Friday, September 21, 2007

जो सुकूं गाँव के मकान में है




वो ना महलों की ऊंची शान में है
जो सुकूं गांव के मकान में है


जब चढ़ा साथ तब ज़माना था
अब अकेला खडा ढलान में है


हम को बस हौसला परखना था
तू चला तीर जो कमान में है


लूटा उसने ही सारी फसलों को
हमने समझा जिसे मचान में है


बोल कर सच हुए हैं शर्मिंदा
क्या करें मर्ज़ खानदान में है


जिसको बाहर है खोजता फिरता
वो ही हीरा तेरी खदान में है


जिक्र तेरा ही हर कहीँ " नीरज"
जब तलक गुड तेरी ज़बान में है





16 comments:

Sanjeet Tripathi said...

बढ़िया!!!

आखिरकार आ ही गए आप ब्लॉगर जगत में, शुभकामनाओं के साथ स्वागत है आपका!

जगत चन्द्र पटराकर 'महारथी' said...

बहुत अच्छा लिखते हैं आप नीरज साहब, कहां छिपे बैठे थे? ब्लागवाणी पर तो आप आज पहली बार दिखे!

आपकी ज़ुबान में वकई गुड़ की मिठास तो है ही.

Mohinder56 said...

नीरज जी,

बहुत सुन्दर लिखा है, घहन अर्थ है इन पंक्तियों में

जब चढ़ा, साथ में ज़माना था
अब अकेला, बड़ा ढलान में है
हम को बस हौसला परखना था
तू चला तीर जो कमान में है


लूटा उसने ही सारी फसलों को
हमने समझा जिसे मचान में है


बोल कर सच हुए हैं शर्मिंदा
क्या करें मर्ज़ खानदान में है

बधाई

Pankaj Oudhia said...

यही तो फायदा है इंटरनेट पर आने का। बहुत अच्छी रचना। यकीन मानिये अब जग आपको हाथो-हाथ लेगा। बधाई।

ALOK PURANIK said...

नीरजजी
बढि़या कहा है जी-
लूटा उसने ही सारी फसलों को
हमने समझा जिसे मचान में है


बोल कर सच हुए हैं शर्मिंदा
क्या करें मर्ज़ खानदान में है
ब्लागिंग की दुनिया में स्वागत है, पर कुछ हमरी भी सुनिये -
अच्छा हुआ कि शुरु कर दी आपने ब्लागिंग
समझिये कि अब कदरदानों की खदान में हैं

पर ये भी समझ लीजै ब्लागिंग के माने
बोले तो हर समय जान अपलोडिंग लदान में है

Gyan Dutt Pandey said...

पहले मैं आपकी सरल शब्दों की बहुत ही प्यारी कविता/गज़ल पर टिप्पणी करने वाला था. पर तबतक यह पुराणिक जी डराते दीख गये. आप हास्य-व्यंगकार को ज्यादा सीरियसली न लीजियेगा!
ये खुद ही कहते हैं कि अपने आप को सीरियसली नहीं लेते. :)
मैं "दर्द हिदुस्तानी" से इत्तेफाक-राय रखता हूं.

Shiv said...

आप आए तो सज गई महफ़िल
पाँव मेरे अब आसमान में हैं

सोचकर खुश हुआ मैं जाता हूँ
कुछ असर मेरी भी जुबान में है

नीरज भैया,

बहुत खुशी हुई आपका ब्लॉग देखकर. आपकी रचनायें पढते हुए दिन गुजरेगा अब. शुक्रिया मेरी बात रखकर अपनी गजलें प्रस्तुत करने के लिए.

शिव

Udan Tashtari said...

बहुत सहज, सरल और गहरी महफिल सजाई है, जनाब.

तभी तो हम ज्ञान जी की बताये रास्ते पर आँख बंद किये चले आते हैं. देखिये, क्या सही जगह भेजा है. एकाध बार शायद हमारा रास्ता भी वो लोगों को बतायें. :)

स्वागत है, जारी रहें.

Manish Kumar said...

बधाई इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए !

ePandit said...

हिन्दी चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है नीरज जी। उम्मीद है नियमित लेखन जारी रहेगा।

haidabadi said...

नीरज गोस्वामी के नाम मेरा यह कलाम

किसी का चाँद सा चेहरा मेरे धयान में है
के जिसके जिस्म की खुशबु मेरे मकान में है


मैं जिसकी याद में खोया हुआ सा रहता हूँ
उसी का नाम ही हर दम मेरी ज़ुबान में है


में जिसकी याद में ख़ुद को भुलाये बैठा हूँ
उसी का ज़िक्र ही अब मेरी दास्तान में है

जो बात गीता में अन्जील और कुरान में है
उसी तरह की सदाकत तेरी मुस्कान में है

चाँद शुक्ला हदियाबादी डेनमार्क

neeraj1950 said...

तेरे आने से " चाँद " लगता है
अब मेरा ब्लॉग भी उठान मैं है

Priyankar said...

"जब चढ़ा साथ तब ज़माना था
अब अकेला खडा ढलान में है

बोल कर सच हुए हैं शर्मिंदा
क्या करें मर्ज़ खानदान में है।"

इस आभासी दुनिया में आपका स्वागत है . इन बेहतरीन गज़लों से आप जल्दी ही अनेक पाठक-मित्र पाएंगे .

Yashwant R. B. Mathur said...

जिसको बाहर है खोजता फिरता
वो ही हीरा तेरी खदान में है

बिलकुल सही बात कही है सर इन पंक्तियों में.

सादर

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

वो ना महलों की ऊंची शान में है
जो सुकूं गांव के मकान में है
जब चढ़ा साथ तब ज़माना था
अब अकेला खडा ढलान में है
जिंदगी की हकीकत को खूबसूरती से ग़ज़ल में ढाला है.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

बेहद सुकून देने वाली
मनोहारी, भोली-सी रचना।

बधाई नीरज भाई.

डॉ.चन्द्रकुमार जैन