Monday, September 14, 2009

किताबों की दुनिया - 16


"दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख्स ने आँखें
रोशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता"

भटकना मेरी आदत नहीं है, ये जानते हुए भी की इंसान को अभी तक जो भी खजाने मिले हैं वो उसके भटकने के कारण ही मिले हैं. दुनिया की सारी विलक्षण खोजें इंसान के भटकने का ही परिणाम हैं. इंसान भटकता नहीं तो क्या उसे हीरे सोना चांदी या अन्य धातुओं की खाने मिलतीं ?समंदर में मोती मिलते? सच्चाई की खोज होती ?नहीं.एक जगह बैठे रहने से कभी कुछ हासिल नहीं होता. जरूरी नहीं की आप हमेशा किसी उद्देश्य को लेकर ही भटकें...निरुद्देश भटकने पर भी खजाने हाथ आ जाते हैं. मैं उसका जीता जागता प्रमाण हूँ. पूछिए कैसे? पूछिए पूछिए क्यूंकि शंका का निवारण जितनी जल्दी हो मानसिक शांति के लिए उतना ही अच्छा है.

आप पूछ रहे हैं सो बताता हूँ. हुआ यूँ की मैंने अपनी एक मात्र उपलब्ध पत्नी के साथ फिल्म "लव आजकल" देखने का कार्यक्रम बनाया. घर से करीब तीस की.मी. दूर खारघर नामक खूबसूरत उपनगर में मल्टीप्लेक्स है वहीँ गए. जा कर पता चला की जिस शो की टिकट उपलब्ध है वो दो घंटे बाद शुरू होगा. टिकट लिया और दो घंटे बिताने के उद्देश्य से खारघर भ्रमण का कार्यक्रम बनाया. भ्रमण की जगह भटकने का कार्यक्रम कहना अधिक उपयुक्त होगा. हमने अपने दिमाग को पैरों के हवाले किया और वो जिधर उठ गए उधर ही चल पड़े.

बाज़ार में पत्नी श्री एक वस्त्र भण्डार में घुस गयीं और हम उसके बाहर बैठे एक किताब वाले से चौंच लड़ाने लगे. बहुत सी हिंदी अंग्रेजी की नयी पुरानी पत्रिकाओं और उपन्यासों के ढेर के बीच हमें वो दिखाई दी जिसका सपने में भी गुमान नहीं था. हम जिस किताब का जिक्र कर रहें हैं वो अंग्रेजी के उपन्यासों के बीच "साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं" की मानिंद झाँक रही थी.




भूमिका की लम्बाई को कम करते हुए सीधी बात करते हैं :वो किताब थी हर दिल अजीज़ शायर जनाब मुनव्वर राना साहेब का एक दम ताज़ा ग़ज़ल संग्रह " नए मौसम के फूल". पेपर बैक संस्करण में ये किताब मात्र एक सौ पच्चीस रुपये की है जिसे दूकानदार ने हमें सौ रुपये में दे दिया. किताब ग़ज़लों का अनमोल खजाना है. अब मुनव्वर राना साहब जैसे शायर की कलम जो शेर निकलेंगे वो हीरे मोतियों से कम थोड़े न होंगे. मैं मानता हूँ की उर्दू या हिंदी ग़ज़ल का प्रेमी उनके बारे में जरूर जानता होगा इसलिए उनकी बात न कर मैं सिर्फ उनकी इस किताब का जिक्र ही करूँगा.

मुनव्वर साहब ने " माँ " पर शेर लिख कर ग़ज़लों की दुनिया को एक नयी रौशनी दी है. जैसे शेर उन्होंने माँ पर कहें हैं वैसे शायरी की इतिहास में कहीं नहीं मिलते. वरिष्ठ साहित्यकार श्री कन्हैया लाल नंदन कहते हैं की "मुनव्वर ने माँ को बुलंदियों पर पहुंचाकर साक्षात् पयम्बर का दर्जा दिया है."

