Monday, December 21, 2009

किताबों की दुनिया - 20

शायरी करना तो अभी का शौक है लेकिन शायरी पढना बहुत पुराना.बरसों से अच्छे शायरों को पढता रहा हूँ और ये काम अभी भी बदस्तूर जारी है. इसी शौक की वजह से मैं आपका तारुफ्फ़ नयी नयी किताबों से करवाने का प्रयास करता हूँ. किताबों के आलावा नेट पर भी जहाँ कहीं सम्भावना नज़र आये नज़रें दौड़ाता रहता हूँ. 'अनुभूति' मेरी प्रिय साईट है जिसे 'पूर्णिमा वर्मन' जी चलाती हैं.इस साईट पर हर हफ्ते अंजुमन के तहत नए अशार पढने को मिलते हैं. अपनी इसी खोज के दौरान मैं चंद ऐसी ग़ज़लों से रूबरू हुआ जिन्होंने मुझ पर गहरा असर डाला.

शायर का नाम देखा तो मुझे अनजाना लगा. मुझे अनजान शायरों को पढने में बहुत मजा आता है क्यूंकि आप नहीं जानते की वो कैसे हैं, कैसा लिखते हैं, क्या सोचते हैं याने आपके मन में उनकी कोई पूर्व छवि बनी हुई नहीं होती. आप उन्हें निष्पक्ष हो कर पढ़ते हैं. इसी में मजा आता है. वहीँ अनुभूति की साईट पर उनका परिचय भी दिया हुआ था जिसमें उनकी ग़ज़ल की किताब का जिक्र भी था. अनुभूति से ही उनकी मेल का पता मिला और तुरंत उन्हें पुस्तक भेजने का अनुरोध कर डाला.

आज किताबों की दुनिया में उसी शायर "संजय ग्रोवर" जी की किताब " खुदाओं के शहर में आदमी" का जिक्र करूँगा जिसे उन्होंने मुझे कोरियर से भेज अनुग्रहित किया.

संजय जी का 'संवाद घर' के नाम से ब्लॉग भी है.



सबसे पहले तो इस किताब के शीर्षक ने ही मुझे आकर्षित किया. इसी से मुझे शायर की नयी सोच का भान हो गया था, फिर जैसे जैसे मैं इसके वर्क पलटता गया, मेरी सोच पुख्ता होती चली गयी.

मौत की वीरानियों में ज़िन्दगी बन कर रहा
वो खुदाओं के शहर में आदमी बन कर रहा

ज़िन्दगी से दोस्ती का ये सिला उसको मिला
ज़िन्दगी भर दोस्तों में अजनबी बन कर रहा

उसकी दुनिया का अँधेरा सोच कर तो देखिये
वो जो अंधों की गली में रौशनी बन कर रहा

एक अंधी दौड़ की अगुआई को बैचैन सब
जब तलक बीनाई थी मैं आखरी बन कर रहा
बीनाई: रौशनी

अपेक्षा कृत युवा (जन्म १९६३) संजय साहब के बागी तेवरों का अंदाज़ा इस बात से हो जाता है की ये किताब उन्होंने तसलीमा नसरीन साहिबा को समर्पित की है. ज्ञान प्रकाश विवेक जी ने इस पुस्तक की भूमिका में सही लिखा है की: अनुभवों की गहराई बेशक संजय की शायरी में न हो, अपने समय की मुश्किलों से मुठभेड़ की जुर्रत मौजूद है.

