सिर्फ बातों से ही मैं कितना भरम रक्खूँगा
सामने आ कि मुझे होश हुआ जाता है
कुछ तो रफ़्तार भी कछुवे की तरह है अपनी
और कुछ वक्त भी खरगोश हुआ जाता है
सोने वाले हमें किस्सा तो सुनाते पूरा
यार ऐसे कहीं ख़ामोश हुआ जाता है
जयपुर के लाजवाब शायर जनाब 'लोकेश सिंह 'साहिल' साहब ने मुझसे बातचीत के दौरान एक बार कहा कि "पुराने दौर में अगर 'ऐ नरगिसे मस्ताना ---" या " निगाहे गरामी दुआ है आपकी ---" या "हम हैं मताये कूचा --" जैसे गाने फिल्मों के लिए लिखे गए तो सिर्फ इसलिए क्यूंकि उस वक्त उर्दू मुल्क की ज़बान थी ,सरकारी या गैर सरकारी काम उर्दू में होते थे लोग उर्दू अखबार या रिसाले शौक से पढ़ते थे। आज हालात जुदा हैं आज इस तरह के गाने नहीं लिखे जा सकते क्यूंकि आज उर्दू की तो बात दूर की है लोग ढंग से हिंदी भी नहीं बोल पाते।
दरार और तिरे मेरे दरमियाँ आ जाय
तिरी तरह जो मिरे मुँह में भी जबाँ आ जाय
ये और बात कि खुद में सिमट के रहता हूँ
उठाऊं हाथ तो बाहों में आसमाँ आ जाय
मिरे पड़ोस में जलती हैं लकड़ियां गीली
न जाने कब मिरे कमरे में धुआँ आ जाय
ज्यादातर युवा आज जो ज़बान बोलते हैं वो न उर्दू है न हिंदी और ना ही अंग्रेजी , तभी फ़िल्मी गानों की ही नहीं कविता या शायरी की ज़बान भी बदल गयी है। इसमें कोई बुराई भी नहीं ,भाषा तो सिर्फ आपके ख्याल दूसरों तक प्रभावी रूप से पहुँचाने का माध्यम भर है अगर आप आसान समझी जा सकने वाली ज़बान में बात कहेंगे तो ज्यादा लोगों तक पहुंचेंगे और अगर आप भाषा की शुद्धि या भारी भरकम लफ़्ज़ों को बरतने को ही अहम् मानेंगे तो आपका लिखा या तो आप पढ़ेंगे या फिर आप जैसे मुठ्ठी भर लोग।"
छत दुआ देगी किसी के लिए ज़ीना बन जा
डूबता देख किसी को तो सफ़ीना बन जा
ज़िन्दगी देती नहीं सबको सुनहरे मौके
तुझको अंगूठी मिली है तो नगीना बन जा
शौक़ खुशबू में नहाने का बहुत है जो तुझे
आ मिरे जिस्म से मिल मेरा पसीना बन जा
मैं भी साहिल साहब की बात से सहमत हूँ और ये भी मानता हूँ -जो जरूरी नहीं सभी को मंज़ूर हो --कि सरल सीधी ज़बान में असरदार बात कहना बहुत मुश्किल हुनर है जो उस्तादों की रहनुमाई और सतत साधना से हासिल होता है।भाषा आसान हो और बात ऐसी हो की सुनने पढ़ने वाले के मुंह से अपने आप वाह निकल जाय तो ये सोने में सुहागा जैसा मामला होगा। शायरी में अचानक आये सोशल मिडिया वाले इस विस्फोटक दौर में शायरी किसी सैलाब की तरह सब को अपने आगोश में लिए हुए है। फेसबुक या व्हाट्सअप जहाँ देखो वहीँ शायरी ऐ.के फोर्टी सेवन की बन्दूक से निकली गोलियों की तरह तड़ातड़ लोगों पर दागी जा रही है। ये सुखद स्थिति भी है और दुखद भी। सुखद इसलिए क्यूंकि हमें कुछ बेहतरीन युवा और नामचीन शायरों को आसानी से पढ़ने सुनने का मौका मिल रहा है और दुखद बात -- अभी इसे जाने दीजिये इस पर चर्चा फिर कभी -- आप तो ये शेर पढ़ें : ।
तन-मन डोले, बर्तन बोले, छन-छन करता तेल है पैसा
घर से बाहर तक की दुनिया जो भी है सब खेल है पैसा
