Monday, April 30, 2018

किताबों की दुनिया - 175

शायरी की दीवानगी से मुझे वो ईनाम मिला है जो किसी भी इनाम से बहुत बड़ा है। ये वो ईनाम है जो मिलने के बाद किसी खूबसूरत अलमारी में बंद हो कर दम नहीं तोड़ता ना ही किसी दीवार पर खूबसूरत फ्रेम में टंगा टंगा अपनी अहमियत खो देता है। ये ईनाम हमेशा ज़िंदा रहता है और मेरे साथ धड़कता है। ये ईनाम है कुछ बहुत ही प्यारे लोगों की सोहबत जो मुझे सिर्फ अपनी इसी दीवानगी की वजह से हासिल हुई है। ये प्यारे लोग मेरी हौसला अफजाही भी करते हैं तो मौका पड़ने पर टांग भी खींचते हैं। इनके साथ कायम हुए राबते से मिलने वाले आनंद को लफ़्ज़ों में बयाँ नहीं किया जा सकता। ऐसे प्यारे इंसानों में से एक हैं लुधियाना निवासी, बेहतरीन शायर जनाब 'सागर सियालकोटी' साहब जिनकी किताब " अहतिजाज़-ए-ग़ज़ल" पर की गयी चर्चा को आप पढ़ चुके हैं। सागर साहब गाहे बगाहे फोन करते हैं, कभी कभी मूड में बेहतरीन तरन्नुम के साथ अपनी ग़ज़लें भी सुनाते हैं। ऐसी ही किसी बात चीत के दौरान उन्होंने मुझे चंद शेर सुनाये :

किसी किसी को थमाता है चाबियाँ घर की 
ख़ुदा हरेक को अपना पता नहीं देता
***
हवेलियाँ भी हैं कारें भी कार-खाने भी 
बस आदमी की कमी देखता हूँ शहरों में 
*** 
फलदार था तो गाँव उसे पूजता रहा 
सूखा तो क़त्ल हो गया वो बे-जबाँ दरख़्त
*** 
तुमने क्यों बारूद बिछा दी धरती पर 
मैं तो दुआ का शहर बसाने वाला था 
 *** 
तू कलमा पढ़ के परिंदों को ज़िबह करता है 
खुदा मुआफ करे सब इबादतें तेरी 

इन शेरों को सुन कर मैं उछल पड़ा और सागर साहब से पूछा ये शेर किसके हैं ? तो सागर साहब कहने लगे आपने "परवीन कुमार अश्क" का नाम नहीं सुना ? उनके हैं। मैं झूठ बोल कर अपनी इज़्ज़त बचा सकता था लेकिन इससे मेरा ही नुक्सान ज्यादा होता लिहाज़ा जो सच था मैंने वही कहा कि "नहीं -मैंने तो जी नहीं सुना"। मेरे जवाब से वो थोड़े निराश जरूर हुए, होना भी चाहिए था क्यूंकि 'अश्क' साहब जिस पाए के शायर हैं उस लिहाज़ से उनका नाम मुझे पता होना चाहिए था। इसमें दोष 'अश्क' साहब का नहीं मेरी नासमझी का है। वो बोले मेरे पास उनकी किताब 'ग़ज़ल तेरे शहर में " है, आप पढ़ना चाहेंगे ? अँधा क्या मांगे ? दो आँखें ? मैंने फ़ौरन हाँ कर दी और साहब कमाल की बात ये है कि बात ख़त्म होने के एक घंटे के अंदर सागर साहब का फिर फोन आया और उन्होंने बताया कि "नीरज जी किताब कोरियर कर दी है " अब आप ही बताइये दुनिया का कौनसा ईनाम इस मोहब्बत और अपनेपन से बड़ा है ? तीसरे दिन किताब आ भी गयी जिसे पढ़ने के बाद आज उसे आपके सामने रख रहा हूँ।


