Monday, May 22, 2017

आइना संगसार करना था

बहुत अरसा हुआ ब्लॉग पर किताबों के बारे में कुछ लिखे या कोई ग़ज़ल कहे , कोई कारण नहीं था बस मन ही नहीं हुआ। अब इस उम्र में दिमाग पर जोर डालकर कोई काम करने का मन नहीं करता जब जो सहज भाव से हो जाय वही ठीक लगता है। अचानक लफ्ज़ के पोर्टल पर एक तरही मिसरे को देख कर सोचा की कुछ कहूं पर क्या कहूं इसी सोच में दिन बीतते गए। जैसे तैसे टुकड़ों में शेर कहने की कोशिश की और हमेशा की तरह निहायत सीधी सादी साधारण सी ग़ज़ल हो गयी जिसे साझा कर हूँ। जैसे आप सब पहले भी मुझे पढ़ते आये हैं वैसे अब भी पढ़ ले और मन कहे तो भला बुरा भी कह दें। तरही मिसरा था " हमको ये दश्त पार करना था"



दिल हमें बेकरार करना था 
आपका इंतिज़ार करना था 

जिस्म को बेचना गुनाह नहीं 
रूह का इफ़्तिख़ार करना था 
इफ़्तिख़ार=सम्मान

 उस तरफ वो मिले मिले न मिले 
हमको ये दश्त पार करना था 
दश्त = जंगल

बोझ पलकों पे बढ़ गया मेरी 
झील को आबशार करना था 
आबशार =झरना

क्यों पशेमा है देख कर चेहरा 
आइना संगसार करना था 
संगसार = पत्थर मार कर तोडना

मैं मिटा कर उसे हुआ तनहा 
अपने दुश्मन से प्यार करना था 

जानेमन, बच गया हूँ शर्म करो 
 तुमको भरपूर वार करना था

10 comments:

Himkar Shyam said...

उम्दा अशआर, उम्दा ग़ज़ल

संजीव गौतम said...

उम्दा ग़ज़ल हुई है।

'एकलव्य' said...

वाह ! ,बेजोड़ पंक्तियाँ ,सुन्दर अभिव्यक्ति , आभार "एकलव्य"

दिगम्बर नासवा said...

उस्ताद लोग जो कह देते हैं ग़ज़ल बन जाता है ... फिर आपने तो फिर से ये बात इस तरही के माध्यम से सिद्ध कर दी ... हर शेर सादा, सीशा और सच्चा ... सुभान अल्ला ...

शुभा said...

वाह !!क्या खूब कहा है ।

Sudha Devrani said...

वाह!!!
बहुत सुन्दर गजल....

रश्मि शर्मा said...

बहुत उम्दा गज़ल

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

आदरणीय बहुत बढिया ग़ज़ल कही है बहुत ख़ूब।

Onkar said...

बहुत बढ़िया

Amit Thapa said...
This comment has been removed by the author.