Monday, April 18, 2011

किताबों की दुनिया - 50

"किताबों की दुनिया" श्रृंखला की ये पचासवीं कड़ी है. जब ये श्रृंखला शुरू की थी तो सपने में भी गुमान नहीं था के ये श्रृखला इस मुकाम तक पहुंचेगी. आज की भागमभाग वाली ज़िन्दगी में शायरी के लिए चाह के भी वक्त निकालना मुश्किल काम है. शायरी भीमसेन जोशी जी के विलंबित ख्याल गायन जैसी है जिसका लुत्फ़ उठाने के लिए आपके पास मन में सूकून और तसल्ली चाहिए जो आजकल कहीं किसी के पास दिखाई नहीं देती. इस सब के बावजूद आप पाठकों ने अब तक इस श्रृंखला का साथ दिया इसे पढ़ा और पसंद किया अतः इसे पचासवीं पायदान तक पहुँचाने के साथ साथ मेरी लाइब्रेरी को समृद्ध बनाने का श्रेय भी आपको ही जाता है. इस श्रृंखला के कारण ही मेरा व्यक्तिगत रिश्ता चंद बेहतरीन शायरों से बन सका जिसे मैं अपने जीवन की एक बड़ी उपलब्धि मानता हूँ. ये श्रृंखला आगे बढेगी या यहीं रुक जायेगी इसका जवाब देना अभी मुश्किल है.

आज हम अपनी बात की शुरुआत इन बेहतरीन शेरों से करते हैं:


अना के हाथ में तलवार किसने दे दी थी
कि लोग अपनी ही परछाइयों से लड़ने लगे

जो मंजिलें हैं तिरी, सर तुझी को करनी हैं
गिला न कर के तिरे हमसफ़र बिछड़ने लगे

तिरी तलब की ये रातें, ये ख़्वाब कैसे हैं
कि रोज़ नींद में हम तितलियाँ पकड़ने लगे

नींद में तितलियाँ पकड़ने वाले हमारे आज के शायर हैं मरहूम जनाब " मख्मूर सईदी " साहब जिनकी एक निहायत छोटी लेकिन लाजवाब शायरी की किताब "घर कहीं ग़ुम हो गया" का जिक्र हम कर रहे हैं. भला हो वाग्देवी प्रकाशन वालों और नन्द किशोरे आचार्य साहब का जिन्होंने मशहूर शायर जनाब शीन काफ़ निज़ाम साहब की मदद से पहली बार मख्मूर साहब का लाजवाब कलाम हिंदी पाठकों तक पहुँचाया है.


कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया

वार वो करते रहेंगे, ज़ख्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना, संगो-सर के दर्मियां

बस्तियां "मख्मूर" यूँ उजड़ी कि सेहरा हो गयीं
फासिले बढ़ने लगे जब घर से घर के दर्मिया

सुलतान मोहम्मद खां, मख्मूर सईदी , ३१ दिसंबर १९३४ में टोंक राजस्थान में पैदा हुए और 3 मार्च 2010 की शाम जयपुर में लम्बी बीमारी झेलते हुए इस दुनिया-ऐ-फानी से रुखसत हो गए. मख्मूर साहब ने शायरी इबादत की तरह की, किसी ओहदे या मकबूलियत को हासिल करने के लिए नहीं. उन्हें पढ़ते सुनते देख कर ऐसा लगता था जैसे कोई फकीर खुदा को पुकार रहा है. अपने दौर के शायरों में उनकी अलग पहचान थी :

भीड़ में है मगर अकेला है
उसका कद दूसरों से ऊंचा है

अपने अपने दुखों की दुनिया में
मैं भी तनहा हूँ वो भी तनहा है

खुद से मिल कर बहुत उदास था आज
वो जो हंस हंस के सबसे मिलता है

मख्मूर साहब को साहित्य अकादमी के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, दिल्ली और राजस्थान की उर्दू अकेदामियों ने भी सम्मानित किया. देश भर में होने वाले मुशायरों में ही नहीं विदेशों में भी उन्हें बहुत आदर के साथ शिरकत का न्योता भेजा जाता. उन्होंने भारत के अलावा और अमेरिका, पाकिस्तान दुबई, आबुधाबी की भी यात्रा की और उर्दू शायरी के चाहने वालों को अपने अशआरों से नवाज़ा.

