Monday, May 21, 2018

किताबों की दुनिया - 178

इच्छाओं पर प्रश्नचिन्ह हैं अरमानों पर पहरे हैं 
संबंधों से हमें मिले जो घाव बहुत ही गहरे हैं 

सहमत जो न हुआ राज्य से दंड मृत्यु का उसे मिला 
राजमहल की नींव के पत्थर नरमुंडों पर ठहरे हैं 

नई क्रांति की आज घोषणा कर दी है कुछ गूंगों ने 
सुनकर जो दौड़े आये वे सब के सब ही बहरे हैं 

अब 'क्या अर्ज़ करूँ..." अर्ज़ करने से होगा भी क्या ? आप तो मान ही बैठे हैं कि आज किसी हिंदी ग़ज़लों वाली किताब की चर्चा होने वाली है क्यूंकि हमने ग़ज़ल को भाषाओँ में बाँट दिया है। हिंदी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल, गुजराती ग़ज़ल, हरियाणवी ग़ज़ल, पंजाबी ग़ज़ल, ब्रज ग़ज़ल आदि आदि जबकि ग़ज़ल ग़ज़ल होती है। हर ग़ज़ल में बहर काफिया रदीफ़ और भाव का होना जरुरी होता है। सम्प्रेषण की भाषा अलग हो सकती है बाकि कुछ नहीं। सम्प्रेषण की भाषा कोई भी हो अगर कमज़ोर है तो उसमें कही ग़ज़ल भी कमज़ोर ही होगी। भाषाएँ अलग हो सकती हैं लेकिन उनसे व्यक्त भाव तो एक ही होते हैं। क्यूंकि बोलने वाला या लिखने वाला इंसान है जो इस दुनिया का हिस्सा है और इस दुनिया के लोगों के ,वो चाहे किसी भी जगह के हों दुःख-सुख परेशानियां कमोबेश एक जैसी होती हैं। खैर !! तो आपको ये बता दूँ कि हमारी आज के शायर सिर्फ हिंदी ग़ज़ल वाले नहीं हैं बल्कि वो भाषा विशेषज्ञ हैं और हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और सिरायकी -जो पाकिस्तान के मुल्तान इलाके में बोली जाती है -में समान अधिकार से लिखते हैं।

जो खुल के हँस नहीं सकते जो खुल कर रो नहीं सकते 
ये दुनिया क्या कभी उनकी भी मजबूरी समझती है 

किनारे बैठ कर तुम तब्सिरा करते रहो लेकिन 
है पानी सर्द या फिर गर्म बस मछली समझती है 

ख़िरद हर चीज़ से इंकार करने पर है आमादा 
अक़ीदत गोल पत्थर को भी ठाकुर जी समझती है 
ख़िरद=बुद्धिमता, अक्ल ,अक़ीदत =श्रद्धा 

हमारे आज के शायर खूबसूरत शख्शियत के स्वामी मृदुभाषी 28 दिसम्बर 1952 को देहरादून में जन्में जनाब ओम प्रकाश खरबंदा हैं ,जो पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश,उत्तराखंड, बिहार, हिमाचलप्रदेश में होने वाले राष्ट्रीय और अंतर राष्ट्रिय हिंदी और उर्दू के कार्यक्रमों का कभी आयोजन भी करते हैं तो कभी उनमें शायर या नाज़िम याने संचालक की हैसियत से "अम्बर खरबंदा" के नाम से शिरकत करते हैं.आज हम "अंबर खरबंदा" साहब की ग़ज़लों, कत'आत, नज़्मों ,गीतों और दोहों से सजी किताब "क्या अर्ज़ करूँ " की बात करेंगे जिसे "असीम प्रकाशन , 602 मालीवाड़ा, ग़ाज़ियाबाद ने एक बेहद खूबसूरत आवरण के साथ सन 2014 में प्रकाशित किया था। इस किताब में खरबंदा साहब की 50 ग़ज़लें 45 कत'आत 9 नज़्में और गीत तथा 20 दोहे संकलित किये गए हैं।ये किताब हमें खरबंदा साहब की बहुमुखी प्रतिभा से रूबरू करवाती है। इसे पढ़ कर लगता है कि ऊपर वाला किसी किसी को वाकई जब कुछ देने पे आता है तो छप्पर फाड़ कर देता है।