इस किताब में भी उनके माँ पर कहे दर्ज़नों लाजवाब शेर हैं लेकिन हम इस चर्चा में उनका जिक्र नहीं करेंगे क्यूँ की उन्होंने " माँ "पर जो शेर कहें हैं वो उनके प्रशंशकों ने जरूर पढें होंगे, अगर नहीं भी पढ़े तो उन्हें हर कहीं पढ़ सकते हैं. तो आईये किताब के वर्क पलटते हैं और पढ़ते हैं जिंदगी के मुक्तलिफ़ रंगों पर कहे उनके लाजवाब शेर:

ये सलतनत मिली है फ़कीरों से इसलिए
लहजे में गुफ़्तगू में चमक बरक़रार है

मुद्दत से उसने पाँव ज़मीं पर नहीं धरे
पाज़ेब में अभी भी छनक बरक़रार है

वो आइने के सामने जाता नहीं कभी
अच्छा है उसमें थोड़ी सी झिझक बरक़रार है

मुनव्वर साहब जिस कारीगरी, नफासत और बेबाकी से सियासत पर शेर कहते हैं वो कमाल शायरी में बहुत कम देखने को मिलता है. उनके शेर सियासत के कारनामों से दिल में उपजे दर्द को क्या खूब बयां करते हैं :

सियासत बांधती है पाँव में जब मज़हबी घुंघरू
मेरे जैसे तो फिर घर से निकलना छोड़ देते हैं

अगर मंदिर तुम्हारा है अगर मस्जिद हमारी है
तो फिर हम आज से ये अपना दावा छोड़ देते हैं

ये नफरत में बुझे तीरों से हमको डर नहीं लगता
अगर तू प्यार से कह दे तो दुनिया छोड़ देते हैं

शायरी को असरदार बनाने में भाषा का बहुत अहम् रोल होता है. जब शायर रोजमर्रा की छोटी छोटी बातों को एक अलग ही अंदाज़ में पेश करता है तो सुन / पढ़ कर मुंह से बरबस वाह निकल पड़ती है.

सियासत किस हुनर मंदी से सच्चाई छुपाती है
कि जैसे सिसकियों के ज़ख्म शहनाई छुपाती है

ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन माँ को खुश रखना
ये कपड़ों की मदद से अपनी लम्बाई छुपाती है

"दिव्यांश पब्लिकेशन्स" एम्.आई.जी. 222 फेस 1 एल.डी.ऐ , टिकैत राय कालोनी, लखनऊ -226017 , मोबाईल: 9415185960 द्वारा प्रकाशित इस किताब में मुनव्वर साहब की चुनिन्दा एक सौ अठारह ग़ज़लें हैं और सारी की सारी एक से बढ़कर एक. मुनव्वर जी की अभी अभी हमने 'ग़ज़ल गाँव' , 'पीपल छाँव', 'सब उसके लिए', 'बदन सराय', 'माँ', 'नीम के फूल', 'जिल्ले ईलाही से', 'बगैर नक्शे का मकान', और 'घर अकेला हो गया' जैसी शायरी की विलक्षण किताबों को पढ़ा ही था की अचानक ये किताब भी पीछे पीछे छप के हमारे सामने आ गयी...कहाँ तो उन्हें ढूंढ ढूंढ कर रिसालों या नेट पर पढना पड़ता था और कहाँ उनके लिखे का खजाना घर बैठे मिल गया. हम पाठकों की तो समझिये किस्मत ही खुल गयी.

कम से कम बच्चों के होंटों की हंसी की खातिर
ऐसी मिटटी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ

सोचता हूँ तो छलक उठती हैं आँखें लेकिन
तेरे बारे में न सोचूं तो अकेला हो जाऊँ

शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती
मैं सियासत में चला जाऊँ तो नंगा हो जाऊँ

मुझे इस किताब के बारे में लिखते समय सबसे बड़ी दुविधा इसमें से आप के लिए शेर छांटने में हुई...मैंने भी ज्यादा दिमाग नहीं लगाया आँख बंद की और पन्ने खोल कर ऊँगली रखता चला गया जिस ग़ज़ल पर ऊँगली रखी गयी उसी में से एक आध शेर पेश कर दिए. ऐसा मैंने हर उस किताब के साथ किया है जिसमें से शेर छांटने में मुझे दुविधा हुई. गंगा जमनी जबान का मजा लेते हुए आप इस किताब को एक सांस में पढ़ सकते हैं.

