Monday, January 29, 2018

किताबों की दुनिया -162

तुम समुन्दर हो न समझोगे मिरी मजबूरियां 
एक दरिया क्या करे पानी उतर जाने के बाद 

आएगी चेहरे पे रौनक़ खिल उठेगी ज़िन्दगी 
ग़म के आईने में थोड़ा सज-सँवर जाने के बाद 

मुन्तज़िर आँखों में भर जाती है किरनों की चमक 
सुब्ह बन जाती है हर शब् मेरे घर आने के बाद 

भारत के पूर्वी प्रदेश बिहार के पश्चिम भाग में गंगा नदी के तट पर स्थित एक ऐतिहासिक शहर है। नाम है बक्सर जो पटना से ये ही कोई 75 कि.मी. दूर होगा। इसी बक्सर में ऋषि विश्वामित्र का आश्रम था और यहीं राम- लक्ष्मण ने उनसे शिक्षण-प्रशिक्षण लिया। यहीं पत्थर में परिवर्तित अहिल्या का राम ने उद्धार किया था। इसी जगह का एक शायर है जो पत्थर की तरह के मृतप्राय शब्दों को अपनी विलक्षण कलम से छू कर प्राणवान कर देता है। अपने में मस्त इस अद्भुत शायर को बहुत कम लोग शायद जानते हों। उनसे मेरा परिचय भी इस किताब से हुआ है जिसकी बात हम आज करेंगे।

मिरे नसीब में लिक्खी नहीं है तन्हाई 
जो ढूढ़ना तो हज़ारों में ढूंढ़ना मुझको 

मैं दुश्मनों के बहुत ही क़रीब रहता हूँ 
समझ के सोच के यारों में ढूंढना मुझको 

फ़क़त गुलों की हिफ़ाज़त का काम ही है मिरा
चमन में जाना तो ख़ारों में ढूंढना मुझको 

सही कहा है इस शायर ने ,इन्हें ढूंढना आसान काम नहीं। जिस जगह आज के बहुत से शायर आसानी से मिल जाते हैं वहां ये हज़रत नहीं मिलते। आज के युग का ये शायर न किसी धड़े से जुड़ा है न फेसबुक या ट्वीटर से न कोई इसकी बहुत बड़ी फैन फॉलोइंग नज़र आती है और न किसी अखबार पत्रिका में चर्चा। लेकिन फिर भी बिहार का शायद ही कोई सच्चा साहित्य प्रेमी होगा जिसने इनका नाम न सुना हो और इनके अपने क्षेत्र में तो इनका नाम बहुत ही आदर से लिया जाता है. मेरा इशारा हमारे आज के शायर जनाब "कुमार नयन" से है जिनकी किताब 'दयारे-हयात में" की बात हम करेंगे।


इतने थे जब क़रीब तो फिर क्यों मिरे रफ़ीक़ 
तुमको तलाशने में ज़माना लगा मुझे 

हर सू यहाँ पे दर्द के ही फूल हैं खिले 
रुकने का इसलिए ये ठिकाना लगा मुझे 

मेरी सलामती की दुआ दुश्मनों ने की 
सचमुच ये उनका मुझको हराना लगा मुझे 

बढ़ी हुई दाढ़ी उलझे रूखे बाल कबीर सी सोच और फक्कड़ तबियत के मालिक 'कुमार नयन' आपको बक्सर की सड़कें पैदल नापते कभी भी दिखाई दे सकते हैं। 5 जनवरी 1955 को डुमरांव में कुमार नयन का जन्म हुआ। उनके पिता गोपाल जी केशरी थे। दादा जी सीताराम केशरी जिनको पूरा बिहार स्वतंत्रता सेनानी के नाम से जानता था। नयन जी ने दसवीं तक की पढ़ाई हाई स्कूल डुमरांव से की। 1969 में इंटर पास किया। डीके कालेज से बीए, फिर एलएलबी व अंतत: हिन्दी से एमए किया। इस बीच 1975 में ही वे डुमरांव से बक्सर आ गए। यहां शहर में उनकी ननिहाल थी। यहीं बस गए।