ये सच है मैं वहां तनहा बहुत था 
मगर परदेश में पैसा बहुत था

वो कहता था बिछुड़ कर जी सकोगे 
वो शायद अबके संजीदा बहुत था

बिछड़ते वक्त चुप था वो भी, मैं भी
हमारे हक़ में ये अच्छा बहुत था 

ये जो कम लफ़्ज़ों में गहरी बात करने का हुनर है ये ऐसे ही नहीं आता। गागर में सागर भरना हर किसी के बस का रोग नहीं। मुझे लगता है इस काम को अंजाम देने में अंबर जी का इलेक्ट्रॉनिक्स ज्ञान बहुत काम आया होगा। आपको को तो पता ही है कि इलेक्ट्रॉनिक्स ने किस तरह विज्ञान जगत में क्रांति का सूत्रपात किया है। एक छोटी सी माइक्रोचिप में हज़ारों लाखों सूचनाएँ इकठ्ठा की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए आज मोबाईल से हम जो दुनिया भर की जानकारियां लेते हैं फ़िल्में देखते हैं गाने सुनते हैं एक दूसरे को देखते सुनते हैं इस सब के पीछे इलेक्ट्रॉनिक्स है और हमारे 'अंबर खरबंदा' जी इलेक्ट्रॉनिक्स के इंजीनियर हैं। उन्होंने न केवल इलेक्ट्रॉनिक्स पढ़ी है बल्कि बरसों बरस शिक्षण संस्थाओं में पढाई भी है।

कैसे कैसे क्या से क्या होते गए 
इब्तिदा थे इन्तिहा होते गए 
इब्तिदा =प्रारम्भ, इन्तिहा =अंत

ग़म मिले इसका भी बेहद ग़म रहा 
और फिर ग़म ही दवा होते गए 

हम नहीं समझे के क्या है ज़िन्दगी 
आप जीने की अदा होते गए

'अंबर' जी के जीन में शायरी है। इनका परिवार 'मियाँवाली' जो अब पाकिस्तान में है से, 1947 में देश को मिली खूनी आज़ादी के कारण ,पलायन कर देहरादून में आ कर बस गया। अंबर जी के पिता स्वर्गीय श्री 'जीवनदास खरबंदा' उर्दू से बेहद मुहब्बत रखते थे। उनके पास बेशुमार मयारी शायरी का खज़ाना था और उन्हें न जाने कितने ही शेर ज़बानी याद थे। मियांवाली के जिस स्कूल में वो पढ़ते थे वहां के हैडमास्टर उर्दू शायरी के कद्दावर शायर और स्कॉलर जनाब 'त्रिलोक चंद 'महरूम' साहब थे और सहपाठी जनाब 'जगन्नाथ' , जी हाँ वही जो बाद में 'जगन्नाथ आज़ाद' के नाम से उर्दू अदब में मशहूर हुए। अंबर साहब को घर और स्कूल में ऐसा माहौल मिला कि उनकी उर्दू से मोहब्बत दीवानगी की हद तक जा पहुंची।

मेरे लिए ऐ दोस्त ! बस इतना ही बहुत था 
जैसा तुझे सोचा था तू वैसा निकल आता 

मैं जोड़ तो देता तेरी तस्वीर के टुकड़े 
मुश्किल था के वो पहला-सा चेहरा निकल आता 

ऐसा हूँ मैं इस वास्ते चुभता हूँ नज़र में 
सोचो तो , अगर मैं कहीं वैसा निकल आता 

थोड़ा होश सँभालते ही खरबंदा जी देहरादून में होने वाले मुशायरों में रात रात भर बैठे रहते। उस वक्त रेकार्डिंग की आज जैसी सुविधा तो थी नहीं सो अपनी डायरी में मयारी शेरों को लिखते और गुनगुनाते रहते। मुशायरों में उनकी लगातार रहने वाली मौजूदगी से बहुत से शायर उन्हें पहचानने लगे थे। ऐसे ही किसी एक मुशायरे के बाद उनकी शायरों से हो रही उनकी गुफ्तगू के दौरान उन्हें देहरादून के मोतबर शायर जनाब 'कँवल ज़ियाई साहब का पता चला और वो जा पहुंचे उनकी शागिर्दी में। कँवल साहब ने अंबर साहब को अपने क़दमों में जगह दी और फिर बाक़ायदा उनके शेरी हुनर को तराशने लगे।कँवल साहब के यहाँ शायरों का आना जाना लगा ही रहता था एक दिन उनकी मुलाकात देहरादून के ही एक और उस्ताद शायर जनाब नाज़ कश्मीरी से हुई जिनकी मौजूदगी में उनका तख़ल्लुस 'अंबर' रखा गया।

गवाहों को तो बिक जाने की मजबूरी रही होगी 
हमें भी फैसला मंज़ूर हो ऐसा नहीं होता 

मुहब्बत जुर्म है तो फिर सज़ा भी एक जैसी हो 
कोई रुसवा कोई मशहूर हो ऐसा नहीं होता 

कोई मिसरा अगर दिल में उतर जाए ग़नीमत है 
तग़ज़्जुल से ग़ज़ल भरपूर हो ऐसा नहीं होता