न रस्ता न कोई डगर है यहाँ
मगर सबकी किस्मत सफ़र है यहाँ

जबां पर जिसे कोई लाता नहीं
उसी लफ्ज़ का सबको डर है यहाँ

न इस शहरे-बेहिस को सहरा कहो
सुनो ! इक हमारा भी घर है यहाँ
शहरे-बेहिस : संवेदना शून्य नगर

हवाओं की उंगली पकड़ कर चलो
वसीला यही मोतबर है यहाँ
वसीला: माध्यम, मोतबर : विश्वसनीय

घर कहीं ग़ुम हो गया
किताब एक गुटके की तरह है जिसे आप आसानी से अपनी जेब में रख सकते हैं और जब जरूरत पड़े पढ़ कर अपनी रूह को सुकून पहुंचा सकते हैं. इस किताब में उनकी लगभग पचपन ग़ज़लों के अलावा सत्तर के करीब नज्में भी संकलित हैं. "गागर में सागर" वाले कथन को अगर प्रत्यक्ष में अनुभव करना हो तो इस किताब को पढ़ें. मात्र पच्चीस रुपये कीमत की इस किताब की प्राप्ति के लिए आप वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर वालों को vagdevibooks@gmail.com पर मेल कर सकते हैं.

जो ये शर्ते-तअल्लुक है, कि है हमको जुदा रहना
तो ख़्वाबों में भी क्यूँ आओ, ख्यालों में भी क्या रहना

पुराने ख़्वाब पलकों से झटक दो, सोचते क्या हो
मुक़द्दर खुश्क पत्तों का है, शाखों से जुदा रहना

अजब क्या है अगर मख्मूर तुम पर यूरिशे-ग़म^ है
हवाओं की तो आदत है चिरागों से ख़फ़ा रहना

^यूरिशे-ग़म: दुखों का हमला

नन्द किशोर आचार्य जी इस किताब की भूमिका में लिखते हैं "मख्मूर साहब की शायरी आधुनिक है लेकिन आधुनिकतावादी नहीं है, वो परंपरा को अपने में उपजाती है , पर परम्परावादी नहीं है, वह सामाजिक आत्मीयता के गहरे अनुभव से गुज़रती है, पर प्रगतिवादी नहीं है. इसीलिए वो सीधे अपने अन्दर के पाठक को संबोधित है न कि किसी आलोचना समुदाय को."
कहीं पे ग़म तो कहीं पर ख़ुशी अधूरी है
मुझे मिली है जो दुनिया बड़ी अधूरी है

तिरे ख़याल से रोशन तो हैं दिलों के उफ़क़
जो तू नहीं है तो ये रौशनी अधूरी है
उफ़क़: क्षितिज

अगर कोई तिरी दीवानगी पे हँसता है
तो ग़ालिबन तिरी दीवानगी अधूरी है

हमारे बीच अभी आया नहीं कोई दुश्मन
अभी ये तिरी मिरी दोस्ती अधूरी है

उम्मीद है मख्मूर साहब की शायरी की बानगी आपको पसंद आई होगी. आप वाग्देवी वालों से इस किताब को मंगवाने की आसान सी प्रक्रिया से गुजरिये, इस बीच हम चलते हैं एक और किताब की तलाश में, अगर मिल गयी तो फिर हाज़िर होंगे और अगर नहीं मिली तो जय राम जी की...चलते चलते ये शेर भी पढ़ते चलिए क्या पता इन्हें पढ़ कर ही इस किताब को खरीदने की चाह आपके दिल में पैदा हो जाए:

नज़र के सामने कुछ अक्स झिलमिलाये बहुत
हम उनसे बिछुड़े तो दिल में ख्याल आये बहुत

थीं उनको डूबते सूरज से निस्बतें कैसी !
ढली जो शाम तो कुछ लोग याद आये बहुत

मिटी न तीरगी 'मख्मूर' घर के आँगन की
चिराग हमने मुंडेरों पे यूँ जलाए बहुत

मखमूर साहब साहित्य अकादमी पुरूस्कार ग्रहण करते हुए

41 comments:

vandana gupta said...

एक बार फिर बेहतरीन शायर से परिचित करवाने के लिये आभारी हूँ ……………आपको अर्धशतक की बधाइयाँ और उम्मीद है जल्द ही हम शतक की भी बधाइयाँ देंगे…………आपके माध्यम से हम बेह्तरीन शायरों और उनकी शायरी से परिचित होते रहते हैं और चाहते है कि आप ये श्रृंखला जारी रखें ।

Smart Indian said...

