जियें खुद के लिये गर हम, मजा तब क्या है जीने में
बहे औरों की खातिर जो, है खुशबू उस पसीने में
है जिनके बाजुओं में दम, वो दरिया पार कर लेंगे
बहुत मुमकिन है डूबें वो, जो बैठे हैं सफीने में
ये कैसा दौर आया है, सरों पर ताज है उनके
नहीं मालूम जिनको फर्क, पत्थर औ' नगीने में
हमारे दोस्तोँ की महरबानी इक छलावा है
ज़हर पाया है अक्सर खूबसूरत आबगीने में
गए तुम दूर जब से, दिल ये कहता है करो तौबा
मज़ा आता नहीं, खुद ही उठा कर ज़ाम पीने में
लगाये टकटकी हम राह पर बैठे रहे सदियों
सुना था लौट आएगा, वो ज़ालिम इक महीने में
सितम सहने की आदत, इस कदर हम को पड़ी "नीरज"
कहीं कुछ हो, नहीं अब खौलता है, खून सीने में
सफीने: कश्ती , नाव
आबगीने: शराब की छोटी कांच की सुन्दर बोतलें
46 comments:
ये कैसा दौर आया है, सरों पर ताज है उनके
नहीं मालूम जिनको फर्क, पत्थर औ' नगीने में
सही बात है आज की राजनिती की असली तस्वीर।
हमारे दोस्तोँ की मुस्कुराहट इक छलावा है
ज़हर पाया है अक्सर खूबसूरत आबगीने में
इसमे भी सुन्दर सन्देश छिपा है। मतला तो कमाल का है। बधाई नीरज जी सुन्दर गज़ल के लिये।
है जिनके बाजुओं में दम, वो दरिया पार कर लेंगे
बहुत मुमकिन है डूबें वो, जो बैठे हैं सफीने में...
वाह..वाह...वाह...क्या नसीहत दी है नीरज जी, कमाल का शेर है..
ये कैसा दौर आया है, सरों पर ताज है उनके
नहीं मालूम जिनको फर्क, पत्थर औ' नगीने में
सच्चा शेर...पूरी ग़ज़ल शानदार है...
सुबह खुशगवार हो गई.
सितम सहने की आदत, इस कदर हम को पड़ी "नीरज"
कहीं कुछ हो, नहीं अब खौलता है, खून सीने में
बहुत ही सुन्दर भावमय करते शब्द ।
सितम सहने की आदत, इस कदर हम को पड़ी "नीरज"
कहीं कुछ हो, नहीं अब खौलता है, खून सीने में
kya baat hai, bahut achha laga
सुंदर।
दूसरों के लिये बहे पसीने की बात ही निराली है।
बहुत ही शानदार गज़ल ……………सभी शेर लाजवाब्।
बहुत खूबसूरत गज़ल ...हर शेर में कुछ सीखने को मिल रहा है ...
आबगीने में वैसे जहर ही भरा होता है |
बहुत लाजवाब रचना.
रामराम.
Padhne ke bad is blog se jane ka ji nahi karta. din me kam se kam tin char bar to visit kar hi jata hu.
aap gajba ke likhte hai .
www.maibolunga.blogspot.com
NEERAJ BHAI , KYA GAZAL KAHEE HAI
AAPNE ! MATLA , MAQTA AUR HAR SHER
MARM SPARSHEE HAI . BHARPOOR
BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA.
आभार
बहुत सुंदर, धन्यवाद
गए तुम दूर जब से, दिल ये कहता है करो तौबा
मज़ा आता नहीं, खुद ही उठा कर ज़ाम पीने में
किस किस की करें तारीफ
हर शेर उतर गया सीने में ।
बहुत सुन्दर ग़ज़ल ।
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल.. यह शेर लाजवब है ...
"है जिनके बाजुओं में दम, वो दरिया पार कर लेंगे
बहुत मुमकिन है डूबें वो, जो बैठे हैं सफीने में"..
गए तुम दूर जब से, दिल ये कहता है करो तौबा
मज़ा आता नहीं, खुद ही उठा कर ज़ाम पीने में
नीरज जी ये वो शेर है जिसके बारे में कभी कभी हमें ही नहीं पता होता कि हमने क्या हीरा तराश दिया है ।
है जिनके बाजुओं में दम, वो दरिया पार कर लेंगे
बहुत मुमकिन है डूबें वो, जो बैठे हैं सफीने में..
बहुत सुन्दर गज़ल..हरेक शेर बहुत सटीक और सार्थक ...
जानलेवा ग़ज़ल।
ठंडे से ठंडे सीने में आग लगात शेर:
सितम सहने की आदत, इस कदर हम को पड़ी "नीरज"
कहीं कुछ हो, नहीं अब खौलता है, खून सीने में
अब आप तो फुल-टाइम शायर हो गये लगते हैं। चोगा वोगा सिलवा लिया कि नहीं?
खूबसूरत ग़ज़ल, बधाई नीरज जी.
मतला मौजूदा हालात की अक्कासी करता है.
सितम सहने की आदत, इस कदर हम को पड़ी "नीरज"
कहीं कुछ हो, नहीं अब खौलता है, खून सीने में
हमारी उदासीनता का चित्रण है इसमें.
आपके लिए एक सिफारिशी शेर:-
कई सदियों से बेकल है ये 'नीरज दोस्त',ए ज़ालिम,
तू करदे दूर तन्हाई , बसंती इस महीने मे!
m.hashmi
http://aatm-manthan.com
बढ़िया. आबगीने शब्द पहली बार ही सुना.
नीरज सर! इस बार बहुत लम्बी छुट्टी कर दी आपने.. मुझे तो सचमुच लगाकि महीनों बाद मिले हैं आप.. बहुतहल्के फुल्के अंदाज़ में गहरी शायरी की है आपने.. दिल बाग बाग हो गया..
