वहाँ हैं त्याग की बातें, इधर हैं मोक्ष के चर्चे
ये दुनिया धन की दीवानी इधर भी है उधर भी है
हुई आबाद गलियाँ, हट गया कर्फ्यू , मिली राहत
मगर कुछ कुछ पशेमानी इधर भी है उधर भी है
हमारे और उनके बीच यूँ तो सब अलग सा है
मगर इक रात की रानी इधर भी है उधर भी है
हरेक शख्स मेरा दोस्त है यहाँ लोगो
मैं सोचता हूँ कि खोलूं दुकान किसके लिए
ग़रीब लोग इसे ओढ़ते-बिछाते हैं
तू ये न पूछ कि है आसमान किसके लिए
बड़ी सरलता से पूछा है एक बच्चे ने
अगर ये शहर है , तो फिर मचान किसके लिए
मैं कहता हूँ मेरा कुछ अपराध नहीं है
मुंसिफ कहता है जुर्माना लगा रहेगा
लाठी, डामर, चमरोधा, बीड़ी का बण्डल
साथ ग़रीबी का नज़राना लगा रहेगा
बहुत जरूरी है थोड़ी सी खुद्दारी भी
भेड़ बना तो फिर मिमियाना लगा रहेगा
30 जनवरी 1949 को बहादुरगढ़, हरियाणा में जन्में ज्ञान जी का नाम हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत कुमार के साथ लिया जाता है। उनके ग़ज़ल संग्रह "धूप के हस्ताक्षर" , "आँखों में आसमान" और "इस मुश्किल वक्त में " प्रकाशित हो कर धूम मचा चुके हैं. "गुफ्तगू अवाम से है " ग़ज़ल संग्रह सन 2008 में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ था और अब तक याने सात आठ साल बाद भी उतना ही लोकप्रिय है। संग्रह पढ़ते हुए इसकी इतनी बड़ी लोकप्रियता का अंदाज़ा अपने आप लगने लगता है। संग्रह की सभी 66 ग़ज़लें पाठकों को आप बीती सी लगती हैं। सुगम सरल भाषा की ये ग़ज़लें पढ़ते सीधे पाठक के दिल में उत्तर जाती हैं और येही शायर की सबसे बड़ी कामयाबी है।
पहाड़ों पर चढ़े तो हाँफना था लाज़मी लेकिन
उतरते वक्त भी देखीं कई दुश्वारियां हमने
किसी खाने में दुःख रक्खा , किसी में याद की गठरी
अकेले घर में बनवायीं कई अलमारियां हमने
सजाया मेमना, चाकू तराशा, ढोल बजवाये
बलि के वास्ते निपटा लीं सब तैयारियां हमने
बस और कुछ न किया मैंने एक उम्र के बाद
पिता की जेब से पैसे चुराना छोड़ दिया
हवाएँ पूछती फिरती हैं नन्हें बच्चों से
ये क्या हुआ कि पतंगे उड़ाना छोड़ दिया
अगर बड़े हों मसाइल तो रंजिशें अच्छी
ज़रा सी बात पे मिलना-मिलाना छोड़ दिया
तुम्हारी प्रार्थना के शब्द हैं थके हारे
सजा के देखिये कमरे में ख़ामुशी मेरी
मुझे भँवर में डुबोकर सिसकने लगता है
बहुत अजब है समंदर से दोस्ती मेरी
खड़ा हूँ मश्क लिए मैं उजाड़ सहरा में
किसी की प्यास बुझाना है बंदगी मेरी
ज़िंदा रहने का हुनर उसने सिखाया होगा
जिसने आंधी में चरागों को जलाया होगा
तू जरा देख जमूरे की फटी एड़ी को
उसको रोटी के लिए कितना नचाया होगा
थाप ढोलक की, डली गुड की, दिया मिटटी का
खूब त्योंहार ग़रीबों ने मनाया होगा
66 ग़ज़लों के बेजोड़ संग्रह से सिर्फ कुछ के शेर आप तक पहुँचाना निहायत ही मुश्किल काम है जनाब लेकिन क्या किया जाय पूरी किताब तो आप तक पहुंचे नहीं जा सकती मेरा काम तो सिर्फ खूबसूरत मंज़िल तक जाने वाले रास्ते की झलक दिखाना ही है मंज़िल तक पहुँचने के लिए चलना तो आपको ही पड़ेगा। पोस्ट की लम्बाई का बहाना बनाते हुए आपसे विदा होने से पहले ज्ञान जी की एक और ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाते चलते हैं और बताते हैं कि कैसे ज्ञान जी का कलाम अजीब नहीं सबसे जुदा और दिलकश है :
तेरे अश्क जलते हुए दिये,तेरी मुस्कुराहटें चाँदनी
मैं तुझे कभी न समझ सका, तेरी दास्तान अजीब है
यहाँ मुद्दतों से खड़ा हूँ मैं ,यही सोचता कि कहाँ हूँ मैं
यहाँ सबके घर में दुकान है , यहाँ हर मकान अजीब है
नहीं मौसमों का गिला इसे, नहीं तितलियों से शिकायतें
तेरे बंद कमरे का जाने मन, तेरा फूलदान अजीब है
मुझे इल्म है मेरे दोस्तों मेरा तुम मज़ाक उड़ाओगे
मैं बिना परों का परिंद हूँ कि मेरी उड़ान अजीब है
8 comments:
Bahut umda neeraj ji..
शायर "ज्ञान प्रकाश विवेक" की किताब "गुफ्तगू अवाम से है" के बारे में सुन्दर समीक्षात्मक लेख प्रस्तुति हेतु आभार!
Vivek Ji Achchhe Ghazalkaar . Aapkaa Aabhaar Ki Aapne Unke Kaee Ashaar Padhwaaye Hain .
एक पैनी लेखनी से परिचय कराने का धन्यवाद!
बहुत जरूरी है थोड़ी सी खुद्दारी भी
भेड़ बना तो फिर मिमियाना लगा रहेगा
सटीक।
हमेशा की तरह एक और हीरे की प्रस्तुति का धन्यवाद।
सार्थक व प्रशंसनीय रचना...
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है।
बहुत सुन्दर
जिस दिन से मिली मुझको, किताबों की ये दुनिया
होती हूँ खफ़ा यदि कभी, नज़रें न मिलाए
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