जेब में आकर आँख दिखाए , मूंछ बढाए , ताव धराये
लाठी खड़के, गोली तड़के थाना-चौकी-जेल है पैसा
तेरा है न मेरा है ये सदियों से इक फेरा है ये
इस स्टेशन उस स्टेशन आती जाती रेल है पैसा
जो शायर- साहिल साहब की बात को ज़ेहन में रखते हुए- आम बोलचाल की भाषा को अपनी शायरी की ज़बान बनाते हैं वो जल्द मकबूलियत हासिल कर सबके चहेते बन जाते हैं। अगर आपके पास साफ़ सुथरी ज़बान है और ख्यालों में पुख्तगी है तो फिर आपकी तरक्की को कोई नहीं रोक सकता-हमारे आज के शायर सीधी सरल भाषा में असरदार बात करने वालों की फेहरिश्त में आते हैं-- नाम है " शकील आज़मी " जिनकी देवनागरी में मंजुल पब्लिशिंग हाउस भोपाल से प्रकाशित किताब " परों को खोल " की बात हम करेंगे। "शकील" आज अदब और मुशायरों की दुनिया में एक चमकता हुआ नाम है।
हमारे गाँव में पत्थर भी रोया करते थे
यहाँ तो फूल में भी ताज़गी बहुत कम है
जहाँ है प्यास वहां सब गिलास ख़ाली हैं
जहाँ नदी है वहां तिश्नगी बहुत कम है
ये मौसमों का नगर है यहाँ के लोगों में
हवस ज़ियादा है और आशिक़ी बहुत कम है
20 अप्रेल 1971 को सहरिया ,आज़मगढ़ उत्तर प्रदेश में जन्में शकील मुंबई में रहते हैं. मात्र 13 साल की उम्र में अपनी पहली ग़ज़ल कहने वाले शकील ने अपना पहला मुशायरा जावेद अख्तर ,निदा फ़ाज़ली और बशीर बद्र जैसे दिग्गज शायरों के साथ सूरत में पढ़ा, तब वो महज़ 23 साल के थे। उस मुशायरे में शकील अपने कलाम की सादगी, ताज़गी और कहने के अंदाज़ से छा गए। उसके बाद शकील ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उनकी शायरी की खुशबू पूरे हिन्दुस्तान से होती हुई सरहद के पार तक पहुँचने लगी। विदेशों से बुलावों का ताँता लग गया। वो जहाँ जहाँ गए वहीँ के लोगों को अपनी शायरी का दीवाना बना दिया। ये सिलसिला बदस्तूर जारी है। कैफ़ी आज़मी साहब का ये बयान काबिले गौर है " शकील वहां से शायरी शुरू कर रहे हैं जहाँ पहुँच कर मेरी शायरी दम तोड़ने वाली है। उनकी शायरी में जो ताज़ाकारी है उसने खास तौर से मुझे मुतास्सिर किया है "
मैं अकेला कई लोगों से लड़ नहीं सकता
इसलिए खुद से झगड़ना मिरी मजबूरी है
वरना मर जाएगा बच्चा ही मिरे अन्दर का
तितलियाँ रोज पकड़ना मिरी मजबूरी है
कहाँ मिटटी का दिया और कहाँ तेज़ हवा
जलते रहना है तो लड़ना मिरी मजबूरी है
उर्दू के बहुत बड़े स्कॉलर "गोपी चंद नारंग" साहब ने कहा है कि " शकील आज़मी के यहाँ अहसास की जो आग नज़र आती है वो नयी नस्ल के बहुत कम शायरों यहाँ मिलती है " शकील साहब की उर्दू में "धूप दरिया" (1996 ), "ऐश ट्रे" (2000 ), "रास्ता बुलाता है "(2005 ), "ख़िज़ाँ मौसम रुका हुआ है "(2010), " मिटटी में आसमान"(2012), "पोखर में सिंघाड़े"(2014) किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं , "परों को खोल " देवनागरी में उनका पहला संकलन है। इसमें उनकी लगभग 85 ग़ज़लें ,40 के करीब नज़्में और 20 से अधिक फ़िल्मी अशआर भी संकलित हैं.