मक़्ता तो अटक गया है सीने में.. वो ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता!!!
पूरी ग़ज़ल पढ़कर आनंद आ गया। बहुत खूब !
लगाये टकटकी हम राह पर बैठे रहे सदियों
सुना था लौट आएगा, वो ज़ालिम इक महीने में
सितम सहने की आदत, इस कदर हम को पड़ी "नीरज"
कहीं कुछ हो, नहीं अब खौलता है, खून सीने में
लाजवाब शेर, उम्दा ग़ज़ल
ये कैसा दौर आया है, सरों पर ताज है उनके
नहीं मालूम जिनको फर्क, पत्थर औ' नगीने में.
हमारी सोच की तर्जुमानी करता शेर.. लिये जा रहे हैं...इस गज़ल के नगीने को चुन लिया है हमने!
गए तुम दूर जब से, दिल ये कहता है करो तौबा
मज़ा आता नहीं, खुद ही उठा कर ज़ाम पीने में
-ओह!! आह!! वाह!!
वाह...क्या बात है जनाब! गज़ब!
बाऊ जी,
नमस्ते!
आनंद! आनंद! आनंद!
आशीष
--
लम्हा!!!
बहुत ही शानदार गज़ल …
जियें खुद के लिये गर हम, मजा तब क्या है जीने में
बहे औरों की खातिर जो, है खुशबू उस पसीने में
waah !bilkul sach kaha ap ne lekin hai ye behad mushkil
है जिनके बाजुओं में दम, वो दरिया पार कर लेंगे
बहुत मुमकिन है डूबें वो, जो बैठे हैं सफीने में
bahut khoob !kyaa baat hai !
poori ghazal hi bahut umda hai .
mubarakbad qubool karen.
sir , saare sher ek se badkar ek hai , is baar har sher me thode shades sukh ke hai .. aur isi wazah se sabhi lajawaab hai .. aapki lekhni ko salaam ..
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मेरी नयी कविता " तेरा नाम " पर आप का स्वागत है .
आपसे निवेदन है की इस अवश्य पढ़िए और अपने कमेन्ट से इसे अनुग्रहित करे.
"""" इस कविता का लिंक है ::::
http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/02/blog-post.html
विजय
भाई नीरज आप वाकई बहुत सुंदर काम कर रहे हैं आपकी प्रस्तुति बेजोड़ है |गज़ल के प्रति आपकी दीवानगी देखकर तबीयत खुश हो जाती है |
नीरज जी,
वाह...वाह.....सुभानाल्लाह......हर शेर खुबसूरत....दिली दाद कबूल करें|
हमारे दोस्तोँ की महरबानी इक छलावा है
ज़हर पाया है अक्सर खूबसूरत आबगीने में ।
ऐसा न कहिये दोस्ती ही तो है जो इस बुरे वक्त में भी साथ दे रही है ।
कहने की बात है वरना गजृल तो बहुत ही खूबसूरत है ।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल है. अद्भुत!!
ये वाला शेर बहुत ही बढ़िया लगा.
है जिनके बाजुओं में दम, वो दरिया पार कर लेंगे
बहुत मुमकिन है डूबें वो, जो बैठे हैं सफीने में
wah.ekdam kamaal ki pangtiyan.
रवानगी चुस्त दुरूस्त
पढ़कर मजा आ गया।
लगाये टकटकी हम राह पर बैठे रहे सदियों
सुना था लौट आएगा, वो ज़ालिम इक महीने में
jai baba banras--
लगाये टकटकी हम राह पर बैठे रहे सदियों
सुना था लौट आएगा, वो ज़ालिम इक महीने में
वाह जबरदस्त -एक से बढ़कर एक
सुना था लौट आएगा, वो ज़ालिम इक महीने में
गोया छलका भी गये ओर पी भी गए.... .....
सुभानाल्लाह !
गायत्री कमलेश्वर वाली किताब का नाम है मेरे हमसफ़र ....प्रकाशन शायद राजपाल ब्रदर्स है ....
"शायरी मेरी तुम्हारे जिक्र से, मोगरे की यार डाली हो गयी"- बहुत खूब अंदाज़-ए-बयां है आपका नीरज जी.
"सितम सहने की आदत, इस कदर हम को पड़ी "नीरज"
कहीं कुछ हो, नहीं अब खौलता है, खून सीने में"
आज के समाज में ऐसी ही स्थिति आ गयी है. बधाई स्वीकारें
साभार -अवनीश सिंह चौहान
मन के गहन भावों की अति सुंदर अभिव्यक्ति .
बहुत बहुत आभार .
गए तुम दूर जब से, दिल ये कहता है करो तौबा
मज़ा आता नहीं, खुद ही उठा कर ज़ाम पीने में
वाह वाह ,वाक़ई साक़ी की कमी को भला कौन पूरा कर पायेगा. बहुत खूबसूरत शेर .
किसी का एक शेर याद आ रहा है,शेर है:-
साक़ी तेरी निगाह में क्या आलमे-मस्ती है.
दुनिया मेरी आँखों में उजड़ी हुई बस्ती है
Bahut khuub....
जियें खुद के लिये गर हम, मजा तब क्या है जीने में
बहे औरों की खातिर जो, है खुशबू उस पसीने में
.
हमेशा के लिए खूबसूरत अंदाज़ और अच्छा पैग़ाम
हमारे दोस्तोँ की महरबानी इक छलावा है
ज़हर पाया है अक्सर खूबसूरत आबगीने में.... हमेशा की तरह सदाबहार अन्दाज़...
मज़ा आ गया! बहुत खुब!
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