दवा, दुआ की कमी तो नहीं मगर यह दर्द 
जो आँख उठा के भी देखे न दूसरों की तरफ 

सवाल करते हैं सहरा-ए-बेगुनाह कब से 
हर इक नदी है रवाँ क्यों समुंदरों की तरफ

मज़ार छोड़ के तनहा, मुरादें मांग के 'अश्क' 
तमाम शहर पलट जाएगा घरों की तरफ 

जनाब 'परवीन कुमार अश्क' साहब का जन्म लुधियाना में 1 नवम्बर 1951 को हुआ। उनके वालिद जनाब कुलवंत राय कँवल होशियारपुरी साहब उस्ताद शायर थे। घर में उर्दू-अंग्रेजी की हज़ारों किताबें थीं। डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, इंजीनियर का बेटा इंजीनियर, वकील का बेटा वकील होते हुए तो बहुत देखा है सुना है लेकिन शायर का बेटा भी अपने वालिद की तरह कद्दावर शायर बने ऐसा बहुत कम होता है। पर ऐसा हुआ और खूब हुआ। वो बचपन से शायर बन गए ऐसा नहीं हुआ लेकिन शायरी के जींस उनमें बचपन से ही आ गए थे। पिता के ये कहने पर कि पहले कोई अच्छी सी तालीम हासिल करो फिर शायरी करना, उन्होंने इंजिनीरिंग की पढाई की और सरकारी नौकरी में लग गए. 1971 में जब वो मात्र 20-21 बरस के थे तभी उनके पिता का आकस्मिक निधन हो गया, जो अश्क साहब के लिए बहुत बड़ा झटका था। सदमे से उबरने के बाद उनकी नज़र घर की लाइब्रेरी पर गयी जिसमें किताबों का ज़खीरा था। वो सोच में पड़ गए कि अब इन 20-25 हज़ार किताबों का क्या होगा ? अधिकांश किताबें उर्दू में थीं।

कि एक ख़ुश्बू हूँ क्या जाने कब मैं दर आऊँ 
तुम अपने घर का दरीचा ज़रा खुला रखना 

ख़ुशी का एक भी सिक्का न अपनी जेब में रख
खज़ाना दर्द का हर आँख से छुपा रखना 

बहुत करीब के रिश्ते ही ज़ख़्म देते हैं 
दिलों के दरम्याँ थोड़ा सा फ़ासला रखना 

अब परवीन साहब के सामने दो ही रास्ते थे पहला या तो इन किताबों को बेच दिया जाय और दूसरा ये कि इन्हें पढ़ा जाय। बेचना उनके ज़मीर को गवारा नहीं हुआ और पढ़ने के लिए उर्दू जानना जरूरी था। उन्होंने उर्दू सीखने का फैसला लिया। उर्दू पढ़ना सीखने के लिए वो बाजार से किताबें ले आये और पढ़ने में जुट गए। बुजुर्गों से अपनी समस्याओं का निदान पाया। मेहनत का फल मीठा ही होता है सो हुआ, धीरे धीरे उन्हें उर्दू लिखना पढ़ना आ गया। फिर शुरू हुआ किताबें पढ़ने का सिलसिला जो बरसों बरस चला। परवीन साहब ने खूब पढ़ा और सीखा। जब उन्हें लगा कि अब वो अपने ख्यालात को लफ़्ज़ों का ज़ामा पहना सकते हैं तो उन्होंने लिखना शुरू किया। हज़ारों किताबों की पढाई काम आई और वो पुख्ता शेर कहने लगे। परवीन साहब ने शुरू से ही ये तय कर लिया था कि वो किसी शैली की नक़ल नहीं करेंगे और अपने ज़ज़्बात को नए अनूठे ढंग से ही कहने की कोशिश करेंगे। इस सोच से उन्हें बहुत फ़ायदा पहुंचा और उनके अशआर जल्द ही लोकप्रिय होने लगे। सन 1973 में शिमला के गेयटी थियेटर में उन्होंने अपना पहला मुशायरा पढ़ा और उसे लूट लिया।

बर्फ मुझे जब आग दिखाने लगती है 
सूरज मेरे सर पर साया करता है 

लहू समंदर में उसने दिल फेंक दिया 
अब वो सबसे हाथ मिलाया करता है 

पेड़ के पत्ते आंसू आंसू गिरते हैं 
जब कोई शाख-ए-दर्द हिलाया करता है 

परवीन साहब कहते हैं कि 'ग़ज़ल सबसे मुश्किल ग़ज़ल सबसे शफ़्फ़ाक़ सिन्फ़े-सुखन है और ये हर ऐरे-गैरे के बस का रोग नहीं है, आप अपनी ग़ज़लें इस्लाह के लिए किसी उस्ताद को दिखा जरूर सकते हैं लेकिन उसका मफ़हूम और शिल्प आपका अपना ही होना चाहिए।उस्ताद आपका काफिया रदीफ़ बहर तो ठीक कर देगा लेकिन अगर उसने आपकी सोच और कहन को भी ठीक किया तो फिर वो शेर आपका नहीं रह जायेगा वो उस्ताद का हो जायेगा भले ही नाम आपका रहे। किसी भी फितरती फ़नकार को आप फ़नकारी नहीं सीखा सकते क्यूंकि फ़नकार तो उसके भीतर छुपा हुआ होता है । मैं किसी उस्ताद के पास नहीं गया ,उरूज मैंने खुद सीखा और मेरे पास जो किताबों का ज़खीरा था उसने मेरी कहन को पुख्ता किया " 

