जो भी कहूँगा सच कहूँगा
ये झूठ तो आम चल रहा है
हम तुम हैं जो चल रहे हैं तह में
दरिया का तो नाम चल रहा है
*
वो सामने था तो कम कम दिखाई देता था
चला गया तो बराबर दिखाई देने लगा
वो इस तरह से मुझे देखते हुए गुज़रा
मैं अपने आप को बेहतर दिखाई देने लगा
कुछ इतने ग़ौर से देखा चराग़ जलता हुआ
कि मैं चराग़ के अंदर दिखाई देने लगा
*
मंजिलें ऐसी जहांँ जाना तो है इस इश्क़ में
क़ाफ़िले ऐसे कि जिनके साथ जा सकते नहीं
*
ख़ाली दिल फिर ख़ाली दिल है ख़ाली घर की भी न पूछ
अच्छे ख़ासे लोग हैं और अच्छा ख़ासा शोर है
*
हम में बाग़ों की सी बेबाकी कहांँ से आ गई
यू महक उठना तुम्हारा और महकाना मेरा
अपनी अपनी ख़ामोशी में अपने अपने ख़्वाब में
मुझक दोहराना तुम्हारा तुमको दोहराना मेरा
*
घरों से हो के आते जाते थे हम अपने घर में
गली का पूछते क्या हो गली होती नहीं थी
तुम्हीं को हम बसर करते थे और दिन मापते थे
हमारा वक़्त अच्छा था घड़ी होती नहीं थी
*
अब जैसा भी अंजाम हो इस कूज़ागरी का
मिट्टी से मगर हाथ छुड़ाया नहीं जाता
कूज़ागरी: कुम्हार का काम
सोशल मिडिया का चारों और बोलबाला है। आपने कभी सोचा कि सोशल मिडिया किसका भला कर रहा है ? मेरे ख़याल से बहुत से ऐसे लोग,जो इस मुग़ालते में हैं कि दुनिया में उनके काम की वज़ह से उनके नाम का डंका बज रहा है, गुमनामी के अँधेरे में दफ़्न होते अगर सोशल मिडिया न होता। जिनके पास वाकई हुनर है कुछ नया करने को है वो सोशल मिडिया के मोहताज़ न कभी थे न कभी होंगे। लगता है बहुतों को मेरी ये बात नाग़वार गुज़रे क्यूंकि ये ज़रूरी नहीं कि मेरी हर बात से आप इत्तेफ़ाक़ रखें। तुलसीदास जी की रामायण , ग़ालिब की ग़ज़लें, सूरदास के दोहे , मीरा के भजन जैसे हज़ारों उदाहरण हैं जो जन जन तक पहुँचे तब, जब सोशल मिडिया तो दूर की बात है प्रिंट मिडिया भी नहीं था। इनकी लोकप्रियता के पीछे आम लोगों का योगदान रहा। एक ने दूसरे को दूसरे ने तीसरे को और तीसरे ने चौथे को इनके बारे में बताया। ये अलग बात है कि इनकी लोकप्रियता तुरंत नहीं फैली। उनके जीते जी उन्हें वो सम्मान या नाम नहीं मिला जो उन्हें उनके जाने बाद मिला। लेकिन जब मिला तो ऐसा मिला कि लोगों के दिलो-दिमाग़ पर अमिट हो गया। आप माने न माने लेकिन सोशल मिडिया की वजह से लोकप्रिय हुए लोग सोशल मिडिया से हटते ही भुला दिए जाते हैं। सोशल मिडिया आपको कुछ वक़्त तक ही लोकप्रियता की रौशनी में रख सकती है अगर हमेशा रौशन होने की चाह है तो आपको खुद दीपक की तरह जलना होगा। याद वो रहते हैं जो ओरिजिनल हैं . जिनके पास ऐसा कुछ नया है, अपना है जो दूसरों के पास नहीं है। हमारे आज के शायर उसी श्रेणी के हैं जिनकी सोच और कहन अनूठा और सबसे अलग है और जो लोकप्रिय होने के लिए सोशल मिडिया मोहताज़ नहीं हैं। ये पोस्ट न सोशल मिडिया के ख़िलाफ़ है और न उनके जो सोशल मिडिया पर छाये हुए हैं या छाने की कोशिश में लगे हुए हैं।
अश्क अंदर कभी देखा भी है पैदा होते
आ तुझे ले चलें इस मौज की गहराई में हम
*
दिन ढले सब कश्तियां ओझल हुई आंँखों से और
देखते रहने को दरिया की रवानी रह गई