सबकुछ है तेरे पास मेरे पास कुछ नहीं 
अब तेरे-मेरे बीच कोई फ़ासला नहीं 

मैं जी रहा हूँ कम नहीं इतना मिरे लिए 
सर पर मिरे ख़ुदा क़सम कोई ख़ुदा नहीं

मुन्सिफ़ बने हो तुम मिरे तो सोच लो ज़रा 
इन्साफ़ मांगने चला हूँ फ़ैसला नहीं 

आज बक्सर शहर की दलित बस्ती खलासी मुहल्ला में इनका आशियाना है। जीवट इतने हैं कि तब से लेकर आजतक शहर की सड़कों पर पैदल चलते आ रहें हैं। खुद के पास साइकल भी नहीं। नतीजा अब शहर की सड़के भी इनको पहचानने लगी हैं। इस तरह का इंसान खुद्दार किस्म का होता है और ऐसे इंसान की सोच भी सबसे अलग होती है ,ये अपने लिए नहीं समाज के लिए काम करता है। एमए व एलएलबी करने के बाद भी उन्होंने कैरियर के रूप में साहित्यक व सामाजिक क्षेत्र को चुना। 1987 में भोज थियेटर लोक रंगमंच की स्थापना की। इसके माध्यम से उन्होंने भिखारी ठाकुर के नाटकों एवं अन्य लोक संस्कृतियों का मंचन कर अलग ही पहचान बना ली।

दूर तक मंज़िल न कोई मरहला इस राह में 
मील का पत्थर नहीं फिर भी सफ़र अच्छा लगा 

आपने भी फाड़ डाली अपनी सारी अर्ज़ियाँ 
आप भी खुद्दार हैं यह जान कर अच्छा लगा 

हैं वो ही दीवारो-दर आँगन वो ही बिस्तर वो ही 
शख़्स इक आया तो मुद्दत बाद घर अच्छा लगा 

पढाई के बाद 1981 में कोलकत्ता से प्रकाशित होने वाले रविवार के लिए लिखना प्रारंभ किया। इस बीच अंग्रेजी की पत्रिका ब्लिट्ज में लिखना प्रारंभ किया। 1986 में नवभारत टाइम्स से जुड़े, इस क्रम में टाइम्स आफ इंडिया के लिए भी लिखते रहे। यह सफर 1991 में थम गया। लंबे समय अंतराल के बाद वर्ष 2004 में झारखंड के प्रमुख दैनिक समाचारपत्र प्रभात खबर में सीनियर सब एडीटर के तौर पर काम करना प्रारंभ किया। यह सफर भी साल दो साल से अधिक नहीं चला। इसके बाद 08 से 09 के बीच युद्धरत आम आदमी विशेषांक में काम किया।

मिले कभी भी तो करता है बात फूलों की 
वो एक शख्स जो पत्थर के घर में रहता है

निकल न पाऊं कभी उसकी सोच से बाहर 
कोई ख़याल हो उसकी डगर में रहता है 

तुम्हीं कहो न कि मैं क्या करूँ तुम्हारे लिए 
मिरा तो दिल ये अगर और मगर में रहता है 

1991 में पत्रकारिता से साथ छूटा तो मुंबई चले गए। वहां दो भोजपुरी फिल्मों के लिए गीत लिखे। एक के लिए डायलाग व पूरी कहानी लिखी। 93 में हमेशा के लिए माया नगरी को छोड़ दिया। शहर में सामाजिकी जीवन से जुड़े। 94-95 में अंजोर के सेक्रेटरी बने। 1999 में त्यागपत्र दे दिया। जरुरतें परेशान करती रहीं। वकालत शुरु कर दी। हाई कोर्ट के वरीय अधिवक्ता व्यासमुनी सिंह की नजर उनपर पड़ी। वे उन्हें पटना ले गए। 2002 में उनका निधन हो गया। तब नयन जी ने वकालत भी छोड़ दी.
"नयन" जी की एक ग़ज़ल के ये शेर लगता है उन्होंने अपने पर ही कहे हैं :

