बोल कर सच ही जियेंगे जो कहा करते हैं
साथ लेकर वो सलीबों को चला करते हैं
आ पलट देते हैं हम मिल के सियासत जिसमें
हुक्मरां अपनी रिआया से दगा करते हैं
साथ जाता ही नहीं कुछ भी पता है फिर क्यूँ
और मिल जाये हमें रब से दुआ करते हैं
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं
फूल हाथों में, तबुस्सम को खिला होंटों पर
तल्खिया सबसे छुपाया यूँ सदा करते हैं
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
ज़र्द पत्ते तो सदा खुद ही गिरा करते हैं
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं
चाह मंजिल की मुझे क्यूँ हो बताओ "नीरज"
हमसफ़र बन के मेरे जब वो चला करते हैं
56 comments:
साथ सच के ही जियेंगे जो कहा करते हैं
वो उठा कर के सलीबों को चला करते हैं
आ पलट देते हैं हम मिल के सियासत जिसमें
हुक्मरां अपनी रिआया से दगा करते हैं
वाह क्या शेर कहे हैं । वैसे तो सारी गज़ल ही ्पने आप में कमाल है .
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं
अद्भुत!!
एक-एक शेर आपकी छाप छोड़ता है. वाह ही वाह!!!
आ पलट देते हैं हम मिल के सियासत जिसमें
हुक्मरां अपनी रिआया से दगा करते हैं
वाह !नीरज जी बहुत सही फ़रमाया आप ने
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं
बहुत ख़ूबसूरत शेर है !
इस गुज़ारिश पर अगर अमल कर लिया जाए तो कोई रिश्ता ही न टूटे
ख़ूब !
अच्छी ग़ज़ल!
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं
khuub!
हमेशा की तरह उम्दा शेर्……………शानदार गज़ल्…………ज़िंदगी की हकीकतों से रु-ब-रु करवाती हुयी।
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं
neeraj jee , pranam !
ye aap ki hi nazar hai , ek aashawadi soch nayi disha pradan karta sher man ko choo jaata hai ,
sab sher oomda hai .
sadhuwad!
साथ जाता ही नहीं कुछ भी पता है फिर क्यूँ
और मिल जाये हमें रब से दुआ करते हैं
गहरे भावों के साथ बेहतरीन पंक्तियां, सभी एक से बढ़कर एक, आभार ।
जताया हक रिश्तों पे मालिकाना 'मजाल',
वो अब किरायदारों की तरह मिला करते है.
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुंची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं
बहुत सुन्दर , और ये भी
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
शाख से तो ज़र्द पत्ते खुद गिरा करते हैं
जैसे जड़ों से जुड़े तो हरियाली क्यों कर न मिलेगी ...वाह वाह
नीरज जी,
बहुत ही अच्छी गज़ल.
मतला और
"दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
शाख से तो ज़र्द पत्ते खुद गिरा करते हैं "
बहुत अच्छा लगा.
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं....
वाह नीरज जी,
क्या कहने... कितना खूबसूरत शेर हुआ है.
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं
सच कहा है...रिश्ते बनाना जितना आसान है,
उन्हें हर हाल में निभाते रहना उतना ही मुश्किल है...
उम्दा ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद.
सुन्दर गज़ल!
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
शाख से तो ज़र्द पत्ते खुद गिरा करते हैं
उम्दा शेर.
साथ सच के ही जियेंगे जो कहा करते हैं
वो उठा कर के सलीबों को चला करते हैं
बहुत भावपूर्ण रचना . नीरज जी ...आभार
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं
क्या अंदाज़ है बहुत खूब !
रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकानाएं !
समय हो तो अवश्य पढ़ें यानी जब तक जियेंगे यहीं रहेंगे !
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_23.html
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
शाख से तो ज़र्द पत्ते खुद गिरा करते हैं
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं
बहुत खूबसूरत गज़ल....हर शेर एक से बढ़ कर एक ...
अच्छी लगी।
नीरज साहब,
गज़ब की गज़ल लिख डाली है आपने। एक से एक खूबसूरत शेर।
"चाह मंजिल की हमें क्यूँ हो बताओ "नीरज"
हमसफ़र बन के मेरे जब वो चला करते हैं"
छा गये हो सरजी।
बहुत ही लाजवाब नीरज जी ... आपका ग़ज़ल का अंदाज़ बहुत जुड़ा है सबसे ...
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं
क्या बात कही है इस शेर में ... ये सच है दो हिम्मत रखता है मंज़िल उसे ही मिलती है ...
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
शाख से तो ज़र्द पत्ते खुद गिरा करते हैं
ये ज़माने की रीत है ... कमजोर क दोष हो तो भी गाज़ मजबूत पर ही गिरती है ... बहुत लाजवाब शेर निकाले हैं सब ...
बहुत ही सुंदरतम शेर, शुभकामनाएं.
