( भाई पंकज सुबीर ने इस ग़ज़ल की नोंक-पलक सवारने में अपना अमूल्य योगदान दिया है)
साल दर साल ये ही हाल रहा
तुझसे मिलना बड़ा सवाल रहा
याद करना खुदा को भूल गए
नाम पर उसके बस बवाल रहा
ना संभाला जो पास है अपने
जो नहीं उसका ही मलाल रहा
यूं जहाँ से निकाल सच फैंका
जैसे सालन में कोई बाल रहा
क्या ज़रूरत उन्हें इबादत की
जिनके दिल में तेरा खयाल रहा
ऐंठता भर के जेब में सिक्के
सोच में जो भी तंगहाल रहा
दिल की बातें हुई तभी रब से
बीच जब ना कोई दलाल रहा
चाँद में देख प्यार की ताकत
जब समंदर लहर उछाल रहा
फूल देखूं जिधर खिलें "नीरज"
साल दर साल ये ही हाल रहा
तुझसे मिलना बड़ा सवाल रहा
याद करना खुदा को भूल गए
नाम पर उसके बस बवाल रहा
ना संभाला जो पास है अपने
जो नहीं उसका ही मलाल रहा
यूं जहाँ से निकाल सच फैंका
जैसे सालन में कोई बाल रहा
क्या ज़रूरत उन्हें इबादत की
जिनके दिल में तेरा खयाल रहा
ऐंठता भर के जेब में सिक्के
सोच में जो भी तंगहाल रहा
दिल की बातें हुई तभी रब से
बीच जब ना कोई दलाल रहा
चाँद में देख प्यार की ताकत
जब समंदर लहर उछाल रहा
फूल देखूं जिधर खिलें "नीरज"
ये तेरी याद का कमाल रहा
13 comments:
क्या खूब कही।
नीरज जी यह नोक-पलक की समझ तो हमें नहीं है; पर भाव बहुत सुन्दर लगते हैं आपकी कविता में। वही आकर्षित करते हैं।
ऐंठता भर के जेब में सिक्के
सोच में जो भी तंगहाल रहा
क्या हकीकत है! आपने तो हमारी मनसिक फटेहाली बयान कर दी।
वाह ! वाह साहब ! मज़ा आ गया. बहुत बढ़िया है सर.
क्या ज़रूरत उन्हें इबादत की
जिनके दिल में तेरा खयाल रहा
बहुत सुन्दर खयालात है जनाब...
खूबसूरत गजल!
ना संभाला जो पास है अपने
जो नहीं उसका ही मलाल रहा
बहुत बढ़िया ...अच्छी लगी आपकी गजल ...बधाई
संवर कर तो राज रानी बन गई है...बहुत खूब!!!
खूब थी वोह खूबसूरत हो गई
अब तो इसपे निखार लगता है
बहुत प्यारी ग़ज़ल लिखी है नीरज भाई
किसने पत्थर फेंक कर हलचल मचा दी झील में
चाँद हदियाबादी डेनमार्क
रंग को शेर क्यों समझे है भला
लगा दे, सामने ये गाल रहा
क्या फरक है जो हम नहीं आए
दिल में बस तेरा ही ख़याल रहा
सवालों में ही उलझा रहता था
मिले तो अब कहाँ सवाल रहा
जिंदगी तो उलझती जाती है
हमपे तकदीर का जंजाल रहा
उसे लगते हैं सभी छोटे ही
सोच का उसके यही हाल रहा
अच्छा टिपिया के अभी जाता हूँ
केवल टिपिया के अब निढाल रहा
नीरज भाई - थोड़ा छुट्टी पर था [बेनेट]
"नाम तो रह्बर ही थे, बेनाम भी मिले खूब / सुर की सांसों में, मिलके सही ये ताल रहा" - सादर मनीष [पुनश्च: अंगूठा सम्हालियेगा [ :-)]]
पढ़ते हुए जैसे अशा'र बोल रहे हों। निहायत ख़ूबसूरत लगी। अब पंकज भाई ने सर पर हाथ रख दिया है, समझ लीजियेगा कि ग़ज़लों की तख़्नीक वगैरह बारीकियों से आपकी ग़ज़लों में चार चांद लग जाएंगे। आपको बधाई और पंकज सुबीर भाई को धन्यवाद।
मनीष भाई,
अंगूठा संभालने की जरूरत नीरज भाई को नहीं है. अंगूठा संभालने की जरूरत तो बेनाम मतलब एकलव्य को है. नीरज भाई को तो अंगूठा मांगने के बारे में विचार कीजिये. द्रोणाचार्य तो वही हैं न..................:-)
क्या ज़रूरत उन्हें इबादत की
जिनके दिल में तेरा खयाल रहा
सुंदर आपके लिखने का हर अंदाज़ खूबसूरत हैं नीरज जी !
Payar se badi ibadat kaishe ho sakiti hai.... wahhhhhhh
payar hi ek anubhuty hai jo insaan ko jismani se ruhani hone ka ahsash dilati hai. sare ristye naton se pare sare bhandhan se unmuktpachi ke vichran ki anubhuti, bina bole mahsush ki janewali anubhuti hi to ishwariye hai. aap isshi siddat se chaltye rahyen humsafar saath hai.
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