वक्त का यह कौनसा संवाद है
आदमी अब हर जगह उत्पाद है

भीड़ है भेड़ों की, तोतों की तुकें
जो नया है वो महज़ अपवाद है

क्यूँ अमन के तुम उड़ाते हो कपोत
धर्म का मतलब तो अब उन्माद है

ये छोटी सी किताब है जिसमें कुल जमा चौरासी पन्ने हैं लेकिन हर पन्ना बार बार पढने लायक है. संजय जी ने अपनी ग़ज़लों में बहुत से प्रयोग लिए हैं. उनकी एक ग़ज़ल में पत्थर शब्द का प्रयोग हर शेर में किया गया है लेकिन अलग अलग सन्दर्भों में, उसी ग़ज़ल के चंद शेर देखें:

पत्थरों को भी जो आईनों के माफिक तोड़ दे
इतनी कुव्वत रख सके इक ऐसा पत्थर लाईये

हैसियत देखे बिना बेख़ौफ़ पत्थर मारना
आपके बस का नहीं, बच्चा कोई बुलवाईये
(इस शेर को पढ़ कर मुझे पुरानी फिल्म 'अंकुर' का अंतिम दृश्य याद आ गया जिसमें एक बच्चा ज़मींदार के घर पर पत्थर उठा कर मारता है)

पत्थरों की मार से महफूज़ रहने के लिए
मंदिरों में पत्थर अपने नाम के लगवाईए

ज्ञान प्रकाश जी भूमिका में आगे लिखते हैं "संजय ग्रोवर की शायरी उम्मीदों और संभावनाओं की शायरी है. शायरी में आकाश को छूने की काल्पनिकता नहीं है. हवा को मुठ्ठियों में कैद करने की जिदें भी नहीं हैं. ज़मीन पर चलने और अपनी जड़ें तलाश करने की बेकरारी जरूर है."

ताज़ा कौन किताबें निकलीं
उतरी हुई जुराबें निकलीं

शोहरत के संदूक में अक्सर
चोरी की पोशाकें निकलीं

मैले जिस्म घरों के अन्दर
बाहर धुली कमीज़ें निकलीं

पानी का भी जी भर आया
यूँ बेजान शराबें निकलीं

संजय जी ने अपने आस पास पनपते विरोधाभास को बखूबी अपनी शायरी में ढाला है. इनकी ग़ज़लें मंचीय नहीं हैं और व्यवस्था विरोध के सरल फार्मूले को अपनाती हैं .उनका प्रयास अच्छे शेर कहने का रहा है और उन्होंने अच्छे शेर कहें भी हैं:

जीती-जगती कलियों को लें तोड़, बनाते हार
पत्थर की दुर्गाओं की फिर पूजा करते लोग

कमज़ोरों के आगे दीखते पत्थर जैसे सख्त
ताक़तवर कोई आये तो फूल से झरते लोग

अपने काम की खातिर देते रिश्वत में परसाद
कहने को सब कहते हैं भगवान् से डरते लोग

संजय जी की ग़ज़लें भारत की प्रत्येक अखबार पत्रिका में छप चुकीं हैं, इसके आलावा दो व्यंग संकलन और दो ग़ज़ल संकलन भी प्रकाशित हो चुके हैं. इस किताब के प्रकाशक स्वयं संजय जी ही हैं इसलिए ग़ज़ल प्रेमियों को उनसे उनके घर 147- ऐ . पाकेट ऐ, दिलशाद गार्डन,दिल्ली - 95 संपर्क करना पड़ेगा अथवा आप उनसे फोन 011-43029750 ,एवं मोबाईल 09910344787 द्वारा भी संपर्क कर सकते हैं.अस्सी रु. मूल्य की ये किताब हर ग़ज़ल प्रेमी को पढनी चाहिए.

आखिर में इस देश के लाखों करोड़ों हिंदी प्रेमियों के लिए उनका ये शेर पेश कर रहा हूँ, जो हमें सोचने को बाध्य करता है.

खाट पर पसरी हुई मेहमान अंग्रेजी के साथ
अपने घर में हिंदी की लाचारगी को सोचना

इसी ग़ज़ल के दो शेर और पढ़ते चलिए और संजय जी से संपर्क कर उन्हें इस लाजवाब किताब के लिए बधाई दीजिये. कम से कम इतना तो आप कर ही सकते हैं

दुश्मनों के खौफ से पीछा छुड़ाना हो अगर
दोस्तों में कुलबुलाती दुश्मनी को सोचना

जिस घडी मन कृष्ण जैसी रास लीलाएं रचे
उस घडी इक पल ठहर कर द्रौपदी को सोचना




49 comments:

seema gupta said...

