"किताबों की दुनिया" श्रृंखला की ये पचासवीं कड़ी है. जब ये श्रृंखला शुरू की थी तो सपने में भी गुमान नहीं था के ये श्रृखला इस मुकाम तक पहुंचेगी. आज की भागमभाग वाली ज़िन्दगी में शायरी के लिए चाह के भी वक्त निकालना मुश्किल काम है. शायरी भीमसेन जोशी जी के विलंबित ख्याल गायन जैसी है जिसका लुत्फ़ उठाने के लिए आपके पास मन में सूकून और तसल्ली चाहिए जो आजकल कहीं किसी के पास दिखाई नहीं देती. इस सब के बावजूद आप पाठकों ने अब तक इस श्रृंखला का साथ दिया इसे पढ़ा और पसंद किया अतः इसे पचासवीं पायदान तक पहुँचाने के साथ साथ मेरी लाइब्रेरी को समृद्ध बनाने का श्रेय भी आपको ही जाता है. इस श्रृंखला के कारण ही मेरा व्यक्तिगत रिश्ता चंद बेहतरीन शायरों से बन सका जिसे मैं अपने जीवन की एक बड़ी उपलब्धि मानता हूँ. ये श्रृंखला आगे बढेगी या यहीं रुक जायेगी इसका जवाब देना अभी मुश्किल है.
आज हम अपनी बात की शुरुआत इन बेहतरीन शेरों से करते हैं:
अना के हाथ में तलवार किसने दे दी थी
कि लोग अपनी ही परछाइयों से लड़ने लगे
जो मंजिलें हैं तिरी, सर तुझी को करनी हैं
गिला न कर के तिरे हमसफ़र बिछड़ने लगे
तिरी तलब की ये रातें, ये ख़्वाब कैसे हैं
कि रोज़ नींद में हम तितलियाँ पकड़ने लगे
नींद में तितलियाँ पकड़ने वाले हमारे आज के शायर हैं मरहूम जनाब " मख्मूर सईदी " साहब जिनकी एक निहायत छोटी लेकिन लाजवाब शायरी की किताब "घर कहीं ग़ुम हो गया" का जिक्र हम कर रहे हैं. भला हो वाग्देवी प्रकाशन वालों और नन्द किशोरे आचार्य साहब का जिन्होंने मशहूर शायर जनाब शीन काफ़ निज़ाम साहब की मदद से पहली बार मख्मूर साहब का लाजवाब कलाम हिंदी पाठकों तक पहुँचाया है.
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया
वार वो करते रहेंगे, ज़ख्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना, संगो-सर के दर्मियां
बस्तियां "मख्मूर" यूँ उजड़ी कि सेहरा हो गयीं
फासिले बढ़ने लगे जब घर से घर के दर्मिया
भीड़ में है मगर अकेला है
उसका कद दूसरों से ऊंचा है
अपने अपने दुखों की दुनिया में
मैं भी तनहा हूँ वो भी तनहा है
खुद से मिल कर बहुत उदास था आज
वो जो हंस हंस के सबसे मिलता है
मख्मूर साहब को साहित्य अकादमी के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, दिल्ली और राजस्थान की उर्दू अकेदामियों ने भी सम्मानित किया. देश भर में होने वाले मुशायरों में ही नहीं विदेशों में भी उन्हें बहुत आदर के साथ शिरकत का न्योता भेजा जाता. उन्होंने भारत के अलावा और अमेरिका, पाकिस्तान दुबई, आबुधाबी की भी यात्रा की और उर्दू शायरी के चाहने वालों को अपने अशआरों से नवाज़ा.
न रस्ता न कोई डगर है यहाँ
मगर सबकी किस्मत सफ़र है यहाँ
जबां पर जिसे कोई लाता नहीं
उसी लफ्ज़ का सबको डर है यहाँ
न इस शहरे-बेहिस को सहरा कहो
सुनो ! इक हमारा भी घर है यहाँ
शहरे-बेहिस : संवेदना शून्य नगर
हवाओं की उंगली पकड़ कर चलो
वसीला यही मोतबर है यहाँ
वसीला: माध्यम, मोतबर : विश्वसनीय
जो ये शर्ते-तअल्लुक है, कि है हमको जुदा रहना
तो ख़्वाबों में भी क्यूँ आओ, ख्यालों में भी क्या रहना
पुराने ख़्वाब पलकों से झटक दो, सोचते क्या हो
मुक़द्दर खुश्क पत्तों का है, शाखों से जुदा रहना
अजब क्या है अगर मख्मूर तुम पर यूरिशे-ग़म^ है
हवाओं की तो आदत है चिरागों से ख़फ़ा रहना
^यूरिशे-ग़म: दुखों का हमला
नन्द किशोर आचार्य जी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं "मख्मूर साहब की शायरी आधुनिक है लेकिन आधुनिकतावादी नहीं है, वो परंपरा को अपने में उपजाती है , पर परम्परावादी नहीं है, वह सामाजिक आत्मीयता के गहरे अनुभव से गुज़रती है, पर प्रगतिवादी नहीं है. इसीलिए वो सीधे अपने अन्दर के पाठक को संबोधित है न कि किसी आलोचना समुदाय को."
