तन्हाई की रातों में न तुम याद यूं आओ
हारूंगा मुझे मुझसे ही देखो न लडाओ
तुम राख करो नफरतें जो दिल में बसी हैं
इस आग से बस्ती के घरों को न जलाओ
बाज़ार के भावों पे नज़र जिसकी टिकी है
चांदी में नहाया न उसे ताज दिखाओ
किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ
75 comments:
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ..
badhiya baat hai ye..neeraj ji
किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ
sunder panktiya...
आज तसल्ली से पढने का मन था...और आप ने सुन ली मन की बात..
बाज़ार के भावों पे नज़र जिसकी टिकी है
चांदी में नहाया न उसे ताज दिखाओ
कितना वजन है इनमे, उफ्फ्फ....
सच ही तो है, कैसे देखेगा वो..
और काश के हम सब ये देख पाते......
किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ
और ये क़यामत है..... सच में!
मैं बनाया करता हूँ जान बूझ के जली रोटियाँ...कच्चे आलू :)
बचपन की तुझे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
शुक्रिया ऐसा लिखने के लिए .......
नीरज जी
आज तो ज़िन्दगी की दास्तान लिख दी………………अब किस शेर की तारीफ़ करूँ और किसे छोडूँ………………हर शेर एक कहानी कह रहा है।
khoobsurat bahar aur khoobsurat ghazal..kya kahne
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ
बचपन की तुझे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
..............
kitni sundar !!!!!
बचपन की तुझे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
वाह नीरज जी बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ हैं .
बाज़ार के भावों पे नज़र जिसकी टिकी है
चांदी में नहाया न उसे ताज दिखाओ
वाह
बहुत सच बात कही है |अब तो दाल रोटी भी जिनकी पहुँच से दूर हो गई उनके लिए क्या चांदनी? क्या ताज ?
बचपन की तुझे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
अब तो गैस पे भी रोटी नहीं पकाई जाती तो क्या कोयला ?क्या चूल्हा ?
bahut badhiya
abhar
koyle ki aanch per roti aur goithe mein litti...ghee daalke khao, piche laut hi jaoge minton me
सचमुच आपने बचपन की याद दिला दी। हम तो कोयले पर पकी रोटी ही खाकर बड़े हुए हैं। बच्चों पर बोझ वाले शेर ने निदा फाजली के एक शेर की याददिला दी- इन नन्हें हाथों को चांद सितारे छूने दो,चार किताबें पढ़कर ये हम जैसे हो जाएंगे।
बड़ी कठिन है डगर इस पनघट की।
किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ...
पूरी ग़ज़ल ही शानदार
है..
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
सत्य है ... बेहतरीन ग़ज़ल ...
"ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
बचपन की तुझे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ"
लाजवाब ग़ज़ल पढवाने के लिए आभार
ACHCHHEE GAZAL HAI.EK- EK SHER PAR
MUNH SE " WAH , WAH " NIKLAA .
बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
नीरज जी ... इस शेर ने सच में बहुत कुछ याद दिला दिया ... पुराने बीते हुवे वक़्त में जबरन खैंच ले गया .... वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी .... आपका शेर भी इन लाइनों से कम नही ..... वैसे तो पूरी ग़ज़ल कमाल के शेरों से लदी पड़ी है ...
हिंदी ब्लॉग लेखकों के लिए खुशखबरी -
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बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
beautiful couplets !
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
नीरजजी ,
इस चूहा प्रवृति से आदमियों को नजात मिलने की दुआएं हैं ।
आदरणीय प्राणजी की कसौटी पर खरा उतरना अपने आप में बहुत बड़ी बात है ।
पूरी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
हर शेर कह रहा है कि तारीफ़ कीजिये।
इसी बह्र पर स्वर्गीय दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल थी:
तुमको निहारता हूँ सुबह से ऋतम्भरा
अब हो रही है शाम मगर दिल नहीं भरा।
उसके बाद शायद ये पहली ग़ज़ल पढ़ी है उसी बह्र पर। आनंद आ गया।
Bhai ji,aap jab bhi likhte ho ,ekdam anubhav ki aanch par tapa kar likhtey ho,wakai bachpan ki yaad dilati roti ki hakikat samney lati hai yah gazal.bachpan ka bojh kam karne ki baat bahut khoobi se uthai hai aapne.swagat ek baar fir.
sader
bhoopendra
jeevansandarbh.blogspot.com
गर लौटना हो तो कदम ना बढाओ ...
