Monday, May 10, 2010

मैं लाकर गुल बिछाता हूं



तुझे दिल याद करता है तो नग्‍़मे गुनगुनाता हूँ
जुदाई के पलों की मुश्किलों को यूं घटाता हूं

जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं

अदावत* से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं

*अदावत = दुश्मनी, घृणा

नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
गलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं

मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं

नहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
सफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं

घटायें, धूप, बारिश, फूल, तितली, चांदनी 'नीरज'
तुम्‍हारा अक्‍स इनमें ही मैं अक्‍सर देख पाता हूँ

ये ग़ज़ल अभी ख़त्म नहीं हुई एक मक्ता और ज़ेहन में आया है जिसे मैं आप तक पहुँचाने में खुद को नहीं रोक पा रहा हूँ...{ये कमजोरी है जिस पर काबू पाना जरूरी है}...चलिए ये बताइए के जब हम हुस्न-ऐ-मतला कह सकते हैं तो हुस्न-ऐ-मक्ता क्यूँ नहीं? सोचिये और जब तक जवाब मिले तब तक मैं ये एक और मक्ता आपको नज़र करता हूँ.

उतरता हूँ कभी 'नीरज' मैं बन कर बीज धरती पर
फसल बनकर तभी तो झूमता हूँ लहलहाता हूँ

65 comments:

kshama said...

फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं

Khatm na hui ho..ek yahi sher usko mukammal bana deta hai...mai gazalgo to hun nahi...jo dilme aaya so kah diya..
Behad sundar tasveer!

Dr. kavita 'kiran' (poetess) said...

जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
kya baat hai neeraj ji is sher ka jawab nahi. aur----
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं--
ye sher bhi lajwab hai.khuda iss tarah muskurane ki taufiq sabko de. nice.

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं


फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं

बहुत खूब नीरज जी, वैसे भी आप कश्मीरी है जहाँ गुलो की भरमार है !

Shiv said...

नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
गलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं

क्या-क्या लिख देते हैं!! क्या-क्या सिखा देते हैं!!
अद्भुत!!

KK Yadav said...

मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं
...बहुत खूब. ...सुन्दर बात..सार्थक सन्देश भी...बधाई.
***************

'शब्द सृजन की ओर' पर 10 मई 1857 की याद में..आप भी शामिल हों.

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत ही अदभुत रचना, बहुत शुभकामनाएं.

रामराम.

स्वाति said...

तुझे दिल याद करता है तो नग्‍़मे गुनगुनाता हूँ
जुदाई के पलों की मुश्किलों को यूं घटाता हूं


जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं

बहुत खूब. ...सुन्दर रचना...!

Kusum Thakur said...

जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं

बहुत खूब ....सरे के आरे शेर एक से बढ़कर एक हैं !!

pran sharma said...

AAPKEE LEKHNEE SE EK AUR BEHTEEN
GAZAL.BADAAEE AUR SHUBH KAMNA.

रश्मि प्रभा... said...

तुझे दिल याद करता है तो नग्‍़मे गुनगुनाता हूँ
जुदाई के पलों की मुश्किलों को यूं घटाता हूं
waah, nagmon kee gungunahat achhi lagi

सुशीला पुरी said...

जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
........bahut hi shaandar !!!!

प्रवीण पाण्डेय said...

वाह, सच में लहलहा गये ।

shikha varshney said...

फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
वाह कितनी सुंदर बात कही है.बेहतरीन ग़ज़ल है नीरज जी !

vandana gupta said...

bahut khoob.......sabhi ek se badhkar ek hain.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं

...मेरी मोहर कबूल करें

पारुल "पुखराज" said...

मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं

badi baat hai ye

डॉ टी एस दराल said...

फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं

मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं

नेक विचार , सकारात्मक सोच ।
बढ़िया ग़ज़ल नीरज जी ।

संजय @ मो सम कौन... said...

नीरज साहब, कमाल कर दिया।
और आखिरी मक्ता तो बहुत ही पसंद आया,
"उतरता हूँ कभी 'नीरज' मैं बन कर बीज धरती पर
फसल बनकर तभी तो झूमता हूँ लहलहाता हूँ"

बहुत बहुत आभार।

दिगम्बर नासवा said...

फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं

ये शेर और अंतिम शेर भी कमाल का है नीरज जी ... हमेशा की तरह खिलता हुवा गुलाब ...... सुभान अल्ला ...

अमिताभ मीत said...

फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं

बेहतरीन भाई ... लाजवाब ! हमेशा की तरह !!

डॉ .अनुराग said...

हमने भी इक रोज यूँ ही जानी थी शज़र की अहमियत .......

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर गजल, हमारे यहां पतझड मै ऎसे ही चित्र देखने को मिलते है, बहुत खुब सुरत चित्र

haidabadi said...

नीरज भाई
खुबसूरत ग़ज़ल पढ़वाने का शुक्रिया
किबला आज के दौर में लोगों को मिसरे नहीं मिलते
और आप हैं के आप पर उसकी रहमतों की बारिश
लगातार जारी है ग़ज़ल में हुस्ने तकरार भी है
मतला और मक्ता की आमद भी
आपने तो मिस्र का बाज़ार सजा रखा है

चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क

मनोज कुमार said...

मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं
बिना निराश हुए ही हार को सह लेना पृथ्वी पर साहस की सबसे बडी परीक्षा है । बेहतरीन ग़ज़ल!

rashmi ravija said...

फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
बेहतरीन भाव समेटे है ग़ज़ल...

योगेन्द्र मौदगिल said...

ek arse baad achhi gazal padi...wah neeraj ji wah.....

विनोद कुमार पांडेय said...

नीरज जी बेहतरीन...एक बात सच कहना चाह रहा हूँ पहले कभी कभी आपके ब्लॉग पर आता था अब तो ढूढ़ता रहता हूँ कि कुछ नया आया क्या...बहुत बढ़िया ग़ज़ल..


नीरज जी धन्यवाद स्वीकारें....बधाई

Mithilesh dubey said...

क्या कहूँ खो सा गया कहीं आपके गजलो में , लाजवाब प्रस्तुति रही ।

संजय भास्‍कर said...

बहुत खूब. ...सुन्दर रचना...!

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

ऐसे ही लहलाहते है हमेशा आप

Alpana Verma said...

नहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
सफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं

ये शेर बहुत ही बहुत उम्दा लगा!
बहुत अच्छी गज़ल.

Udan Tashtari said...

उतरता हूँ कभी 'नीरज' मैं बन कर बीज धरती पर
फसल बनकर तभी तो झूमता हूँ लहलहाता हूँ

-यही जज़्बा चाहिये लहलहाने के लिए..बहुत खूब, भाई...लाओ, कलम चूम लें..:)

आनन्द आ गया.

kunwarji's said...

"जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं"
जी बहुत ही सुन्दर,लाजवाब!

कुंवर जी,

Anonymous said...

नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
गलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं
लाजवाब ग़ज़ल के हार्दिक और बधाई पढवाने के लिए आभार

देवेन्द्र पाण्डेय said...

जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
...मुझे तो यह शेर ही सबसे अच्चा लगा.

हुस्न-ए-मक्ता का भाव लाजवाब लगा लेकिन मुझे लगता है कि इसी बात को बीज के माध्यम से ही कहा जाय तो अधिक विनम्रता झलकेगी. यह मेरा ख्याल है मैं बिलकुल गलत भी हो सकता हूँ..

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

बाऊ जी,
सभी अच्छे हैं! लेकिन हासिल-ए-महफ़िल का खिताब तो इसे ही मिलना चाहिए:
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं

Nipun Pandey said...

वाह नीरज जी !
एक और बेहतरीन नगमा ...:)

हर एक शेर की बात अपने आप में निराली है .....और भाव तो बहुत ही अच्छे लगे |

ऐसे ही झूमते लहलहाते रहे आपकी सुन्दर और गहरी कलम .....यूँ ही सुनाते रहिये .....

बहुत कुछ कह जाते हैं आप ....बहुत कुछ सीख लेते हैं हम ....:)

वीनस केसरी said...

नीरज जी नमस्ते
आपके कहन की तारीफ़ करने के लिए शब्द खोजता रह जाता हूँ

किसी ने कहा है कि जब कहने के लिए बहुत कुछ हो और सीमित सब्दों में कहना हो तो आप्द्मी को शब्द नहीं मिलते और वो खामोश रह जाता है

आज फिर से वही हाल हुआ

मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं

इस शेर में सारा जीवन दर्शन छुपा हुआ है

आज फिर से लाजवाब हो गया

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सचमुच, लाजवाब कर दिया आपने।
बहुत बहुत बधाई।
--------
बूझ सको तो बूझो- कौन है चर्चित ब्लॉगर?
पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?

नीरज मुसाफ़िर said...

कविता, शायरी, गजल कभी पल्ले नहीं पडती
लेकिन कुछ बात है ‘नीरज’, तुझे पढने चला आता हूं।

"अर्श" said...

मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं

बधाई नीरज जी खुबसूरत ग़ज़ल के लिए दिनों बाद आया हूँ , मगर खुबसूरत ग़ज़ल से मुलाकात हुई ...

ढेरो बधाई

अर्श

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
क़ौमी यकजहती के लिये कितना बड़ा पैग़ाम दिया है नीरज जी.....ज़िन्दाबाद
और....
जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
इंसान ये हक़ीक़त समझ ले तो...इंसान बन जाये

नीरज गोस्वामी said...

E-mail received from Mansoor Ali Hashmi Saheb:-

खूबसूरत ग़ज़ल, हर शेर ला जवाब..... बस यही कह सकता हूँ कि:-

"उतर आओ, फलो फूलो, बड़ी ज़रखेज़ धरती है,
उगाओ फूल शब्दों के उसे आँखों से चुनता हूँ."

daanish said...

