खार राहों के फूलों में ढलने लगे
याद करके तुझे हम जो चलने लगे
सब नियम कायदे यार बह जायेंगे
इश्क का गर ये दरिया मचलने लगे
दुश्मनों से निपटना तो आसान था
तीर तो अपने घर से ही चलने लगे
घोंसलों में परिंदे थे महफूज़ पर
आसमाँ जब दिखा तो उछलने लगे
बस समझना की उसकी गली आ गयी
साँस रुकने लगे जिस्म जलने लगे
दिल तो बच्चे सा सीधा लगे है मगर
हाल करता है क्या जब मचलने लगे
इतने मासूम हैं हम किसे क्या कहें
फ़िर से बातों में उनकी बहलने लगे
तेरी चाहत का मुझपे असर ये हुआ
दिल में फूलों के गुलशन से खिलने लगे
वक्त का खेल देखो तो 'नीरज' जरा
जिनकी चाहत थे उनको ही खलने लगे
10 comments:
शानदार!
बहुत ही बढ़िया.
kya baat hai,kya kahne..........lajawaab
bahut khuub...
नीरज जी, मन के विचार वास्तव में चलायमान होते हैं। यही प्रसन्न करते हैं, यही आशा दिलाते हैं, यही मायूस करते हैं और यही बहलाते हैं।
आपकी यह गजल हमें अपने मन की प्रतीत होती है।
दुश्मनों से निपटना तो आसान था
तीर तो अपने घर से ही चलने लगे
कॄष्ण बिहारी नूर का एक शेर याद आ गया:
मैं जिसके हाथ में देकर गुलाब आया था
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है
बहुत खूब नीरज भाई
बेहतरीन, नीरज भाई.
घोंसलों में परिंदे थे महफूज़ पर
आसमाँ जब दिखा तो उछलने लगे
भला कैसे लिख पाते है आप ऐसा? क्या बात है!!!
वैसे तो सारी ही ग़ज़ल नपी तुली और बा-असर है। ये दो अशा'र बड़े पसंद आये।
इतने मासूम हैं हम किसे क्या कहें
फ़िर से बातों में उनकी बहलने लगे
वक्त का खेल देखो तो 'नीरज' जरा
जिनकी चाहत थे उनको ही खलने लगे
बहुत ख़ूब!
bahut khoob "जिनको खलने लगे, उनकी कसम का दम खाली /खुलते अल्फाज़ खिले, हाथ ले साथ टहलने लगे" - सादर -मनीष
aaj hi aapka blog dekha.
bahut sunder rachanaaeyeiN hain.
bahut see badhai.
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