ये अमीरे शहर के दरबार का कानून है
जिसने सजदा कर लिया तोहफे में कुर्सी मिल गई

मैं इसी मिटटी से उट्ठा था बगूले की तरह
और फिर इक दिन इसी मिटटी में मिटटी मिल गई

खुदकुशी करने पे आमादा थी नाकामी मेरी
फिर मुझे दीवार पर चढ़ती ये च्यूंटी मिल गई

आखिर में पाठको मैं वो खबर आपको दे रहा हूँ जिसे जान कर आपकी बांछें खिल जाएँगी. इस किताब के साथ आपको एक वी.डी.ओ सी.डी. मुफ्त दी गयी है. इस वी.सी.डी. में मुनव्वर राना साहब को देखिये अपने दिलकश अंदाज़ में खूबसूरत शेर सुनाते हुए और बरसों बरस इस मंज़र को याद रखिये. ऐसा अनमोल तोहफा आजतक किसी शायरी की किताब के साथ मुझे नहीं मिला है. ये अकेला एक कारण ही बहुत है इस किताब को खरीदने के लिए. अब देर करना ठीक नहीं...इस से पहले की स्टोक ख़तम हो जाये दौड़ पड़िये वरना पछतायेंगे.

बहुत जी चाहता है कैद-ए-जाँ से हम निकल जायें
तुम्हारी याद भी लेकिन इसी मलबे में रहती है

अमीरी रेशम-ओ-कमख्वाब में नंगी नज़र आई
गरीबी शान से एक टाट के परदे में रहती है


57 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

बहुत सुन्दर विश्लेष्ण, नीरज जी ! और ये लीजिये मैं भी निकला भटकने !

mehek said...

मुद्दत से उसने पाँव ज़मीं पर नहीं धरे
पाज़ेब में अभी भी छनक बरक़रार है


वो आइने के सामने जाता नहीं कभी
अच्छा है उसमें थोड़ी सी झिझक बरक़रार है
waah behtarin,es khubsurat kitab se rubaru karwane ka shukran

vandana gupta said...

neeraj ji,
aap na jaane kahan kahan se ye anmol moti dhoondh ka rlate hain aur hamein bhi un motiyon ka swad chakhate hain.........kin lafzon mein aapka shukriya ada karein.
har sher apne aap mein ek alag hi andaz liye huye hai.

plz read my new blog---------http://ekprayas-vandana.blogspot.com

अमिताभ मीत said...

बहुत जी चाहता है कैद-ए-जाँ से हम निकल जायें
तुम्हारी याद भी लेकिन इसी मलबे में रहती है

अमीरी रेशम-ओ-कमख्वाब में नंगी नज़र आई
गरीबी शान से एक टाट के परदे में रहती है

बहुत अच्छी चर्चा. और कुछ बेहतरीन शेर. शुक्रिया.

कंचन सिंह चौहान said...

सोचता हूँ तो छलक उठती हैं आँखें लेकिन
तेरे बारे में न सोचूं तो अकेला हो जाऊँ

zarur padhana chahungi ye pustak

रज़िया "राज़" said...

अमीरी रेशम-ओ-कमख्वाब में नंगी नज़र आई
गरीबी शान से एक टाट के परदे में रहती है
वाह!! लाजवाब शे'र है।

पारुल "पुखराज" said...

ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन माँ को खुश रखना
ये कपड़ों की मदद से अपनी लम्बाई छुपाती है..waah


bahut acchha silsila hai ye neeraj ji..aabhaar

डॉ टी एस दराल said...