हांँ क़बा-ए-जाँ बदलने से भी दिन बदले नहीं
हांँ नए कपड़ों में भी ख़ुशबू पुरानी रह गई
क़बा-ए-जाँ: ज़िंदगी का लिबास
*
अचानक मिस्रा-ए-जाँ से बरामद होने वाले
कहांँ होता था तू जब शाइरी होती नहीं थी
कहो तो गुफ़्तगू सुनवाऊँ तुमको उन दिनों की
हमारे दरमियांँ जब बात भी होती नहीं थी
*
अगर इस पार से आवाज़ें मेरे साथ न आएंँ
मुझे उस पार उतरने में सहूलत रहेगी
शजर-ए-जाँ से एक बार उड़ाने की है देर
इन परिंदों को कहां मेरी ज़रूरत रहेगी
*
यह मस्अला अभी दरिया से तय नहीं होगा
कहीं पे शाम किनारा कहीं किनारा दिन
गुज़र गया तेरी आंखों में शाम होते ही
गुज़ारे से जो गुज़रता न था हमारा दिन
हमारा कुछ भी नहीं दिल की धूप छांँव में
ये रात रात तुम्हारी ये दिन तुम्हारा दिन
अगर आप सोशल मिडिया पर बहुत एक्टिव हैं लेकिन हिंदी भाषी हैं और उर्दू लिख पढ़ नहीं सकते तो हो सकता है आपने हमारे आज के शायर का कलाम शायद ही पढ़ा या सुना हो। ये तो एक दिन मैं मुंबई के युवा और बेजोड़ शायर स्वप्निल तिवारी को दुबई के एक मुशायरे में अपना क़लाम पढ़ते हुए की विडिओ देख रहा था कि उसी विडिओ में मैंने पहली बार हमारे आज के शायर का नाम और क़लाम सुना। पता चला कि ये पाकिस्तानी शायर 'शाहीन अब्बास' साहब हैं। इंटरनेट पर खोजने से पता लगा कि इनकी ग़ज़लों की एक क़िताब रेख़्ता से प्रकाशित हुई है। उनकी किताब 'शाम के बाद कुछ नहीं' जो अभी मेरे सामने खुली हुई है तुरंत अमेजन से मँगवाई गयी। बार बार पढ़ी गयी। फिर उनके बारे में जानने की खोज शुरू हुई। इंटरनेट खंगाल डाला। उनके एक आध विडिओ जरूर यू ट्यूब पर मिले लेकिन उनके बारे में कहीं कोई लेख या उनका कोई इंटरव्यू नहीं मिला।
आखिर स्वप्निल को ये काम सौंपा। स्वप्निल उनके प्रशंशक हैं लिहाज़ा उन्होंने शाहीन साहब से संपर्क किया और उनके बारे में जो भी पता लगा सकते थे पता लगाया और मुझे भेजा। शाहीन साहब अपने बारे में बताने से संकोच करते हैं , लिहाज़ा उनकी प्राइवेसी का सम्मान करते हुए उनके बारे में जितना मुझे पता चला आपके साथ साझा कर रहा हूँ। थोड़े को बहुत समझें और उनकी लाजवाब शायरी का आनंद लें :
वो भी क्या दिन थे कि जिस जिस मौज पर पड़ता था पाँव
ख़ुद किनारे तक समंदर छोड़ने आता रहा
*
राख सच्ची थी तभी तो सर उठाकर चल पड़ी
शो'ला झूठा था दिलों के बीच बल खाता रहा
इश्क़ आखिर इश्क़ था जैसा भी था जितना भी था
सर ज़मीन-ए-दिल पे इक परचम तो लहराता रहा
*
बाग़-ए-दिल इस बार किस रफ़्तार से ख़ाली हुआ
फूल मेरे गुम हुए खुशबू तेरी गुम हो गई
दो किनारे ख़ामोशी के एक हम और एक तुम
दरमियांँ जिस जिस की भी आवाज़ थी गुम हो गई
*
चलना पड़ता है मोहब्बत की सी रफ़्तार के साथ
आप चल कर नहीं आ जाता ज़माना दिल का
*
था मगर ऐसा अकेला मैं कहांँ था पहले
मेरी तन्हाई मुकम्मल तेरे आने से हुई
अपने बारे में वो इक बात जो होती नहीं थी
तेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाने से हुई
*
मैं बस एक जिस्म सा रह गया तुझे भूल कर
ये वो मोड़ था जहांँ दिल भी हाथ छुड़ा गया
तुझे बे-सबब नहीं देखते थे ये लोग सब
तुझे देख कर इन्हें देखना भी तो आ गया