अजीब शख़्स है वो जो तबाह-हाल रहा 
तमाम उम्र मगर फिर भी बा-कमाल रहा 

मिला न वक़्त कभी ख़ुद से मिलने का ही मुझे 
कि सामने तो मिरे आपका सवाल रहा 

मुझे मुआफ़ करो ऐ मिरे अज़ीज़ ग़मों 
मैं सोचने में कोई शे'र बेख़याल रहा 

हालात ऐसे बने की नयन कलम से जुदा नहीं हो सके। रास्ते कई बदले पर कलम खींच कर अपने पास ले आती रही। यह बात अब उनको भी समझ में आने लगी। जीवन के सफर में जो लिखा था। उसे सहेजने लगे। 1993 में पहला कविता संग्रह पांव कटे बिम्ब प्रकाशित हुआ था। उसने रफ्तार पकड़ी। अब तक कुल पांच पुस्तकें आई हैं। जिनमें आग बरसाते हैं शजर (गजल संग्रह), दयारे हयात (गजल संग्रह), एहसास आदि प्रमुख हैं। उनकी अगली रचना "सोंचती हैं औरतें", प्रकाशित होने वाली है।
वर्ष 2017 फरवरी को पटना में आयोजित पुस्तक मेले में उनकी गजल की पुस्तक "दयारे हयात" सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तक रही।

बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं 
वतन में अपने ही अब हम नहीं क्या

ख़ुशी से आज भी क्यों जी रहा हूँ 
मुझे ग़म होने का कुछ ग़म नहीं क्या 

लहू क्यों खौलता रहता है हर दम 
सुकूँ का अब कोई मौसम नहीं क्या 

कुमार नयन साहब को ढेरों सम्मान और पुरूस्कार मिले हैं जिनमें बिहार भोजपुरी अकादमी सम्मान , कथा हंस पुरूस्कार, निराला सम्मान ,और ग़ालिब सम्मान उल्लेखनीय हैं।पिछले साल याने 2017 में , पटना में 30 मार्च को राजभाषा की ओर से शिक्षा मंत्री अशोक चौधरी की उपस्थिति में शीर्ष कवि केदारनाथ सिंह ने उन्हें राष्ट्रकवि दिनकर पुरस्कार प्रदान किया. साथ ही कुमार नयन को पुरस्कार की राशि एक लाख रुपए भी प्रदान की गयी। कुमार नयन साहब की शायरी में कई रंग हैं जिन्हें इस पोस्ट में समाया नहीं जा सकता , मैंने सिर्फ उनकी चंद ग़ज़लों के अशआर ही आप तक पहुंचाए हैं ,

मिरे घर में कहानी है अभी तक
मिरे बच्चों की नानी है अभी तक 

घड़ा मिटटी का पत्तों की चटाई
बुजुर्गों की निशानी है अभी तक 

कोई गिरधर यहाँ हो या नहीं हो 
मगर मीरा दीवानी है अभी तक 

वहां उम्मीद कैसे छोड़ दूँ मैं 
जहाँ आँखों में पानी है अभी तक

राधाकृष्ण प्रकाशन 7 /31 अंसारी मार्ग ,दरियागंज नै दिल्ली से प्रकाशित इस किताब में नयन जी की लगभग 111 ग़ज़लें संग्रहित हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप राधाकृष्ण प्रकाशन की वेब साईट www.radhakrishnaprkashan.com पर जा कर इस किताब का आर्डर कर सकते या फिर आप कुमार नयन साहब को इस पते पर ई-मेल kumarnayan.bxr@gmail.com करें या फिर उन्हें 9430271604 पर फोन कर के बधाई देते हुए पुस्तक प्राप्ति का रास्ता पूछें।
आखिर में चलते चलते आईये नयन जी की एक और ग़ज़ल के शेर आपको पढ़वाता हूँ :

मिरा दुश्मन लगा मुझसे भी बेहतर 
मैं उसके दिल के जब अंदर गया तो 

मिरे बच्चों से होंगी मेरी बातें 
किसी दिन वक़्त पर मैं घर गया तो

मैं ख़ाली ट्यूब हूँ पहिये का लेकिन
हवा बनकर तू मुझमें भर गया तो 

मन कर रहा है कि एक और ग़ज़ल के शेर आप तक पहुंचा दूँ ,मुझे बहुत अच्छे लगे उम्मीद है आप भी इन्हें पढ़ कर वाह करेंगे , देखिये न छोटी बहर में नयन जी ने क्या हुनर दिखाया है :

वहां पाखण्ड चल नहीं सकता 
जहाँ कोई कबीर ज़िंदा है 

इक पियादा हो जब तलक ज़िंदा 
तो समझना वज़ीर ज़िंदा है 

तेरी दुनिया में मर गयी होगी 
मेरी दुनिया में हीर ज़िंदा है

19 comments:

नकुल गौतम said...