सुन्दर ...
बचपन की याद आएगी ही जब कोयले की आंच पर रोटी पकेगी ...
बहुत कुछ याद आया ...!
आपकी लेखनी को नमन .... बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल लिखी है आपने... हरेक शे 'र अपने आप में नायाब है...
बेहतरीन ग़ज़ल !
बाज़ार के भावों पे नज़र जिसकी टिकी है
चांदी में नहाया न उसे ताज दिखाओ
वाह , बहुत गहरी बात ।
बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
कितनी मासूमियत है इन लाइनों में ।
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ ।
कितना सही ।
और भी सब के सब शेर दिल को छू लेने वाले ।
किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ
पूरी ग़ज़ल पर भारी है ये शेर इसमें भी किलकारियों का प्रयोग इसकी खू़बसरती में इजाफा कर रहा है. बधाई. अपने ब्लाग पर हरजीत जी की पांच ग़ज़लें पोस्ट की हैं देखें और हरजीत जी के विषय में और कुछ जानकारी हो तो बताने का कष्ट करें.
http://kabhi-to.blogspot.com
एक एक शेर वज़नदार ..बहुत खूबसूरत गज़ल
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
ghazab ye khayal lazwaab hai .. aur poori tarah sach ..admi bhi jane kisi kis janwar se ispiration leta hai ...hehehe
बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
ek dum nostalgic sher hai .. :)
mast maza aaya .. :)
very nice...
heart touching....
किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ
--
उपयोगी सन्देश देती है यह गजल!
किताब के बोझ से दबा हुआ बच्चा का दरद आप गजब बयान किए हैं...अऊर कोयला का रोटी त सचमुह बचपन याद दिला दिया.. आपका त एक एक सेर हमरे मन पर अंकित हो जाता है..
टिप्पणी आपको लिखें कईसे
हाथ दिल से जुदा नहीं होता!
बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
बहुत ही सुंदर रचना जी, चित्र देख कर सच मै बचपन याद आ गया, जब भी गांव जाते थे मां चुल्हे पर युही रोटी बनाती थी
बहुत अच्छी गज़ल कही है आप ने.
पसंद आई.
आभार.
वाह ! क्या बात है भाई. क्या शेर कहे हैं .....
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ
लाजवाब !!
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
यही रीत है .. कौन किसको आगे बढता देखना चाहता है
बेहतरीन गज़ल
किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ
पूर्ण सत्य ,अच्छी रचना ।
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
क्या कहूँ, सारे शेर उम्दा हैं। भाव में डूब कर जा रहा हूँ। शुक्रिया इस आनन्द के लिए।
शीर्षक पढ़ के ही खुशबू आने लग गयी आज तो.
बहुत खूब!!
सारे शेर एक से बढ़कर एक. जीवन जीने का पाठ है. याद रहना चाहिए.
bahut hi ymda rachna hai bhaisahab...!!
वो शख़्स जो हर बात पे तारीफ़ ही करे
उस शख़्स की क्या राय-उसे कुछ भी सुनाओ
डूबे सुख़न में दिल तो लगे पार उतरता
बरसो इन्हीं अश'आर की मानिंद घटाओ
रोटी की सोंधी बात से रूमान गढ़े जो
नीरज के सिवा और कोई हो तो बताओ
ख़ूब नीरज साहब!
bahut khoob likha aapne... Ek ek shabd apne mann me jhaank ke dekhne ko majboor karta hai... Anubhavon ko shabdon me bahut umda piroya hai aapne... Abhar...