पाकिस्तान के मशहूर शहर लाहौर से अगर कोई कव्वा सीधा तीर की तरह उड़े तो वो 39 किलोमीटर उड़ता हुआ शेखुपुरा पहुँच सकता है, किसी इंसान के लिए ये दूरी लगभग 70 किलोमीटर होगी क्यूंकि इंसान सीधा चलता कब है ? इसी शेखुपुरा में 29 नवम्बर 1965 को 'शाहीन अब्बास' साहब का जन्म हुआ। एम.सी प्राइमरी स्कूल शेखुपुरा से अपनों पढा़ई का आगाज़ करने के बाद उन्होंने गोवेर्मेंट हाई स्कूल शेखुपुरा से मेट्रिक पास की और इंटरमीडिएट एफ.एस.सी की परीक्षा, प्री इंजीनियरिंग की परीक्षा के साथ गोवेर्मेंट डिग्री कॉलेज शेखुपुरा से बेहतरीन नंबरों के साथ पास की। प्री इंजीनियरिंग करने के बाद सिवा इंजीनियरिंग करने के और कोई विकल्प बचता ही नहीं और क्यूंकि शेखुपुरा में इंजीनियरिंग पढ़ने की सुविधा नहीं थी लिहाज़ा उन्हें घर छोड़ कर लाहौर के इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने जाना पड़ा। प्री इंजीनियरिंग की परीक्षा में आये नंबरों के आधार पर उन्हें इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग ब्रांच में दाख़िला मिला।तब इंजीनियरिंग कालेजों में मेकेनिकल और इलेक्ट्रिकल दो विशेष ब्रांच हुआ करती थीं जिनमें हर किसी को दाखिला नहीं मिलता था। उस ज़माने में आज की तरह हर गली मोहल्ले में इंजीनियरिंग कॉलेज नहीं होता था, बहुत कम कॉलेज हुआ करते थे, जिनमें दाखिला मिलना बहुत फ़क्र की बात हुआ करती थी। इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिलने के साथ ही एक बड़ी ज़िम्मेदारी का एहसास भी जाग जाता था। क्यूंकि मैंने भी, 50 साल पहले ही सही, इंजीनियरिंग की है तो मैं जानता हूँ कि इंजीनियरिंग की पढा़ई आसान नहीं होती। आप रट कर पास नहीं हो सकते। ये पढ़ाई आपका पूरा ध्यान और समय मांगती है।
तारीफ़ करनी होगी शाहीन साहब की जिन्होंने अपनी शायरी की शमअ मात्र 15 साल की उम्र में याने सं 1980 में रौशन की और जिसे उन्होंने इंजीनियरिंग की पढाई की तेज आँधियों में बुझने नहीं दिया बल्कि उसे और ज्यादा रौशन कर दिया। उनका इंजीनियरिंग की कठिन पढ़ाई के साथ साथ अपनी शायरी को ज़िंदा रखने का काम किसी करिश्मे से कम नहीं।
पिछले पानी अभी आंखों ने संभाले नहीं थे
दिल निकल आया है एक और समंदर की तरफ़
बाहर आवाजें ही आवाज़ें हैं और कुछ भी नहीं
ख़मोशी खींच रही है मुझे अंदर की तरफ़
*
यूँ न हो मैं अपनी गहराई में गुम कर दूंँ तुझे
जा किनारा कर अगर मुझसे किनारा हो सके
*
बहते बहते उन्हीं आंखों में कहीं डूब गए
चलिए अच्छा है किसी तौर ठिकाने लगे हम
*
वक़्त गुज़रे चला जाता है बस अपनी धुन में
इक सदा आएगी और इसको ठहरना होगा
*
हिज़्र और वस्ल तेरे आने से पहले भी तो थे
तेरा आना तो फ़क़त एक बहाना हुआ है
तू भी चलता तो वहांँ तक नहीं जाता शायद
तेरी आंँखों में जहांँ तक मेरा जाना हुआ है
*
मेरी आंँखों ने खो दिया था जो ख़्वाब
तेरी आंँखों ने ला दिया है मुझे
दश्त ओ दरिया ने मुझसे मिल मिल कर
अपने जैसा बना दिया है मुझे
*
मैंने इस तरह भी उस शख़्स का रखा है ख़याल
कहीं जाता ही नहीं अपने सिवा ध्यान मेरा
