने सोचा मैं ये सब कहने लायक नहीं हूँ 'लड़के ने मरी आवाज़ में कहा।' 'तुमने गलत सोचा बरखुरदार ,ये बात सही है कि तुम्हें ग़ज़ल कहने का इल्म नहीं है लेकिन हुनर है क्यूंकि  तुम्हारी ग़ज़लों में मुझे इम्कान (संभावना )नज़र आ रहा है. तुम कल से मेरे पास आओ मैं तुम्हें अपना शागिर्द बनाऊंगा। ' लड़के को जैसे मुंह मांगी मुराद मिल गयी।             
  
यूँ थूक न मुझ पर मिरे हारे हुए दुश्मन 
ये मेरी कमां है, ये मिरे तीर पड़े हैं  

पस्ती में गिरा मैं तो ख्याल आया ये मुझको
शाखों से नहीं फूल बुलंदी से झड़े हैं 

तू है कि अभी घर से भी बाहर नहीं निकला 
हम हैं कि शजर बन के तिरी रह में खड़े हैं 

लड़के का उस्ताद के घर रोज आना-जाना होता रहा और उरूज़ की बारीकियां समझ आने लगी साथ ही ग़ज़ल कहने में लुत्फ़ आने लगा। सब कुछ ठीक ही चल रहा था कि लड़के के अब्बा का अचानक इंतेक़ाल हो गया,घर में क़फ़न जुटाने लायक पैसे भी नहीं थे। लड़के की माँ को लड़के का ग़ज़ल कहना जरा भी रास नहीं आ रहा था। उन्होंने लड़के से कहा की वो अपनी तालीम पे ही ध्यान दे क्यों की शायरी से घर नहीं चलाया जा सकता. माँ से बेहपनाह मोहब्बत के चलते लड़के ने ग़ज़ल कहना लगभग बंद कर दिया लेकिन तब तक उसकी एक ग़ज़ल 'महताब' रिसाले में छप चुकी थी ,ये 1977 की बात है तब लड़के की उम्र थी 16 साल । उस रिसाले को लड़का रात में उठ उठ कर निहारता और खुश होता ,उसे यकीन ही नहीं होता कि उसकी ग़ज़ल रिसाले में छप सकती है। इतनी ख़ुशी शायद इससे पहले उसे कभी हासिल नहीं हुई थी खैर तालीम के सिलसिले में लड़के को घर छोड़ कर बाहर जाना पड़ा।सन 1978 को उसकी दूसरी ग़ज़ल पाकिस्तान के मशहूर रिसाले 'माहे नौ'  में छप गयी।  इस वाकये के कुछ दिनों बाद लड़का जब अपने घर गया तो उसकी माँ ने उसके लिए गोश्त पकाया .जिस घर में दाल भी कभी ही नसीब होती थी उस घर में गोश्त का पकना किसी अजूबे से कम बात नहीं थी। लड़के ने हैरत से देखा कि माँ के चेहरे पर अजीब सा सुकून है और वो खाना बनाते वक्त गुनगुना भी रही है। खाना खिलाते वक्त माँ ने प्यार से पूछा 'बेटा क्या शायरी से पैसे भी मिलते हैं ?' 