रामराम
मैं सच बहुत खुशनसीब हूँ, इतना के मुझे अपनी किस्मत पे रश्क होता है. इस ग़ज़ल के पोस्ट होने के बाद मुझे आदरणीय प्राण साहब, पंकज जी, शाहिद भाई और इस्मत जैदी साहिबा के मेल मिले जिनमें इस ग़ज़ल में मुझसे हुई कमियों को खुल के बताया गया था. मैं सब की सब कमियों को तो अभी तक नहीं सुधार पाया लेकिन उन्हें सुधारने की कोशिश में जरूर लग गया हूँ. मैं आप सब के प्यार से अभिभूत हूँ आप मेरी अच्छाइयों के साथ साथ मेरी कमियों, कमजोरियों की और भी इशारा करते हैं. ऐसे रहनुमां ऊपरवाला सबको नहीं देता. मुझे उम्मीद है के आईंदा भी मेरे लड़खड़ा जाने पर आप सब मिल के मुझे फिर से संभाल लेंगे.
नीरज
प्रत्येक पद दाद देने लायक है. साधुवाद.
ये सिर्फ कुछ लोगोमे खासियत होती है नीरज जी....जो सुझावों को ओर आलोचनाओ को स्वस्थ तरीके से लेते है .....यूँ भी इस दुनिया में प्रशंसा से भी आप किसी को जीत सकते है ओर आलोचना से किसी को हार ....ओर ये भी के आपके सच के वेल विशर जो उन्होंने महसूस किया वही कहेगे ..
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं
बड़ा मुश्किल काम है जी
shandar matla .....
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं
dhoop ka kamron me aana kitna zaroori hota hai ..warna ek seeli see boo uthne lagti hai ..jehan ka bhi haqal kamron se alag nahi hota..khula rahe to dhoop aati jaati hai ...behad shaandaar sher hai ..jitna bada dikhata hai usse kaheen bada..hats off iske liey
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
ज़र्द पत्ते तो सदा खुद ही गिरा करते हैं
ek aur kamyaab sher ...waaah
ek bahut achhi ghazal padhne ko mili shuqriya ..rakshabandhan ki shubhkamnayen ..:)
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
शाख से तो ज़र्द पत्ते खुद गिरा करते हैं
मानवीय पहलू को बड़े गहरे तरीके से उद्घाटित किया।
कमाल है ,बधाई ।
नीरज जी, आप इतना अच्छा कहते हैं, कि ये ब्लॉग अब सिर्फ़ आपका ही नहीं रह गया, बल्कि हम सबका हो गया है...
इसी अधिकार से हमने अपनी राय आपको मेल की थी, आप और आपके लेखन पर हमे गर्व है.
और ये हमारा सौभाग्य है कि हम सब एक दूसरे की भावनाओं को सकारात्मक लेते हैं, यही हमारा ब्लॉग परिवार है...
अल्लाह हमारी मुहब्बतों को इसी तरह कायम रखे(आमीन.
बस गुरुदेव! इस शेर के बाद कुछ नहीं रहा कहने को...जिनदगी का पूरा फलसफा इन दो मिसरों में बयान कर दिया आपने..
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं
बाकी तो पूरी ग़ज़ल लाजवाब है, हमेशा की तरह... हर शेर ख़ूबसूरत है, हमेशा की तरह... लफ्ज़ों की अदायगी बेहतरीन है, हमेशा की तरह… सिर्फ नहीं है तो मेरी ज़ुबान.. ग़ज़ल के पेंचोख़म में ऐसा उलझा कि अपनी ज़बान भी भूल गया…
उम्दा ग़ज़ल।
अच्छी प्रस्तुति। आभार
आपके तो हर शे' र ने मन को मोह लिया.....
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
ज़र्द पत्ते तो सदा खुद ही गिरा करते हैं
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं
क्या कहूं ?
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं
लाजवाब हैं आपकी ये पंक्तियां तो.
आज तो एक भी शेर नहीं चुन पाया ! सब एक से बढ़कर एक हैं. कमाल है जी ये गजल तो.
behad pyari lagi ye ghazal. aur ye sher to
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
ज़र्द पत्ते तो सदा खुद ही गिरा करते हैं
behtareen tha hi
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं....लाजवाब शेर
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
ज़र्द पत्ते तो सदा खुद ही गिरा करते हैं
सही बात है, दद्दा, आपकी स्मृति को क्या दोष दें जो हमें भुला दिया.
"जर्द पत्ते तो सदा खुद ही गिरा करते हैं."
गजल में ही वास्तविकता बयान कर दी.
बहुत ख़ूबसूरत...