सवाल ये है कि ऐसा उन्होंने किया कैसे ? जवाब शायद ये होगा कि ये करिश्मा उनसे उनके जूनून ने करवाया। इंसान में अगर जूनून हो तो वो कुछ भी कर सकता है। शाहीन साहब लगता है ज़ज़्बाती इंसान हैं तभी वो अपने ज़ज़्बात के इज़हार के बहाने ढूंढते हैं कभी शायरी तो कभी नस्र के जरिये। उन्होंने ज्यादातर तो शायरी ही की, इब्तिदा में कम नस्र लिखी ,इंजीनियरिंग में एक अफ़साना 'छाजो' के नाम से लिखा जो कहीं छपा नहीं। इंजीनियरिंग करते ही उनकी नौकरी एक पॉवर प्लांट में लग गयी, जो आज तक चल रही है । नौकरी के बाद शादी और बाद में उससे जुडी मसरूफ़ियात के चलते लिखने की रफ़्तार थोड़ी धीमी पड़ी लेकिन उसके बाद ज़िन्दगी पटरी पर आते ही लिखने का जूनून फिर से हावी हो गया जो अब तक मुसलसल चल रहा है।
पहला शेरी मज़्मुआ 'तहय्युर' 1998 में (ग़ज़लें )मंज़र-ए-आम पर आया उसके बाद 2002 में 'वाबस्ता'(ग़ज़लें ), 2009 में 'खुदा के दिन'(ग़ज़लें ), 2013 में 'मुनादी' (नज़्में ), 2014 में 'दरस धारा'(नज़्में), 2020 में 'पारे -शुमारे' (नॉवल ) , 2020 ही में 'गलियों गलियों (ग़ज़लें ) और 2021 में अफसानों का मज़्मुआ 'कहानी काफ़िर' भी मंज़र-ए-आम पर आ चुका है। उनका एक अफसाना 'सुरख़ाब सुपुर्दे ख़ाक' बेहद मक़बूल हुआ।
शाहीन अब्बास साहब का शुमार 1990 के बाद के अहम-तरीन पाकिस्तानी लेखकों में होता है।
मैं था कि अपने आप में खाली सा हो गया
उसने तो कह दिया मेरा हिस्सा जुदा करो
इक नक़्श हो न पाए इधर से उधर मेरा
जैसा तुम्हें मिला था मैं वैसा जुदा करो
*
इस बार तेरे ख़्वाब में रक्खा है अपना ख़्वाब
इस बार रौशनी में संभाली है रौशनी
*
वो बेबसी है कि हर जख़्म भर गया जैसे
मैं रो न दूंँ तेरे जीने से यूँ उतरता हुआ
*
नक़्ल करती है मेरे चलते में वीरानी मेरी
ये जो मेरे शोर-ए-पा से मिलता-जुलता शोर है
शोर-ए-पा: चलने की आवाज़
*
जख़्म इक चौखटे पर जैसे मुजस्सम हो जाए
मैं वो तस्वीर कि हर रंग रुलाता है मुझे
मुजस्सम: साकार
आमद-आमद है ये किस आ'लम-ए-तन्हाई की
एक इक जख़्म मेरा छोड़ता जाता है मुझे
आमद: आना
*
किसी और ताल पर रक़्स मुझको रवा नहीं
तू फिर आप अपने बदन की लय से विसाल कर
रवा:उचित
*
गया जो मौज में उसकी वो डूबता ही गया
उस आँख की किसी तैराक से नहीं बनती
*
रात बची न दिन बचे वक़्त बहुत सा बच गया
वा'दे की रात काटकर वादे का दिन गुज़ार कर
एक बात अक्सर शाहीन साहब से पूछी जाती है कि इंजिनियर और शायर, इंजिनियर और फिक्शन निगार -कैसे मुमकिन है ? पूछने वालों के दिमाग़ में शायद ये बात होती है किसी जुबान का इतिहास, उसकी पहचान, उस पर की गयी आलोचना को पढ़ने वाले और उस पर अनुसंधान करने वाले लोग ही बेहतर लेखक हो सकते हैं। इस पर शाहीन साहब जवाब देते हैं कि 'मैं समझता हूँ कि लेखन एक बिलकुल अलग चीज का नाम है इसका आपकी तालीम से कोई सीधा रास्ता नहीं, ये बात दुनिया भर के डॉक्टरी से, सिविल सर्विसेज से, कंम्यूटर साइंस और बहुत से विभिन्न कामों से जुड़े लेखकों ने साबित कर दिया है इसलिए अच्छा शायर होने के लिये इंजीनियर या गैर इंजीनियर होना जरूरी नहीं, इंसान होना शर्त है |