"तग़ज़्जुल से ग़ज़ल भरपूर हो ऐसा नहीं होता" बहुत ही सही बात की है अंबर जी ने. उर्दू शायरी के बड़े से बड़े उस्ताद शायर की किसी भी ग़ज़ल को उठा कर देखिये आपको शायद ही उनकी कोई ऐसी ग़ज़ल मिलेगी जिसके सारे शेर ग़ज़ब के हों। सच तो ये है कि कभी कभी एक अच्छा या सच्चा मिसरा कहने में उम्र निकल जाती है शेर तो बहुत दूर की बात है। आप कितना लिखते हैं इस से कोई फर्क नहीं पड़ता आप क्या लिखते हैं ये बात मायने रखती है। अम्बर साहब ने अपने तवील शेरी सफर में बहुत ज्यादा नहीं लिखा लेकिन जो लिखा वो पुख्ता लिखा। शायरी में उन्हें जो मुकाम हासिल हुआ है वो उन्हें किताबें पढ़ने और अपने उस्ताद की रहनुमाई के साथ साथ मित्तर नकोदरी ,डा.श्यामनन्द सरस्वती 'रोशन' नाज़ कश्मीरी ,विज्ञान व्रत, शाहिद हसन 'शाहिद', सरदार पंछी,ओम प्रकाश 'नदीम', इकबाल आज़र, नरेश शांडिल्य, महेंद्र प्रताप 'चाँद' जैसे बहुत से कामयाब शायरों की सोहबत से हासिल हुआ।

कितना नफ़ा है, क्या है नुक्सान सोच लेगा 
फिर दोस्ती करेगा , आखिर वो आदमी है 

सब धर्म सारे मज़हब जब उसने रट लिए हैं 
मिल-जुल के क्यों रहेगा आखिर वो आदमी है 

भूले से भी न रखना आईना उसके आगे 
खुद से बहुत डरेगा आखिर वो आदमी है 

धर्म और मज़हब के कारण एक इंसान की दूसरे इंसान के बीच जो दूरी बढ़ी है, नफ़रत बढ़ी है उस पर आपको सैंकड़ों शेर मिल जाएंगे लेकिन अंबरी साहब ने उसी बात को बिलकुल अलग ढंग से अपने शेर में पिरोया है- 'मिल-जुल के क्यों रहेगा आखिर वो आदमी है '. शायरी दरअसल हज़ारों सालों से चली आ रही इंसानी फितरत को अलग अपने नज़रिये से शेर में पिरोने का नाम है। जो इस काम को सही ढंग से अंजाम दे देता है वो ही कामयाब शायर कहलाता है। आप कोई नयी बात नहीं कह सकते लेकिन नए ढंग से जरूर कह सकते हैं। अंबर साहब की इस किताब को पढ़ते हुए आप को कई जगह किसी बात को नए ढंग से कहने का हुनर नज़र आता है और यही इस किताब की कामयाबी भी है।

देखिये कैसे चमकती है नगीने की तरह 
सौ ग़मों के बीच छोटी सी ख़ुशी रख लीजिये 

रहबरों की रहबरी को आज़माने के लिए 
अपने क़दमों में जरा सी गुमरही रख लीजिये 

आप 'अंबर' जी न बन जाएँ फ़रिश्तें यूँ कहीं 
अपने किरदार-ओ-अमल में कुछ कमी रख लीजिये 

पहले सामिईन के बीच बैठ कर शायरों को सुनना और फिर शायरों के बीच बैठ कर सामिईन को सुनाना एक ऐसा अनुभव है जिसे लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं किया जा सकता। इस सफ़र को तय करने में बहुत मेहनत लगती है। इस दुनिया में अपनी अलग पहचान बनाना आसान काम नहीं है तभी तो अधिकतर लोग भीड़ का हिस्सा बनकर ही ज़िन्दगी काट देते हैं। जो मज़ा परचम उठा कर आगे आगे चलने में है वो पीछे पीछे चलते हुए नारे लगाने में नहीं। अंबर साहब की अब अपनी पहचान है और इसी के चलते उन्हें 2005 में अंतर्राष्ट्रीय प्रवासी सम्मलेन में 'अक्षरम सम्मान' , 2008 में गुंजन साहित्य सम्मान, 2009 में नागरिक परिषद् सम्मान, 2010 में एस.पी.गौहर सम्मान, 2011 में लोक लिखारी सम्मान, 2012 में हंसराज हंस सम्मान और 2013 में प्राइड ऑफ उत्तराखंड सम्मान से सम्मानित किया गया है। सम्मान प्राप्ति की ये लिस्ट अभी अधूरी है क्यूंकि उन्हें मिले सम्मानों की लिस्ट के लिए एक पोस्ट अलग से लिखनी पड़ेगी।

