देख लेंगे दुश्मनों की दोस्ती
दोस्तों की दुश्मनी तो आम है
जिस ने राहत की तमन्ना छोड़ दी
बस उसे आराम ही आराम है
राहत: सुख
*
इस क़दर दिलकश कहां होती है फ़रज़ाने की बात
बात में करती है पैदा बात दीवाने की बात
फ़रज़ाने :बुद्धिमान
बात जब तय हो चुकी तो बात का मतलब ही क्या
बात में फिर बात करना है मुकर जाने की बात
बात पहले ही न बन पाये तो वो बात और है
सख़्त हसरत नाक है बन कर बिगड़ जाने की बात
*
मैंने जिस वक्त किनारों की तमन्ना छोड़ी
खुद ब खुद लेने चले आए किनारे मुझको
सोचता हूं तो सहारों का सहारा मैं हूं
फिर कहांँ देंगे सहारा ये सहारे मुझको
*
इश्क में जब हमको जीना आ गया
मौत को दांतों पसीना आ गया
लब पे नाले है न आंसू आंख में
मुझको जीने का क़रीना आ गया
*
तेग़े-अबरू, तेग़े-चीं, तेग़े-नज़र, तेग़े अदा
कितनी तलवारों का पहरा रख लिया मेरे लिए
तेग़े-अबरू: भौं रुपी तलवार, तेग़े-चीं: माथे की शिकन रूपी तलवार
हमारे आज के शायर के बारे में हिंदी के मूर्धन्य कवि स्वर्गीय श्री रमानाथ अवस्थी साहब के गीत का ये मुखड़ा मुझे सबसे सटीक लगता है :-
भीड़ में भी रहता हूँ वीरान के सहारे
जैसे कोई मंदिर किसी गाँव के किनारे
क़स्बा श्री हरगोविन्दपुर,तहसील बटाला,जिला गुरदासपुर,पंजाब का एक गाँव जिसके बाहर सुनसान इलाक़े में एक शिव मंदिर बना हुआ है। चारों और पेड़ और हरियाली से घिरे इस मंदिर में कभी कबार ही कोई भक्त आता है वर्ना ये वीरान ही रहता है। वीरानी का ये आलम था कि सुबह होने से पहले ही जंगली मोर इस मंदिर की मुंडेरों पर बैठ कर शोर मचाते हैं और इसके के प्रांगण में पंख फैला कर दिन भर नाचते हैं। गिलहरियां हर वक़्त पेड़ो से जमीन और फिर मंदिर की छत, दीवारों पर उधम मचाती दौड़ती फिरती हैं। मंदिर से थोड़ी ही दूर व्यास नदी कलकल बहती है। रात के सन्नाटे में उसकी लहरों से उठने वाला संगीत सुनाई देता है। इस मंदिर में रहने वाला जो एकमात्र इंसान है कायदे से उसे कोई महात्मा या साधू या जोगी या पुजारी होना चाहिए लेकिन वो एक शायर है।
अभी सुबह के 4:00 भी नहीं बजे हैं। एक इकहरे बदन का बुज़ुर्ग, मंदिर से पगडण्डी पर चलते हुए चारों और फैली बेलों और झाड़ियों से बचता हुआ, व्यास नदी के ठंडे पानी में गोते लगाता है। बाहर आ कर हल्के बादामी रंग का कुर्ता और सफेद धोती पहनता है, सर पर सफेद रंग की पगड़ी पहनता है, आँख पर मोटे फ्रेम का चश्मा लगाता है, कन्धों पर सफेद गमछा डालता है और गले में रुद्राक्ष की माला पहनता है | मंदिर आ कर शिव लिंग के समक्ष हाथ जोड़ कर बैठता है ,आँखें बंद करता है और ध्यान मग्न हो जाता है।ये उसका रोज का काम है।
तअज्जुब है तसव्वुर तो तेरा करता हूं ऐ हमदम
मगर फिरती है मेरी अपनी ही तस्वीर आंखों मे
*
का'बे में भटकता है कोई दैर में कोई