तो क्या हर इंसान शायर या लेखक हो सकता है ? जवाब है 'नहीं'। ये वो फ़न है जो ऊपरवाला किसी किसी को ही अता करता है। अगर आपके भीतर ये फ़न नहीं है तो आप चाहे कितनी ही किताबें पढ़ लें कितने ही उस्ताद बदल लें ,ढंग के दो लफ्ज़ नहीं लिख पाएंगे। किताबें या उस्ताद आपके भीतर छिपे इस फ़न को सिर्फ तराशने का काम कर सकते हैं ये फ़न आपके भीतर डाल नहीं सकते।
लोग अक्सर 'शाहीन' साहब के अफ़साने नॉवल और शायरी पढ़ कर पूछते हैं कि जो लिखा गया है उसका मतलब क्या है , कुछ समझ नहीं आया इस पर शाहीन साहब फ़रमाते हैं कि मेरे लिए ये सवाल ऐसे ही है जैसे कोई मुझसे पूछे की ये क़ायनात क्या है ? इंसान और उसकी ज़ात किस चीज का नाम है और ज़ाहिर है इन सवालों का कोई एक जवाब नहीं।मैं समझता हूँ कि जब तक क़ायनात,ज़ात और क़ायनात का रहस्य बाकी है, शेर बाक़ी है,अदब बाक़ी है और ज़िन्दगी बाक़ी है। मैं तो क्रिएटिविटी या लेखन को बस इतना ही समझ सका हूँ कि हर बड़ा लिखने वाला जब अंदर छुपे रहस्य के साथ क़ायनात से जब हमकलाम होता है तो बात बनती है।'
शाहीन साहब की किताब जब भारत से छप कर आयी तो उसे पढ़ने और चाहने वालों की तादात उनके पाकिस्तानी चाहने वालों से कई गुना ज्यादा मिली। ये तब है जब वो सोशल मिडिया पर बिलकुल एक्टिव नहीं हैं। ऐसा क्यों हुआ इसके जवाब के लिए आपको जो बात मैंने शुरू में लिखी है उसे फिर से पढ़ना होगा।
हाल ही में शाहीन साहब के नॉवल 'पारे-शुमारे' को 'रशीद अमजद' अदबी अवार्ड मिला है, उनकी ग़ज़लों की किताब 'गलियों गलियों' को परवीन शाक़िर ट्रस्ट की तरफ से 'सर अब्दुल क़ादिर' अदबी अवार्ड मिल चुका है। इस से पहले उनकी नज़्मों की दोनों किताबों को बाबा 'गुरुनानक' अदबी अवार्ड मिल चुका है। इन दिनों शाहीन साहब अपना दूसरा नॉवल लिख रहे हैं।
आईये आखिर में पढ़ते उनके चंद शेर इसी किताब से :
अपनी आंँखों की अमल दारी में रहने दे मुझे
ये ठिकाना मेरे होने का बहाना ही न हो
अलमदारी:शासन
*
ये बताना जरा मुश्किल है कि देखा क्यों है
मैंने देखा है जहां तक नज़र आया है कोई
*
वस्ल गया तो हिज्र था हिज्र गया तो कुछ न था
ख़ास के बा'द आ'म हूँ आ'म के बाद कुछ नहीं
जिस्म का नश्शा पी चुके अपनी तरफ़ से जी चुके
चलिए कि जाम उलट चुका जाम के बाद कुछ नहीं
*
इक शाम मेैं ढलते हुए सायों पे हंसा था
अब तक नहीं निकली मेरे अंदर की उदासी
*
हवा से कहते तो रहते हैं क्यों बुझाया चराग़
कहीं चराग़ की अपनी हवा खराब न हो
*
कोई शय और भी होती है कि बस होती है
घर ही काफ़ी नहीं घर-बार बनाने के लिए
*
हमें इतनी बड़ी दुनिया का पता थोड़ी था
जहां हम तुम हुआ करते थे वहांँ रह गए हम
एक आवाज के दो हिस्से हुए ठीक हुआ
तुम वहां रह गए ख़ामोश यहांँ रह गए हम
*
यह दो बाजू हैं सो थोड़ी हैं खोलूँ और बता दूंँ
मेरे अतराफ़ में किस-किस का आना रह गया है
अतराफ़: आसपास
28 comments:
लाजवाब समीक्षा। शायर को शत शत नमन।
नीरज जी! बहुत ही रोचक अंदाज़ में पुस्तक की समीक्षा की है। चुन-चुन के ख़ूबसूरत शेर प्रस्तुत किये हैं। बधाई हो।
एक आवाज के दो हिस्से हुए ठीक हुआ
तुम वहां रह गए ख़ामोश यहांँ रह गए हम
.
