क्यों दिखी नहीं तुझे खूबियां कभी खुद से भी ये सवाल कर
तूने खूब नाम कमा लिया, मेरी खामियों को उछाल कर
मुझे चुप्पियों से न मार यूँ कोई बददुआ ही तू दे भले
तेरी गालियां भी अज़ीज़ हैं मैं इन्हें रखूंगा संभाल कर
यूँ समा जा मेरे वजूद में कोई फासला न हो दरम्यां
मेरी मैं न हो तेरी मैं न हो ,इन्हें रख दे दिल से निकाल कर
फ़ासला करना है तय मुझको कलम से तेग तक
बीच इसके बन के तू दीवार अब मुझसे न मिल
ज़ख्म तूने ही दिए हैं जानता है हर कोई
ले के तू हमदर्दियों के हार अब मुझसे न मिल
ज़िंदगी त्योंहार बनकर भी कभी आ मिल के देख
हादसा बन-बन के तू हर बार अब मुझसे न मिल
हमारे आज के शायर से मिलने के लिए हमें काशीपुर चलना पड़ेगा, काशीपुर, जो उत्तराखंड के जिले उधमसिंह नगर की तहसील है, एक समय गहरा घना जंगल हुआ करता था। वहां का बेहद उमस वाला गर्म मौसम, महीनो चलने वाली बारिश, दलदल और जंगली जानवरों की बहुतायत और आने जाने के सुगम रास्तों के अभाव में इंसान के रहने लायक नहीं था। 1948 में सरकार ने इसकी सुध ली और इसका विकास किया गया। आपको बताता चलूँ कि विश्व प्रसिद्ध जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क यहाँ से मात्र 25 की.मी की दूरी पर ही है। काशीपुर में अवैध खनन माफियाओं का एक इलाका है सुल्तानपुर पट्टी, जहां चौराहे से दाहिनी ओर एक ऊबड़-खाबड़-सा रास्ता मड़ैया बक्शी गांव की ओर जाता है. यह गांव उस शायर/ कवि का स्थाई पता है, जिसका नाम चलिए मिटटी खोदते हुए इस किसान से पूछते हैं। माथे से पसीना पोंछता हुआ ये किसान हमें बताता है कि इस गाँव क्या इस पूरे जिले में अगर कोई अपनी कविता या शायरी के नाम से पहचाना जाता है तो वो एक मात्र इंसान है " बल्ली सिंह चीमा " जिनकी लिखी ग़ज़लों की किताब "हादसा क्या चीज है" की बात हम करेंगे।
मंदिर में या मस्जिद में या रहता है गुरूद्वारे में
मेरा बच्चा पूछ रहा था, आज ख़ुदा के बारे में
प्यार के बंधन में बंधने में लग जाती हैं सदियां भी
लेकिन दंगे हो जाते हैं, आँख के एक इशारे में
तुम तो नेता नहीं हो 'बल्ली' फिर क्यों ये दो-मूँहापन
कुछ तो सोचो, क्या सोचेंगे लोग तुम्हारे बारे में
बल्ली सिंह जी काशीपुर के मड़ैया बक्शी गांव के नहीं हैं ये तो असल में अमृतसर जिले के चभाल तहसील के गाँव चीमा खुर्द के हैं जो कि पाकिस्तान बॉर्डर के बिलकुल पास है। इनका जन्म वहीँ 2 सितम्बर 1952 को हुआ। पिता मुरादाबाद-काशीपुर के रास्ते पर अपना ट्रक चलाते थे। बल्ली मात्र चार साल के ही थे कि इनकी माताजी का देहावसान हो गया। पिता ने तब पैतृक गाँव छोड़ा और ट्रक बेच कर 'मड़ैया बक्शी' में कोसी नदी के पास उपजाऊ जमीन खरीदी और खेती करने लगे। प्रारम्भिक शिक्षा काशीपुर में पूरी करने के बाद बल्ली जी को उनके चाचा आगे की पढाई के लिए चीमा खुर्द गाँव ले गए जहाँ उन्होंने पास ही तरन तारण जिले के 'बाबा बुड्ढा सिंह' कॉलेज में उनका दाखिला प्री यूनिवर्सिटी में करवा दिया। बल्ली जी ने कहीं बताया है कि जब वो पांचवीं क्लास में पढ़ते थे तब से किताबें पढ़ने का शौक उन्हें एक मज़दूर से पड़ा जो खाली वक्त में इब्ने सफ़ी के जासूसी उपन्यास पढ़ा करता था। बल्ली भी वही उपन्यास पढ़ने लगे, फिर तो उन्हें जैसे किताबें पढ़ने का नशा सा ही हो गया।