नमस्कार नीरज जी,
इन दो शेरों ने तो घायल कर दिया है,
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ
और इसमें तो मासूमियत है, अहा
किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ
कलम के जादूगर को सलाम
aapakee shayari aur usake saath-saath jab tak saree tippanee naa padh lo man naheen manata. matra 1 din men 46 comments. Dil karata hai aapakee door bell bajakar aapko badhai de aayen. :))
तन्हाई की रातों में न तुम याद यूं आओ
हारूंगा मुझे मुझसे ही देखो न लडाओ
बहुत खूबसूरत |
किसी एक शेर की क्या तारीफ करू ?
हर शेर, हर आशार लाजवाब है.
बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ
shaandaar aur laazwaab .
हर शेर पर वाह वाह करने का दिल करता है ! हर शेर में वज़नदार सोच है और हर शेर का अंदाज़े बयां बहुत ही बेहतरीन है ! आपको ढेर सारी शुभकामनाएं और बधाई !
बेहतरीन रचना... लाजवाब
किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ
बहुत खूब कही नीरज जी....हम तो आपके फ़ैन हुए..बढ़िया ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई
बाज़ार के भावों पे नज़र जिसकी टिकी है
चांदी में नहाया न उसे ताज दिखाओ
किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ
चपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
एक से एक बढ कर शेर निकाले हैं पूरी गज़ल बहुत अच्छे4ए लागी। बधाई
बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ
....अद्भुत...मन प्रसन्न हो गया पढ़कर.
बाज़ार के भावों पे नज़र जिसकी टिकी है
चांदी में नहाया न उसे ताज दिखाओ
किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ
बेहतरीन रचना दिल छू गयी.
बड़ी सोंधी खुशबू है....पसंद आयी आपकी ग़ज़ल.
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
.... umda rachna...
aajkal ka jamane mein kuch aisa hi ghatit ho raha hai...
Badhai
वाह नीरज भाई वाह! गजल कही या सारा हिंदुस्तान दिखा दिया. सभी विसंगतियों को तो आप ने एक ही गजल के खूंटे से बाँध लिया, अब प्रार्थी क्या करे!
मैं शायद बहुत... बहुत.... बहुत ही ज्यादा दिनों के बाद आ सका हूँ. आप तो मुस्कुरा के माफ़ कर देने में माहिर हैं ही.
फिलहाल, फिर लौटते हैं इस गजल पर. ये अच्छा भला, हंसमुख, रोमांटिक, प्रकृति प्रेमी, छायाकार/शायर अचानक उबल क्यों पड़ा इन अशआर में, चिंता का विषय है. क्या मुंबई का तापमान ज्यादा बढ़ गया है या मानसून अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरा? या किसी स्टील मिल ने प्लास्टिक का उत्पादन शुरू कर दिया स्टील के नाम पर! नीरज भाई, आप माशा अल्लाह अच्छे खासे हैंडसम, स्मार्ट, खूबसूरत नौजवान हैं, कहीं किसी ने दिल लेने इंकार तो नहीं कर दिया? वरना आप और ऐसी गजल?
कुछ है तो जरूर.
मुझे लखनऊ आ कर तलाश करने की कोशिश मत कीजिएगा, मिलूंगा नहीं. मुझे पता है यह पढने के बाद आप मुंबई में रुक नहीं सकते. और...यह आश्चर्य तो आपको भी हो रहा होगा कि मुझे इतनी सच्ची खबर कहाँ से मिली.
बहुत सुंदर ग़ज़ल....
कमाल की गजल, नीरज भाई..
और आखिरी शेर का तो क्या कहना..
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ
डायरी में नोट कर लिया है
बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
क्या खूब कहा आपने,
अति सुन्दर,
आभार...।
"पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ"
-सुन्दर.
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ
subhanallah!!
ek roj kal ke blogger aapki kitab ka bhi jikr karege sarkaar.......
किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ
यूँ तो कई शेर अच्छे हैं लेकिन यह इसलिए भाया कि रोज़ बच्चे को स्कूल छोड़ने जाता हूँ.इसमें शिक्षकों और vyavastha का भी dosh है.
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ
...वाह. क्या मक्ता तलाशा है.