बहुत अच्छा संकलन और बहुत अच्छी प्रस्तुति. नीरज जी, ये तो आपको खजाना हाथ लग गया. बधाई

Nitish Raj said...

आपके हाथ में वो गजल है जो मुझसे काफी दूर है।
पर आपने बहुत अच्छा विश्लेषण किया है। काफी अच्छी लगी गजलें।

विनोद कुमार पांडेय said...

सुंदर प्रस्तुति..सभी ग़ज़ल बेहतरीन है..इस किताबों की दुनिया मे आकर खो जाने का मन होता है.
बधाई...

ताऊ रामपुरिया said...

आप तो एक से एक नायाब रत्नों से परिचय करवाते हैं हर बार. बहुत शुभकामनाएं.

रामराम.

रश्मि प्रभा... said...

n bhabhi ji vastra bhandar me jati, n aap kitaab dekhne jate , n hum padh pate....
कम से कम बच्चों के होंटों की हंसी की खातिर
ऐसी मिटटी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ...waah

निर्मला कपिला said...

बहुत सुन्दर विश्लेशण किया है आपने । एक एक शेर चुन कर निकाला है उस्ताद मुनव्वर राणअ जी को बहुत बहुत बधाई और आपका भी धन्यवाद जो आपने इस पुस्तक से हमे रूबरू करवाया

Abhishek Ojha said...

आप भी कहाँ-कहाँ से मोती ढूंढ़ लाते हैं !

राज भाटिय़ा said...

भई आप के यहां आ कर जाने को दिल नही करता, कोन सा जादू है आप के पास जो हमे बांध लेते है.
धन्यवाद

ओम आर्य said...

नीरज जी
सबसे पहले आपको शुक्रिया ....जो आप रचना की दुनिया से नगिने चुन चुन कर लाते है उनसे हमे रुबरु करवाते है .......आज आपने जिस कवि को लेकर हाजिर हुये है मै बस इतना ही कहुंगा कि उनको मेरा शत शत नमन.........उनकी सम्वेदनाओ का जबाव नही है .........वह सम्वेदना के जिस स्तर पर वह जीते है काश आज ये सम्वेदनाये हर शख्श मे जिन्दा रहती........

ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन माँ को खुश रखना
ये कपड़ों की मदद से अपनी लम्बाई छुपाती है

क्या बात है!

खुदकुशी करने पे आमादा थी नाकामी मेरी
फिर मुझे दीवार पर चढ़ती ये च्यूंटी मिल गई
लाज़वाब!

Manish Kumar said...

शुक्रिया इस पोस्ट के लिए। हमारे शहर का बुक फेयर नजदीक आ रहा है उसके पहले किताबों की फेरहिस्त लंबी होती जा रही है।

Shiv said...

न जाने कब कहाँ से किताब निकाल लाते हैं. वाह! मुनव्वर राना की किताब के बारे में जानकारी के लिए शुक्रिया. एक ही जगह जब बढ़िया किताबों की चर्चा की चर्चा होगी तो आपके ब्लॉग का नाम सबसे ऊपर रहेगा.

दिगम्बर नासवा said...

आपकी हाथ lagne से तो heera भी patthar बन जाता है फिर ये तो gazal samraat munavvar जी की kitaab है ......... लाजवाब, हर दिल में seedhe utarti kitaab और आपकी vyakhya ... kamaal नीरज जी

kshama said...

गज़ब किताबों से रु -b-रु करा रहें हैं आप !
अशारों की हरेक पंक्ती अपने आपमें मुकम्मल है ...पाठकों से मुखातिब हो कही बातें, बेहतरीन हैं...आप ख़ुद इतने अच्छे, उच्चतम प्रती के शायर हैं...अन्य किसीके लिए इतनी विनम्रता से इसीलिए लिख पाते हैं!

अनिल कान्त said...

shukriya is kitab ke baare mein batane ke liye

Vipin Behari Goyal said...