मेरे दुश्मनों ने कहा मुझे कभी इस तरह से भी सोच तू
ये भला-बुरा जो हुआ तेरा तेरी किस्मतों में लिखा न हो
तुझे चाहता हूँ मैं इस क़दर मेरे दिल में है इक आरज़ू
करूँ काम वो मैं तेरे लिए किसी और ने जो किया न हो
मुझे टोकता है जो रात-दिन बुरी बात से बुरे काम से
मैं ये सोचता हूँ कभी कभी मेरे दिल कहीं ये ख़ुदा न हो
कॉलेज में उनका संपर्क पंजाबी के शीर्ष कथाकार जनाब जोगिन्दर सिंह कैरों से हुआ जो वहां पढ़ाते थे और उन्हीं की वजह से चीमा साहब का झुकाव साहित्य की और हो गया। किस्मत की बात देखिये कि कुछ दिनों बाद उसी कॉलेज में पंजाबी साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ कवि श्री सुरजीत सिंह पातर साहब भी पढ़ाने आ गए जो अपने समकालीन कवि पाश की चर्चा किया किया करते थे। पाश उन दिनों जेल में थे। चीमा जी ने पाश को पढ़ा और बहुत प्रभावित हुए। कॉलेज के इस साहित्यिक इसी माहौल ने उन्हें कवितायेँ लिखने को प्रेरित किया। वो अपनी रचनाएँ पातर साहब को पढ़वाते और बदले में शाबाशी पाते। पातर साहब ने ही सबसे पहले उनकी कविता एक द्वैमासिक पत्रिका "चर्चा " में छपवा दी , उसके बाद फिर बल्ली जी ने पीछे मुड़ के नहीं देखा .
मुझको दुआ वो दे गए कुछ इस अदा के साथ
उनका हो उठना बैठना जैसे खुदा के साथ
सारा जहान आज दो खेमों में बंट गया
कोई दिए के साथ है कोई हवा के साथ
बल्ली अधूरे मन से ही करता रहा वफ़ा
वो बेवफ़ाई कर गया पूरी वफ़ा के साथ
यह सब उन दिनो की बात है, जब पंजाब में नौजवान भारत सभा गठित हो रही थी। बल्ली जी भी उसके सक्रिय सदस्य बन गये । गुरुशरण सिंह के नाटकों में पंजाबी भाषा में इंकलाबी गीत गाने लगे पंजाब स्टूडेंट यूनियन के भी सक्रिय नेता हो गये । पंजाबी में जनगीत लिखने लगे । तब तक उनकी पंजाबी में ही कविताएं सीखने-लिखने की प्रक्रिया चलती रही। इसी बीच देश में इमरजेंसी लग गई। एक्टिविस्ट होने के नाते उनके नाम से भी वारंट आ गया। उनके साथियों ने उन्हें कहा कि "तुम्हारा नैनीताल घर है तो वहां चले जाओ, वरना गिरफ्तार हो जाओगे।" ये 1976 की बात है। उसी साल कोसी नदी में भयंकर बाढ़ आयी जिसमें उनकी ज़मीन बह गयी. घर घोर आर्थिक संकट में डूब गया। उनका वापस अमृतसर कॉलेज जा कर पढाई करने और वहीँ अध्यापक के रूप में पढ़ाने का सपना भी उसी के साथ चूर चूर हो गया। जो इंसान विपरीत परिस्थितियों के सामने घुटने टेक दे उसका नाम 'बल्ली सिंह चीमा ' नहीं होता। उन्होंने हाथों में हल उठा लिया, लेकिन गीत जिंदा रहे. यहीं उन्होंने खेतों में धान के साथ-साथ कविताओं के बीज बोए और आज उस फसल की हरियाली हर ओर छाई है. सुदूर ऊंचे पहाड़ों, खेतों और गांव-गांव में लोग भले चीमा का नाम न जानें, लेकिन उनके गीत गुनगुनाते हैं.