ज़मीन से जुड़े शायरों में एक अलग फ़िक्र नज़र आती है, एक अलग ही बात होती है। और दुःख यह है कि ऐसी शायरी आसानी से पढ़ने को नहीं मिलती।

आप ढूंढ लाते हैं हमारे लिए तो हमें भी तर करवा देते हैं।


मेरी सलामती की दुआ दुश्मनों ने की
सचमुच ये उनका मुझको हराना लगा मुझे


मैं जी रहा हूँ कम नहीं इतना मिरे लिए
सर पर मिरे ख़ुदा क़सम कोई ख़ुदा नहीं


आपने भी फाड़ डाली अपनी सारी अर्ज़ियाँ
आप भी खुद्दार हैं यह जान कर अच्छा लगा

मिरे घर में कहानी है अभी तक
मिरे बच्चों की नानी है अभी तक

कितने ख़ूब अशआर चुने हैं आपने। किताब पढ़ने की तीव्र इच्छा जागृत हो गयी।
ऐसे शायर से मुलाक़ात करवाने के लिए हार्दिक आभार

सादर
नकुल

yashoda Agrawal said...

बेहतरीन अशृआर पढ़वाए आपने
अब चैन तब ही मिलेगा जब किताब हाथ लगेगी
सादर

राजीव कुमार झा said...

कुमार नयन की शायरी पढ़कर अच्छा लगा.उनके बारे में विस्तार से पहले कहीं पढ़ने को नहीं मिला था.
मैं दुश्मनों के बहुत ही क़रीब रहता हूँ
समझ के सोच के यारों में ढूंढना मुझको
बहुत खूब !

Kuldeep said...

बहुत ही उम्दा । साधारण लफ़्ज़ों और शैली में संजीदा तब्सिरा ।

आदरणीय कुमार नयन जी को उनके कार्य और भविष्य की लाख लाख बधाइयाँ ।

आपकी लेखनी यूँ ही चलती रहे । आदरणीय नीरज जी आप साहित्यकारों को मंच देकर नेक कार्य कर रहे हैं । बधाई

नीरज गोस्वामी said...

Received on Fb:-

Behtareen intikhaab

Shailesh Jain
Lalitpur
UP

नीरज गोस्वामी said...

Received on Fb:

कुमार नयन जी से मिलवाने का बेहद शुक्रिया.. इतने ख़ूबसूरत अशआर हैं कि हैरान रह जाना पड़ा.. सच कहता हूँ बिहार का होकर भी पहले इनके क़लाम से रूबरू नहीं हुआ था.

Kamlesh Pandey
New Delhi

नीरज गोस्वामी said...

Received on Fb:

वाह क्या कहने शानदार सर नीरज गोस्वामी जी " कोई गिरधर यहां हो या नहीं हो। मगर मीरा दीवानी है अभी तक।। " नयन साहब के इस शेर की तरह हर सोमवार मीरा सी दीवानगी अपने अंदर समझ कर आपके ब्लाग का हर सोमवार को इंतज़ार रहता है और आपकी पोस्ट पढने के बाद शायर और शायरी के प्रति मीरा सी दीवानगी तारी हो जाती है। नीरज गोस्वामी जी


Brajendra Goswami
Bikaner

नीरज गोस्वामी said...

received on Fb:-

Bhaut Khoob

Ravi Dutt Sharma
Gurgaon

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, गणतंत्र दिवस समारोह का समापन - 'बीटिंग द रिट्रीट'“ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

तिलक राज कपूर said...

सौभाग्यशाली हैं आप, कि इन समीक्षाओं के बहाने आपको नई-नई पुस्तकें पढ़ने का समय मिल जाता है और पढ़ने की ऊर्जा बरकरार है। ईश्वर आपकी यह ऊर्जा बनाए रखे और इसी तरह नए-नए शायरों से हमारा परिचय होता रहे।

दूर तक मंज़िल न कोई मरहला इस राह में
मील का पत्थर नहीं फिर भी सफ़र अच्छा लगा

आपने भी फाड़ डाली अपनी सारी अर्ज़ियाँ
आप भी खुद्दार हैं यह जान कर अच्छा लगा

हैं वो ही दीवारो-दर आँगन वो ही बिस्तर वो ही
शख़्स इक आया तो मुद्दत बाद घर अच्छा लगा

कितने दृश्य हमारे आस पास ही बिखरे पड़े होते हैं यह ऐसे शेर पढ़कर ही समझ आता है।

Parul Singh said...

