दरिया की ज़िन्दगी पर सदके हज़ार जानें
मुझको नहीं गवारा साहिल की मौत मरना
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इधर से भी है सिवा कुछ उधर की मज़बूरी
कि हमने आह तो की उनसे आह भी न हुई
सिवा=ज्यादा
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हर एक मकाँ में कोई इस तरह मकीं है
पूछो तो कहीं भी नहीं देखो तो यहीं है
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हाँ, हाँ, तुझे क्या काम मेरे शिद्दते ग़म से ?
हाँ, हाँ, नहीं मुझको तेरे दामन की हवा याद
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निगाहों में कुछ ऐसे बस गए हैं हुस्न के जलवे
कोई महफ़िल हो लेकिन हम तेरी महफ़िल समझते हैं
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मजबूरी-ऐ-कमाले मुहब्बत तो देखना
जीना नहीं कबूल , जिए जा रहा हूँ मैं
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क्या बताऊँ, किस कदर ज़ंज़ीरे पा साबित हुए
चंद तिनके जिनको अपना आशियाँ समझा था मैं
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काँटों का भी हक़ है आखिर
कौन छुड़ाए अपना दामन
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यह है इश्क की करामत यह कमाले शायराना
अभी बात मुंह से निकली अभी हो गयी फ़साना
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मुहब्बत की बातें मुहब्बत ही जाने
मुअम्मे नहीं हैं ये समझाने वाले
मुअम्मे =गुत्थी
अलीबाबा पेड़ के पीछे खड़ा सब देख रहा था। उसने चोरों के सरदार ने गुफा के दरवाज़ा को खोलने के लिए जो बोला था वो भी रट लिया। जब चोर गुफा से बाहर आकर वापस चले गए तो वो पेड़ के पीछे से निकला ,गुफा के सामने खड़ा हुआ और बोला "खुल जा सिम सिम " दरवाज़ा खुला अलीबाबा अंदर गया और उसके बाद उसने जो देखा उसे देख उसकी जो हालत हुई होगी उसे मैं समझ सकता हूँ। इतना विशाल खज़ाना उसके सामने था। ऊपर वाले के दिए दो हाथों से वो जितना उठा सकता था उसने उस ख़ज़ाने से हिस्सा उठाया और चल दिया। मैं भी तो वोही कर रहा हूँ आज। सारे ख़ज़ाने को एक साथ न उठा पाने का जो मलाल अलीबाबा को उस वक्त हुआ होगा वो मुझे अब हो रहा है। ये किताब जो मेरे सामने है उस ख़ज़ाने से कम नहीं ,इसमें इश्क के बेजोड़ हीरे, हुस्न की चमचमाती सोने की अशर्फियाँ ,शराब के पन्ने की तरह खूबसूरत ज़ेवर ग़म के सच्चे मोतियों की मालाओं के ढेर और न जाने क्या क्या है। दिल तो मेरा भी यही कर रहा है कि सारे का सारा खज़ाना आपके कदमों पे धर दूँ लेकिन मजबूरी है, अकेला इतना बोझ उठा नहीं सकता। जो जितना उठा पाया हूँ आपके सामने है :
हुस्न की जल्वागरी से है मुहब्बत का जुनूँ
शमा रोशन हुई , पर लग गए परवानों के
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मुझको शिकवा है अपनी आँखों से
तुम न आए तो नींद क्यों आई ?