धोखे में हैं दोनों ही, ख़ुदा और ही कुछ है
*
हस्ती-ओ-मर्ग में कुछ फ़र्क न देखा हम ने
अपने ही घर से चला अपने ही घर तक पहुंचा
हस्ती-ओ-मर्ग: जीवन और मृत्यु
कितना दुश्वार है मंजिल पे पहुंचना या रब
मिटने वाला ही मुसाफ़िर तेरे दर तक पहुंचा
*
ये खु़द अंधेरे में जा रहे हैं चिराग़े-ईमां जलाने वाले
जनाबे-वाइज़ के दिल को देखो तो हर तरफ़ तीरगी मिलेगी
*
जब तुझ को मेरे सामने आने से आर है
किस हौसले पे तुझको ख़ुदा मानता रहूं
आर: लाज
इक तू कि मेरे दिल ही में छुपकर पड़ा रहे
इक मैं कि हर चहार तरफ ढूंढता रहूं
*
ये भी क्या उल्फ़त भी हो नफ़रत भी हो
क्या हमारे दिल में है दिल एक और
इश्क में मरने में क्या दिलचस्प है
ज़िंदगी होती है हासिल एक और
*
नाकामियां तो शौक़े शहादत की देखना
ख़ंजर ब-कफ़ वो सामने आकर चले गए
ख़ंजर ब-कफ़ :हाथ में खंजर लिए हुए
हम जिस बुजुर्ग की बात कर रहे हैं उनका जन्म पंजाब के गुरदासपुर जिले की बटाला तहसील के छोटे से गाँव पंडोरी में 7 जुलाई 1907 को एक ग़रीब ब्राह्मण पंडित मथुरादास भारद्वाज खट शास्त्री के यहाँ हुआ। फ़रवरी 1922 में उन्होंने फ़ारसी मिडल अप्रेल 1925 में नार्मल की परीक्षा पास की। मात्र 18 वर्ष की उम्र में वो बोलेवाल गाँव के एक प्राइमरी स्कूल में सहायक अध्यापक की हैसियत से बच्चों को पढ़ाने लगे। गाँव में कोई लाइब्रेरी नहीं थी सबसे नज़दीक की लाइब्रेरी पचास मील दूर थी और वहाँ पहुँचने के बहुत से साधन भी नहीं थे। अपनी इल्म-ओ-फ़न की प्यास बुझाने वो पैदल सफ़र करते हुए लाइब्रेरी जाते अपनी पसंद की किताब लाते गाँव आ कर उसकी नक़ल एक रजिस्टर में उतारते और उसे वापस लौटा कर दूसरी क़िताब लाते। ऐसा जनून अब बहुत कम देखने को मिलता है। मोबाइल पर गूगल ने अब सब कुछ सहजता से घर बैठे ऊँगली की एक क्लिक पर उपलब्ब्ध करवा दिया है। जब कोई चीज़ सहजता से उपलब्ध हो तो उसे पाने की प्यास भी कम हो जाती है।
किताबों की तलाश के शौक़ ने उन्हें लाहौर के ओरियंटल कॉलेज के प्रोफ़ेसर 'शादाँ बिलगीरामि' तक पहुँचाया वो प्रोफ़ेसर बीरभान कालिया संपर्क में भी आये। इन दो रहनुमाओं की ने मेहरबानी की वजह से ये 'मुंशी फ़ाज़िल' और सं 1936 में 'अदीब फ़ाज़िल' की परीक्षाएं भी पास कर लीं और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड हाई स्कूल श्री हरगोविन्दपुर तहसील बटाला में फ़ारसी पढ़ाने लगे। ज़िन्दगी एक पटरी पर चलने लगी। इसी स्कूल से पचपन वर्ष की उम्र में आप रिटायर हुए।
दम भर में बुलबुले का घरौंदा बिगड़ गया
कहता था किस हवा में कि फ़ानी नहीं हूं मैं
मंजिल पे जा के ग़ौर से देखा तो ये खुला
पहले था जिस मक़ाम पर अब तक वहीं हूं मैं
*
अगर ये जानते हम भी उन्हीं की सूरत हैं
कमाल शौक़ से अपनी ही जुस्तजू करते
*
अपने ही घर में मिला ढूंढ रहे थे जिस को
