Monday, November 7, 2016

उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

इस दिवाली पर गुरुदेव पंकज सुबीर जी के ब्लॉग पर हुए कामयाब तरही मुशायरे में खाकसार ने भी शिरकत की, तरही मिसरा था 'उजाले के दरीचे खुल रहे हैं'. आप सब के लिए यहाँ पेशे खिदमत है वो ही सीधी-सादी सी ग़ज़ल थोड़ी सी तब्दीली के साथ। सीधी-सादी ग़ज़ल माने ऐसी ग़ज़ल जिसे कहने में शायर को और पढ़ने में पाठक को दिमाग न लगाना पड़े. पढ़ लें पसंद करें न करें आपकी मर्ज़ी.


सभी दावे दियों के खोखले हैं 
अँधेरे जब तलक दिल में बसे हैं 

पुकारो तो सही तुम नाम लेकर 
 तुम्हारे घर के बाहर ही खड़े हैं

अहा ! कदमों की आहट आ रही है 
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं 

है आदत में हमारी झुक के मिलना 
 तभी तो आप से हम कुछ बड़े हैं

बहुत दिलकश है गुलशन ज़िन्दगी का 
कहीं कांटे कहीं पर मोगरे हैं 

जिन्हें मैं ढूढता फिरता हूँ बाहर 
वो दुश्मन तो मेरे भीतर छुपे हैं 

ग़मों के बंद कमरे खोलने को 
तुम्हारे पास 'नीरज' कहकहे हैं

11 comments:

nayee dunia said...

bahut sundar...

ब्लॉग बुलेटिन said...

आज सलिल वर्मा जी ले कर आयें हैं ब्लॉग बुलेटिन की १५०० वीं पोस्ट ... तो पढ़ना न भूलें ...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है - १५०० वीं ब्लॉग-बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Digvijay Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 09 नवम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

दिगम्बर नासवा said...

वाह नीरज जी ... इस कमाल की ग़ज़ल के क्या कहने ... सादगी से कहे शेर दिल को छू राहे हैं ... मतले से लेकर ... फिर गिरह .. कमाल ही कमाल है ... मेरी शुभकामनायें ...

Onkar said...

बहुत बढ़िया

शारदा अरोरा said...

vaah bahut badhiya...

SATISH said...



Waaaaah ! bahut khoob ... har she'r ek khoobsoorat
paighaam liye huye hai ...... Raqeeb

Asha Joglekar said...

है आदत में हमारी झुक के मिलना,
तभी तो आप से हम कुछ बडे हैं ।

बिलकुल सही फरमाया कुछ नही बहुत बडे हैं आप। खूबसूरत गजल।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

है आदत में हमारी झुक के मिलना
तभी तो आप से हम कुछ बड़े हैं

सही

DR.CHANDRAKUMAR JAIN

Binita Jha said...

Bahut khub!

vedandquraan said...

हर शख्स इस बात से परेशान था
मरने वाला हिन्दू या मुसलमान था
इंसानियत इस जहां से रुखसत हुई
मैं इस दौर का होकर पशेमान था
अकमल