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आपस में उलझते हैं अबस शेखो-बिरहमन
काबा न किसी का है न बुतखाना किसी का
अबस =बेकार
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इश्क जब तक न कर चुके रुसवा
आदमी काम का नहीं होता
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तौबा तो कर चुका था मगर इसका क्या इलाज
वाइज़ की ज़िद ने फिर मुझे मजबूर कर दिया
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जुनूने मुहब्बत यहाँ तक तो पहुंचा
कि तर्के मुहब्बत किया चाहता हूँ
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हाय ये मजबूरियां महरूमियाँ नाकामियां
इश्क आखिर इश्क है तुम क्या करो हम क्या करें
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कमाले हुस्न की का आलम दिखा दिया तूने
चिराग़ सामने रख कर बुझा दिया तूने
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यूँ दिल के तड़पने का कुछ तो है सबब आखिर
या दर्द ने करवट ली या तुमने इधर देखा
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हुदूद कूचा-ए-महबूब हैं वही से शुरू
जहाँ से पड़ने लगे पाँव डगमगाए हुए
चलिए 19 वीं शातब्दी के शुरूआती दौर में चलते हैं यही कोई 1910 के आसपास, किसी मोहल्ले में मुशायरा चल रहा है आधी रात का वक्त होगा , एक नामचीन शायर साहब अपना कलाम उछल उछल कर पढ़ रहे हैं दाद के लिए हाथ फैलाये हुए हैं लेकिन सामिईन उन्हें उखाड़ने को कमर कसे बैठे हैं , शायर मुशायरे के आर्गेनाइजर की और मुख़ातिब हो कर धीरे से कहते हैं कैसे ज़ाहिल गँवार लोगों को मुझे सुनने को बुलाया हुआ है आपने। कोई शेर उनके पल्ले ही नहीं पड़ रहा , इस से तो मैं अगर गधों को सुनाता तो कम से कम दुम तो हिलाते। आर्गेनाइजर धीरे से बोलै शुक्र कीजिये सामिईन में गधे नहीं हैं वरना हो सकता है दुलत्तियाँ चलाने लगते। मुशायरा उखड चुका था ,तभी एक नौजवान नशे में धुत्त लड़खड़ाता हुआ मंच की और बढ़ा। उसकी बेतरीब बढ़ी दाढ़ी और महीनों से कंघी को तरसती हुई लम्बी जुल्फें देख कर लगता था जैसे वो किसी पागलखाने से सीधा चला आया है। नौजवान को तेजी से माइक की तरफ आता देख वो शायर साहब तो फ़ौरन खिसक लिए लेकिन आर्गेनाइजर की बांछे खिल उठीं। नौजवान ने गला साफ़ किया और लाजवाब तरन्नुम में ये कलाम पढ़ा :
दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं
कितना हसीं गुनाह किये जा रहा हूँ मैं
गुलशन परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
काँटों से भी निबाह किये जा रहा हूँ मैं
यूँ ज़िन्दगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बगैर
जैसे कोई गुनाह किये जा रहा हूँ मैं
अब इसके बाद क्या हुआ ,आप तो समझदार हैं जान ही गए होंगे। सामिईन ने और किसी को पढ़ने ही नहीं दिया ,ये नौजवान सारा मुशायरा लूट के ले गया। सच तो ये है कि ऐसा कोई भी मुशायरा किसी को याद नहीं जिसमें इन हज़रत ने पढ़ा हो और उसे लूट न ले गए हों। मुशायरा लूटने का ये सिलसिला इस शायर की मौत के बाद ही ख़तम हुआ। तो चलिए आज इसी शायर की बात करते हैं जिसने उर्दू शायरी को हुस्न और इश्क के नए पाठ पढ़ाये। इनकी शायरी में हुस्न और इश्क की धीमी धीमी आंच पर इंकलाब और नए नज़रियात की आहट सुनाई देती है। 6 अप्रेल 1890 में मुरादाबाद में जन्में इस शायर का नाम है अली सिकंदर जो उर्दू शायरी के फ़लक पर आफ़ताब की चमक रहा है और आने वाले वक्त में भी इसी आब के साथ चमकता रहेगा ,हम इस शायर को "जिगर मुरादाबादी" के नाम से जानते हैं। उनकी ग़ज़लों के संकलन की जिस किताब "मेरा पैगाम मुहब्बत है जहाँ तक पहुंचे " की हम बात कर रहे हैं ,उसे "किताब घर" प्रकाशन दिल्ली द्वारा प्रकाशित किया गया है।
आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं
जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं
हाय रे मजबूरियां तरके मुहब्बत के लिए
मुझको समझाते हैं वो और उनको समझाता हूँ मैं
मेरी हिम्मत देखना मेरी तबियत देखना
जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मैं
जिगर को शायरी विरासत में मिली थी। उनके पिता मौलाना अली 'नज़र' तो शायर थे ही उनके दादा हाफिज मोहम्मद 'नूर' भी शायर थे। जैसा कि अमूमन होता है उस दौर में कोई कोई शायर ही खाते-पीते घर के होते थे जबकि अधिकांश की माली खस्ता ही होती थी।आज भी वैसे कोई खास फ़र्क नहीं पड़ा है जो सच्चे और अच्छे शायर हैं उनकी हालत खस्ता ही है, हाँ जो शायरी को बेचने के हुनर से वाकिफ़ हैं उन्हें कोई कमी नहीं। जिगर के परिवार वाले ये हुनर नहीं जानते थे इसलिए किसी तरह गुज़ारा करते रहे। ऐसे माहौल में जिगर की शिक्षा ढंग से नहीं हो पायी ,वो कुछ साल ही मदरसे गए बाद में घर पर ही फ़ारसी सीखी। जिगर का ये मानना था कि शायरी के लिए किसी स्कूल कॉलेज की डिग्री लेना जरूरी नहीं। जिगर साहब ने तो बिना डिग्री के बेहतरीन शायरी कर ली लेकिन उनकी इस बात को उनके बाद के बाकि शायरों ने भी गले बांध लिया और आज भी आपको इस सोच के शायर मिल जायेंगे जो मुशायरों के मंचों पर धूम मचा रहे हैं लेकिन अगर उनसे उनकी डिग्री पूछेंगे तो बगलें झांकते नज़र आएंगे। जिगर ने माना कि अधिक पढाई नहीं की लेकिन उन्होंने ज़िन्दगी के तल्ख़ तजुर्बों से बहुत कुछ सीखा और उन्हीं तजुर्बों को अपनी शायरी में ख़ूबसूरती से ढाला।अब आपके पास अगर तजुर्बे भी ना हों सिर्फ दूसरों की नक़ल करने का हुनर आता हो तो अपनी नौटंकी से मंचों पे आप बेशक तालियां पिटवा लेंगे लेकिन मंच से हटते ही आपको याद रखने वाला कोई नहीं होगा।
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना खुद है ज़माने से हम नहीं
यारब ! हुजूमे दर्द को दे और वुसअतें
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं
हुजूमे=भीड़, वुसअतें=फैलाव
ज़ाहिद कुछ और हो न हो मैखाने में , मगर
क्या कम ये है कि फ़ितना-ए-दैरो हरम नहीं
जिगर की ज़िन्दगी में अगर झांकेंगे तो आपको दो बातें खास तौर पे मिलेंगी पहली मयनौशी और दूसरी आशिकी। जिगर ने या तो शराब पी या इश्क किया और दोनों ही काम करने में किसी तरह की कोई कंजूसी नहीं की। ज़नाब इश्क फरमाते नाकामयाब होते तो शराब में गर्क हो जाते और शायरी करने लगते, शायरी करते तो किसी न किसी को उनसे इश्क हो जाता जो थोड़े दिन चलता और जिगर साहब फिर से शराब से नाता जोड़ लेते। फक्कड़ तबियत कुछ मिला तो ठीक न मिला तो भी ठीक। पढ़े लिखे होते तो कहीं नौकरी भी मिलती ,दुबले पतले मरियल से बदसूरत चेहरे वाले जिगर को कोई ढंग का काम किसी ने दिया ही नहीं इसलिए जब जो काम मिला कर लिया और पेट की आग बुझा ली। जनाब ने स्टेशन स्टेशन घूम के चश्मे बेचने का काम भी किया है। ये ही मरियल दुबला-पतला बदसूरत इंसान बकौल शौक़त थानवी "जब मुशायरे में तरुन्नम से अपना कलाम पढ़ते तो दुनिया के सबसे हसीन और दिलकश इंसान नज़र आने लगते।चेहरे पर मासूमियत छा जाती " इसी मासूमियम के चलते हसीनाएं उन्हें अपना दिल दे बैठतीं जिसे कबूल करने में जिगर साहब कभी कोताही नहीं बरतते।
मुहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं
कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं
ये कह कह के हम दिल को बहला रहे हैं
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं
जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है
वफ़ा करके भी हम तो शर्मा रहे हैं
जिगर साहब एक बार आगरे की तवायफ़ 'वहीदन' से इश्क कर बैठे , लोगों ने समझाया कि मियां अपनी हैसियत तो देखें कहाँ आप और कहाँ वो लेकिन कहते हैं न कि प्यार अँधा होता है और जिगर साहब का प्यार तो जनम से अँधा था , नहीं माने। वही हुआ जो होना था 'वहीदन' का धंधा जब ठप्प होने लगा तो उन्होंने कड़के जिगर साहब को बाहर का रास्ता दिखा दिया। दिल तो टूटना ही था ,टूटा और जिगर शराब पी कर ग़म गलत करते हुए शायरी करने लगे। ये किस्सा फिर से दोहराया गया सुना है मैनपुरी की गायिका 'शीरज़न' जिस तेजी से उनपे फ़िदा हुईं उतनी ही तेजी से रुखसत भी हो गयीं। यहाँ ये भी बता दें कि मशहूर ग़ज़ल गायिका अख़्तरी बाई फैज़ाबादी उर्फ़ बेग़म अख़्तर ने भी उन्हें शादी का पैगाम भेजा था जिसे जिगर साहब ने न जाने क्या सोच के ठुकरा दिया। बेग़म अख़्तर साहिबा ने जिगर की बहुत सी ग़ज़लों को बहुत दिलक़श अंदाज़ में अपनी खनकती आवाज़ में गाया है। अगर हम अली सरदार ज़ाफ़री साहब की उन पर बनी डाक्यूमेंट्री पे यकीन करें तो इस तरह के किस्सों के लगातार चलते रहने की वज़ह से उनकी बीवी उन्हें छोड़ अपनी बहन के पास गौंडा चली गयी। गौंडा निवासी शायर जनाब 'असगर गौंडवी' जिगर के जिगरी दोस्त थे उन्हीं की बीवी जिगर साहब की बीवी की बड़ी बहन थी। 'असगर' साहब की सोहबत से जिगर की शायरी हुस्न-ओ-इश्क की गिरफ़्त से निकल कर गमें-दौरां की नुमाइंदगी करने लगी। जिगर की असली पहचान इसी बदलती शायरी की वजह से है।
कभी हुस्न की तबियत ना बदल सका ज़माना
वही नाज़े बेनियाज़ी वही शाने ख़ुसरुवाना
ख़ुसरुवाना=शाहाना
मेरी ज़िन्दगी तो गुज़री तेरे हिज़्र के सहारे
मेरी मौत को भी प्यारे कोई चाहिए बहाना
मैं वो साफ़ ही न कह दूँ है जो फ़र्क मुझ में तुझमें
तेरा दर्द दर्दे तन्हा मेरा ग़म ग़मे ज़माना
जिगर बेतहाशा शराब पीते थे ये तो आपको बता ही चुके हैं ,मुशायरों में लोग लड़खड़ाते हुए जिगर साहब को बड़ी मुश्किल से पकड़ कर माइक के सामने लाते थे ,माइक के सामने आते ही उनकी लड़खड़ाहट बेहतरीन तरुन्नम की ओट में दब जाती और वो मुशायरा लूट कर ही उठते। जिगर के दौर में ही बहुत से शायरों ने जिगर के लिबास हुलिए और तरन्नुम की नक़ल करके नाम कमाने की कोशिश की लेकिन जिगर जैसा बनना आसान नहीं था। लोग समझते हैं कि जिगर शराब पी कर ही ग़ज़लें कहते हैं जबकि हकीकत जिगर साहब ने कुछ यूँ बयाँ की है : " ये ख्याल कि जब मैं शराब पीता था तो बहुत अच्छे शेर कहता था ग़लत है, एक साथ दो महबूब नहीं हो सकते जो इंसान शराब में कभी पानी मिलाने का रवादार न हो वो भला अपने ऊपर शेर मुसल्लत कर सकता है ?एक बात ये भी है कि मैं शेर उस वक्त कहता था जब शराब छोड़ देता था। दो-दो तीन-तीन- महीने से एक बूँद नहीं पीता था और उसी ज़माने में ग़ज़ल कहता था। शराब पी कर सिर्फ दो या तीन ग़ज़लें कहीं हैं " मेरा ख्याल है कि उन सभी शायरों को जो सोचते हैं कि शायरी और शराब का रिश्ता अटूट है जिगर साहब की इस बात को ज़ेहन में रखना चाहिए।