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
इस शेर से भी कुछ याद आ गया...
यहाँ किसी का कोई साथ नहीं देता
मुझे गिराके अगर तुम संभल सको तो चलो
...............................
बहुत कठिन है सफर जो चल सको तो चलो.
है तो पूरी ग़ज़ल ही लाजवाब नीरज जी मगर इस शेर ने "किलकारियां दबती हैं कभी गौर से देखो
बस्तों से किताबों का ज़रा बोझ घटाओ" और मक्ते ने जैसे कयामत उठा दी है।
एक बेमिसाल ग़ज़ल बुनने पर करोड़ों बधाईयां...!
नीरज जी वैसे तो पूरी ग़ज़ल ही बहुत ही प्रभावी है मगर हमें यह शेर बहुत पसंद आया...
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
आज की सच्चाई को शेर के दो मिसरों में कैसे उतरा जा सकता है आपसे सीखना होगा.
sir ji , namaskar;
deri se aane ke liye maafi ..
gazal ko kayi baar padh chuka hoon , tasweer ne beeti hui zindagi ke kuch lamhe yaad dila diye hai.. aankhe geeli ho gayi hai ek jagah ..jahan aapne likha hai :
बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
sach kahun to maa ki yaad aa gayiu hai ..
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
ye sher to aaj ke rat race ka jeeti jaagti misaal hai ..
aur ye :
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ
this is ultimate neeraj ji .. waah waah .. dil ki duniya kitni khatarnaak hai , iska ishara aapne de diya hai ..
poori gazal hi shaandar bani hui hai .. kya kahun. aapki lekni ko naman hai ..
aapka
vijay
तुम राख करो नफरतें जो दिल में बसी हैं
इस आग से बस्ती के घरों को न जलाओ
बाज़ार के भावों पे नज़र जिसकी टिकी है
चांदी में नहाया न उसे ताज दिखाओ
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
नीरज भाई, आपकी ग़ज़ल का हर शेर तराशा हुआ है । हर शेर अपनी जगह ठोस है मगर इन अशआर ने तो सचमुच गजब किया है
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
आज की ग़ज़ल के शिल्प में आधुनिकता के
सारे नियमों को सफलतापूर्वक निभाती हुई
आपकी ये कामयाब ग़ज़ल पढ़ कर
मन आंदोलित हो उठा है
भाषा के रख-रखाव का निर्वहन भी
खूब झलक रहा है
बचपन की यादों को
कोयले की आंच से बाँधने के लिए
ग़ज़ल-सम्राट 'नीरज' को हज़ारों सलाम !!
wah !
E-mail received from Sh: Om Sapra Ji
shri neeraj ji
good gazal
really very good, especially follwoing lines:-
ये दौड़ है चूहों की यही इसका नियम है
आगे जो बढे सारे उसे मिल के गिराओ
बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
regd.
-om sapra, delhi-9
नीरज जी,
१९ जुलाई की गज़ल और मैं अभी तक पढ़ी नहीं? ऐसा कैसे हो सकता है? फिर याद आया की उन दिनों मैं भारत में था, इन्टरनेट कभी कभी देखता था, और फिर गर्मी से भी जूझ रहा था..
यह गज़ल बहुत अच्छी लगी.
ये दो शेर तो दिमाग में गूँज रहे हैं.
"बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ
पुरपेच मुहब्बत की हैं गलियां बड़ी 'नीरज'
गर लौटने का मन है तो मत पाँव बढ़ाओ"
बहुत अच्छा....मेरा ब्लागः"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com .........साथ ही मेरी कविता "हिन्दी साहित्य मंच" पर भी.......आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद
बचपन की तुम्हे फिर से बड़ी याद आयेगी,
तुम कोयले की आंच पे रोटी तो पकाओ.
एकदम ज़मीन से जुड़ा हुआ ये शेर कोई मंजा हुआ कलमकार ही कह सकता है.आपको इस शेर की बल्कि यूँ कहूं की पूरी ग़ज़ल की दिल से बधाई देता हूँ.
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