अपनी तारीफ सुन नहीं सकता 
खुद से मुझको बला की वहशत है 
वहशत : डर 

बात अभी की अभी नहीं है याद 
एक लम्हे में कितनी वुसअत है 

दुःख हुआ आज देख कर उसको 
वो तो वैसा ही खूबसूरत है    

माँ के पूछने के अंदाज़ से लड़के में जोश आ गया उसे लगा अपने दिल की बात कहने का मौका आ गया है। लुक्मा मुंह में डालते हुए बोला 'बहुत बरकत है माँ, मैंने देखा है शायरी से कुछ लोग कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं। इसकी बदौलत सड़क पे रहने वाले कोठियों में रहने लगे हैं और पैदल चलने वाले अब चमचमाती कारों में घूमते हैं ' 'अच्छा ?' माँ ने हैरानी से कहा और फिर प्यार से सर पर हाथ फेरते हुए बोली 'बेटा मैं दुआ करती हूँ कि तू भी बड़ा शायर बने अल्लाह ताला तेरा नाम पूरी दुनिया में रोशन करे। मेरी तरफ से तुझे पूरी आज़ादी है ,आज तेरी शायरी की वजह से ही ये गोश्त घर में पता नहीं कितने वक्त के बाद पका है.' 'मेरी शायरी की वजह से ? कैसे ?' हैरत से लड़के ने पूछा। 'कल डाकिया 'माहे नौ' रिसाले से आया 29 रु का मनी ऑर्डर दे गया था। उसी पैसे से ये दावत हो रही है बेटा।'
  
उस दिन से माँ की दुआओं का असर ये हुआ कि आने वाले वक्त में  ' गुलाम अब्बास' नाम का ये एक गुमनाम सा लड़का धीरे धीर पूरी दुनिया में अपनी तरह के अकेले बेहतरीन शायर 'अब्बास ताबिश' में तब्दील होने लगा।      

मैं अपने आप में गहरा उतर गया शायद 
मिरे सफ़र से अलग हो गई रवानी मिरी 

तबाह हो के भी रहता है दिल को धड़का सा 
कि रायगां न चली जाय रायगानी मिरी 
रायगां : बेकार 

मैं अपने बाद बहुत याद आया करता हूँ 
तुम अपने पास न रखना कोई निशानी मिरी 


क्रमश: 
अगली पोस्ट का इंतज़ार करें 

12 comments:

Ashish Anchinhar said...

फिर से नयी नयी किताबों परिचय होता रहे.

vijendra sharma said...

नीरज जी
असल ख़िदमत तो अदब की आप कर रहें हैं
आप नींव की ईंट है जबकि दुनिया मे खासतौर से अदब में कंगूरों की भरमार है

अब्बास ताबिश भाई ज़िंदाबाद
नीरज गोस्वामी साहेब ज़िंदाबाद

विजेन्द्र

इस्मत ज़ैदी said...

Bahut umda sameeksha, mere pasandeeda shayer ki, maza aa gaya Neeraj bhaiya. Ek baar parhna shuru kiya to khatm large ke hi ruke . Waah.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर।
अगली पोस्ट का इन्तजार रहेगा।

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 29 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

Himkar Shyam said...

उम्दा शाइरी, बेहतरीन समीक्षा। ग़ज़लकार और समीक्षक दोनों को साधुवाद!

Jyoti Singh said...

क्या बात है ,मजा आ गया आकर भी ,पढ़ कर भी ,सबकुछ बढ़िया है ।

मन की वीणा said...

वाह!!
बहुत अलहदा और दिलचस्प ।
अद्भुत जानकारी भाव कथा सी आगे बढ़ती,साथ ही लाजवाब शेर,असरार।

दिगम्बर नासवा said...

दिलचस्प अन्दाज़ आपका अभी भी बरकरार है ...
ताबिश साहब को पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ा साई है आपने ...

Onkar said...

बहुत बढ़िया

तिलक राज कपूर said...

क्या ख़ूबसूरत शेर है, वाह।
तेरे लिए चराग़ धरे हैं मुँडेर पर
तू भी अगर हवा की मिसाल आ गया तो बस
यह एक शेर ही काफ़ी है यह उम्दा शायरी कहने वाले शायर के परिचय के लिए।
एक और उम्दा शायर से परिचय करवाने के लिए बेहद शुक्रिया जनाब।

mgtapish said...

वाह वाह वाह नीरज जी आप कितनी बारीकी से किसी शायर को पढ़ कर कितनी मेहनत से तबसिरा करते हैं पढ़ते ही एहसास होता है | ज़िन्दाबाद वाह वाह |
मोनी गोपाल 'तपिश'