"संजय ग्रोवर" जी की किताब " खुदाओं के शहर में आदमी" से रूबरू करने का आभार....
मौत की वीरानियों में ज़िन्दगी बन कर रहा
वो खुदाओं के शहर में आदमी बन कर रहा

बेहद वजनदार और शानदार शेर......

regards

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

हैसियत देखे बिना बेख़ौफ़ पत्थर मारना
आपके बस का नहीं, बच्चा कोई बुलवाईये


पत्थरों की मार से महफूज़ रहने के लिए
मंदिरों में पत्थर अपने नाम के लगवाईए

waah 1

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट...

निर्मला कपिला said...

नीरज़ जी आपने तो आज जैसे संजय जी से परिचय करवा कर हमे एक अनमोल तोहफा दिया है । संजय जी की शायरी पढ कर सतब्ध हूँ हर एक शेर लाजवाब और ज़िन्दगी के करीब है
की वीरानियों में ज़िन्दगी बन कर रहा
वो खुदाओं के शहर में आदमी बन कर रहा

उसकी दुनिया का अँधेरा सोच कर तो देखिये
वो जो अंधों की गली में रौशनी बन कर रहा


पत्थरों की मार से महफूज़ रहने के लिए
मंदिरों में पत्थर अपने नाम के लगवाईए
अब तो ये पुस्तक मंगवानी ही पडेगी। संजय जी को बहुत बहुत बधाई और आपका धन्यवाद्

डॉ टी एस दराल said...

वाह नीरज जी। बहुत बढ़िया शेर प्रस्तुत किये हैं संजय साहब की किताब से।
उसकी दुनिया का अँधेरा सोच कर तो देखिये
वो जो अंधों की गली में रौशनी बन कर रहा


वक्त का यह कौनसा संवाद है
आदमी अब हर जगह उत्पाद है

पत्थरों की मार से महफूज़ रहने के लिए
मंदिरों में पत्थर अपने नाम के लगवाईए

वाह, वाह। कितनी निर्मल सच्चाई। आभार।

Apanatva said...

bagulo me hans dundana koi aasan kam nahee . badee parakhee nazar chahiye . bahut bahut dhanyvad eg behatreen soch rakhane wale shakhs se parichay karane ka . yanha to hindi kitabe milana sapne dekhane jaise hai .

vandana gupta said...

neeraj ji

hamare jaise log jo bahar jakar kitaabein dhoondh nhi pate unke liye aap ek se badhkar ek anmol tohfa lekar aate hain.........aapke shukrgujar hain.

sanjayji ka har sher kabil-e-tarif hai..........kis kis ki tarif karoon.

neeraj ji meri 100 vi post aapke intzaar mein hai.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

संजय जी की रचनाएं अक्सर पढता रहता हूं, आज उनकी किताब के बहाने उनके बारे में बहुत कुछ जानने को मिला, शुक्रिया।

------------------
इसे आप पहचान पाएंगे? कोशिश तो करिए।
सन 2070 में मानवता के नाम लिखा एक पत्र।

दिगम्बर नासवा said...

नीरज जी आप नये नये मोती गहरे सागर से निकाल कर लाते हैं और हम बैठे बैठे उसका स्वाद लेते हैं ........ आज फिर एक लाजवाब किताब से मिलवाने का शुक्रिया ......... खूबसूरत शेर हैं ......... नये तेवर हैं संजय ग्रोवर जी के .........

ताऊ रामपुरिया said...

"संजय ग्रोवर" जी की किताब " खुदाओं के शहर में आदमी" के बारे में बताने के लिये बहुत आभार.


वक्त का यह कौनसा संवाद है
आदमी अब हर जगह उत्पाद है

पत्थरों की मार से महफूज़ रहने के लिए
मंदिरों में पत्थर अपने नाम के लगवाईए

रामराम.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

अपने काम की खातिर देते रिश्वत में परसाद
कहने को सब कहते हैं भगवान् से डरते लोग
---अभी तो बस यह शेर याद करने दीजिए
सभी की टिप्पणी का मजा लेने दीजिए

Abhishek Ojha said...

