प्राण शर्मा जी की एक ग़ज़ल है "मेले में" जिसे उन्होंने मुझे ब्लॉग पर पोस्ट करने की इच्छा जाहिर की है.आज के शहरी जीवन में लोग मेले का मजा भूल से गए हैं, हो सकता आज की पीढ़ी को शायद मेले का कोई अनुभव ही ना हो. जिन्होंने ने मेले का आनंद लिया है या वो जो मेला क्या है नहीं जानते उनसब के लिए पेश है ये नायाब ग़ज़ल, जिसमें प्राण साहेब ने मेले के कितने ही रंग समेट लिए हैं :
घर वापस जाने की सुध-बुध बिसराता है मेले में
लोगों की रौनक में जो भी रम जाता है मेले में
किसको याद आते हैं घर के दुखड़े, झंझट और झगडे
हर कोई खुशियों में खोया मदमाता है मेले में
नीले-पीले, लाल-गुलाबी पहनावे हैं लोगों के
इन्द्र धनुष का सागर जैसे लहराता है मेले में
सजी सजाई हाट-दुकानें खेल - तमाशे और झूले
कैसा- कैसा रंग सभी का भरमाता है मेले में
जेबें खाली कर जाते हैं क्या बच्चे और क्या बूढे
शायद ही कोई कंजूसी दिखलाता है मेले में
तन तो क्या मन भी मस्ती में झूम उठता है हर इक का
जब बचपन का दोस्त अचानक मिल जाता है मेले में
जाने अनजाने लोगों में फर्क नहीं दिखता कोई
जिस से बोलो वो अपनापन दिखलाता है मेले में
डरकर हाथ पकड़ लेती है हर माँ अपने बच्चे का
ज्यों ही कोई बिछुड़ा बच्चा चिल्लाता है मेले में
ये दुनिया और दुनियादारी एक तमाशा है भाई
हर बंजारा भेद जगत के समझाता है मेले में
रब ना करे कोई बेचारा मुहँ लटकाए घर लौटे
जेब अपनी कटवाने वाला पछताता है मेले में
राम करे हर गाँव - नगर में मेला हर दिन लगता हो
निर्धन और धनी का अन्तर मिट जाता है मेलेमें
12 comments:
वाह! बहुत खूबसूरत गजल है भइया.
शर्मा को धन्यवाद कि उन्होंने ये गजल लिखी...आप को धन्यवाद कि आपने इसे पोस्ट की. बहुत सारी बातें याद आ गईं इस गजल को पढ़कर.
अरे गज़ब! यह आपकी या प्राण जी की आवाज में सुनने को मिल जाये तो मजा आ जाये।
जरा पॉडकास्टिंग का जुगाड़ लगायें नीरज जी। और सच में, इस अनुरोध को सीरियसली लें।
वाह.
सिर्फ़ यही निकलता है मुंह से.
और यादें लेजाती है अपने पुराने घर और २०-२५ साल पीछे.
सब कुछ चल-चित्र सा चलने लगा है ये गजल देखकर. हाँ जी देखकर.
एक एक मेला जो मैं जी चुका हूँ आंखो के सामने वापस साकार हो रहा है.
नीरज जी
इतनी सुन्दर गज़ल पढ़वाने के लिए धन्यवाद। गज़ल वाकई बहुत अच्छी है। सस्नेह
बहुत ही सुंदर इसको यहाँ देने के लिए शुक्रिया नीरज जी
शुक्रिया नीरज जी ...प्राण शर्मा फ़िर एक जीवन से कुछ खींच कर ले आए है ....ये शेर बेहद पसंद आया......
डरकर हाथ पकड़ लेती है हर माँ अपने बच्चे का
ज्यों ही कोई बिछुड़ा बच्चा चिल्लाता है मेले में
वाह ! ग़ज़ल क्या कही है साहब,
शब्दों-भावों का मेला ही जुट गया !
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जगत का भेद समझता हुआ,
गाता-गुनगुनता हुआ
शायर की क़लम का यह
बंज़ारापन कितना मोहक है !
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लगता है कि लगता रहे मेला ये बार-बार
नीरज नगर में प्राण का सूरज उगे सौ बार
शुभकामनाएँ...
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डा.चंद्रकुमार जैन
खूबसूरत गजल. आपका आभार पेश करने के लिए.
गज़ब है भाई. अद्भुत है. क्या कहूँ ..... नज़रों के सामने से कितने मंज़र गुज़र गए. कमाल.
Mele MeiN ek KHUbsUrat GHazalnumA kvaitA hai.Mele ke rangoN ke sundar chittraN ke sAth rang-e-tasavvuf kaa kamAl ne ise ek kAljaI rachanA banA diyA hai. HamArA himAchalPradesh to hai hI meloN kI dharatI.Is rachanA ko paRhane ke sAth-sAth maine apane dAdAjI aur pitAjI ke sAth apane bachapan meiN ghUme hue tamAm mele kaI-kaI bAr phir ghUm liye.
Dwijender Dwij
Kangra
Himachal Pradesh
क्या बात है..
इस ग़ज़ल पर क्या, प्राण जी की हर रचना के लिए शब्दों को ढूंढना आसान नहीं। इस ग़ज़ल ने तो हमें ४०-४५ साल पहले जीवन के सुनहरे दिनों में ला कर खड़ा कर दिया। शब्दों का जादू, सीधे दिल में असर करने वाले और चित्रण ऐसा जैसे उस पुरानों दिनों के मेले में साक्षात विचर रहा हूं। यह हुनर प्राण जी का ही है।-Pure nostalgia!
नीरज जी, प्राण जी के साथ साथ आपका भी आभारी हूं कि इतनी
ख़ूबसूरत ग़ज़ल के साथ ख़ूबसूरत तस्वीर भी देकर ब्लॉग को और
भी ख़ूबसूरत बना दिया।
सधन्यवाद
महावीर शर्मा
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