सोचता हूँ तो छलक उठती हैं आँखें लेकिन
तेरे बारे में न सोचूं तो अकेला हो जाऊँ


jitni taarif ki jay kum hai

डॉ .अनुराग said...

मुनव्वर साहब ओर मां की रिश्ता जग जाहिर है .शायरी लिखने पढने वाला आदमी उनकी एक किताब जरूर अपनी अलमारी में रखता है .....ये किताब मेरे पास भी है ....आप उनकी आपबीती पढेगे तो पायेगे ...उन्होंने बहुत दुःख भोगा है दुनिया में

योगेन्द्र मौदगिल said...

Behtreen Post.........Badhai Neeraj g

डिम्पल मल्होत्रा said...

दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख्स ने आँखें
रोशन कभी इतना तो दिया हो नहीं सकता" ...behad khoobsurat kitab or ur choice is the best...

Asha Joglekar said...

Neeraj jee Aapkee pusatak sameeksha padh kar hee apna sankalan koee badha le to kabhee akela na rahe. Bahut sunder sher aur aapkee sameeksha bhee. Jab khajana hee heeron ka ho to har tukada purnoor hee hoga. par ye sher dil ko bha gaya ek ajeeb chubhan ke sath.
अमीरी रेशम-ओ-कमख्वाब में नंगी नज़र आई
गरीबी शान से एक टाट के परदे में रहती है

daanish said...

huzoor.....shukriyaa !!
aapka naheeN...us 2 ghantoN ki deri ka jiski vajah se aap is nayaab khazaane tk pahunch paaye . .
khair , aapne achhee jaankaari di so aapka bhi
s h u k r i y a a a a a .

---MUFLIS---

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

एक समीक्षा जो गागर में सागर है . इस किताब की इससे अच्छी शायद ही किसी ने लिखी हो . आप समीक्षक के रूप में भी स्थापित हो गए है क्या आपको पता है

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' said...

नीरज जी,
नमस्कार,
एक और नायाब पुस्तक के बारे में आप ने बताया।आप का यह प्रयास बहुत ही सराहनीय है और इसके लिये आपको विशेष धन्यवाद.......अब पहले तो इस किताब को खरीदा जाय फिर और कोई बात हो........

Anita kumar said...

बढ़िया जानकारी… अब आप खारघर आने को ललचा रहे हैं हमें। सबसे पहले तो कुछ सवाल उठ रहे हैं मेरे मन में उनका समाधान दीजिए
'एक मात्र उपलब्ध पत्नी के साथ ' और कितनी पत्नियां उपलब्ध नहीं थीं उस दिन?

खुदकुशी करने पे आमादा थी नाकामी मेरी
फिर मुझे दीवार पर चढ़ती ये च्यूंटी मिल गई

अमीरी रेशम-ओ-कमख्वाब में नंगी नज़र आई
गरीबी शान से एक टाट के परदे में रहती है

Alpana Verma said...

waah ! bahut achchhee lagi yah sameekhsha.
sabhi diye gaye sher nayaab hain.
Munnavar Rana ji ko suna hai..unki kitaab bhi kabhi yahan milegi to jarur khareedenge.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

खारघर नामक खूबसूरत उपनगर में मल्टीप्लेक्स है
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
हिन्दी हर भारतीय का गौरव है
उज्जवल भविष्य के लिए प्रयास जारी रहें
इसी तरह जानकारी पूर्ण पुस्तक समीक्षाएं + चर्चाएँ , लिखते रहें नीरज भाई और अनमोल खजाने लुटाते रहें
स्तब्ध रह कर मुनव्वर जी के शेरों का आनंद लिया और मेरे शैशव से जवानी तक का सफ़र जहां गुजारा , उस
खारघर उपनगर का नाम , सुनकर यादों में मन खो गया तब ये पूछने का भान हुआ क्या वहां मल्टीप्लेक्स भी
बने हैं ? कहाँ हैं ये ? खार बाज़ार में , बनारसी स्वीट मार्ट है जहां के समोसे और रसगुल्ले लाजवाब हैं :)
मोतीराम शर्मा जी इसके मालिक हमारे चाचा जी हैं जो हमें देखते ही , ६ दूध के सुफेद पेडे धर दिया करते थे :)
और हम लोग जब् भूख लगे तब जान बुझ कर चाचाजी नमस्ते कहते हुए पहुँच जाते थे ---
खार वही है ना बांद्रा और सान्ताक्रुज़ के बीचवाला स्टेशन ?
-- Lavanya

"अर्श" said...