सर उठेगा तो आप देखेंगे
रेंगना ज़िन्दगी नहीं होती
गर लकीरों को पीटता मैं भी
मुझमें ये ताज़गी नहीं होती
क़त्ल होते नहीं तेरी खातिर
तू अगर चाँद-सी नहीं होती
उनकी ओज पूर्ण कविता " ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के" ने उन्हें लोकप्रियता की सबसे ऊंची पायदान पर बिठा दिया।आज भी देश भर के कॉलेजों, विश्वविद्यालयों व फैक्टरियों में उनके गीत गाए जाते हैं, पोस्टर बनाकर चिपकाए जाते हैं. अगर गीतों का जीवंत होना, गाया जाना कवि की लोकप्रियता का पैमाना हो तो वे हमारे दौर के सबसे लोकप्रिय हिंदी कवियों में हैं. उनकी परंपरा कबीर, फैज, साहिर और दुष्यंत कुमार से जुड़ती है. वे एक साथ बगावत और प्रेम जैसी कोमल भावनाओं के कवि हैं.उनकी ग़ज़लें जुलूसों और सभाओं में कुछ इस तरह गायी गईं कि गीत और ग़ज़ल का फ़र्क ही मिट गया।बल्ली सिंह ने झोपड़ों से उठ रही आवाज को अपनी ग़ज़ल से एकाकार कर दिया।
उनके प्रशंसकों की सूची में बाबा नागार्जुन और ज्ञानरंजन के नाम सर्वोपरि हैं। ज्ञानरंजन जी ने उनकी ग़ज़लों को अपनी पत्रिका 'पहल' में विशेष रूप से प्रकाशित किया था। बाबा नागार्जुन से उनके घरेलू सम्बन्ध स्थापित हो गए थे। प्रसिद्ध कवि श्री वीरेन डंगवाल जी से भी उन्हें विशेष स्नेह मिला और उन्होंने भी अपनी पत्रिका "अमर उजाला " में बल्ली जी की ग़ज़लें प्रमुखता से प्रकाशित कीं। "इण्डिया टुडे' पत्रिका के जुलाई 2012 के एक अंक में बल्ली सिंह चीमा जी पर एक पूरा लेख प्रकाशित हुआ था जिसके कुछ अंश हमने अपनी इस पोस्ट में भी इस्तेमाल किये हैं।
"हादसा क्या चीज़ है" सं 2012 ,बल्ली जी का चौथा ग़ज़ल संग्रह है ,इसके पूर्व उनके तीन ग़ज़ल संग्रह "ख़ामोशी के खिलाफ" सं 1980 में ,ज़मीन से उठती आवाज़" सं 1990 में और "तय करो किस और हो" सं 1998 में प्रकाशित हो कर चर्चित हो चुके हैं। उनकी कविताओं की किताबों की लिस्ट भी छोटी नहीं है "हिलाओ पूँछ तो करता है प्यार अमरीका","मैं अमरीका का पिठ्ठू और तू अमरीकी लाला है" "ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के" ऐसा भी हो सकता है" आदि प्रमुख हैं। "हादसा क्या चीज़ है "ग़ज़ल संग्रह पर उन्हें सं. 2014 में राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा "आचार्य निरंजन नाथ सम्मान" से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा उन्हें अम्बिका प्रसाद दिव्य पुरूस्कार(मध्यप्रदेश ) , देवभूमि रत्न सम्मान (उत्तराखंड), कुमाऊं गौरव सम्मान (उत्तराखंड), कविता कोश सम्मान (जयपुर ) तथा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के कर कमलों से केंद्रीय हिंदी संस्थान द्वारा दिया जाने वाला "गंगाशरण सिंह" पुरूस्कार मिल चुका है।
