मान लूँ मैं ये करिश्मा प्यार का कैसे नहीं
वो सुनाई दे रहा सब जो कहा तुमने नहीं
इश्क का मैं ये सलीका जानता सब से सही
जान देदो इस तरह की हो कहीं चरचे नहीं
तल्ख़ बातों को जुबाँ से दूर रखना सीखिए
घाव कर जाती हैं गहरे जो कभी भरते नहीं
अब्र* लेकर घूमता है ढेर सा पानी मगर
फायदा कोई कहाँ गर प्यास पे बरसे नहीं
छोड़ देते मुस्कुरा कर भीड़ के संग दौड़ना
लोग ऐसे ज़िंदगी में हाथ फ़िर मलते नहीं
खुशबुएँ बाहर से वापस लौट कर के जाएँगी
घर के दरवाजे अगर तुमने खुले रक्खे नहीं
जिस्म के साहिल पे ही बस ढूंढ़ते उसको रहे
दिल समंदर में था मोती तुम गए गहरे नहीं
यूँ मिलो "नीरज" हमेशा जैसे अन्तिम बार हो
छोड़ कर अरमाँ अधूरे तो कभी मिलते नहीं
*अब्र = बादल
{ भाई पंकज सुबीर को ग़ज़ल पढने कर मंजूर करने का तहे दिल से शुक्रिया}
16 comments:
अब्र* लेकर घूमता है ढेर सा पानी मगर
फायदा कोई कहाँ गर प्यास पे बरसे नहीं
vaah
हमेशा की तरह बहुत खूब. शानदार!
बहुत जानदार। क्या आपकी कविता को भी साहित्यिक Vetting की आवश्यकता है!?
जैसे आपने अपने ब्लॉग पर एक बच्ची की मनमोहक तस्वीर की निचे लिख रखा है "इश्वर की अद्वितीय रचना" वैसे ही मुझे आपकी हर गजल की तरह ये भी "आपकी अद्वितीय रचना" लगी.
बहुत सुंदर. वड्डे पापाजी.
वाह! वाह!
नीरज जी,
बहुत अच्छा लगा आप का लिखा हुआ पढ कर...सुन्दर गजल बन पडी है...
लिखते रहिये
बेहतरीन उम्दा गजल...आनन्द आ गया, भाई!१
जिस्म के साहिल पे ही बस ढूंढ़ते उसको रहे
दिल समंदर में था मोती तुम गए गहरे नहीं
waah...
बेहतरीन गज़ल.........
बहुत बढिया गजल है।
यूँ मिलो "नीरज" हमेशा जैसे अन्तिम बार हो
छोड़ कर अरमाँ अधूरे तो कभी मिलते नहीं
आपकी सारी पोस्ट पढ़ता हूँ .हाँ टिपियाने का टाइम नहीं मिलता..पर आज मजबूर हो गया..बेहद सुन्दर ग़जल.
मान लूँ मैं ये करिश्मा प्यार का कैसे नहीं
वो सुनाई दे रहा सब जो कहा तुमने नहीं
--- बहुत सुन्दर...पूरी गज़ल ही मन को मोह गई..
जिस्म के साहिल पे ही बस ढूंढ़ते उसको रहे
दिल समंदर में था मोती तुम गए गहरे नहीं
खुबसूरत इल्फाज़ खुबतर ख्याल
गुल्कारी, ग़ज़ल की जुल्फ को आपने सवारा है
नीरज भाई, आपने उमर भर जोहरा ज़बीनों का भरा दम बेकार
ख़ुद ही तू माहे ज़बीं था तुझे मालूम न था
नीरज बड़ा निराला है तू
बन्ना भागों वाला है तू
ग़ज़ल की मसनद पर है बैठा
कितना करमों वाला है तू
चाँद शुक्ला हदियाबादी डेनमार्क
नीरज भाई - हमेशा की तरह बेहतरीन कलाम - इस बार देरी के लिए माफी - पढी कल थी - समस्यापूर्ति आज भई - " अल्ताफ के साहिल जुटाने लग गया मजदूर मन / अल्फाज़ थे काहिल जुबां के सब्र पर ठहरे नहीं" - [माफी मिलेगी की नहीं] [ बगैर अंगूठे के टाईप करने की प्रेक्टिस भी चल रही है [:-)] - सादर - मनीष
इश्क का मैं ये सलीका जानता सब से सही
जान देदो इस तरह की हो कहीं चरचे नहीं
तल्ख़ बातों को जुबाँ से दूर रखना सीखिए
घाव कर जाती हैं गहरे जो कभी भरते नहीं
बहुत खूब नीरज जी ..
Aap ko versho se pad rahin huin ,her aap ki bhavana ko mahsush karti huin. Her bar app ki kavita ko padne manan karne pe ek naya aarth hi milta hai. Jindagi ki rah main aap ki batyen kafi sahyogi hoti hai. KOTI KOTI NAMASHKAR PRABHU KE US PALL KO JAB APP APNI BHAVNAOUN KO SABD BODH DETYEN HAIN
वाह! क्या बात है!
आपकी ग़ज़ल के अशआर सुनने वाले के दिल पर फ़ौरन असर करते हैं।
बड़ा ख़ूबसूरत शे'र हैः
इश्क का मैं ये सलीका जानता सब से सही
जान देदो इस तरह की हो कहीं चरचे नहीं।
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