उस को पाने के लिए खुद ही को पाये कोई
ज़िंदगी क्या है फक़त मौत का जामे- रंगीं
हस्त होना है तो हस्ती को मिटाये कोई
*
भूल जाओ खुद को उनकी याद में
उनसे मिलने की यही तदबीर है
सर को सज्दों से भला फुर्सत कहां
ज़र्रा ज़र्रा हुस्न की तस्वीर है
*
रौंद जाता है हर कोई मुझ को
नक्शे-पा है कि मेरी हस्ती है
ख़ाकसारी की शान क्या कहिए
किस क़दर औज पर ये बस्ती है
औज: ऊंचाई
*
इंसां बना के अशरफ-ए-आलम बना दिया
इस पर भी ये हरीस बशर मुतमइन नहीं
अशरफ-ए-आलम: सब जीवों से उत्तम, हरीस: लालची
आप सोच रहे होंगे कि जिसका ज़िक्र हो रहा है आखिर वो शख़्स है कौन ? तो साहब जिनका ज़िक्र हो रहा है उनका नाम था जनाब 'रतन पंडोरवी' जिनका शुमार उर्दू के बड़े उस्तादों में होता है। 'रतन' साहब को फ़ारसी पढ़ते पढ़ते शायरी से इश्क़ हो गया और वो महज़ चौदह पंद्रह की उम्र से शेर कहने लगे। उन दिनों शिक्षा के पाठ्यक्रम की किताबों में जनाब उफुक़ लखनवी का क़लाम शामिल हुआ करता था। फ़ारसी पढ़ते हुए रतन साहब को उफ़ुक़ साहब का कलाम रट सा गया , वो सुबह शाम उसे ही गुनगुनाते और उनकी तरह ही शेर कहने की कोशिश करते। उनका पहला शेर कुछ यूँ हुआ :
ऐ बशर किस हस्ती-ए-बातिल पे तुझको नाज़ है
है अदम अंजाम इसका और फ़ना आग़ाज़ है
बातिल: व्यर्थ ,मिथ्या , अदम: परलोक , फ़ना: मिटना
स्कूल की नौकरी के दौरान उर्दू शायर जनाब 'जोश मल्सियानी' मशवरे पर 'रतन पंडोरवी' जी ने जनाब 'दिल शाहजहांपुरी' की शागिर्दगी इख़्तियार कर ली।रतन साहब की शायरी में सूफ़ी रंग है वो जनाब 'दिल शाहजहांपुरी' की देन है। दिल साहब जब बीमारी की वज़ह से रतन साहब के साथ ज्यादा नहीं रह पाए तो उनके जाने के बाद वो 'जोश मल्सियानी' साहब के शागिर्द हो गए बरसों इस्लाह लेते रहे।
'रतन पंडोरवी' साहब ने लगभग दो दर्ज़न किताबें लिखीं जिनमें 14 किताबें नस्र की और 9 किताबें शायरी की हैं जिनमें ग़ज़लें नज़्में रुबाइयाँ आदि शामिल हैं। हमारे सामने जो आज किताब है उसमें उनकी चुनिंदा ग़ज़लों को उनके अज़ीज़ और बेहद मशहूर शागिर्द शायर जनाब 'राजेंद्र नाथ 'रहबर' साहब ने 'हुस्ने-नज़र' नाम से संकलित किया है। ये किताब दर्पण पब्लिकेशन पठानकोट से सन 2009 में शाया हो कर बहुत मक़बूल हुई थी।
ये पूरी किताब अब इंटरनेट पर 'कविताकोश' की साइट पर पढ़ी जा सकती है।
किस-किस का दीन उसकी शरारत से लुट गया
मुझसे न पूछ अपनी ही क़ाफ़िर नज़र से पूछ
ढल जायेंगी ये हुस्न की उठती जवानियां
ये राज़े-इंकलाब तू शम्स-ओ-क़मर से पूछ
शम्स-ओ-क़मर :सूरज और चांद
*
तय हुआ यूं मोहब्बत का रस्ता
कुछ इधर से हुआ कुछ उधर से
ज़िंदगी क्या है चलना सफ़र में
मौत क्या है पलटना सफ़र से
*
मेरा जीना भी कोई जीना है
जिसने चाहा मिटा के देख लिया
मुतमइन ऐ 'रतन' जबीं न हुई
हर जगह सर झुका के देख लिया
*
बात चुप रह के भी नहीं बनती