ग़ज़ल की नफ़ासत
ग़ज़ल की रा`नाई
ग़ज़ल की शिगुफ्त्गी
..... .........
ग़ज़ल की और ना जाने
किन-किन खूबियोंका ज़िक्र किया जाता है aksar
और बात आ के ठहरती है
जनाब नीरज साहब की ग़ज़लों तक..
...अब इस फ़न की क्या मिसाल दूं
"घटायें,धूप,बारिश,फूल,तितली,चांदनी 'नीरज."
आफ़रीं. . . .
और,,,,,
"मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं..."
बस.... अब बेलफ्ज़ हूँ .
मुबारकबाद .
'

daanish said...

जनाब चाँद शुक्ला जी की बात से सहमत हूँ
और उन्हें गुजारिश करता हूँ
कि अपनी 'आवाज़ की दुनिया' में इस ग़ज़ल को
आपकी आवाज़ में लगा कर सब को सुनवाएं

Unknown said...

Bahut Sunder !!

इस्मत ज़ैदी said...

जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं

फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं

नीरज जी बहुत ही पाकीज़ा ख़यालात की तर्जुमानी करते हैं ये अश’आर ,
अगर हम सब फूल बिछाने में यक़ीन करने लगें तो बात ही क्या है

Ankit said...

नमस्कार नीरज जी,

हर शेर किसी मोती से कम नहीं है, बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने, अरे नहीं बहुत ज्यादा खूबसूरत.

आपके लफ़्ज़ों की ये सादगी आपसे ही उभर के आई है, और शेरों में ढल गयी है
मतले से लेकर मकते तक ये जादू कर देती है, हर शेर अच्छा है, सोच रहा हूँ किसे कोट करूं, एक को करूँगा तो दूसरे से ज्यादती हो जाएगी.
दिल से वाह वाह ही निकल रही है और बारहां ग़ज़ल को पढ़ रहा हूँ.............................
आज का दिन मुकम्मल हो गया.

आशा जोगळेकर said...

हर शेर नायाब, पूरी की पूरी गज़ल किसी मोती माला सी ।

फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं ।

उतरता हूँ कभी 'नीरज' मैं बन कर बीज धरती पर
फसल बनकर तभी तो झूमता हूँ लहलहाता हूँ
नीरज जी बहुत ही कमाल ।

Udan Tashtari said...

फिर से आया हूँ कहने कि:


तुझे दिल याद करता है तो नग्‍़मे गुनगुनाता हूँ
जुदाई के पलों की मुश्किलों को यूं घटाता हूं


-सच में!!

स्वप्निल तिवारी said...

charchamanch pe dekh kar aaya..outstanding type to nahi hai ..par ek achhi ghazal kahi hai aapne...

अपूर्व said...

सुंदर गज़ल कही है आपने..
और यह शेर खासकर पसंद आया है

नहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
सफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं

बेहतरीन ग़ज़ल पढ़वाने के लिये आभार

R.Venukumar said...

नहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
सफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं

मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं

उतरता हूँ कभी 'नीरज' मैं बन कर बीज धरती पर
फसल बनकर तभी तो झूमता हूँ लहलहाता हूँ



सम्मानीय नीरज भाई नमस्कार ।
एक एक शेर दमदार और अनुभव की तपिश में तपकर खरा हुआ है।
आपके सान्निध्य की हमेशा प्रतीक्षा रहेगी

R.Venukumar said...

तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे




मैं भी यही चाहता हूं

शोभना चौरे said...

ईश्वर तो हमारे पास ही है आपकी इस गजल ने अहसास करवा दिया है |गजल के बारे में ज्यादा तो नहीं जानती किन्तु जितना भी लिखा है आपने बहुत ही सुखदायक है |

बवाल said...

ऎसी उम्दा ग़ज़ल हमारे प्यारे नीरज दा के अलावा कौन लिख सकता है। हर सम्त आग थी और आप ठंडी फ़ुहार छोड़ आए। अश अश!

daanish said...
This comment has been removed by the author.
गौतम राजऋषि said...

गलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूँ...आह, क्या मिस्रा बुना है उस्ताद। आज की सुबह बन गयी अपनी। बेहतरीन ग़ज़ल हमेशा की तरह और दोनों मकते ने तो ऐसा माहौल क्रियेट किया है कि उफ़्फ़्फ़्फ़.....विशेष कर घटायें, धूप, बारिश..ये तमाम शब्द कितनी खूबसूरती से बहर में बैठ गये हैं।
वाह!

श्रद्धा जैन said...

जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं

waah waah kya sher kaha hai

नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
गलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं

ahaaaaaaaa

नहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
सफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं

kamaal ka sher

bahut hi asardaar gazal ......

Asha Lata Saxena said...

बहुत खूब लिखा है |
आशा

Nidhi said...

नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
गलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं...क्या बात है....बढ़िया!!

Yashwant R. B. Mathur said...

नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
गलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं

बहुत खूब लिखा है सर!

सादर

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्‍कुराता हूं

वाह नीरज सर, कम्माल के अशआर हैं...
और दोनों ही मकते जानदार...
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल..
सादर बधाई...

Mamta Bajpai said...

जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
एक दम सच कहा ..बधाई

अनामिका की सदायें ...... said...

bahut sunder hamesha ki tarah lajawab gazel.