कहीं पे ग़म तो कहीं पर ख़ुशी अधूरी है
मुझे मिली है जो दुनिया बड़ी अधूरी है
तिरे ख़याल से रोशन तो हैं दिलों के उफ़क़
जो तू नहीं है तो ये रौशनी अधूरी है
उफ़क़: क्षितिज
अगर कोई तिरी दीवानगी पे हँसता है
तो ग़ालिबन तिरी दीवानगी अधूरी है
हमारे बीच अभी आया नहीं कोई दुश्मन
अभी ये तिरी मिरी दोस्ती अधूरी है
उम्मीद है मख्मूर साहब की शायरी की बानगी आपको पसंद आई होगी. आप वाग्देवी वालों से इस किताब को मंगवाने की आसान सी प्रक्रिया से गुजरिये, इस बीच हम चलते हैं एक और किताब की तलाश में, अगर मिल गयी तो फिर हाज़िर होंगे और अगर नहीं मिली तो जय राम जी की...चलते चलते ये शेर भी पढ़ते चलिए क्या पता इन्हें पढ़ कर ही इस किताब को खरीदने की चाह आपके दिल में पैदा हो जाए:
नज़र के सामने कुछ अक्स झिलमिलाये बहुत
हम उनसे बिछुड़े तो दिल में ख्याल आये बहुत
थीं उनको डूबते सूरज से निस्बतें कैसी !
ढली जो शाम तो कुछ लोग याद आये बहुत
मिटी न तीरगी 'मख्मूर' घर के आँगन की
चिराग हमने मुंडेरों पे यूँ जलाए बहुत
मखमूर साहब साहित्य अकादमी पुरूस्कार ग्रहण करते हुए
41 comments:
एक बार फिर बेहतरीन शायर से परिचित करवाने के लिये आभारी हूँ ……………आपको अर्धशतक की बधाइयाँ और उम्मीद है जल्द ही हम शतक की भी बधाइयाँ देंगे…………आपके माध्यम से हम बेह्तरीन शायरों और उनकी शायरी से परिचित होते रहते हैं और चाहते है कि आप ये श्रृंखला जारी रखें ।
यह सफर यूँ ही चलता रहे, अर्धशतक की बधाई!
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया
वार वो करते रहेंगे, ज़ख्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना, संगो-सर के दर्मियां
वाह ... बहुत खूब ।
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया
नीरज जी, ये शेर तो मख़्मूर सईदी साहब की पहचान बन चुका है...बहुत अच्छी शायरी से रूबरू कराने के लिए आपका शुक्रिया.
और हां, अर्धशतक के लिए बधाई :)
Bhai Neeraj jee,
Makhmoor sahab ki is behatareen kriti se hamara parichay karane ke liye fir se aapka aabhar.
इस श्रृंखला की पचासवी कड़ी के लिए बधाई ....आपके इस प्रयास से अच्छे लेखकों से परिचय होता रहा है ..उम्मीद है कि आगे भी यह सफर जारी रहेगा ...आभार
हर पोस्ट अपने आप में एक किताब है, न जाने कितना पढ़ने को मिल जाता है।
पचासवी कड़ी के लिए बधाई ....
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया
वार वो करते रहेंगे, ज़ख्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना, संगो-सर के दर्मियां
वाह ... बहुत खूब ।
अना के हाथ में तलवार किसने दे दी थी
कि लोग अपनी ही परछाइयों से लड़ने लगे
-बेहतरीन पुस्तक की जानकारी हाथ लगी....
५० वीं कड़ी- बधाई एवं ऐसे ही जानकारी देते रहें, अनेक शुभकामनाएँ.
ग़ज़लों का यह सफ़र और कई मुकाम हासिल करे यही कामना है.....
... आज कि पुस्तक के बारे में पहले से भी सुन रखा था... पढ़ कर और भी अच्छा लगा...