नीरज जी नमस्कार,
अब उस्ताद शाईर जनाब मुन्नवर राणा साहिब के लिए हम क्या कहें ...मैं अपने आपको बहुत भाग्याशाल समझता हूँ अभी दो दिन पहले ही मेरी बात राणा साहिब से हुई थी... ये तो मेरे लिए ना भूल पाने वाला एक दिन है ... माँ के प्रति जो उन्होंने गज़लें और शे'र कहें है उसके बारे में कुछ भी कहना ब्यर्थ की बातें होगी हमारी क्या मजाल के कहें कुछ ... उनके सारे ही शे'र और गज़लें माँ के लिए बंदगी से कम नहीं होती... ये जो नगीना आपने चुना है वो भी हमारे पास होगी... सलाम आपको ...

अर्श

Mumukshh Ki Rachanain said...

भाई नीरज जी,
आपने तो वस्त्र-भंडार के सामने से अपनी खरीदी १०० रुपये की किताब का विश्लेषण इतनी सम्मोहक शैली में कर जहाँ हम ब्लागरों को अभिभूत किया वहीँ उस्ताद मुनव्वर राणा जी से रूबरू करवाने का भी शुक्रिया.

पर भाई हम सब वो भाभी जी द्वारा वस्त्र-भंडार से खरीदी मंहगे वस्त्र पर सम्मोहक, बेमिसाल विश्लेषण की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उसे आप कब पढ़वा रहे हैं, आपके लिए यह एक अनमोल आइडिया है जिस पर भी आप अपनी लेखनी अपने मनमोहक अंदाज़ में चलाइए, इसी बहाने ब्लाग जगत में पत्नी महिमा वंदन तो प्रारंभ हो..................

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

Ria Sharma said...

चलिए नीरज जी हम तो पूछने ही वाले थे पर अच्छा हुआ अपने पहले ही बता दिया ...:))

जी मुनव्वर राना ने माँ को किस ऊंचाई पर रखा है मन गद-गद हो जाता है....
उनके शेर तो कहीं भी किसी का भी ज़िक्र करें....एक से बढ़कर एक हैं.

और जिस सुन्दर अल्फाज़ में आप सारगर्भित वर्णित कर देतें हैं
मन अति प्रसन्न हो जाता है

बहुत धन्यवाद !

Murari Pareek said...

बहुत सुन्दर बयान किया है आपने नीरज जी वरना इतना ज्ञान लेनी के लिए हमें न जाने कितना भटकना पङता | शुक्रिया

Udan Tashtari said...

मुन्नवर राना जी का तो क्या कहें..एक एक शेर..ठहरा देता है!

मैं तो उनका बहुत बड़ा फैन हूँ.

और फिर जब इस बारे में लिख रहे हैं तो सोने पर सुहागा. वाह!

आनन्द आ गया.

नीरज गोस्वामी said...

E-Mail received from Om Prakash Sapra Ji:-

shri neeeraj ji
namastey,

it was a very good experience to go through gazals of shri munnavvar rana
in you recent post, certainly your selection is praiseworthy.

You would be happy to note that about 2-3 months ago, shri munnavvar rana came
to delhi university, arts faculty- auditorium and recited at last 10 gazals and
i was lucky enough to attend it. Shri Prof. Kuldip Salil was also one of the shairs
who also participated in this mushaira. we had some small discussions with him also.

he is really a great poet/shair.
again congrats for this post.


regards,
-om sapra, delhi-9

सागर said...