वो इस सलीके से घर में दिया जलाता था,
पड़ोसी के घर में बराबर नूर जाता था।
चाह मंजिल की मुझे क्यूँ हो बताओ 'नीरज'
हमसफर बनके मेरे वो जब चला करते हैं
भावनाओं को यदि शब्दों में पिरोया जा सकता तो जरूर इसकी तारीफ में कुछ कहता। पहले मैं आपको मिष्टी का पापा (और अपना भाई साहब) समझता था अब पता चला कि आप अंकल हैं हमारे अत: प्रणाम स्वीकारें।
क्या बात है ?बहुत खूब
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं
बहुत गहरी बात है इस शेर में |
धूप में ही तो कलियाँ खिलेगी न ?
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं
कितनी खूबसूरत बात कही है
बहुत ही उम्दा गज़ल.
NEERAJ JI
DERI SE AANE KE LIYE MAAFI ..
JAB BHI MAIN AAPKI GAZAL PADHTA HOON , PAHLI BAAT JO MAN ME AATI HAI , WO YAHI AATI HAI KI , MAIN AAP JAISE ACCHI GAZAL KYON NAHI LIKH PAATA HOON .. AAP ZINDAGI KE PHILOSPHY KO APNI NAZMO AUR GAZLO ME IS TARAH SE DAAL DETE HAI KI , KYA KAHUN.. MERE PAAS KOI SHABD NAHI AUR NA HI ITNI SAMAJH KI MAIN AAPKE SHERO KO POORI TARAH SE SAMJAH SAKU, EK EK SHER ME KAYI KAYI MATLAB SHAAMIL HAI .....MERA SALAAM KABUL KARE..
AAPKI LEKHNI AMAZING HAI JI ..
AAPKA HI
VIJAY
Har sher lajwaab!!
आदरणीय नीरज साहब,
बहुत अच्छे शे'र हुए हैं पहले की तरह
इस बार भी...
साथ सच के ही जियेंगे जो कहा करते हैं
वो उठा कर के सलीबों को चला करते हैं
हकीकत बयां की है इस शे'र में
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं
बहुत बहुत बधाई...
सतीश शुक्ला "रक़ीब"
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
ज़र्द पत्ते तो सदा खुद ही गिरा करते हैं ..behatreen..
Adaraneeya Neeraj sir,
apkee pooree gajal hee khoobasuratee se likhee gayee hai---par in panktiyon ka javab naheen.
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
ज़र्द पत्ते तो सदा खुद ही गिरा करते हैं
Poonam
नीरज जी,
आपके द्वारा मेरे ब्लॉग पर की गयी प्रतिक्रियाओं का हार्दिक धन्यवाद | आपका ब्लॉग बहुत खुबसूरत है जैसे की आपकी लेखनी आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा.....ऐसे ही लिखते रहिये और हम जैसो का उत्साह बढ़ाते रहिये ....शुभकामनाये.
"साथ जाता ही नहीं कुछ भी पता है फिर क्यूँ
और मिल जाये हमें रब से दुआ करते हैं"
ये पंक्तिया दिल को छू गयी......
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं
जी .....
और जिनके दरवाजे खोलने पर भी बंद कर दिए जायें .....?
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
ज़र्द पत्ते तो सदा खुद ही गिरा करते हैं
ओये होए ......!!
कहीं मुझ पर ही तो नहीं लिखा गया ये शे'र .....??
चाह मंजिल की मुझे क्यूँ हो बताओ "नीरज"
हमसफ़र बन के मेरे जब वो चला करते हैं
दुआ है ये साथ यूँ ही बना रहे .....!!
इक और लाजवाब ग़ज़ल .....!!
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं
वाह वाह !
बेहतरीन रचना , आपको शुभकामनायें नीरज भाई
दोष आंधी को भले तुमने दिये हैं लेकिन
ज़र्द पत्ते तो सदा खुद ही गिरा करते हैं
इक गुजारिश है कि तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं|
वाह नीरज भाई वाह लोग आँधी को दोष देकर अपनी कमज़ोरियों को छुपा देते हैं वाह.................दिल के रिश्ते हैं ये मुश्किल से बना करते हैं । बहुत दिनों बाद लौटा ताज़ा हो गया।
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना लिखा है आपने ! बधाई!
bahut sundar !! wah !
ये बहर मुझे बहुत ही पसंद है। कमाल की धुनें बनती हैं इस बहर पर।
"धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची/खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं"...एकदम अनूठा शेर है नीरज जी और मक्ते पे खास तौर पे दाद।
bahot achchi.
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं
तल्खिया सबसे छुपाया यूँ सदा करते हैं
aaj kaafi der se apke blog par rahe...
pahli baar madhubaala ki koi rangeen tasweer dekhi hamne...ekdam MAULIK.....
hamein NET kaa jyaadaa istemaal nahin aataa....warnaa churaa le jaate aaj...
धूप दहलीज़ से कमरों में उन्हीं के पहुँची
खोल दरवाज़े घरों के जो रखा करते हैं
आप के इस शेर को कहने का अंदाज़ ................अहा
वाह वाह वाह वाह
aapke kabitao me jan hai sir
arganikbhagyoday.blogspot.com
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