मखमूर साहब और उनके कलाम से परिचय प्राप्त कर ख़ुशी हुई।
अर्धशतक के लिए बधाई एवं शुभकामनाएं।
पहले तो अर्धशतक की बधाई और फिर आभार मख़्मूर सईदी साहब के ख़ज़ाने का दर्शन कराने के।
देखते ही देखते एक साल गुज़र गया, लगता है अभी कल ही की बात है जब मख़्मूर सईदी साहब के इंतकाल का दुखद समाचार मिला था।
सब से पहले तो ५०वीं पोस्ट के लिये मुबारकबाद क़ुबूल करें ,’मख़मूर’ साहब की वजह से इस पोस्ट की अहमियत और भी बढ़ गई
बस्तियां "मख्मूर" यूँ उजड़ीं कि सहरा हो गयीं
फासिले बढ़ने लगे जब घर से घर के दर्मियाँ
जो ये शर्ते-तअल्लुक़ है, कि है हमको जुदा रहना
तो ख़्वाबों में भी क्यूँ आओ, ख्यालों में भी क्या रहना
तेरे ख़याल से रोशन तो हैं दिलों के उफ़क़
जो तू नहीं है तो ये रौशनी अधूरी है
थीं उनको डूबते सूरज से निस्बतें कैसी !
ढली जो शाम तो कुछ लोग याद आये बहुत
ज़ाहिर है ऐसे अश’आर का ख़ालिक़ किसी ता’रुफ़ का मोताज तो नहीं लेकिन आप ने उन के और उन के फ़न के बारे में इतनी ख़ूबसूरती से बयान किया है कि क़ारी लुत्फ़ अंदोज़ हुए बग़ैर नहीं रह सकता ,
बहुत बहुत शुक्रिया नीरज जी
मेरे कमेंट में ता’रुफ़ का मोताज को
तआ’रुफ़ का मोहताज पढ़ा जाए प्लीज़
आज की पुस्तक के बारे में पढ़ कर और मख्मूर साहब का परिचय जानकर बहुत अच्छा लगा... जानकारी के लिए धन्यवाद् व शुभकामनाएँ.
bahut sundar , shukriya neerjji pahchan karwane ke liye
बेह्तरीन पेशकश , सफर जारी रखिये,अर्द्ध शतक की बधाई.
क्या संयोग है कि इधर आप मख्मूर सईदी साहब की पोस्ट शाया कर रहे थे और मैं उनके जन्मस्थान टोंक की गलियों में भटक रहा था। टोंक के रसिया का टीला देखा तो पर अधिक जानकारी नहीं मिल पाई।
*
सचमुच वाग्देवी प्रकाशन ने ऐसे कई शायरों को पाठकों के सामने का अच्छा काम किया है।
*
इस अर्धशतक के लिए बधाई और शुभकामनाएं।
उनका यह खोया हुआ घर मेरी किताबों के संग्रह में है।
मख्मूर सईदी साहब का परिचय बहुत शानदार रहा. आपका ये श्रंखला ज़बरदस्त और आपकी प्रस्तुति तो और भी जानदार है. इसे बंद मत करियेगा. अभी तो अर्धशतक है परन्तु कितने शतक बाकी है.बेह्तरीन पेशकश के लिए असीम बधाइयाँ.
मखमूर साहब और उनकी शायरी को मेरा सलाम ......पचासा जड़ने की मुबारकबाद.....बहुर नेक काम करते हैं आप......इसे ऐसे ही बढ़ाते रहें.....शुभकामनायें|
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया
ये शेर लाजवाब
मख्मूर सईदी साहब के अशआर का जवाब नहीं.
खुद से मिल कर बहुत उदास था आज
वो जो हंस हंस के सबसे मिलता है
जनाब मख्मूर सईदीसाहब की शायरी लाजवाब है |पढवाने का शुक्रिया नीरज जी ..!!
आदरणीय नीरज साहब,
अर्धशतक मार लिया...बस यूं ही चौके छक्के मारते
रहिये वो दिन दूर नहीं जब दुनिया शतक के लिए बधाई देगी.
फिलहाल अर्धशतक के लिए मुबारकबाद क़ुबूल करें.
बस्तियां "मख्मूर" यूँ उजड़ी कि सेहरा हो गयीं
फासिले बढ़ने लगे जब घर से घर के दर्मिया
पुराने ख़्वाब पलकों से झटक दो, सोचते क्या हो
मुक़द्दर खुश्क पत्तों का है, शाखों से जुदा रहना
मिटी न तीरगी 'मख्मूर' घर के आँगन की
चिराग हमने मुंडेरों पे यूँ जलाए बहुत
मख्मूर साहब के बेहतरीन शे'र पढ़वाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया...
सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
इस श्रिंखला के अर्ध शतक के लिये बधाई। हमेशा की तरह मोटी ढूँढ लाये आप ।धन्यवाद्\
मख़मूर सईदी साब की ग़ज़लें तो पढ़ी हुई हैं हमने...लेक्न इस किताब के बारे में मालूम न था|
शायरी के इन सिपाहसालारों से मुलाक़ात करवाने की ये पचासवीं कड़ी ....उफ़्फ़ ! ब्लौग जगत की ये अद्भुत उपलब्धि है ये|
नीरज जी नमस्कार ... अर्ध-शतक तो बस शुरुआत है ... आप इस श्रंखला में इतना जबरदस्त माहॉल पैदा करते अहीं कोई लगता आयी बस आज ही कहीं से ये किताब मिल जाए .... आपकी शैली में जादू है नीरज जी ....
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया
न इस शहरे-बेहिस को सहरा कहो
सुनो ! इक हमारा भी घर है यहाँ
पुराने ख़्वाब पलकों से झटक दो, सोचते क्या हो
मुक़द्दर खुश्क पत्तों का है, शाखों से जुदा रहना
मख्मूर साहब का जवाब नहीं ...
कृपया ये श्रंखला चालू रखिएगा ।
धन्यवाद एवं शुभकामनायें ।
जो ये शर्ते-तअल्लुक है, कि है हमको जुदा रहना
तो ख़्वाबों में भी क्यूँ आओ, ख्यालों में भी क्या रहना
बेहतरीन ग़ज़ल है ये..
पाँच साल पहले सरहद पार के एक मित्र की वज़ह से इसे पढ़ने का मौका मिला था। आज मख,मूर साहब की पूरी किताब की ही झलक दिखा दी आपने।
http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2006/10/blog-post_28.html
भीड़ में है मगर अकेला है
उसका कद दूसरों से ऊंचा है
अपने अपने दुखों की दुनिया में
मैं भी तनहा हूँ वो भी तनहा है
मखमूर साहब से परिचय करवाने का शुक्रिया । बेहतरीन शायर और उनकी उम्दा शायरी का खज़ाना है ये ब्लॉग ।
bahut khoob , shukriya ke sath
नमस्कार नीरज जी,
'किताबों की दुनिया' का सिलसिला यूँ ही चलता रहे. आमीन
अना के हाथ में तलवार किसने दे दी थी
कि लोग अपनी ही परछाइयों से लड़ने लगे
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया
जो ये शर्ते-तअल्लुक है, कि है हमको जुदा रहना
तो ख़्वाबों में भी क्यूँ आओ, ख्यालों में भी क्या रहना
मख्मूर साहब को सलाम, उन की शायरी एक अजब सा सुकूं दे रही है. नीरज जी शुक्रिया.
bahut khubsurat gzal or khubsurat prastuti bhi bahut bahut bdhai
अर्धशतक की बधाई,मखमूर साहब से परिचय करवाने का शुक्रिया ,सफर जारी रखिये.
नीरज भाई इस पचासवीं कड़ी की प्रस्तुति पर आप को ढेरों बधाइयाँ और आपके जीवट को प्रणाम|
किताबों का ये सफर यूं ही चलता रहना चाहिए| मख़मूर सा'ब की बेहतरीन शाइरी से रु-ब-रु कराने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
सुलतान मोहम्मद खां, मख्मूर सईदी के बारे में जानना तुखद रहा...
हार्दिक आभार...
कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया
वार वो करते रहेंगे, ज़ख्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना, संगो-सर के दर्मियां
bahut khub Neeraj ji...Shrinkhla ke ardhshatak par badhayee...Koshish karunga ki is blogsite par jyada samay dun taki seekh sakun ....padhna accha klagta hai...aapke is bhagirath prayas ki sarahna karta hun...
थीं उनको डूबते सूरज से निस्बतें कैसी !
ढली जो शाम तो कुछ लोग याद आये बहुत
बहुत सुन्दर. बधाई स्वीकारें
नीरज जी,
आपकी किताबों की दुनिया बहुत निराली और भली लगी। खास बात ये है की आप इसमे सामयिक कवियों की रचनाएँ उपलब्ध करा रहे हैं, जाने माने कवियों या कवि-सम्मेलन मे ख्याति प्राप्त कवियों की रचनाए तो आसानी से उपलब्ध हो जाती है, लेकिन एकाकी मे लिखने वालों के काव्य धन से, हम जैसे विदेश मे रहने वाले काव्य प्रेमियों को वंचित रहना पड़ता है, आपकी लेखनी और प्रयास इस दिशा मे बहुत महत्वपूर्ण कदम हैं।
kuch pahloon ko meri najar dekhti n thi
Duniya buri to thi mager eetni buri n thi,
udhkar teri gali se ajab tajruba huaa
anjaan humse sahr ki koi gali n thi,
Din aaj uske sath gujara gajb kiya
eetni to meri rat akeli kabhi n thi.
Makhmur' usne tod di kiskam kank ke sath
riste ki ek dor ki jo tutati n thi.
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