हमेशा की तरह ये अंक भी लाजवाब ।
- उमेश मौर्य
सधे हाथों की सधी हुई समीक्षा, बेहद खूबसूरत। नमस्कार सर
धन्यवाद निर्मला जी
धन्यवाद मीनाक्षी जी
अक्सर सुनने में आता है कि ग़ज़ल में अब कुछ नया कहने को नहीं बचा। इसके विपरीत आपकी पोस्ट आती हैं जिनमें आज के कई शायरों का कहा पढ़ने को मिलता है और देखने को आता है कि शायरी कई दौर से गुजरी है और इसे अभी कई दौर से गुजरना है। नये-नये प्रतीक, शब्द प्रयोग और खूबसूरत शेर देखने को मिलते हैं जिनका अब तक कहे गये से कुछ लेना-देना नहीं। स्पष्ट होता है कि समसामयिक घटनाक्रम का प्रभाव अभिव्यक्ति पर भी पड़ता है और यही नवीनता को जिंदा रखता है।
आज के शायर व आपको बहुत-बहुत बधाई।
शानदार और बहुत ही धारदार रचनाएँ।
बेहतरीन समीक्षा। हार्दिक बधाई
बिल्कुल दुरुस्त कहा आपने
धन्यवाद अजय भाई
शुक्रिया उमेश भाई
जीवन रेखा की तरह आती है, आपकी हर समीक्षा नीरज जी, प्रतीक्षा रहती है आपकी उस धन्य लेखनी की.... बेहद ख़ूबसूरत 🌹💐🙏
Great the book, the poet and you too
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (04-05-2022) को चर्चा मंच नाम में क्या रखा है? (चर्चा अंक-4420) पर भी होगी!
--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
बहुत ही बढ़िया
बेहतरीन शायरी, उम्दा समीक्षा
धन्यवाद अनिता जी
शुक्रिया ओंकार भाई
याद वो रहते हैं जो ओरिजिनल हैं . जिनके पास ऐसा कुछ नया है, अपना है जो दूसरों के पास नहीं है। हमारे आज के शायर उसी श्रेणी के हैं जिनकी सोच और कहन अनूठा और सबसे अलग है और जो लोकप्रिय होने के लिए सोशल मिडिया मोहताज़ नहीं हैं। ये पोस्ट न सोशल मिडिया के ख़िलाफ़ है और न उनके जो सोशल मिडिया पर छाये हुए हैं या छाने की कोशिश में लगे हुए हैं।
बहुत सटीक यथार्थ।
शानदार अंशों को सहेजते हुए शानदार पुस्तक समीक्षा ।
लेखक एवं समीक्षक दोनों को साधुवाद।
पुस्तक की सफलता के लिए हृदय से शुभकामनाएं।
धन्यवाद
धन्यवाद
धन्यवाद
धन्यवाद मधु जी
भाई बेहतरीन शायर से मुलाकात करवाई है
कहानी कुछ कुछ आप सी लगती है
इंजीनियर और शायरेआज़म
जय हो
Shukriya bhai
था मगर ऐसा अकेला मैं कहांँ था पहले
मेरी तन्हाई मुकम्मल तेरे आने से हुई
.
जितनी बार पढ़ता हूँ कुछ नया सा शे'र छू जाता है
- उमेश मौर्य
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