मौसम की तब्दीली कहिये या पतझड़ का बहाना था 
पेड़ को तो बस पीले पत्तों से छुटकारा पाना था 

रेशा-रेशा हो कर अब बिखरी है मेरे आँगन में
रिश्तों की वो चादर जिसका वो ताना मैं बाना था 

बादल,बरखा, जाम, सुराही, उनकी यादें, तन्हाई 
तुझको तो ऐ मेरी तौबा ! शाम ढले मर जाना था

रेडिओ -टीवी पर प्रसारित होने वाले शायरी से सम्बंधित लगभग सभी कार्यक्रमों में शिरकत करने वाले और देश के प्रसिद्ध रिसालों -अख़बारों में नियमित रूप से छपने वाले 'अंबर खरबंदा' साहब की किताब "क्या अर्ज़ करूँ ' को प्राप्त करने के लिए आपको 'असीम प्रकाशन ग़ाज़ियाबाद के आफिस नंबर 0120-4560628 पर फोन करना पड़ेगा या फिर अंबर साहब को उनकी लाजवाब शायरी के लिए बधाई देते हुए उनके मोबाईल न. 9411512333 पर फोन करना पड़ेगा। अंबर साहब, जो दून क़लम संगम के जनरल सेकेट्री भी हैं, को आप ई -मेल से ambarkharbanda@gmail.com से भी सम्पर्क कर सकते हैं। मैंने रास्ता बता दिया है ,चलने का काम तो आपको ही करना पड़ेगा। लीजिये आखिर में उनके दो कतआत पेश हैं :

यही इक जुर्म है ऐ मेरे हमदम 
के मैं खुशबू को खुशबू बोलता हूँ 
तेरी आँखों को देखा था किसी दिन 
उसी दिन से मैं उर्दू बोलता हूँ 
*** 
सर्दी बहुत है दोस्तो ! हालत ख़राब है 
बाज़ार चल के ढूंढ लें इसका कोई जवाब 
माँ के लिए खरीद लें सस्ती-सी एक शाल 
ले आएं अपने वास्ते मँहगी कोई शराब

10 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-05-2017) को "आम और लीची का उदगम" (चर्चा अंक-2978) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Parul Singh said...

मेरे लिए ऐ दोस्त ! बस इतना ही बहुत था
जैसा तुझे सोचा था तू वैसा निकल आता

हर एक शेर खूबसूरत। फिर भी ये एक शेर साथ ले
आई हूँ। अम्बर जी की शायरी तो बेमिसाल है ही। सर आपका अंदाजे बयां बहुत ही खूबसूरत,। धन्यवाद एक और ताजा किताब से रूबरू कराने के लिए।

Unknown said...

बिछड़ते वक़्त चुप था वो भी मैं भी
हमारे हक़ में ये अच्छा बहुत था

ग़म मिले इसका भी बेहद ग़म रहा
और फिर ग़म ही दवा होते गये
बहुत ख़ूब, अंबर भाई! एक-एक शे'र दिल छू लेनेवाला है।...बहुत, बहुत मुबारकबाद।
नीरज जी, आपके क़लम को सलाम। किस खूबसूरत अन्दाज़ से हर किताब का और उसके ख़ालिक़ का तआरुफ़ पेश करते हैं..वाह...वाह...हार्दिक बधाई स्वीकारें।
--'दरवेश' भारती

Bimal said...

ख़िरद हर चीज़ से इंकार करने पर है आमादा
अक़ीदत गोल पत्थर को भी ठाकुर जी समझती है

अच्छा है...

Bimal said...
This comment has been removed by the author.
mgtapish said...

Khoob khoob khoob waaaaaah kya kahne
Naman

के० पी० अनमोल said...

अच्छी समीक्षा के लिए बधाई आपको। अम्बर साहब की शायरी उनका क़द बा-ख़ूबी दिखला रही है।

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

वाह बहुत ख़ूब

Unknown said...

Behtareen ghazlen. Bahut badhiya pustak ka chayan neeraj bhai.

SATISH said...

Waaaaah....Neeraj Ji .. ek aur nayaab post Amber Kharbanda Sb se Delhi men apni mulaqaat yaad aa gayee ... haardik aabhar aur shubhkaamnaayen ... Raqeeb