अच्छी समीक्षा

Amit Thapa said...

एक बार फिर से नीरज जी का तहेदिल शुक्रिया की इस बेहतरीन शायर और उसकी बेहतरीन शायरी से हमारा तआ'रुफ़ कराया अन्यथा इन्हें तो खोज पाना बहुत ही मुश्किल है क्योकि हर तरीके से खोजने पे भी गूगल बाबा से सिर्फ दो ही खबर इनके बारे में मिल पाई।

जाने क्यों मुझे आज तक एक बात समझ नहीं आई की कोई भी शायर जो जमीन से जुड़ा है, आम आदमी की जुबां में अपनी बात कहता हों वो तबियत और दौलत से फक्कड़ ही क्यों होता है चाहे वो ग़ालिब हो, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' हो या फिर जॉन एलिया या फिर कुमार नयन ही, हर तरह से अपने में मस्त, बेपरवाह।

"बाजे अनहद नाद कबीरा गाये रे ,
रोके जिस अकबर से रोका जाए रे"

खैर अब बात करते है इन बेहतरीन ग़ज़ल और बेहतरीन अश’आर के रचियता कुमार नयन साहब की ।
तुम समुन्दर हो न समझोगे मिरी मजबूरियां
एक दरिया क्या करे पानी उतर जाने के बाद

एक बेहतरीन शेर

फ़क़त गुलों की हिफ़ाज़त का काम ही है मिरा
चमन में जाना तो ख़ारों में ढूंढना मुझको

शायद ये शायर की मिलने की जगह है की आज के दौर में होते हुए भी वो उन सब जगहों से दूर है जंहा से उसे मशहूर होने का मौका मिल सके

हर सू यहाँ पे दर्द के ही फूल हैं खिले
रुकने का इसलिए ये ठिकाना लगा मुझे

फक्कड़ फाकामस्त होते हुए भी दूसरों के दर्दो की परवाह ही रहती है इन्हें

सबकुछ है तेरे पास मेरे पास कुछ नहीं
अब तेरे-मेरे बीच कोई फ़ासला नहीं

किसी के पास सब कुछ और किसी के पास कुछ नहीं पर जिसके पास कुछ नहीं वो अपनी फाकाकशी में भी खुश है

मुन्सिफ़ बने हो तुम मिरे तो सोच लो ज़रा
इन्साफ़ मांगने चला हूँ फ़ैसला नहीं

काश इस देश के मुंसिफ भी ये समझ लेते की फैसला देने से ही इंसाफ नहीं होता, आज भी देश का आम इंसान सिर्फ उन ख्वाबों की ताबीर को पूरा होने की राह देख रहा है जो उसे आजादी के समय दिखाई गयी थी

हैं वो ही दीवारो-दर आँगन वो ही बिस्तर वो ही
शख़्स इक आया तो मुद्दत बाद घर अच्छा लगा

ये वो शेर है जो आज की हमारी भागदौड़ से भरी व्यस्तता से परिपूर्ण जिन्दगी के बीच काफी फुर्सत के पलों को दिखाता है जो की आजकल बहुत ही मुश्किल से मिल पाता है

बशीर बद्र साहब का एक शेर
मैं तमाम दिन का थका हुआ तू तमाम शब का जगा हुआ
ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ

मिला न वक़्त कभी ख़ुद से मिलने का ही मुझे
कि सामने तो मिरे आपका सवाल रहा

ये शेर तो मेरी ही सोच का एक हिस्सा ही मुझे लगा; कौन हूँ क्यों हूँ

मुझे मुआफ़ करो ऐ मिरे अज़ीज़ ग़मों
मैं सोचने में कोई शे'र बेख़याल रहा

ना कोई परवाह ना ही परेशानी बस मगन हूँ मैं अपनी धुन में


मिरे घर में कहानी है अभी तक
मिरे बच्चों की नानी है अभी तक

आज के एकल परिवारों की कहानी, बच्चों को कैसे समझाए रिश्तों की कहानी; कौन है नानी कौन है दादी कौन उन्हें सुनाए रोज कहानी; कैसे दे उन्हें हम संस्कार; अच्छा इंसान कैसे उन्हें बनाए

घड़ा मिटटी का पत्तों की चटाई
बुजुर्गों की निशानी है अभी तक

बुजुर्गों की अहमियत समझाता ये शेर


मिरे बच्चों से होंगी मेरी बातें
किसी दिन वक़्त पर मैं घर गया तो

जिन्दगी की उलझनों में उलझे रहना ही हमारू फितरत बन गयी है

ऐसे ही राजेश रेड्डी साहब का शेर

शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं


इक पियादा हो जब तलक ज़िंदा
तो समझना वज़ीर ज़िंदा है

उम्मीद पे ही दुनिया कायम है; हिम्मत ना ही हारना इंसान की फितरत है


बहुत ही उम्दा आमजन की जुबान में कही गयी गजलें और अश’आर, बेहतरीन बस बेहतरीन एक से बढ़ कर एक रचना

महेन्‍द्र वर्मा said...

