Monday, March 30, 2009

आईज ओनली सा


इस उधेड़बुन में की आज क्या पोस्ट किया जाए मुझे गुरुदेव पंकज सुबीर जी की बात याद आ गयी...अभी कुछ दिनों पहले ही उन्होंने कहा था की नीरज जी आप मुम्बईया भाषा में ग़ज़ल लिखने जैसे और प्रयोग क्यूँ नहीं करते...बहुत पहले जब मैंने मुंबई की चालू ज़बान में ग़ज़ल कही तो उन्होंने मेरे इस प्रयोग की बहुत प्रशंशा की थी...मेरे दिमाग की प्रयोगशाला में अभी इस पर काम हो रहा है...इसका फल क्या निकलेगा ये तो मैं नहीं जानता अलबत्ता मेरी एक बहुत अच्छी परिचित मोना हैदराबादी की अंग्रेजी भाषा में लिखी ग़ज़ल पढ़वाता हूँ. आप देखें की कैसे उन्होंने अंग्रेजी के शब्दों में भी रदीफ़ और काफिये का निर्वाह किया है.
हैदराबाद निवासी, मोना जी रीजर्व बैंक आफ इंडिया की रिटायर्ड अधिकारी हैं और ग़ज़ल के स्तंभ श्री आर.पी.शर्मा 'महेश्वरी' जी की प्रिय शिष्या हैं, दक्षिण भारतीय होने के बावजूद उर्दू में बहुत अच्छी ग़ज़लें कहती हैं. अब उनका ये प्रयोग जायज है या नाजायद ये निर्णय पाठकों पर छोड़ते हुए मैं उसे ज्यूँ की त्यूँ पेश कर रहा हूँ...

love got rejected
life felt dejected

joy flowed until
pain interjected

mind rationalized
but heart objected

eyes only saw
what heart projected

present liberated
what past subjected

kiss turned savoury
when tears injected

Monday, March 23, 2009

किताबों की दुनिया - 7


खोला करो आँखों के दरीचों को संभल कर
इनसे भी कभी लोग उतर जाते हैं दिल में

मित्रों जब भी आप किसी प्रतिष्ठित लेखक या शायर की किताब खरीदते हैं तो उसमें प्रस्तुत सामग्री की गुणवत्ता से आपकी अपेक्षाएं शत प्रतिशत होती हैं, चलिए शत प्रतिशत ना भी सही अस्सी प्रतिशत तो होती ही हैं, ये बात किसी ऐसे लेखक या शायर पर लागू नहीं होती जो अधिक प्रसिद्द न हो या आपने जिसे कभी न पढ़ा हो. इसके फायदे और नुक्सान दोनों ही होते हैं. मेरे ख्याल से फायदे अधिक होते हैं और नुक्सान कम, क्यूँ की प्रसिद्द लेखक की पुस्तक अगर गुणवत्ता पर खरी न उतरे तो आपको निराशा होती है,लेकिन अनजान लेखक की किताब ख़राब गुणवत्ता वाली भी हो तो आप अधिक परेशान नहीं होते और अगर वो किताब आपकी अपेक्षाओं से भी अधिक गुणवत्ता की हो तो जो ख़ुशी मिलती है उसे वो ही समझ सकता है जिसने ये अनुभव किया हो.

मुझे जनाब "सादिक" साहेब की किताब "सिर पर खडा शनि है" पढ़ कर जो ख़ुशी हुई उसे ही मैं आपके साथ आज बांटना चाहता हूँ. उज्जैन मध्य प्रदेश में जन्में "सादिक" साहेब दिल्ली विश्व विद्यालय के उर्दू विभाग में प्रोफेसर हैं. आप की शायरी की बहुत सी किताबें हिंदी और उर्दू में छप चुकी हैं.


"सादिक" साहेब की शायरी आम इंसान के समझ में आने वाली है. निहायद सादा जबान में वो कमाल के शेर कह देते हैं. जैसे जैसे आप इस किताब के वर्क पलटते हैं वैसे वैसे आपको उनकी शायरी के अलग अलग रंग दिखाई देने लगते हैं.