इस छोटी सी पेपर बैक किताब को जयपुर के बोधि प्रकाशन ने 'बोधि जन संस्करण" श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित किया है. जन संस्करण श्रृंखला बोधि का अनूठा प्रयास है इसकी जितनी भी तारीफ की जाय कम होगी। ये आम पाठक को किताबों से जोड़ने का अनुकरणीय प्रयास है. इस श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित होने वाले किताबों का मूल्य अविश्विसनीय रूप से कम होता है।इस किताब का मूल्य मात्र 40 रु ही रखा गया है। किताब की प्राप्ति के लिए आप बोधि प्रकाशन के श्री माया मृग जी को इस अभिनव कार्य के लिए बधाई देते हुए 0141-2503989 पर फोन करें या उनके मोबाईल न. 9829018087 पर संपर्क करें। आप चीमा जी को जो आम आदमी पार्टी के विधायक पद से इस्तीफा दे कर अब आज़ाद हैं उनके मोबाईल न 09568881555 पर या balli.cheema@rediffmail.com पर संपर्क कर बधाई दे सकते हैं।
उनकी ग़ज़लें भले ही रवायती ग़ज़ल पसंद करने वालों को पसंद न आएं ,हो सकता है वो कहीं कहीं ग़ज़ल के व्याकरण पे भी खरी न उतरें लेकिन ग़ज़ल की लोकप्रियता का प्रमाण अगर स्मृति में उसका बैठ जाना है तो बल्ली जी की गज़लें इस बात पर खरी उतरती हैं।वो खुद एक ग़ज़ल में कहते हैं कि :
अगली किताब की खोज पे निकलने से पहले आईये पढ़वाता हूँ आपको उनकी एक और ग़ज़ल के ये शेर :
छाया की तो बात ही छोडो आग उगलते पेड़
हमने दिल्ली में देखें हैं कैसे-कैसे पेड़
मक्खन जैसी शक़्ल है इनकी चम्मच जैसे पत्ते
उगते हैं कुर्सी के नीचे इस जाति के पेड़
पीले-पीले मुरझाये-से पेड़ थे जंगल में
उनके गमलों में देखा तो हरे-भरे थे पेड़
तू समझता है अगर क़ौम का रहबर उनको
या तू अँधा या तेरी सोच पे जाले होंगें
अपने हर दोष को औरों से छुपाने के लिए
उसने औरों में कई दोष निकाले होंगे
इन अंधेरों ने किया और अँधेरा "बल्ली"
तुम तो कहते थे बहुत जल्द उजाले होंगे
हरेक साल नया साल आये है जब भी
पुराने ग़म को नया ग़म विदाई देता है
वो जब कभी भी ये कहता है मैं तो छोटा हूँ
बड़े बडों से भी ऊंचा दिखाई देता है
किसी तरह की हो, कुर्सी पे बैठकर 'बल्ली'
हरेक शख़्स को ऊँचा सुनाई देता है
उनकी ग़ज़लें भले ही रवायती ग़ज़ल पसंद करने वालों को पसंद न आएं ,हो सकता है वो कहीं कहीं ग़ज़ल के व्याकरण पे भी खरी न उतरें लेकिन ग़ज़ल की लोकप्रियता का प्रमाण अगर स्मृति में उसका बैठ जाना है तो बल्ली जी की गज़लें इस बात पर खरी उतरती हैं।वो खुद एक ग़ज़ल में कहते हैं कि :
ये फ़ायलात ये फ़ेलुन न तुझसे संभलेगा
संभाल खेत, ये कहती है शायरी मुझसे
किस तरह समझाऊं तुमको हादसा क्या चीज़ है
मेरे उजड़े घर से पूछो ज़लज़ला क्या चीज़ है
झोंपड़ी तो जानती है घर किसे कहते हैं लोग
या परिंदों को पता है घोंसला क्या चीज़ है
पीपलों की छाँव में ठंडी हवाओं से मिलो
कूलरों को क्या पता बहती हवा क्या चीज़ है
लोग ज़िंदा जल गए जिनकी लगाई आग में
वो बताते हैं हमें अच्छा-बुरा क्या चीज़ है
14 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-06-2018) को "मौसम में बदलाव" (चर्चा अंक-2999) (चर्चा अंक-2985) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक और बेजोड़ प्रस्तुति!