बहुत रोया मैं दीवारों से मिल कर 
मकाँ ख़ाली हुआ जब साथ वाला 

उठाले अपने चलते फिरते पत्थर 
कोई इंसान दे ज़ज़्बात वाला 

ला मेरे चाँद सूरज मुझको दे दे 
तमाशा खत्म कर दिन रात वाला 

उनका पहला शेरी मजमुआ 'दर-बदर" जिसे भाषा विभाग -पंजाब ने छपवाया था ,जब सन 1980 में मंज़र-ए-आम पर आया तब तक वो देश के जाने माने जदीद या मॉडर्न शायरों की लिस्ट में तस्लीम किये जा चुके थे। उनके शेर खास-ओ-आम की जुबाँ पर आ चुके थे,जो किसी भी शायर की मकबूलियत की सबसे पुख्ता निशानी मानी जाती है। आप भले हज़ारों अवार्ड ले लें, रिसालों, किताबें में छपें लेकिन अगर आपके अशआर आम लोगों की जबान पर नहीं हैं या आपके अशआर आपसी बातचीत में कोट नहीं किये जाते तो समझ लीजिये कि आप अभी मकबूलियत से दूर हैं।"दर-बदर" को हर खास-ओ-आम ने हाथों हाथ लिया। इस किताब की उस्ताद शायर जनाब महमूद हाश्मी साहब, कुमार पाशी साहब ,मशहूर नक़्क़ाद जनाब शम्सुर्रहमान फारुखी साहब और बलराज कोमल साहब जैसे बहुत से उर्दू अदब से जुड़े लोगों ने भरपूर तारीफ़ की.

हवा की आँख से भी जो छुपाकर हमको रखता था 
उसी को अब हमारी जग हंसाई अच्छी लगती है 

मैं अश्कों में बहा देता हूँ अपने दर्द की मिट्टी 
कि बारिश में दरख्तों की धुलाई अच्छी लगती है 

ज़माने की तरह अब बेवफ़ा मैं भी न हो जाऊँ 
कि अपने आप से अब आशनाई अच्छी लगती है 

अश्क साहब कभी किसी गिरोह किसी टोले या अदबी सियासत से नहीं जुड़े न ही किसी सियासी पार्टी से उनका राब्ता रहा। टोले और गिरोह उन लोगों के होते हैं जो बैसाखियों का सहारा लेकर आगे बढ़ते हैं। परवीन साहब ने ग़ज़ल की देवी को पूजा है। उनके शेरों में हमारी रोजमर्रा की ज़िन्दगी की परेशानियां खुशियां तकलीफें झलकती हैं।हमारा समाज उसमें सांस लेता नज़र आता है। बशीर बद्र ने उनके लिए कहा है कि " परवीन कुमार अश्क ने ग़ज़ल में अनोखे अहसास को बड़ी मुहब्बत से अपना लिया है। वो किसी बाहरी मंज़र , निशाँ या सामने की चीज को ऐसी अंदरूनी प्यारी और ज़ाती तख़्लीक़ीयत (सृजनता ) से ग़ज़ल बनाते हैं कि उनके बहुत से शेर पढ़ने से ज्यादा दिल में छुपा कर रखने का तोहफा बन जाते हैं। " 

सुना है साथ रहता है वो मेरे 
मगर मैंने उसे देखा नहीं है

मुरव्वत की तिजोरी बंद रखना 
ये सिक्का शहर में चलता नहीं है 
मुरव्वत=वफ़ादारी 

ये हो सकता है वो आ जाये मुड़कर 
मगर ऐसा कभी होता नहीं है

"चांदनी के खुतूत" उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह था जो सन 1992 में प्रकाशित हुआ। इसी साल ही उनकी उर्दू ज़बान में कही चुनिंदा ग़ज़लों को "ग़ज़ल तेरे शहर में " के नाम से उर्दू न जानने वाले पाठकों के लिए देवनागरी में प्रकाशित किया गया। इस किताब में उनकी 52 ग़ज़लें हैं जो पाठक को बाँध लेती हैं। उनके ख़्याल पाठक को उद्वेलित करते हैं। हालाँकि किताब की छपाई आजकल प्रकाशित होने वाली ग़ज़ल की किताबों से बिलकुल अलग है लेकिन फिर भी इस के जादू से बाहर निकलना बहुत मुश्किल है। परवीन साहब को देश विभाजन की त्रासदी ने भीतर से तोड़ कर रख दिया था। उनके बहुत से शेरों में विभाजन का दर्द बहुत शिद्दत से उबरकर नज़र आता है। उन्होंने पंजाबी में भी ग़ज़लें और कवितायेँ लिखी जो पाकिस्तान में भी उतनी ही लोकप्रिय हुईं जितनी कि हिंदुस्तान में।

