ये मत भूलो कि ये लम्हात हमको
बिछुड़ने के लिए मिलवा रहे हैं
तुम्हें चाहेंगे जब छिन जाओगी तुम
अभी हम तुमको अरज़ाँ पा रहे हैं
अरज़ाँ =सस्ता
दलीलों से उसे क़ायल किया था
दलीलें दे के अब पछता रहे हैं
अजब कुछ रब्त है तुमसे कि तुमको
हम अपना जानकर ठुकरा रहे हैं
रब्त =सम्बन्ध
मकबूलियत याने प्रसिद्धि भी अजीब शै है किसी को बिना कुछ किये मिल जाती है तो किसी को ता-उम्र खटने पर भी नहीं हासिल होती और किसी बदनसीब को मरने के सालों बाद इतनी मिलती है कि पूछो मत। अगर मैं इन सब के उदाहरण देने बैठूं तो सुबह से शाम हो जाएगी लेकिन मेरी फेहरिश्त मुकम्मल नहीं होगी।
हमारे आज के शायर अलग ही श्रेणी में आते हैं जिन्हें प्रसिद्धि उनके जीते जी मिली जरूर लेकिन इतनी नहीं जितनी कि दुनिया ऐ फ़ानी से रुख़सत होने के बाद।
अब तो तुम शहर के आदाब समझलो जानी
जो मिला ही नहीं करते वो मिला करते हैं
मैं, जो कुछ भी नहीं करता हूँ , ये है मेरा सवाल
और सब लोग जो करते हैं वो क्या करते हैं
अब ये हालते-अहवाल कि इक याद से हम
शाम होती है तो बस रूठ लिया करते हैं
हालते-अहवाल =स्थिति-परिस्थिति
कौन से शौक़,किस हवस का नहीं
दिल मेरी जान तेरे बस का नहीं
मुझको ख़ुद से जुदा न होने दो
बात ये है मैं अपने बस का नहीं
क्या लड़ाई भला कि हममें से
कोई भी सैकड़ों बरस का नहीं
" जॉन ईलिया " नाम है हमारे आज के शायर का जो खुद सैंकड़ों बरस तो नहीं जिए लेकिन जिनकी शायरी सैंकड़ों क्या हज़ारों साल तक ज़िंदा रहेगी, जिनकी हाल ही में तीन किताबें हिंदी लिपि में प्रकाशित हुई हैं। लगे हाथ आपको बताता चलूँ कि जॉन साहब की महज़ एक किताब " शायद " उनके जीते जी प्रकाशित हुई थी बाद में जनाब 'ख़ालिद अहमद अंसारी' ने उनकी शायरी को "यानी" (2003), "गुमान"(2004 ), "लेकिन"(2006) और "गोया" ( 2008 ) शीर्षक से संकलित कर प्रकाशित करवाया। ये सभी किताबें उर्दू में थीं ,भला हो ऐनीबुक पब्लिकेशन के पराग अग्रवाल और उनकी पूरी टीम का जिन्होंने अपनी अथक मेहनत से हम हिंदी पढ़ने बोलने वालों के लिए "गुमान" और "लेकिन" को हिंदी लिपि में प्रकाशित करवाया है।
" जॉन ईलिया " नाम है हमारे आज के शायर का जो खुद सैंकड़ों बरस तो नहीं जिए लेकिन जिनकी शायरी सैंकड़ों क्या हज़ारों साल तक ज़िंदा रहेगी, जिनकी हाल ही में तीन किताबें हिंदी लिपि में प्रकाशित हुई हैं। लगे हाथ आपको बताता चलूँ कि जॉन साहब की महज़ एक किताब " शायद " उनके जीते जी प्रकाशित हुई थी बाद में जनाब 'ख़ालिद अहमद अंसारी' ने उनकी शायरी को "यानी" (2003), "गुमान"(2004 ), "लेकिन"(2006) और "गोया" ( 2008 ) शीर्षक से संकलित कर प्रकाशित करवाया। ये सभी किताबें उर्दू में थीं ,भला हो ऐनीबुक पब्लिकेशन के पराग अग्रवाल और उनकी पूरी टीम का जिन्होंने अपनी अथक मेहनत से हम हिंदी पढ़ने बोलने वालों के लिए "गुमान" और "लेकिन" को हिंदी लिपि में प्रकाशित करवाया है।
क्या हमारा नहीं रहा सावन
जुल्फ़ याँ भी कोई घटा भेजो
हम न जीते हैं और न मरते हैं
दर्द भेजो न तुम दवा भेजो
कुछ तो रिश्ता है तुमसे कमबख़्तो
कुछ नहीं, कोई बद्दुआ भेजो
चुने हुए हैं लबों पर तेरे हज़ार जवाब
शिकायतों का मज़ा भी नहीं रहा अब तो
यक़ीन कर जो तेरी आरज़ू में था पहले
वो लुत्फ़ तेरे सिवा भी नहीं रहा अब तो
वो सुख वहाँ कि ख़ुदा की हैं बख़्शिशें क्या-क्या
यहाँ ये दुःख कि ख़ुदा भी नहीं रहा अब तो
दिल की तक्लीफ़ कम नहीं करते
अब कोई शिकवा हम नहीं करते
जाने-जां तुझको अब तेरी खातिर
याद हम कोई दम नहीं करते
वो भी पढता नहीं है अब दिल से
हम भी नाले को नम नहीं करते
जुर्म में हम नमी करें भी तो क्यों
तुम सज़ा भी तो कम नहीं करते
कभी कभी तो बहुत याद आने लगते हो
कि रूठते हो कभी याद आने लगते हो
ये बात 'जौन' तुम्हारी मज़ाक है कि नहीं
कि जो भी हो उसे तुम आज़माने लगते हो
तुम्हारी शायरी क्या है भला, भला क्या है
तुम अपने दिल की उदासी को गाने लगते हो