बल्ली सिंह चीमा मेरे प्रिय शायरों में से एक हैं
उनका एक शेर पोस्ट पढ़ते ही याद आया:
घुमड़ते हुए बादलो ये बताओ
की रिमझिम की भाषा में कब बात होगी?
ये मौसम ही जब मौसमों सा नहीं है
बताओ तो फिर कैसे बरसात होगी
(यादाश्त मेर बहुत अच्छी नही है गलती के लिए क्षमा याचना भी)
उनकी शायरी एक विशाल जनमानस से संवाद स्थापित करती है और दिलो ज़ेहन को झिंझोड़ती है।
और आपकी पारखी नज़र और सुख़न शनासी तो बेमिसाल है ही। आज के सेल्फी कल्चर में जहां बहुत से लोग सिर्फ़ अंतर्मन मुग्धता के अंधकूप में ही डूब कर रह गये हैं
आपका यह निस्वार्थ समर्पण अप्रतिम है। आपकी बदौलत अच्छी शायरी के खज़ाने से बहुत सारे लाभान्वित हो रहे हैं आपको बधाई।
और बधाई भाई बल्ली सिंह चीमा साहिब को भी उत्कृष्ट सृजन के लिए।
इस ब्लॉग की पोस्टस कभी पाठक को गर्दन इधर उधर हिलाने की इजाजत नही देती। बस एक सीध में पाठक चलता जाता है, किस्सागो समीक्षक के पीछे। उन गलियों में जहाँ शायर की ज़िन्दगी और शायरी से रूबरू कराता लेखक उसे ले जाता है।
ये समीक्षाएं केवल शायरी नही,शायर बनने की पूरी दास्तान होती हैं।
अंतर्मन को आत्म पढ़ें
नमस्कार बल्ली सिंह चीमा जी को पढा सुन्दर आप की मेहनत और मुहबबतों को सलाम
सुन्दर
आपकी समीक्षा का जवाब नहीं .