बात करते हुए भी डरता हूं
मार डाला है मुझ को जीने ने
ऐसे जीने पे फिर भी मरता हूं
*
ज़िंदगी मौत की आग़ोश में हंसती ही रही
जीने वालों को ये नैरंग दिखाया हमने
नैरंग :जादू
बर्क़ का ख़ौफ़ न आंधी का रहा अब खटका
अपने हाथों से नशेमन को जलाया हमने
स्कूल में नौकरी के दौरान अपने पहले उस्ताद जनाब 'दिल शाहजहांपुरी' और उनके बाद जनाब 'जोश मल्सियानी' साहब की शागिर्दगी से 'रतन' साहब की शायरी में निरंतर सुधार आता गया और अदबी हलकों में उनके चर्चे होने लगे। वक़्त साथ उनकी शोहरत बटाला से निकल कर पूरे पंजाब में फैली और फिर पंजाब के बाहर देश के उन गली कूचों में भी फ़ैल गयी जहाँ उर्दू शायरी पढ़ी और पसंद की जाती है, यहाँ तक की पड़ौसी मुल्क़ में भी उनके चाहने वालों की तादात अच्छी खासी हो गयी। युवा शायर उनसे इस्लाह लिया करते ,होते होते उनके करीब तीन दर्ज़न शाग़िर्द ऐसे हुए जिन्होंने उनका नाम रौशन किया। उनमें से एक जनाब 'राजेंद्र नाथ 'रहबर' साहब हैं जिनकी एक नज़्म 'तेरे ख़ुश्बू से भरे ख़त मैं जलाता कैसे' जगजीत सिंह साहब ने गा कर पूरी दुनिया में मक़बूल कर दी।
शायरी के अलावा 'रतन पंडोरवी' साहब को ज्योतिष में महारत हासिल थी। उनकी भविष्य वाणियाँ शत प्रतिशत सच साबित होतीं। देश के दूर-दराज़ हिस्सों से लोग उनके पास अपना भविष्य जानने आया करते थे। लोगों के पूछे प्रश्नों का वो एक दम सटीक उत्तर देते। रतन साहब की शायरी और ज्योतिष विद्या ने एक योगी की सिद्धि का दर्ज़ा इख़्तियार कर लिया था। वो तन्हा पसंद इंसान थे इसलिए उन्होंने स्कूल की नौकरी के बाद व्यास नदी के किनारे बने एक पुराने खंडहर से सुनसान वीरान मंदिर को अपने रहने और साधना का ठिकाना बनाया। मंदिर की साफ़ सफाई और उसके पास बनाये एक छोटे से बाग़ की देखभाल उनके नित्यकर्म का हिस्सा थी। उनके शागिर्द उसी मंदिर में उनके पास इस्लाह के लिए आते। उन्होंने किसी से कभी कुछ नहीं माँगा और फकीरों सी सादगी से ज़िन्दगी जी। हमेशा उन्होंने पूरे दिन में सिर्फ एक बार ही खाना खाया। उनके भतीजे श्री निशिकांत भारद्वाज ने उनसे ज्योतिष विद्या सीखी वो अब 'चामुंडा स्वामी' के नाम से मशहूर हैं।
अज़ीज़ तर है हमें किस क़दर वतन की हवा
क़फ़स में जिंदा रहे शाख़े-आशियां के लिए
*
रोते रोते सो गई हर शम्अ परवानों के साथ
होते होते हो गई आखिर सहर फुर्क़त की रात
फुर्क़त की रात: विरह की रात
हर तरफ़ तारीकियां, खामोशियां, तन्हाइयां
हू का आलम बन गया है घर का घर फुर्क़त की रात
*
दोनों ने थाम रक्खी है क़िस्मत की बागडोर
कुछ आदमी के हाथ है कुछ है खुदा के हाथ
तेरी निगाहों में है मेरे दिल की आरज़ू
फिर तुझसे मांगता फिरुं मैं क्या उठा के हाथ
*
यह कौन सा मक़ाम है ऐ जोशे बे-खु़दी
रस्ता बता रहा हूं हर इक रहनुमा को मैं