उसने भी आँखों में आंसू रोक लिए 
मैं भी अपने ज़ख्म छुपाने वाला था 

पार के मंज़र ने मौके पर आँखें दीं 
मैं अँधा दीवार उठाने वाला था 

बच्चे 'अश्क' को पागल कह कर भाग गए 
वो परियों की कथा सुनाने वाला था 

सन 2005 में उनका तीसरा शेरी मजमुआ दुआ ज़मीन मंज़र-ए-आम पर आया जिसने जनाब 'परवीन कुमार अश्क' साहब को देश का बेहतरीन सूफ़ी शायर सिद्ध कर दिया। उनकी ग़ज़लों और शख्सियत पर मिथिला यूनिवर्सिटी दरभंगा बिहार की छात्रा ने 2014 में पी एच डी की डिग्री हासिल की। परवीन कुमार अश्क अपनी पीढ़ी के पहले उर्दू शायर है जिनकी शायरी पर उनके अपने प्रांत पंजाब के बाहर की उर्दू यूनिवर्सिटी पीएचडी करवा रही है. उन्हें ढेरों अवार्ड से नवाज़ा गया जिनमें पंजाब सरकार के मुख्य मंत्री द्वारा दिया गया "शहनशाहे ग़ज़ल अवार्ड और पंजाब लोकसभा के स्पीकर साहब द्वारा दिया गया 'ग़ज़ल हीरो' अवार्ड ,बिहार उर्दू अकेडमी अवार्ड ,उत्तरप्रदेश अकादमी अवार्ड ,दिल्ली से 'ग़ज़ल भास्कर' अवार्ड आदि प्रमुख हैं. अश्क साहब ने लगभग 200 टीवी प्रोग्रामस और 150 से भी अधिक कुल हिन्दो पाक मुशायरों में भी शिरकत की।अश्क साहब की अनोखी गजलों पर निदा फ़ाज़ली , बशीर बद्र , गोपीचंद नारंग, साकी फ़ारूक़ी , वज़ीर आगा , अमजद इस्लाम, शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी जैसी विश्व प्रसिद्ध उर्दू शख्शियत ने बहुत खूबसूरती के साथ लिखा है। अश्क साहब के लगभग तीन सौ शेयर पूरी दुनिया में मशहूर है।

सफ़र में मुझसे वो लड़ता रहा था 
बिछड़ते वक्त फिर क्यों रो पड़ा था 

न पकड़ी काफ़िले की जिसने ऊँगली
वो बच्चा सबसे आगे चल रहा था 

समुन्दर चीखता उस वक्त पहुंचा 
मकाँ पूरी तरह जब जल चुका था 

उनकी ग़ज़लों और गीतों को मशहूर गायक दिलेर मेहंदी, जसविंदर नरूला, शंकर साहनी, रूपकुमार राठौर, सोनाली राठोर, अल्ताफ राजा, अनुराधा पौडवाल, जावेद अली, अरविंद्र सिंह, घनश्याम वासवानी जैसे गायक आवाज दे चुके हैं । उनके सूफियाना कलाम को कराची में पाकिस्तान के मशहूर कव्वाल फरीद गुलाम और गायक खलील हैदर ने भी महफिलों में खूब गाया है उनके कई गीतों के वीडियो यू ट्यूब पर भी लोगों की पसंद बने हुए हैं। उन्होंने कुछ फिल्मों के लिए भी गीत लिखे। परवीन साहब जुलाई 2017 में इस दुनिया-ए-फ़ानी से अचानक रुख़सत हो गए और अपने पीछे शायरी का एक ऐसा नायाब खज़ाना छोड़ गए जिस से आने वाली नस्लें बरसों बरस मालामाल होती रहेंगी।