बल्ली सिंह चीमा मूलत: पहाड़ी जीवन के लोकगायक रहे हैं, उन्होंने ग़ज़ल विधा में भी अपनी जनवादी रूझानों का परिचय दिया है जहाँ कविता बेबाक बयान के रंग में उपस्थित हुई है, इसलिए तात्कालिक राजनीतिक वैचारिकी का गहरा असर उनकी ग़ज़लों पर है, आपने यह ठीक ही कहा है कि उनकी ग़ज़लों में मौजूद तोड़फोड़ पाठकों को थोड़ी अरुचिकर और सपाटबयानी के करीब लग सकती है फिर भी कविता के मंच पर वे एक ज़रूरी और महत्वपूर्ण ग़ज़लकार के रूप में अपनी पहचान तो बना ही चुके हैं, आपने उनके जीवन चरित को प्रकाश में लाकर उनके बारे में पाठकों की समझ विकसित करने का भी एक महत्वपूर्ण काम किया है ,आपको बधाई
बिल्कुल सही विश्लेषण। असल में बल्ली सिंह जी ने जीवन की जिन परिस्थितियों में अपना समय व्यतीत किया उसी की मुक्त कंठ से अभिव्यक्ति अपनी ग़ज़लों में की है। वह शतप्रतिशत जमीन की शायरी करते हैैं क्योंकि उनके हृदय में अपनी जमीन के लिए जो लगाव है वह उन्हें सच्चा इंयइं बनाता है। बल्ली सिंह जी अक्खड़ता और मुखरता के साथ अपनी ग़ज़लों में आम आदमी की पीड़ा को अभिव्यक्त करने वाले अनूठे ग़ज़लकार हैं। वह बिना किसी दबाव के ताल ठोक कर अपनी बात कहने वाले सच्चे इंसान हैं।
Bahut mehnat karte Hain aap salaam
Waaaaaah waaaaaah
आज नीरज जी की बात से बात शुरू न करते हुए आज किताबों की दुनिया के मेहमान शायर बल्ली सिंह चीमा जी के शेर से बात शुरू करते है
ये फ़ायलात ये फ़ेलुन न तुझसे संभलेगा
संभाल खेत, ये कहती है शायरी मुझसे
वैसे तो हर काम को करने का एक तरीका, एक क़ायदा होता है उसी तरह से ग़ज़ल का अपना एक कायदा है जिसमे प्रमुख तौर पे रदीफ़, काफ़िया, और बहर का समावेश है जिसे हर बड़ा शायर मानता आया पर जैसा की चीमा जी ने अपने शेर में लिखा वो ही कुछ कुछ मैं खुद मानता आया हूँ एक अच्छा शेर और एक अच्छी गजल वो ही है जो इंसान के जज्बातों को उकेर सके और एक आम आदमी की जुबान में हो जिसे वो आसानी से समझ सके।
जैसा की दुष्यंत जी ने कहा है
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
यानि की ग़ज़ल वो है जो आपकी जिंदगी की रोजमर्रा की दिनचर्या का हिस्सा हो
ऐसे ही चीमा जी की अमर उजाला काव्य में छपी हुई ये गजल (https://www.amarujala.com/kavya/irshaad/balli-singh-cheema-best-hindi-ghazal)
हमारी याद को चाहो तो ताख पर रखना
नयी जगह है वो ख़ुद को संभालकर रखना
तुम्हें मिला हूं तो मुझको ख़्याल आया है
तुम्हीं से सीख लूं ख़ुद को संवारकर रखना
ये पोज भी उसकी आदत का एक हिस्सा है
किसी भी सोच में उंगली को गाल पर रखना
किसी दुष्यंत से जुड़ती हैं ग़र तेरी राहें
तो उसकी याद अंगूठी संभालकर रखना
ये तय है कि वो आएंगे आज ही ' बल्ली'
इसी उम्मीद में घर को संवारकर रखना
बहुत ही साधारण शब्दों के प्रयोग से कही गयी ये गजल कितना कुछ कह रही है की हम में से कोई भी आसानी से इसे समझ सकता है।
तो ऐसे बेहतरीन और आम जन के शायर से परिचय कराने के लिए नीरज जी का बहुत बहुत धन्यवाद
मुझे चुपपियो से ना मार यूँ कोई बद्दुआ ही तू दे भले, तेरी गालिया भी अजीज है मैं इन्हे रखूंगा संभाल कर
धन्यवाद नीरज सर आपकी समीक्षा की वजह से चीमा जी को पढ़ने का मौका मिला ...
कत्ल होते नहीं तेरी खातिर अगर तू चाँद सी नहीं होती.. वाह वाह वाह
आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' १८ जून २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति मेरा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
निमंत्रण
विशेष : 'सोमवार' १८ जून २०१८ को 'लोकतंत्र' संवाद मंच अपने साप्ताहिक सोमवारीय अंक के लेखक परिचय श्रृंखला में आपका परिचय आदरणीया 'शशि' पुरवार जी से करवाने जा रहा है। अतः 'लोकतंत्र' संवाद मंच आप सभी का स्वागत करता है। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
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