कमाल के शेर हैं. आभार इस पुस्तक से परिचय करवाने के लिए.

rashmi ravija said...

संजय ग्रोवर जी की इस पुस्तक से परिचय कराने का बहुत बहुत शुक्रिया....सारे एक से बढ़कर एक नायाब शेर हैं ...

Kulwant Happy said...

बहुत शानदार! रही आपकी पुस्तक चर्चा।

कैमरॉन की हसीं दुनिया 'अवतार'

शौचालय और बेसुध मैं

अहिंसा का सही अर्थ

बाजारवाद में ढलता सदी का महानायक

डॉ .अनुराग said...

गाहे बगाहे उनको पढता हूँ...अब उनकी किताब को भी अलमारी में जगह देगे

मनोज कुमार said...

बहुत ही बढि़या चर्चा

Udan Tashtari said...

Bahut badhiya laga. Blog par to unhe padhte aaye hain.

Unka email de dete to sampark kar kitab manga leta.

हैसियत देखे बिना बेख़ौफ़ पत्थर मारना
आपके बस का नहीं, बच्चा कोई बुलवाईये

vaah!!

aaz computer kharab hai. Roman me tankit karne ki maafi.

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } said...

खुदाओ के शहर में आदमी . शीर्षक ही बता रहा है संग्रह लाजबाब है

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढ़िया प्रस्तुति।धन्यवाद।

हैसियत देखे बिना बेख़ौफ़ पत्थर मारना
आपके बस का नहीं, बच्चा कोई बुलवाईये

राज भाटिय़ा said...

जीती-जगती कलियों को लें तोड़, बनाते हार
पत्थर की दुर्गाओं की फिर पूजा करते लोग
वाह वाह बहुत ही सुंदर लेख लिखा आप ने धन्यवाद

Sanjay Grover said...

नीरज जी की समीक्षा और आप सबकी टिप्पणियां पढ़कर भाव-विभोर हुआ। नीरज जी किसी तयशुदा दायरे में बंधकर समीक्षा नहीं करते, यह बात मुझे बहुत पसंद आती है। आपकी जिस बात ने दिलो-दिमाग़, दोनों को गहरे तक छुआ, उसे दोहराना ज़रुरी समझता हूं:

""मुझे अनजान शायरों को पढने में बहुत मजा आता है क्यूंकि आप नहीं जानते की वो कैसे हैं, कैसा लिखते हैं, क्या सोचते हैं याने आपके मन में उनकी कोई पूर्व छवि बनी हुई नहीं होती. आप उन्हें निष्पक्ष हो कर पढ़ते हैं. इसी में मजा आता है.""

हां, एक सुधार करना चाहूंगा। मेरा अब तक एक ग़ज़ल-संग्रह और एक व्यंग्य-संग्रह आया है। हां, कई व्यंग्य-संकलनों और ग़ज़ल-संकलनों में रचनाएं शामिल की गयी हैं।
एक बार फिर से सभी का बहुत-बहुत आभार।

Roshani said...

मौत की वीरानियों में ज़िन्दगी बन कर रहा
वो खुदाओं के शहर में आदमी बन कर रहा


ज़िन्दगी से दोस्ती का ये सिला उसको मिला
ज़िन्दगी भर दोस्तों में अजनबी बन कर रहा


उसकी दुनिया का अँधेरा सोच कर तो देखिये
वो जो अंधों की गली में रौशनी बन कर रहा


एक अंधी दौड़ की अगुआई को बैचैन सब
जब तलक बीनाई थी मैं आखरी बन कर रहा
बीनाई: रौशनी
बहुत ही अच्छा...मुझे बेहद गर्व है कि मै आपकी पाठक हूँ. और आपका बेहद शुक्रिया कि आपने "संजय ग्रोवर" जी से परिचय कराया .

girish pankaj said...

neeraj ji, aap to achchhe sameekshak bhi hai..? vaah, kya baat hai. mera ghazal sangrah bhi aane vala hai. aapke paas bhejoonga. aap paarakhi hai. meree rachanao par aapki tippaniyaan hausala badha deti hai. aap badaa kaam kar rahe hai. doosaro kee achchhi pustak par kuchh likhana udarata ka parichayak hai.