मेरे वजूद के कोई मानी नहीं रहे
पैना-सा एक तीर हूँ टूटी कमान का

आकाश कोसने से कोई फायदा नहीं
बेहतर है नुक्स देख लूं अपनी उडान का

जब से हुआ है राज पिशाचों का शहर पे
जंगल में हमको खौफ़ नहीं अपनी जान का

एक और खूबी जो मुझे नज़र आयी "सादिक" साहेब की शायरी में वो हिंदी के शब्दों का बड़ी खूबसूरती से अपने शेरों में इस्तेमाल करते हैं, मजे की बात ये है की हिंदी के ये शब्द कभी भी, कहीं भी भरती के नहीं लगते बल्कि बड़े सहज ढंग से आते हैं:

उसके तकिये पर कढा सुन्दर सुमन
आंसुओं से हो गया गीला, तो फिर

हम तो सच-सच मुंह पे कह देंगे मगर
रंग उसका पड़ गया पीला, तो फिर

देख सुन्दरता अभी तो मुग्ध हो
सांप वो निकला जो ज़हरीला, तो फिर

हम तो अपने पर रखें संयम मगर
आके दिखलाये मदन लीला, तो फिर


ग़ज़लों में नए प्रयोग आज कल सभी करने लगे हैं, रिवायती ग़ज़लें अब कल की बातें हो गयीं हैं. ज़िन्दगी को बारीकी से देखने का हुनर ग़ज़लों में आ गया है. "सादिक" साहेब की एक ग़ज़ल के ज़रा ये शेर पढें :

तेरा वजूद तो निर्भर हवा पे है नादाँ
जो फूला फिरता है इक बार फट के देख ज़रा

यूँ बैठे-बैठे तो खुलते नहीं किसी के गुण
ये तेग खींच के,मैदां में डट के देख ज़रा

लगाना चाहे जो अंदाजा अपनी कीमत का
तो अपने पद से तू इक बार हट के देख ज़रा

"डालफिन बुक्स", 4855-56/24 ,हरबंस स्ट्रीट ,अंसारी रोड ,दरिया गंज, दिल्ली से प्रकाशित एक सौ बारह पृष्ठ की, सौ रुपये मूल्य की ये किताब चार भागों में विभक्त है :1..मेरे हाथ में कलम था,2. डूबते ज़जीरों में, 3..सच्चाईयों के कहर में, और 4. शिकस्त मुझको गवारा नहीं. चारों भागों को पढने का अपना अलग आनंद है, इस आनंद को उठाने के लिए ज़रूरी है की आप खुद इस किताब को पूरा पढें जो यहाँ मेरे ब्लॉग पर संभव नहीं है.

किताब की जानकारी मैंने आपको देकर अपना फ़र्ज़ पूरा किया है, अब आप इसे खरीद कर अपना फ़र्ज़ निभाएं.( वैसे आज के दौर में फ़र्ज़ अदायगी नहीं होती सिर्फ फ़र्ज़ की रस्म अदायगी ही होती है). चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के कुछ शेर पढ़ते जाईये:

शरण हरेक को मिलती थी जिसके होने में
कराहता है पड़ा घर के एक कोने में

वो जिसको पाने में जीवन तमाम खर्च किया
लगा बस एक ही क्षण उसको हमसे खोने में

हमारे दुःख को वो महसूस किस तरह करता
मज़े जो लेता रहा सूईयाँ चुभोने में

ज़मीन सख्त है, मौसम भी साज़गार नहीं
यहीं तो लुत्फ़ है ख्वाबों के बीज बोने में.

आप ख्वाबों के बीज बोकर फसल उगने का इंतज़ार कीजिये ,हम निकलते हैं एक और नायाब किताब ढूढने और मिलते हैं ब्रेक के बाद....तब तक मेरी ही कोई अगली पिछली पोस्ट पढ़ते रहिये न .

चलते चलते अपने आप को उनका ये शेर पढ़वाने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ...अब पढ़ भी लीजिये न प्लीज़ ऐसी भी क्या जल्दी है.....:))