क्यों उसकी जुस्तजू का हो सौदा मुझे 'रतन'
मुझ से अगर जुदा हो तो ढूंढू खुदा को मैं
सौदा: पागलपन
*
उलझते हैं भला शैख़-ओ-बरहमन किसलिए
हरम हो दैर हो दोनों में है तस्वीर पत्थर की
*
रंज, ग़म, हसरत, तमन्ना, दर्द, गिर्या फ़र्तै यास
मेरे दिल ने परवरिश की है बराबर सात की
देखिए मैदान किसके हाथ रहता है 'रतन'
चश्मे-गिरिया के मुकाबिल है घटा बरसात की
चश्मे गिरिया: रोती हुई आंख
*
जोगी शायर के नाम से मशहूर रतन साहब बेहद विनम्र स्वभाव के इंसान थे। एक बार जो उनसे मिलता बस उन्हीं का हो कर रह जाता। वो बड़े धार्मिक विचारों के थे। नियम से योग और शिव की आराधना करते। रहबर साहब लिखते हैं कि 'रतन साहब ने अपने इष्टदेव को सामने रख कर राज़ो-नियाज़ की बातें कीं और मज़ाज से हक़ीक़त को नुमायां करने की कोशिश की।'
उनकी किताबों पर बिहार उर्दू अकादमी, बंगाल उर्दू अकादमी और उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने एवार्ड दिए। भाषा विभाग पंजाब की तरफ़ से उन्हें 'शिरोमणि साहित्यकार' का ख़िताब, नक़दी, शॉल और प्रमाणपत्र भेंट किये गए। चंडीगढ़ की 'कला दर्पण' संस्था द्व्रारा 18 मई 1980 को टैगोर थियेटर में 'जश्न-ऐ-रतन पंडोरवी' मनाया गया। 19 मई 1981 को शाहजहांपुर में एक बहुत बड़ा जलसा हुआ जिसमें 'दिल शाहजहांपुरी' के बेटे शब्बीर हसन ने उन्हें दिल शाहजहांपुरी का जा-नशीन (उत्तराधिकारी) मुकर्रर किया।
रतन साहब 16 दिसंबर 1989 को पंडोरी को हमेशा हमेशा के लिए ख़ैरबाद कह कर पठानकोट जा कर बस गए और 4 नवम्बर 1990 को इस दुनिया-ऐ-फ़ानी को अलविदा कह गए। अफ़सोस ,गायत्री मंत्र और भगवत गीता का उर्दू नज़्म में अनुवाद करने वाले इस अपनी तरह के अकेले शायर को याद करने वाले अब बहुत कम लोग बचे हैं। इस किताब को मंज़र-ऐ-आम पर लाने के लिए आप रहबर साहब को 9417067191 पर फोन कर मुबारकबाद दे सकते हैं।
जब अपनी ज़िंदगी तुम हो फिर उसक मुद्दआ तुम हो
तो इसमें हर्ज ही क्या है अगर कह दे खुदा तुम हो
न होता आशियां तो बिजलियां पैदा ही क्यों होतीं
सुनो ऐ चार तिनको अस्ल में बर्के-बला तुम हो
*
इतनी कहां मजाल कि बेपर्दा देखते
तेरे निशान हम को मिले हैं कहीं-कहीं
ऐ शैख़ मयकदे की मज़म्मत फुज़ूल है
मिलती है क्या बहिश्त में ऐसी जमीं कहीं
*
इस तरफ आग कि सीने में भड़क उठ्ठी है
उस तरफ हुक्म कि हरगिज़ न मिलेगा पानी
15 comments:
बहुत शानदार समीक्षा। महान शायर को शत शत नमन।
किताबों की दुनिया 255 हुस्ने नज़र -पंडित रत्न पंडोरवी साहिब
आज अदब की दुनिया में नीरज गोस्वामी जी का नाम बड़े इज़्ज़त ओ एहतराम के साथ लिया जाता है एक बाकमाल इंसान, एक बेहतरीन शायर और थिएटर की दुनिया का लाजवाब चेहरा जो बामुकाम गुलाबी नगरी जयपुर में रिहाश पज़ीर है।