शकील की शायरी की छोटी सी बानगी प्रस्तुत करती है ये किताब, जो पाठक को उन्हें और और पढ़ने की प्यास जगा देती है। ये किताब अमेजन पर उपलब्ध है। आप चाहें तो शकील साहब को उनके मोबाईल न 9820277932 पर फोन करके मुबारक बाद देते हुए किताब पाने का आसान रास्ता पूछ सकते हैं।
परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है
ज़मीं पे बैठ के क्या आसमान देखता है
कनीज़ हो कोई या कोई शाहज़ादी हो
जो इश्क करता है कब ख़ानदान देखता है
मैं जब मकान के बाहर क़दम निकलता हूँ
अजब निगाह से मुझको मकान देखता है
अपनी शायरी के छोटे से सफर में अब तक शकील साहब ने ढेरों अवार्ड हासिल किये हैं जिनमें गुजरात गौरव अवार्ड गुजरात उर्दू साहित्य अकादमी , कैफ़ी आज़मी अवार्ड , उत्तर प्रदेश उर्दू साहित्य अकादमी अवार्ड, बिहार उर्दू साहित्य अकादमी अवार्ड और महाराष्ट्र उर्दू साहित्य अकादमी अवार्ड उल्लेखनीय हैं। इन अवार्ड्स के साथ जो सबसे बड़ा अवार्ड उन्हें मिला है वो है अपने श्रोताओं और पाठकों का प्यार। वो जहाँ जाते हैं उनके दीवाने हमेशा वहां मौजूद हो जाते हैं।
फूल का शाख़ पे आना भी बुरा लगता है
तू नहीं है तो ज़माना भी बुरा लगता है
ऊब जाता हूँ ख़मोशी से भी कुछ देर के बाद
देर तक शोर मचाना भी बुरा लगता है
इतना खोया हुआ रहता हूँ ख्यालों में तिरे
पास मेरे तिरा आना भी बुरा लगता है
अब बिछुड़ जा कि बहुत देर से हम साथ में हैं
पेट भर जाए तो खाना भी बुरा लगता है
लगभग 20 सालों के छोटे से इस अदबी सफर में जो शोहरत शकील को मिली है वो किसी के लिए भी हैरत की बात हो सकती है। उनके प्रति उनके प्रशंशकों की भीड़ का राज़ है उनकी सादा बयानी , इंसानी फितरत और मसाइल से जुड़े उनके अशआर जो सबको अपने से लगते हैं।मजे की बात ये है शोहरत ने उन्हें सबका दोस्त हमदर्द और बेहतरीन इंसान बना दिया है। मुहम्मद अलवी साहब उनके लिए कहते हैं " शकील आज़मी की शायरी में उनका अपना रंग है जो दिल को भाता है ,इस कम उम्र में ये पुख्तगी बहुत कम लोगों को नसीब होती है "
शकील की ग़ज़ल के इन चंद अशआरों को आपकी नज़र कर के मैं अब निकलता हूँ अगली किताब की तलाश में :
आगे परियों का देश हो शायद
दूर तक राह में चमेली है
अब भी सोते में ऐसा लगता है
सर के नीचे तिरी हथेली है
रंग के तजरबे में हमने 'शकील'
एक तितली की जान ले ली है
22 comments:
हमेशा की तरह खजाना रख दिया आपने, आभार.
रामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
kya khub khazana jama kiya hai ! badhai
क्या बात है sir
एक से एक नगीने चुने हैं आपने।
शकील साहिब की शायरी के हम क़ायल हो गए हैं।
अब बिछुड़ जा कि बहुत देर से हम साथ में हैं
पेट भर जाए तो खाना भी बुरा लगता है
भई वाह।
सादर... नकुल
वाह्ह्ह...आपकी सुंदर अभिव्यक्ति,आज के शायरों के प्रति उल्लेखनीय विचार और आदरणीय शकील जी के बारे में जानना रोचक लगा।
धन्यवाद आपका सर ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (11-07-2017) को चर्चामंच 2663 ; दोहे "जय हो देव सुरेश" पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Blog bhi bahut khoobsoorat ho Gaya
Shakeel sb ko aksar suna Hai apne khoob achchi Jankari di
Achche ashaar padhne ka mouqa dene ka shukriya
Naman
ताजगी का झोंका लिए शकील साहब के सादा, नायाब और असरदार शेर सीधे अन्दर तक असर कर रहे हैं ... बहुत ही बेमिसाल शेर आपने छांट छांट कर यहाँ लिखे हैं ... इन चावल के दानों से देगची का हाल पता चल रहा है ...
नीरज जी तालियाँ तालियाँ तालियाँ ...
एकदम सच। किसको फुर्सत है जो हरफ़ों की हरारत समझाय। बात आसानी तक आये तो सभी तक पहुँचे॥ शकील भाई हमारे दौर के क़ामयाब शायर हैं। ज़िंदाबाद।
बात हम तक पहुँच जाए उससे बड़ी बात क्या
बढ़िया है
ज़बान की सादगी, कलाम की ताज़गी और ख़्यालों की पुख़्तगी - सभी कुछ लिए हुए है शकील साहिब की शायरी!
और उस पर इतना बढ़िया critique आपका👌💐! वाह जी वाह मज़ा आ गया।
सर्व
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वाह। बहुत प्यारे - खूबसूरत अश्आर और उतनी ही ख़ुश्गवार बातें पढ़वाने के लिए आपका बहुत शुक्रिया। आदाब।
Noor Mohammad Noor
Kolkatta
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dil ko padh kar karaar milaa
Gajendra Singh
Gurgaon
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शानदार है
Pradeep Kant
INDORE
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Li thi main ne... Shakeel sahab ki shayri pasand hai mujhe... Nazmen to khas taur se... :)
Swapnil Tiwari
MUMBAI
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सिर्फ बातों से ही मैं कितना भरम रक्खूँगा
सामने आ कि मुझे होश हुआ जाता है
कुछ तो रफ़्तार भी कछुवे की तरह है अपनी
और कुछ वक्त भी खरगोश हुआ जाता है
सोने वाले हमें किस्सा तो सुनाते पूरा
यार ऐसे कहीं ख़ामोश हुआ जाता है
वाह बहुत अच्छा लिखा अपने सर
ALHAMD HUSSAIN
Gorakhpur
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जितनी शानदार शायरी है शकील आजमी साहब की आपका तबसिरा उतना ही दिल गहराई से किया गया है और वो इसके हकदार भी है!
आप शायर को बेहतरीन सौगात देने वाले अनोखे इन्सान हैं!
SATY PRAKASH SHARMA
LUCKNOW
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Bahut shandaar kitaab aur utna hi badhiya blog
शौक़ खुशबू में नहाने का बहुत है जो तुझे
आ मिरे जिस्म से मिल मेरा पसीना बन जा
SHUBHAM MISHRA VATS
DELHI
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वाह क्या बात है ज़बरदस्त। बधाई आपको
NUSRAT MEHDI
BHOPAL
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शुक्रिया भाई!!!आप लगातार ग़ज़लों की ख़िदमत कर रहे हैं
B.R.Viplavi
KOLKATTA
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Wow..thank you Neeraj ji
Sonia Chamkaur
DELHI
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my salutes for a supreme litrary personality
Daanish Bharti
LUDHIANA
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आदरणीय नीरज जी ,
नमस्कार
शकील आज़मी के ये अशआर लाजवाब हैं :
फूल का शाख़ पे आना भी बुरा लगता है
तू नहीं है तो ज़माना भी बुरा लगता है
इतना खोया हुआ रहता हूँ ख्यालों में तिरे
पास मेरे तिरा आना भी बुरा लगता है
परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है
ज़मीं पे बैठ के क्या आसमान देखता है
कनीज़ हो कोई या कोई शाहज़ादी हो
जो इश्क करता है कब ख़ानदान देखता है
बहुत बहुत शुक्रिया
रमेश कँवल
PATNA
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