पिछले दिनों अपने पटना प्रवास के दौरान बुक स्टाल पर 'माँ' पुस्तक देखी थी.. खड़े होकर पढ़ा तो पढता ही रह गया... दूकानदार ने भी कुछ नहीं कहा... क्योंकि अपनी कोर्स की अच्छी खासी किताबें मैं उनसे पहले ही ले चूका था... एक्साम चल रहे थे इसलिए खरीद नहीं पाया... मुनव्वर वैसे पहले से ही मेरे पसंदीदा शायर में से रहे हैं...

२-३ साल पहले एक मुशायरे में उन्होंने शायद कहा था...

हम अकबर हैं अकबर... हमारे दिल में जोधा बाई रहती है...

फिर बशीर बद्र ने कहा ... ला हौल विला कुवत!

सतपाल ख़याल said...

Shukria Neeraj ji,
Kitab order kar di hai, hamare liye to kitaben khuraq ka kaam kartee hain..bahut shukria

सर्वत एम० said...

नीरज जी, मैं आपको सलाम करता हूँ. अपनी कहने और खुद की सुनाने वाले तो सवा करोड़ की आबादी में १२४९९९०० हैं, दूसरों को सुनने और दूसरों की सुनाने वाले सिर्फ १००. आप मुनव्वर राना की प्रशंसा खुद नहीं कर रहे हैं, आपके अंदर जो फरिश्ता है यह कारनामा वही अंजाम दे रहा है. यार ये जज्बा सलामत रहे, आप सलामत रहें. एक बार फिर आपकी अजमत को सलाम.

प्रकाश पाखी said...

ये अमीरे शहर के दरबार का कानून है
जिसने सजदा कर लिया तोहफे में कुर्सी मिल गई

मैं इसी मिटटी से उट्ठा था बगूले की तरह
और फिर इक दिन इसी मिटटी में मिटटी मिल गई

खुदकुशी करने पे आमादा थी नाकामी मेरी
फिर मुझे दीवार पर चढ़ती ये च्यूंटी मिल गई

एक से बढ़कर एक लाजवाब....
शुक्रिया औ आभार....

अपूर्व said...

बहुत बहुत शुक्रिया नीरज जी ..इस नये ग़ज़ल संग्रह से तार्रुफ़ कराने के लिये..मुनव्वर साहब को एक बार सुना था..और मुरीद बन गया..एक खास किस्म की कोमलता मिलती है उनके शेरों मे..बातों और शब्दोम की जादूगरी से परे..आपको इतनी बेहतरीन समीक्षा के लिये शुक्रिया
आभार
अपूर्व

संजीव गौतम said...

मुनव्वर अहा! इस नाम में ही जादू है. आपने हम सब बडी कृपा की उनके नये संकलन से रूबरू करवाया.आपका अंदाज़ भी बहुत अच्छा लगा. मुरीद हूं आपका.

दिलीप कवठेकर said...

विलक्षण, विलक्षण....

सियासत बांधती है पाँव में जब मज़हबी घुंघरू
मेरे जैसे तो फिर घर से निकलना छोड़ देते हैं


अगर मंदिर तुम्हारा है अगर मस्जिद हमारी है
तो फिर हम आज से ये अपना दावा छोड़ देते हैं


ये नफरत में बुझे तीरों से हमको डर नहीं लगता
अगर तू प्यार से कह दे तो दुनिया छोड़ देते हैं

बाकी सभी इसके सामने बौने हैं.

लावण्या दीदी खार को ही खारघर समझ रहीं हैं.

शोभना चौरे said...

भला हो लव आजकल का जिसे देखने आप गये और भटकते हुए भीरूबरू करवाया बड़ी ही सुंदर और सहज समीक्षा |
मुन्नवर्जी का यह शेर तो आत्मा मे पैठ गया |

ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन माँ को खुश रखना
ये कपड़ों की मदद से अपनी लम्बाई छुपाती है

ise pdhkar hme apni growing umr yad aa gai sachmuch aise hi chupate the apne aapko

Ankit said...