उस मुख पे देखने के लिए जीत की ख़ुशी
हम खुद तमाम बाजियां हारे चले गए

Monday, March 16, 2009

सोच को अपनी बदल कर देख तू




गीत तेरे, जब से हम गाने लगे
भीड़ में, सबको नज़र आने लगे

सोच को अपनी बदल कर देख तू
मन तेरा गर यार, मुरझाने लगे

बिन तुम्हारे खैरियत की बात भी
पूछते जब लोग, तो ताने लगे

वो मेहरबां है, तभी करना यकीं
जब बिना मांगे ही, सब पाने लगे

प्यार अपनों ने किया कुछ इस तरह
अब मिरे दुश्मन, मुझे भाने लगे

सच बयानी की गुजारिश जब हुई
चीखते सब लोग, हकलाने लगे

खार तेरे पाँव में 'नीरज' चुभे
नीर मेरे नैन, बरसाने लगे

Thursday, March 12, 2009

मुझे ससुराल वाले याद आते हैं

ब्लॉग जगत के अब तक के आयोजित श्रेष्ठ मुशायरों में से एक मुशायरा होली के अवसर पर पंकज सुबीर जी ने अपने ब्लॉग पर आयोजित किया, जिसमें देश विदेश के कई नए पुराने शायरों ने शिरकत की और समां बांध दिया. उस मुशायरे की रूप रेखा और संयोजन पंकज जी ने इतनी मेहनत और खूबसूरती से किया की पाठक तालियाँ बजाते बजाते वाह वाह कर उठे. उसी मुशायरे में इस खाकसार को भी अपनी ग़ज़ल पेश का न्योता मिला था.

खालिस होलियाना मूड में लिखी उसी ग़ज़ल को जिसे आप शायद पंकज जी के ब्लॉग पर पढ़ आये होंगे, आज मैं आप की प्रतिक्रिया जानने के लिए अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत कर रहा हूँ.



पंकज सुबीर जी की नज़र में -" मैं "



पिलायी भाँग होली में,वो प्याले याद आते हैं
गटर, पी कर गिरे जिनमें, निराले याद आते हैं

दुलत्ती मारते देखूं, गधों को जब ख़ुशी से मैं
निकम्मे सब मेरे कमबख्त, साले याद आते हैं

गले लगती हो जब खाकर, कभी आचार लहसुन का
तुम्हारे शहर के गंदे, वो नाले याद आते हैं

भगा लाया तिरे घर से, बनाने को तुझे बीवी
पढ़े थे अक्ल पर मेरी, वो ताले याद आते हैं

नमूने देखता हूँ जब अजायब घर में तो यारों
न जाने क्यूँ मुझे ससुराल वाले याद आते हैं

कभी तो पैंट फाड़ी और कभी सड़कों पे दौड़ाया
तिरी अम्‍मी ने जो कुत्‍ते, थे पाले याद आते हैं

सफेदी देख जब गोरी कहे अंकल मुझे 'नीरज'
जवानी के दिनों के बाल काले याद आते हैं


Monday, March 9, 2009

समझ लेना की होली है

सभी पाठकों को होली की शुभ कामनाओं के साथ पेश है होली पर ही एक ग़ज़ल जिसे तराशा है गुरु 'पंकज सुबीर' जी ने.




करें जब पाँव खुद नर्तन, समझ लेना की होली है
हिलोरें ले रहा हो मन, समझ लेना की होली है

इमारत इक पुरानी सी, रुके बरसों से पानी सी
लगे बीवी वही नूतन,समझ लेना की होली है

तरसती जिसके हों दीदार तक को आपकी आंखें
उसे छूने का आये क्षण, समझ लेना की होली है

हमारी ज़िन्दगी यूँ तो है इक काँटों भरा जंगल
अगर लगने लगे मधुबन, समझ लेना की होली है

कभी खोलो हुलस कर, आप अपने घर का दरवाजा
खड़े देहरी पे हों साजन, समझ लेना की होली है

बुलाये जब तुझे वो गीत गा कर ताल पर ढफ की
जिसे माना किये दुश्मन, समझ लेना की होली है

अगर महसूस हो तुमको, कभी जब सांस लो 'नीरज'
हवाओं में घुला चन्दन, समझ लेना की होली है



होली के अवसर पर हँसता हुआ नूरानी चेहरा....मेरा

Monday, March 2, 2009

शबनम सी रखिये ताजगी



तल्खियाँ दिल में न घोला कीजिए
गाँठ लग जाए तो खोला कीजिये

आप में कोई बुराई हो न हो
आप ख़ुद को नित टटोला कीजिये

दिल जिसे सुन कर दुखे हर एक का
सच कभी ऐसा न बोला कीजिये

प्यारी -प्यारी सी लगेगी जिंदगी
आप अपने दिल को भोला कीजिये

सोच में शबनम सी रखिये ताजगी
जोश को भड़के जो शोला कीजिये

प्यार की दिल में बजे जब बांसुरी
मस्तियों में झूम डोला कीजिये

अश्क 'नीरज' जी बड़े अनमोल हैं
सिर्फ खुश होने पे ढोला कीजिये


( आदरणीय गुरुवर प्राण साहेब की रहनुमाई में लिखी ग़ज़ल )