यह सफर यूँ ही चलता रहे, अर्धशतक की बधाई!

सदा said...

कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया

वार वो करते रहेंगे, ज़ख्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना, संगो-सर के दर्मियां

वाह ... बहुत खूब ।

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया

नीरज जी, ये शेर तो मख़्मूर सईदी साहब की पहचान बन चुका है...बहुत अच्छी शायरी से रूबरू कराने के लिए आपका शुक्रिया.
और हां, अर्धशतक के लिए बधाई :)

सौरभ शेखर said...

Bhai Neeraj jee,
Makhmoor sahab ki is behatareen kriti se hamara parichay karane ke liye fir se aapka aabhar.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

इस श्रृंखला की पचासवी कड़ी के लिए बधाई ....आपके इस प्रयास से अच्छे लेखकों से परिचय होता रहा है ..उम्मीद है कि आगे भी यह सफर जारी रहेगा ...आभार

प्रवीण पाण्डेय said...

हर पोस्ट अपने आप में एक किताब है, न जाने कितना पढ़ने को मिल जाता है।

स्वाति said...

पचासवी कड़ी के लिए बधाई ....

सुनील गज्जाणी said...

कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया

वार वो करते रहेंगे, ज़ख्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना, संगो-सर के दर्मियां

वाह ... बहुत खूब ।

Udan Tashtari said...

अना के हाथ में तलवार किसने दे दी थी
कि लोग अपनी ही परछाइयों से लड़ने लगे

-बेहतरीन पुस्तक की जानकारी हाथ लगी....


५० वीं कड़ी- बधाई एवं ऐसे ही जानकारी देते रहें, अनेक शुभकामनाएँ.

अरुण चन्द्र रॉय said...

ग़ज़लों का यह सफ़र और कई मुकाम हासिल करे यही कामना है.....
... आज कि पुस्तक के बारे में पहले से भी सुन रखा था... पढ़ कर और भी अच्छा लगा...

महेन्‍द्र वर्मा said...

मखमूर साहब और उनके कलाम से परिचय प्राप्त कर ख़ुशी हुई।
अर्धशतक के लिए बधाई एवं शुभकामनाएं।

तिलक राज कपूर said...

पहले तो अर्धशतक की बधाई और फिर आभार मख्‍़मूर सईदी साहब के ख़ज़ाने का दर्शन कराने के।
देखते ही देखते एक साल गुज़र गया, लगता है अभी कल ही की बात है जब मख्‍़मूर सईदी साहब के इंतकाल का दुखद समाचार मिला था।

इस्मत ज़ैदी said...

सब से पहले तो ५०वीं पोस्ट के लिये मुबारकबाद क़ुबूल करें ,’मख़मूर’ साहब की वजह से इस पोस्ट की अहमियत और भी बढ़ गई

बस्तियां "मख्मूर" यूँ उजड़ीं कि सहरा हो गयीं
फासिले बढ़ने लगे जब घर से घर के दर्मियाँ

जो ये शर्ते-तअल्लुक़ है, कि है हमको जुदा रहना
तो ख़्वाबों में भी क्यूँ आओ, ख्यालों में भी क्या रहना

तेरे ख़याल से रोशन तो हैं दिलों के उफ़क़
जो तू नहीं है तो ये रौशनी अधूरी है

थीं उनको डूबते सूरज से निस्बतें कैसी !
ढली जो शाम तो कुछ लोग याद आये बहुत

ज़ाहिर है ऐसे अश’आर का ख़ालिक़ किसी ता’रुफ़ का मोताज तो नहीं लेकिन आप ने उन के और उन के फ़न के बारे में इतनी ख़ूबसूरती से बयान किया है कि क़ारी लुत्फ़ अंदोज़ हुए बग़ैर नहीं रह सकता ,
बहुत बहुत शुक्रिया नीरज जी

इस्मत ज़ैदी said...

मेरे कमेंट में ता’रुफ़ का मोताज को
तआ’रुफ़ का मोहताज पढ़ा जाए प्लीज़

संध्या शर्मा said...

आज की पुस्तक के बारे में पढ़ कर और मख्मूर साहब का परिचय जानकर बहुत अच्छा लगा... जानकारी के लिए धन्यवाद् व शुभकामनाएँ.