कडुवासच said...

... behad prabhaavshaali prastuti !!!

वीरेन्द्र जैन said...

मैं गोपाल दास नीरज की ये पंक्तियाँ याद करना चाहूंगा-
बिका बिकी हर ओर मची है आने ओ दो आनों पर
अस्मत बिके बज़ारों में तो प्यार बिके दूकानों पर
कदम कदम पर मन्दिर मस्ज़िद कदम कदम पर गुरुद्वारे
भगवानों की बस्ती में है ज़ुल्म बहुत इंसानों पर
या कैफ भोपाली कहते हैं-
ये दाढियां ये तिलकधारियां नहीं चलतीं
हमारे अहद में मक्कारियां नहीं चलतीं
संजय की गज़लें भी इसी कारवाँ को आगे बढाती हैं

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

नीरज जी,
ग्रोवर साहब की ग़ज़ल का स्वाद अभी कुछ ही दिन पहले चखा था. आपकी पुस्तक चर्चा ने पूरा पिटारा खोल दिया . वाकई वे आज के एक सशक्त शायर हैं.

सभी शेर प्रहार करते हैं, खासकर पत्थरों वाले .

धन्यवाद!
सुलभ

शाहिद मिर्ज़ा ''शाहिद'' said...

नीरज जी,
पुस्तक की रचनाएं अपनी जगह
हमें तो आपका प्रस्तुतिकरण बहुत अच्छा लगा
ग्रोवर जी का ये शेर कितना सच्चा है-
कमज़ोरों के आगे दीखते पत्थर जैसे सख्त
ताक़तवर कोई आये तो फूल से झरते लोग

शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

विनोद कुमार पांडेय said...

क्यूँ अमन के तुम उड़ाते हो कपोत
धर्म का मतलब तो अब उन्माद है

बहुत ही बढ़िया बढ़िया रचनाएँ पढ़ने को मिली आपके ब्लॉग पर दिल खुश हो गया नीरज जी सभी शानदार रचनाओं के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद

Alpana Verma said...

'पत्थरों को भी जो आईनों के माफिक तोड़ दे
इतनी कुव्वत रख सके इक ऐसा पत्थर लाईये'
waah!

aap ki pasand bhi bahut khoob hai!
bahut hi achchee kitaab aur gazalkaar se parichay karwaya.

Abhaar.

अर्कजेश Arkjesh said...

संजय ग्रोवर जी को ब्‍लॉग के माध्‍यम से जानते थे । लेकिन आज आपकी इस पोस्‍ट के माध्‍यम से विस्‍तार से उनके रचनाओं के बारे में जानकारी मिली ।

और इतनी बढिया गजल पढने को मिलीं ।
संजय ग्रोवर जी की रचनाओं में समाज और आदमी में व्‍याप्‍त विसंगतियां उभरकर दिखाई पडती हैं ।

हैसियत देखे बिना बेख़ौफ़ पत्थर मारना
आपके बस का नहीं, बच्चा कोई बुलवाईये

शुक्रिया ।

Shiv said...

संजय जी को एक ब्लॉगर के रूप में ही जानते थे. आपने उनकी किताब की चर्चा कर के उनसे परिचय को एक नया आयाम दिया. किताबों से परिचय कराने का आपका अभियान ऐसे ही चलता रहे, यही कामना है.

नीरज गोस्वामी said...

E-Mail received from Sh.Om Prakash Sapra Ji:-

SHRI NEERAJ JI
NAMASTEY,

GOOD COLLECTIONS OF SHAIRI.
ESPECIALLY POETRY OF SANJAY GROVER'S "KHUDAO KE SHAHAR MEIN AADMI"

GOOD EFFORT, CONGRTAS,
REGARD, -
-OM SAPRA , DELHI-9

kavi kulwant said...