जॉन साहब की शायरी की किताब "गुमान" ऐनीबुक पब्लिकेशन ने बहुत लम्बे इंतज़ार के बाद पाठकों के हाथों में पहुंचाई। किताब हाथ में लेते ही सारे गिले शिकवे दूर हो गए , पेपर बैक में छपी ये किताब पढ़ते वक्त एहसास होता है कि इसका हिंदी लिप्यांतर करते वक्त कितनी परेशानियां आयी होंगीं। मुश्किल उर्दू लफ़्ज़ों का सटीक अर्थ हिंदी में दिया गया है इसके लिए शायर इरशाद खान सिकंदर और खुद पराग बधाई के पात्र हैं। उर्दू शायरी की समझ और दीवाने हुए बिना किसी भी अनुवादक और प्रकाशक के लिए ये काम कतई आसान नहीं है।
ये है तामीर-दुनिया का ज़माना
हवेली दिल की ढाई जा रही है
कहाँ का दीन, कैसा दीन, क्या दीन
ये क्या गड़बड़ मचाई जा रही है
मुझे अब होश आता जा रहा है
खुदा ! तेरी ख़ुदायी जा रही है
नहीं मालूम क्या साज़िश है दिल की
कि ख़ुद ही मात खायी जा रही है
मुझको ख्वाहिश ही ढूंढने की न थी
मुझमें खोया रहा ख़ुदा मेरा
जब तुझे मेरी चाह थी जानां
बस वही वक्त था कड़ा मेरा
कोई मुझ तक पहुँच नहीं पाता
इतना आसान है पता मेरा
17 comments:
अलग मिज़ाज़ के शायर थे जॉन एलिया साहब...बेहतरीन, बेशक़ीमती अशआर पढ़ने को मिले, शुक्रिया
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (30-05-2017) को
"मानहानि कि अपमान में इजाफा" (चर्चा अंक-2636)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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Alok Chaturvedi
JAIPUR
ये बहुत अच्छा किया जी, बधाई
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Himkar Shyam
किताबों की दुनिया पुनः शुरू करने के लिए बधाई संग आभार।
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Shailesh Jain
नई शुरुआत के लिए हार्दिक शुभकामनाएं
LALITPUR
UP
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आरती आलोक वर्मा
बहुत बहुत सुंदर पोस्ट
SIWAN- BIHAR
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Satyaprakash Sharma
Aap ek badi si badhai ke musthaq hain!
LUCKNOW
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सुरेश गोस्वामी 'सुरेशजी'
वाह नीरज जी, सुंदर पोस्ट। नेक कार्य के लिए बधाई।
JAIPUR
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Nilesh Mishra
Mai to unko nahi janta tha magar aapne Kohinoor se dhool hatakar uas chhipi hue jyoto KO navjiban diya hai, adhbut...
KHOPOLI
MAHARASHTRA
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Pankaj Pandey
बहुत बहुत बधाई और शुक्रिया सर जी
LUCKNOW
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Rajendra Tiwari
bhai is post ke liye vishesh badhai, mere liye ek ahsan jaisi post
LUCKNOW
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Bhoopendra Singh
स्वागत आदरणीय बन्धु का किताबो की दुनिया मे वापसी पर।
REWA
MP
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Ashok Mizaj Badr
Very Good Post
GWALIOR
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Anil Saxena Annee
आभार और बधाई
JAIPUR
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Navin C. Chaturvedi
भाई आप अदब के चाहने वाले हैं
MUMBAI
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Irshad Khan Sikandar
बहुत शुक्रिया और वापसी का स्वागत
DELHI
आज फिर यू ही घूमता फिरता आपके ब्लॉग पे चला आया नीरज जी, फिर जो देखा उसे देख कर मन खुश हो गया, बहुत बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग फिर से चलते हुए देख कर और उस पे भी ऐसे शायर की बात जो मिजाज़ से फक्कड़ हो पर जुबाँ से अमीर
आपकी भेजी हुई किताबे मिली, और मिलते ही मन में पढने की धुन सवार हो गयी; आपकी गज़ले पढ़ी एक से बढ़ कर, किताब की पहली ही ग़ज़ल का मतला इतना शानदार की उसे कई बार पढ़ा, कई बार गुनगुनाया
समझेगा दीवाना क्या
बस्ती क्या विराना क्या
और मक्ते ने जिन्दगी का सार ही सामने रख दिया
'नीरज'सुलझाना सीखो
मुद्दों को उलझाना क्या
काश हम सब ये सीख पाते, तो इस दुनिया के हालात ही कुछ अलग होते; छोटी बहर की ये ग़ज़ल पढ़ कर मैं इस ग़ज़ल पे ही अटक कर रहा गया
ऐसी ही ना जाने कितनी गजले जो जिन्दगी की सच्चाई से रूबरू कराती है
आपका बहुत बहुत धन्यवाद
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