ज़मीं को या खुदा वो जलजला दे 
निशाँ तक सरहदों के जो मिटा दे 

बुजुर्गों का बस इक कमरा बचा कर
तू जब चाहे पुराना घर गिरा दे 

मैं सूरज तोड़ लाऊंगा नहीं तो 
मुझे ऐ रौशनी अपना पता दे 

मैं आपको इस किताब की प्राप्ति का रास्ता नहीं बता सकता क्यूंकि 1992 में समीक्षा प्रकाशन पठानकोट से छपी इस किताब की कोई प्रति कहीं मिलेगी भी या नहीं कह नहीं सकता। हाँ आप चाहे तो उनके छोटे भाई जनाब 'अनिल पठानकोटी' जो खुद भी बेहतरीन शायर हैं और जिनकी ग़ज़लों की किताब" आवाज़ के साये" का कभी हम यहाँ जिक्र करेंगे,से उनके मोबाईल न 9465280779 पूछ सकते हैं। आप उनकी ग़ज़लों को रेख़्ता की साइट पर जरूर पढ़ सकते हैं। अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले हाज़िर हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर :

सूरज उसको निगल गया
मेरे पास इक जुगनू था 

एक सहारा बस तू है 
एक सहारा बस तू था 

मेरे पास धड़कता दिल 
उसकी जेब में चाकू था

8 comments:

Unknown said...

बुजुर्गों का बस इक कमरा बचा कर
तू जब चाहे पुराना घर गिरा दे

मैं सूरज तोड़ लाऊंगा नहीं तो
मुझे ऐ रौशनी अपना पता दे
सफ़र में मुझसे वो लड़ता रहा था
बिछड़ते वक्त फिर क्यों रो पड़ा था

न पकड़ी काफ़िले की जिसने ऊँगली
वो बच्चा सबसे आगे चल रहा था

समुन्दर चीखता उस वक्त पहुंचा
मकाँ पूरी तरह जब जल चुका था

उसने भी आँखों में आंसू रोक लिए
मैं भी अपने ज़ख्म छुपाने वाला था

मैं अश्कों में बहा देता हूँ अपने दर्द की मिट्टी
कि बारिश में दरख्तों की धुलाई अच्छी लगती है

बहुत रोया मैं दीवारों से मिल कर
मकाँ ख़ाली हुआ जब साथ वाला


किसी किसी को थमाता है चाबियाँ घर की
ख़ुदा हरेक को अपना पता नहीं देता
***

ख़ुशी का एक भी सिक्का न अपनी जेब में रख
खज़ाना दर्द का हर आँख से छुपा रखना

एक से बढ़कर एक
बहुत सुंदर मर्म स्पर्शी आलेख

SagarSialkoti said...

Niraj bhai I would like to say that you have wonderfully expressed Parveenk. Ashak,s poetry beyond my expectations God bless you a good health and long life thanks

Parul Singh said...

अश्क साहेब की शायरी बाकमाल है। आपके ब्लॉग पर हर सोमवार एक नयी पोस्ट पढ़ना एक किताब पढ़ने जितना फायदा देती है। क्योंकि शायर के साथ-साथ शेरों और शायरी की आपके द्वारा की गयी व्याख्या बहुत रोचक व ज्ञानवर्धक होती है। इस पोस्ट के शायर व उनके जिक्र का आपका अंदाजे बयां दोनों ने मन मोह लिया। ज़िक्र ए शायरी का ये सिलसिला यूँ ही बदस्तूर जारी रहे,बहुत शुभकामनाएँ।

mgtapish said...

175 se ziyada kitabon pe aap tasira kar chuke Hain kamaal kaam kiya Hai aapne Neeraj ji main sochta Hoon tabsira karne se ghazaG kahna aasaan Hai apko apki lekhni ko aapki shaili ko naman

नीरज गोस्वामी said...

Comment from Dr.Darvrsh Bharti Sir:-

परवीन साहिब की शाइरी के अनेक पहलुओं को आपने निहायत ख़ूबसूरत अन्दाज़ से पेश किया है और यही आपकी ख़ूबी भी है। अश्क साहिब ने अपना मजमूआ-ए-कलाम 'दुआ ज़मीन' इस ख़ाकसार को भी अता फ़रमाया था। अच्छी शाइरी को लेकर उनसे अक्सर फ़ोन पर बातें हुआ करती थीं।उन्हें नमन।
आपके तईं अज़हद मश्कूर हूँ कि आप हर हफ़्ते हमारे ज़ेह्न को तरो-ताज़ा रखने के लिए बेह्तरीन इल्मी खुराक अता फ़र्माते हैं।
---'दरवेश' भारती।

वाणी गीत said...

बेमिसाल शायरी....
परवीन कुमार अश्क के साथ उनकी रचनाओं पर बेहतरीन आलेख!

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

Bahut hi umdaah inteKHaab

Unknown said...

किताब के तआरुफ़ के लिए तो आप माहिर हैं...बहुत खूब। आप दोनों को मुबारकबाद।