नमस्कार नीरज जी,
खारघर कब आना हुआ ?????????
पोस्ट तो ताजी ही है, अपना ठिकाना पास ही है कभी आईये.
मुनव्वर साहेब तो उस्ताद शायर है, हर शेर में एक जादू है जो दिल को छु लेता है.

सुशील छौक्कर said...

मुनव्वर जी की शायरी वाकई दिल को छूती है।
वो आइने के सामने जाता नहीं कभी
अच्छा है उसमें थोड़ी सी झिझक बरक़रार है

क्या कहें इस शेर पर बस वाह निकलती है।

ये बच्ची चाहती है और कुछ दिन माँ को खुश रखना
ये कपड़ों की मदद से अपनी लम्बाई छुपाती है

और इधर वाह के साथ आह भी निकलती है।

शुक्रिया जी नीरज जी इनसे मिलवाने का।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

नीरज जी,
आप तो हर पोस्ट के साथ
नया मौसम लेकर आते हैं.
========================
सच और क्या कहूं ?
शुक्रिया

डॉ.चन्द्रकुमार जैन

गौतम राजऋषि said...

शुक्रिया शब्द छोटा पड़ गया नीरज जी...

Prem Farukhabadi said...

नीरज जी,
आप का यह प्रयास बहुत ही सराहनीय है.शुक्रिया!!

Kulwant Happy said...

पिछले दिनों इनको दूरदर्शन पर सुना। दिल खुश हो गया, आज पढ़ा तो अद्भुत हो गया।

Gyan Dutt Pandey said...

बहुत काम की पोस्ट। यहां किताब की दुकान पर तलाशता हूं राना जी को।

Urmi said...

वाह बहुत बढ़िया लगा! सारे शेर एक से बढ़कर एक हैं! मुझे तो ये किताब पढने का मौका नहीं मिलेगा क्यूंकि मैं तो भारत में नहीं रहती हूँ!

Akanksha Yadav said...

शारदीय नवरात्र की हार्दिक शुभकामनायें !!

हमारे नए ब्लॉग "उत्सव के रंग" पर आपका स्वागत है. अपनी प्रतिक्रियाओं से हमारा हौसला बढायें तो ख़ुशी होगी.

Navneet Sharma said...

आदरणीय भाई नीरज जी, मुझसे बड़ा अहमक और कोई नहीं जो इतने वर्षों में पहली बार आपके ब्‍लॉग पर आया। रुला दिया आपने।
मुनव्‍वर राणा जी पिछले दिनों धर्मशाला में थे, आंधी की तरह आए और तूफान की मानिंद निकल गए...पता चलने पर जब रात करीब दस बजे फोन मिलाया तो बताते हैं, ' मैं तो निकल आया चक्‍की बैंक की ओर। बड़ा बैड लक है यार मिल नहीं पाए। अगली बार आऊंगा तो आपकी भाभी को भी लाऊंगा, तब मिलते हैं।'
मैंने कहा कुछ अश्‍'आर ही सुना दें तो उन्‍होंने फोन पर ये अश्‍आर सुनाए:
'उतरे हुए गुलाब का चेहरा न पढ़ सके
वो दोस्‍त क्‍या जो दोस्‍त का चेहरा न पढ सके
चाहे किसी भी भाषा में लिखें कृष्‍ण ख़त
मुमकिन नहीं कि उसको सुदामा न पढ़ सके।'

बहरहाल। आपका ब्‍लॉग बहुत-बहुत-बहुत सुंदर है, मैं आता रहूंगा।

v k jain said...

ये अमीरे शहर के दरबार का कानून है
जिसने सजदा कर लिया तोहफे में कुर्सी मिल गई

खुदकुशी करने पे आमादा थी नाकामी मेरी
फिर मुझे दीवार पर चढ़ती ये च्यूंटी मिल गई