एक लफ्ज़ मुहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिले आशिक़, फैले तो ज़माना है
ये इश्क नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
आँसू तो बहुत से हैं आँखों में जिगर ,लेकिन
बिंध जाए सो मोती है रह जाए सो दाना है
फिर हुआ यूँ कि एक दिन जिगर साहब ने शराब से तौबा कर ली और मरते दम तक उसे छुआ तक नहीं। ये करिश्मा कैसे हुआ ये तो पता नहीं शायद उनके अज़ीज़ दोस्त असगर साहब के इसरार के कारण या फिर बीवी के दुबारा घर लौट आने के कारण ,कारण कुछ हो, नतीजा सही रहा। बेतरतीब जिगर अब सलीके से रहने लगे.उन्होंने ग़ज़ल को एक नई ज़िन्दगी बक्शी। उनकी ग़ज़लें मदहोशी और रंगीनी के छलकते हुए सागर हैं उनमें किस्म-किस्म के ज़ज़्बात जलवागर हैं जिनका मुताअला ज़िन्दगी के नशे को गहरा कर देता है ,कायनात के हुस्न में इज़ाफ़ा हो जाता है और ज़िन्दगी एक नए रूप में नज़र आने लगती है। उनके कलाम के सैंकड़ों अशआर ऐसेहैं जिनमें ज़िन्दगी और वक्त के धड़कनों की आवाज़ें सुनाई देती हैं। आने वाली नस्लें और तारीख़ जिगर को भुला नहीं सकती। जिगर पर लिखने बैठे तो लिखते ही चले जाएँ लेकिन बात ख़तम न हो लेकिन हम ऐसा कर नहीं सकते मजबूरी है इसलिए। सं 1958 में उन्हें उनकी किताब "आतिशे गुल " पर साहित्य अकादमी का पुरूस्कार दिया गया। उसके 2 साल बाद उर्दू जगत का ये चमकता हुआ सितारा 9 सितम्बर 1960 को अस्त हो गया।
पाँव उठ सकते नहीं मंज़िले-जाना के ख़िलाफ़
और अगर होश की पूछो तो मुझे होश नहीं
कभी उन मद भरी आँखों से पिया था एक जाम
आज तक होश नहीं होश नहीं होश नहीं
अपने ही हुस्न का दीवाना बना फिरता हूँ
मेरी आगोश को अब हसरते आगोश नहीं
जिगर साहब ने खुद तो फिल्मों के लिए गाने नहीं लिखे लेकिन उनकी ग़ज़लों से मुत्तासिर हो कर बहुत से नामी गीतकारों ने गीत लिखे जैसे 'अजी रूठ कर अब कहाँ जाइएगा' ,'निगाहें मिलाने को जी चाहता है ', उनके ख्याल आये तो आते चले गए ---वगैरह। अब बात करते हैं किताब की तो जैसा मैंने शुरू में ही बता दिया था कि इस लाजवाब किताब को 'किताबघर प्रकाशन अंसारी रोड दरियागंज दिल्ली ने प्रकाशित किया है। आप उनसे 011-23266207 या 23255450 पर फोन करके पूछ सकते हैं। ख़ुशी की बात ये है कि ये किताब अमेज़न पर भी उपलब्ध है इसलिए आप इसे आसानी से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। ये रहा लिंक : https://www.amazon.in/Mera-Paigaam-Muhabbat-Jahan-Pahunche/dp/8170168058 इस किताब में जिगर साहब की 200 ग़ज़लें संग्रहित हैं जो बार बार पढ़ने लायक हैं। सोचिये मत तुरंत आर्डर करिये और शायरी के इस दिलकश समंदर में गोते लगाइये। आखिर में पेश हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर :
दिल को सुकून रूह को आराम आ गया
मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया
दीवानगी हो, अक्ल हो, उम्मीद हो कि यास
अपना वही है वक्त पे जो काम आ गया
यास =निराशा
ये क्या मक़ामे इश्क है ज़ालिम कि इन दिनों
अक्सर तेरे बग़ैर भी आराम आ गया
3 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (06-10-2018) को "इस धरा को रौशनी से जगमगायें" (चर्चा अंक-3147) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Behtareen peshkash ... Neeraj Sahab ... maza aa gaya padhkar ... Raqeeb
बेहतरीन लेख है बधाई
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