Sunil Balani said...

bahut sundar , shukriya neerjji pahchan karwane ke liye

Mansoor ali Hashmi said...

बेह्तरीन पेशकश , सफर जारी रखिये,अर्द्ध शतक की बधाई.

राजेश उत्‍साही said...

क्‍या संयोग है कि इधर आप मख्‍मूर सईदी साहब की पोस्‍ट शाया कर रहे थे और मैं उनके जन्‍मस्‍थान टोंक की गलियों में भटक रहा था। टोंक के रसिया का टीला देखा तो पर अधिक जानकारी नहीं मिल पाई।
*
सचमुच वाग्‍देवी प्रकाशन ने ऐसे कई शायरों को पाठकों के सामने का अच्‍छा काम किया है।
*
इस अर्धशतक के लिए बधाई और शुभकामनाएं।

राजेश उत्‍साही said...

उनका यह खोया हुआ घर मेरी किताबों के संग्रह में है।

रचना दीक्षित said...

मख्मूर सईदी साहब का परिचय बहुत शानदार रहा. आपका ये श्रंखला ज़बरदस्त और आपकी प्रस्तुति तो और भी जानदार है. इसे बंद मत करियेगा. अभी तो अर्धशतक है परन्तु कितने शतक बाकी है.बेह्तरीन पेशकश के लिए असीम बधाइयाँ.

Anonymous said...

मखमूर साहब और उनकी शायरी को मेरा सलाम ......पचासा जड़ने की मुबारकबाद.....बहुर नेक काम करते हैं आप......इसे ऐसे ही बढ़ाते रहें.....शुभकामनायें|

Kunwar Kusumesh said...

कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया

ये शेर लाजवाब
मख्मूर सईदी साहब के अशआर का जवाब नहीं.

Anupama Tripathi said...

खुद से मिल कर बहुत उदास था आज
वो जो हंस हंस के सबसे मिलता है

जनाब मख्मूर सईदीसाहब की शायरी लाजवाब है |पढवाने का शुक्रिया नीरज जी ..!!

SATISH said...

आदरणीय नीरज साहब,
अर्धशतक मार लिया...बस यूं ही चौके छक्के मारते
रहिये वो दिन दूर नहीं जब दुनिया शतक के लिए बधाई देगी.

फिलहाल अर्धशतक के लिए मुबारकबाद क़ुबूल करें.

बस्तियां "मख्मूर" यूँ उजड़ी कि सेहरा हो गयीं
फासिले बढ़ने लगे जब घर से घर के दर्मिया

पुराने ख़्वाब पलकों से झटक दो, सोचते क्या हो
मुक़द्दर खुश्क पत्तों का है, शाखों से जुदा रहना

मिटी न तीरगी 'मख्मूर' घर के आँगन की
चिराग हमने मुंडेरों पे यूँ जलाए बहुत

मख्मूर साहब के बेहतरीन शे'र पढ़वाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया...

सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

निर्मला कपिला said...

इस श्रिंखला के अर्ध शतक के लिये बधाई। हमेशा की तरह मोटी ढूँढ लाये आप ।धन्यवाद्\

गौतम राजऋषि said...

मख़मूर सईदी साब की ग़ज़लें तो पढ़ी हुई हैं हमने...लेक्न इस किताब के बारे में मालूम न था|

शायरी के इन सिपाहसालारों से मुलाक़ात करवाने की ये पचासवीं कड़ी ....उफ़्फ़ ! ब्लौग जगत की ये अद्भुत उपलब्धि है ये|

दिगम्बर नासवा said...

नीरज जी नमस्कार ... अर्ध-शतक तो बस शुरुआत है ... आप इस श्रंखला में इतना जबरदस्त माहॉल पैदा करते अहीं कोई लगता आयी बस आज ही कहीं से ये किताब मिल जाए .... आपकी शैली में जादू है नीरज जी ....

रजनीश तिवारी said...

कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया
न इस शहरे-बेहिस को सहरा कहो
सुनो ! इक हमारा भी घर है यहाँ
पुराने ख़्वाब पलकों से झटक दो, सोचते क्या हो
मुक़द्दर खुश्क पत्तों का है, शाखों से जुदा रहना
मख्मूर साहब का जवाब नहीं ...
कृपया ये श्रंखला चालू रखिएगा ।
धन्यवाद एवं शुभकामनायें ।

Manish Kumar said...