एक बेहतरीन ब्लाग,तुझ को रखे राम तुझको अल्लाह रखे के रुहेरवां । तमाम बड़े शायर/शाहिरा को लोगों के साथ शनासाई करवाना नीरज गोस्वामी जी का एक शग़ल है
शत शत नमन है इस अज़ीम शख़्शियत को।
आज की किताब के ज़िक्र मैं जब मेरी मिट्टी की ख़ुशबू आई तो रत्न पंडोरवी साहिब की तस्वीर मेरी आंखों का आईना बन गई। बटाला का ज़िक्र, दरिया ए ब्यास का ज़िक्र और पठानकोट का ज़िक्र ये वही सरजमीं है जिसमें बड़े नामों की फेहरिस्त में आज से लगभग सत्तर कहत्तर साल पहले प्रभु ने एक नाम जोड़ा,जिसे लोग नीरज गोस्वामी के नाम से जानते हैं, नीरज गोस्वामी जी मैं बहाव में बह गया और किताब ज़हनी तसव्वुर से ख़ारिज हो गई।
अब आते है आज के फनकार की और मोहतरम आली जनाब रत्न पंडोरवी साहिब। रत्न पंडोरवी साहिब एक बहुत बडे नजूमी (ज्योतिषी)थे और एक साधक।दिल शाहजहांपुरी के शागिर्द। खूब शायरी की और बहुत से शागिर्द नामो -दाद किये उन सब में सरे फहरिस्त आली जनाब राजेन्द्र नाथ रहबर साहिब शिरोमणि उर्दू अबारडी पंजाब सरकार।ये रहबर साहिब का ही कमाल है कि उन्होंने अपने उस्ताद ए मोहतरम के अदबी काम को मंज़रे आम तक पहुंचाया है। और नीरज गोस्वामी जी ने तमाम दोस्तों तक आप दोनों को दिली मुबारकबाद। रत्न पंडोरवी साहिब के दो शेरों से अपनी बात ख़त्म करुंगा।
१ जब तुम को मेरे सामने आने से आर है
किस हौसले से तुझको ख़ुदा मानता रहूं।
२ तय हुआ यूं मुहब्बत का रस्ता
कुछ इधर से हुआ कुछ उधर से
लिखने को तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है मगर वक्त और क़ारी के मिज़ाज को मद्देनजर रखते हुए इतना ही काफी है।कहन में कोई ग़लती या कोताही जाने अंजाने हो गई हो तो ज़ेरे अदालत माफ़ी का तलबगार हूं।
आप का ख़ैर अंदेश
सागर सियालकोटी लुधियाना
मोबाइल :-98768-65957
ख़ूबसूरत अन्दाज़ बयां लिए ख़ूबसूरत आलेख बधाई नीरज जी बहुत बधाई आपके लिए शुभ कामनाएँ
मोनी गोपाल'तपिश`
धन्यवाद भाई साहब 🌷❤🌷
Waaaaah waaaaah kya kahney ... Neeraj Ji .... Hamesha ki tarah ek aur Shayar ka ta'aruf apne chir parichit andaaz men ...
ये खु़द अंधेरे में जा रहे हैं चिराग़े-ईमां जलाने वाले
जनाबे-वाइज़ के दिल को देखो तो हर तरफ़ तीरगी मिलेगी
Waaaaah ... Bahut khoob
She'r padhkar bahut pahle huye ek tarhi mushaire ki yaad aa gayee jis men 108 shayaron ne shirkat ki thee aur jise partly Urdu ke risale SHAYAR men 1950 ke aas paas chhapa tha ... Tarah thee ... "Inheen andheron se bazm e geetee ko ek din roshni milegi" ... Khaaksaar ne bhi koshish ki hai ... Raqeeb
shukriya satish bhai
ख़ूबसूरत समीक्षा
धन्यवाद ओंकार भाई
वाह !
वाह!!!!
लाजवाब समीक्षा।
धन्यवाद सुधा जी
धन्यवाद नूपुरं जी
अति सुन्दर...!
लाजवाब समीक्षा।
बहुत बढ़िया
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