कुमार नयन जी की शायरी सचमुच लाजवाब है। आपके शब्दों ने नयन जी के निराले व्यक्तित्व का सजीव रेखांकन किया है।

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

नीरज भाई अरसा बाद पढने का लुत्फ़ आया। आप कमाल का काम कर रहे हैं।

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

हमेशा की तरह एक बार फिर ख़ूबसूरत अशआर के नगीने बटोर कर लाए हैं आप! आपकी हर पोस्ट पढ़ने के क़ाबिल होती है। आप शायर के तसव्वुर के समंदर की गहराई में उतर कर जो कुछ भी लेकर लौटते हैं गौहर ही होता है! और फिर उस गौहर को प्रस्तुत करने का अनूठा अंदाज़! नमन कुमार नयन साहब और आपको!

mgtapish said...

मिरे नसीब में लिक्खी नहीं है तन्हाई
जो ढूढ़ना तो हज़ारों में ढूंढ़ना मुझको
Kya hi kahna waaaaaah waaaaaah waaaaaah
Sundar lekh ki bahut badhai

Unknown said...

शायर कुमार नयन पर पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत साधुवाद!चर्चा के क्रम में आपने ठीक ही लिखा है --'नतीजा शहर की सड़कें भी इनको पहचानने लगी हैं। इस तरह का इंसान खुद्दार क़िस्म का होता है औऱ ऎसे इंसान की सोच भी सबसे अलग होती है,ये अपने लिए नहीं समाज के लिए काम करता है। '
वाकई इनकी खुद्दारी की गाथा अप्रतिम है। शहर की सड़कें हो, समाहरणालय औऱ अन्य सरकारी कार्यालयों की दीवारें हो या फिर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म,इनके संघर्षों की गवाह रही हैं। बच्चों की मुस्कान के सवाल पर धरना-प्रदर्शन की बात हो, कर्मचारियों-श्रमिकों के आंदोलन को लाल पताका उठाये दिशा देना हो, या फिर छोटे से बड़े स्थानीय -राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस मुबाहिसों के साथ संघर्ष को आगे बढ़ाना हो ;कुमार नयन अपने फक्कड़ अंदाज में आम से ख़ास पोशाक में आज भी अग्रिम पंक्ति में नजर आते हैं। उनके संघर्षों की लंबी दास्तान है।
ब्लॉग के लेखक ने साहित्य से इतर कुमार नयन के व्यक्तित्व के इस महत्वपूर्ण पहलू को जाने अनजाने में छोड़ दिया है,यों कहा जाए फिसल गया है।गाहे बगाहे इसे मैं जोड़ रहा हूँ। सन 1974 के जेपी आंदोलन में बक्सर के इस शायर को कई बार जेलों की यात्रा भी करनी पड़ी है।यह भी इनके सम्मान के लिए मोरपंख लगाने जैसा है।
हम जैसे कई अदीबों को उनके सोहबत में काफ़ी कुछ सीखने का मौका मिला है।मेरी पुस्तक 'राजधानी एक्सप्रेस जा चुकी है '(कहानी संग्रह), जो बोधि प्रकाशन, जयपुर से आयी है, में भी उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया है, जिसके फलस्वरूप आज यह पुस्तक चर्चा बनाने में सफल रही है।AMAZON पर भी इसके कई रिव्यू आ चुके हैं।
एक बार फिर देश के बड़े पाठकवर्ग को कुमार नयन से परिचित कराने के लिए नीरज गोस्वामी जी को धन्यवाद !
अखिलेश कुमार
akhileshkr1171@gmail.com

SATISH said...

Waaah kya kahney bahut khoob ... Raqeeb

Unknown said...

बहत ही असरदार और आम मसाईलों को दिखती शायरी