जो ये शर्ते-तअल्लुक है, कि है हमको जुदा रहना
तो ख़्वाबों में भी क्यूँ आओ, ख्यालों में भी क्या रहना

बेहतरीन ग़ज़ल है ये..

पाँच साल पहले सरहद पार के एक मित्र की वज़ह से इसे पढ़ने का मौका मिला था। आज मख,मूर साहब की पूरी किताब की ही झलक दिखा दी आपने।

http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2006/10/blog-post_28.html

Asha Joglekar said...

भीड़ में है मगर अकेला है
उसका कद दूसरों से ऊंचा है

अपने अपने दुखों की दुनिया में
मैं भी तनहा हूँ वो भी तनहा है


मखमूर साहब से परिचय करवाने का शुक्रिया । बेहतरीन शायर और उनकी उम्दा शायरी का खज़ाना है ये ब्लॉग ।

शारदा अरोरा said...

bahut khoob , shukriya ke sath

Ankit said...

नमस्कार नीरज जी,
'किताबों की दुनिया' का सिलसिला यूँ ही चलता रहे. आमीन

अना के हाथ में तलवार किसने दे दी थी
कि लोग अपनी ही परछाइयों से लड़ने लगे

कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया

जो ये शर्ते-तअल्लुक है, कि है हमको जुदा रहना
तो ख़्वाबों में भी क्यूँ आओ, ख्यालों में भी क्या रहना

मख्मूर साहब को सलाम, उन की शायरी एक अजब सा सुकूं दे रही है. नीरज जी शुक्रिया.

Minakshi Pant said...

bahut khubsurat gzal or khubsurat prastuti bhi bahut bahut bdhai

Amrita Tanmay said...

अर्धशतक की बधाई,मखमूर साहब से परिचय करवाने का शुक्रिया ,सफर जारी रखिये.

www.navincchaturvedi.blogspot.com said...

नीरज भाई इस पचासवीं कड़ी की प्रस्तुति पर आप को ढेरों बधाइयाँ और आपके जीवट को प्रणाम|

किताबों का ये सफर यूं ही चलता रहना चाहिए| मख़मूर सा'ब की बेहतरीन शाइरी से रु-ब-रु कराने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया

Dr (Miss) Sharad Singh said...

सुलतान मोहम्मद खां, मख्मूर सईदी के बारे में जानना तुखद रहा...
हार्दिक आभार...

Vijuy Ronjan said...

कितनी दीवारें उठी हैं एक घर के दर्मियां
घर कहीं ग़ुम हो गया दीवारो-दर के दर्मिया


वार वो करते रहेंगे, ज़ख्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना, संगो-सर के दर्मियां

bahut khub Neeraj ji...Shrinkhla ke ardhshatak par badhayee...Koshish karunga ki is blogsite par jyada samay dun taki seekh sakun ....padhna accha klagta hai...aapke is bhagirath prayas ki sarahna karta hun...

​अवनीश सिंह चौहान / Abnish Singh Chauhan said...

थीं उनको डूबते सूरज से निस्बतें कैसी !
ढली जो शाम तो कुछ लोग याद आये बहुत
बहुत सुन्दर. बधाई स्वीकारें

Ashok Singh said...

नीरज जी,
आपकी किताबों की दुनिया बहुत निराली और भली लगी। खास बात ये है की आप इसमे सामयिक कवियों की रचनाएँ उपलब्ध करा रहे हैं, जाने माने कवियों या कवि-सम्मेलन मे ख्याति प्राप्त कवियों की रचनाए तो आसानी से उपलब्ध हो जाती है, लेकिन एकाकी मे लिखने वालों के काव्य धन से, हम जैसे विदेश मे रहने वाले काव्य प्रेमियों को वंचित रहना पड़ता है, आपकी लेखनी और प्रयास इस दिशा मे बहुत महत्वपूर्ण कदम हैं।

Rohitas Ghorela said...

kuch pahloon ko meri najar dekhti n thi
Duniya buri to thi mager eetni buri n thi,
udhkar teri gali se ajab tajruba huaa
anjaan humse sahr ki koi gali n thi,
Din aaj uske sath gujara gajb kiya
eetni to meri rat akeli kabhi n thi.


Makhmur' usne tod di kiskam kank ke sath
riste ki ek dor ki jo tutati n thi.