बांधती जो दायरों में काट डालें रस्सियाँ
दूर करदें अब दिलों में बस गयी जो तल्खियां
मत डरो तूफ़ान से ये बात रखना याद तुम
डूब जाती हैं किनारों पर खड़ी भी कश्तियाँ
इक सुकूँ मिलता है दिल को आज़मा कर देखिये
जब अजां के साथ बजती मंदिरों की घंटियाँ
मत बढाओ इस कदर आपस में यारों फासले
आग नफरत की करे है राख दिल की बस्तियां
अनसुनी करके बशर पछता रहा इस बात को
चार दिन की ज़िंदगी में खूब कर लो मस्तियां
तुम जिसे थे कोख ही में मारने की सोचते
कल बनेगीं वो सहारा देख लेना बच्चियां
पूछता है कौन "नीरज" गुलशनो के हाल को
छोड़ जाती हैं शजर को जब खिजां की पत्तियां
(ये ग़ज़ल प्राण शर्मा जी की इस्लाह के बिना कहना ना मुमकिन था। मैं उनका तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ.)
11 comments:
मत डरो तूफ़ान से ये बात रखना याद तुम
डूब जाती हैं किनारों पर खड़ी भी कश्तियाँ
bahut hi sundar trike se kahi gyi gazal.
बहुत खूब!
हमेशा की तरह...आपकी गजल जब पढता हूँ तो लगता है जैसे जीवन जीने का तरीका सीखने के लिए कहीं और जाने की जरूरत नहीं. बस यहीं आने से सारे तरीके मिल जायेंगे.
अनसुनी करके बशर पछता रहा इस बात को
चार दिन की ज़िंदगी में खूब कर लो मस्तियां
पूछता है कौन "नीरज" गुलशनो के हाल को
छोड़ कर जाती शजर को जब खिजाँ में पत्तियां
वह नीरज जी ....एक बार फ़िर आप छा गये .....ये शेर बेहद पसंद आये......
एक बात ओर अपनी नन्ही गुडिया पर काला टीका लगा कर रखिये ,जब भी आपके ब्लॉग पर आता हूँ....उस पर नजर जाती है....
एक और कमाल !
नीरज जी, इसे सिर्फ़ ग़ज़ल कहना मुनासिब नहीं.
जो सुन सके वो पाएगा कि ये तो अज़ां के साथ
बजती मंदिरों की घंटियों की तरह ही है.
रहीम और राम साथ-साथ मौज़ूद हैं हर शेर में.
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शुक्रिया...धन्यवाद !
आपका
चंद्रकुमार
वाह वड्डे पप्पाजी.
बहुत खूब.
शिव की बात का दिल से समर्थन करता हूँ.
और क्या कहूँ?
मत डरो तूफ़ान से ये बात रखना याद तुम
डूब जाती हैं किनारों पर खड़ी भी कश्तियाँ
अनसुनी करके बशर पछता रहा इस बात को
चार दिन की ज़िंदगी में खूब कर लो मस्तियां
पूछता है कौन "नीरज" गुलशनो के हाल को
छोड़ कर जाती शजर को जब खिजाँ में पत्तियां
हर शेर बेहतरीन है। जो खास अच्छे लगे उपर उद्धरित कर रहा हूँ।
***राजीव रंजन प्रसाद
मत डरो तूफ़ान से ये बात रखना याद तुम
डूब जाती हैं किनारों पर खड़ी भी कश्तियाँ
-सभी शेर उम्दा हैं, बहुत खूब, बेहतरीन.
sabhi sher lajabab hai bahut badhiya.
बहुत प्रेरक लगती है यह कविता नीरज जी। बहुत धन्यवाद। और आपके लेखन से बहुत ईर्ष्या भी!
भाई नीरज जी,
आपकी गजल के हर शेर काबिले-तारीफ है. निम्न शेर पर
बांधती जो दायरों में काट डालें रस्सियाँ
दूर करदें अब दिलों में बस गयी जो तल्खियां
हमारी बयाने- अदा कुछ यूँ है :
अगर बंधोंगे माया - मोहों में
बन्धन से तो विस्तार रुकेगा
अगर डरोगे तुम गिरने से तो
डर से रह-रह हर बार गिरेगा
"जीना" दुनियाँ में व्यापार बना है
"सब देना" कुछ पाने का द्वार बना है
पर बंधने पर श्रद्धा के बन्धन में
न खोने-पाने का संस्कार बनेगा
प्रतिक्रिया से अवगत करायें
आप का अनुज,
चंद्र मोहन गुप्ता "मुमुक्षु"
जयपुर
नीरज जी
बहुत सुन्दर गज़ल लिखी है-
मत बढाओ इस कदर आपस में यारों फासले
आग नफरत की करे है राख दिल की बस्तियां
अनसुनी करके बशर पछता रहा इस बात को
चार दिन की ज़िंदगी में खूब कर लो मस्तियां
बधाई स्वीकारें।
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