अरे वाह नीरज जी.. शुभान अल्ला.....
बहुत खूब...

संजय भास्‍कर said...

बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

रश्मि प्रभा... said...

मौत की वीरानियों में ज़िन्दगी बन कर रहा
वो खुदाओं के शहर में आदमी बन कर रहा
..........वाह

नीरज गोस्वामी said...

E-Mail received from Sh:Rakesh Sobti Ji:-

Hello Sir maine apka article para, bahut achchha laga.

प्रदीप कांत said...

ताज़ा कौन किताबें निकलीं
उतरी हुई जुराबें निकलीं

शोहरत के संदूक में अक्सर
चोरी की पोशाकें निकलीं

BEHATAR KITAB SE PARICHAY KARANE KE LIYE ABHAAR

Gyan Dutt Pandey said...

पुस्तक समीक्षा करना कोई आप से सीखे!

Tulsibhai said...

पत्थरों को भी जो आईनों के माफिक तोड़ दे
इतनी कुव्वत रख सके इक ऐसा पत्थर लाईये


हैसियत देखे बिना बेख़ौफ़ पत्थर मारना
आपके बस का नहीं, बच्चा कोई बुलवाईये

" bahut hi badhiya aur aapka sukriya ki aapne " sanjay ji se parichay karvaya ."

" umda lekhan aur shandar post ke liye aapko aur sanjay ji ko badhai "


------ eksacchai { AAWAZ }

http://eksacchai.blogspot.com

गौतम राजऋषि said...

संजय जी को एक ब्लौगर के तौर पर तो जब-तब पढ़ता था लेकिन उनका ये शायर वाला रूप तो लाजवाब कर गया। अशआर के अंदाज और उनकी सोच, उसकी बुनाई...उफ़्फ़्फ़!

शुक्रिया नीरज जी, इस अद्‍भुत शायर से मिलवाने के लिये। उनसे संपर्क करता हूँ उनकी इस किताब के लिये।

vandana gupta said...

neeraj ji
jiski shakhein parindon ke gane sunein.............ye nayi nazm padh nhi pa rahi kyunki open nhi ho rahi hai..........pls dobara publish kijiye.

Asha Joglekar said...

वाह आपकी हर समीक्षा हमें एक हीरे से मिलवाती है । आपके उद्धृत सभी शेर एक से बढ कर एक हैं पर ये कितना सामयिक है
क्यूँ अमन के तुम उड़ाते हो कपोत
धर्म का मतलब तो अब उन्माद है ।

Manish Kumar said...

संजय जी को पढ़ना होता रहा है पर वे इतने बेहतरीन शायर हैं ये आपकी इस पोस्ट को पढ़ कर पता चला। पत्थर वाला प्रयोग अनूठा लगा।

Mumukshh Ki Rachanain said...

माननीय नीरज जी,
आपके फोन करके हालत जानने का हार्दिक शुक्रिया.
दरल साहब और अन्य ब्लागर बंधुओं की चिंतित स्वरों की आत्मिक जानकारी माननीय दराल जी के १६ दिसंबर के ब्लाग से मिली. और उन्हें मैंने निम्न टिप्पणी उनकी २४ दिसंबर की पोस्ट पर प्रेषित की है. हुबहू आपके सूचनार्थ भी प्रेषित है.

एक बार पुनः सूचित कर दूं की मैं पुर्णतः स्वस्थ और शकुशल हूँ. बस मज़बूरी का मारा हूँ..................
चन्द्र मोहन गुप्त
********************************
दराल जी को प्रेषित टिपण्णी .............

माननीय दराल जी,

आज अभी अग्रज नीरज जी से फ़ोन द्वारा ज्ञात हुआ कि आपने ब्लागजगत पर मेरी गुमशुदगी पर पूरी एक पोस्ट १६ दिसंबर को पेश की और तमाम शुभचिंतको नें अपनी त्वरित टिप्पणियां भी दी.

आपकी और सभी शुभचिंतकों की गहन आत्मीयता से में हार्दिक रूप से आप सब का ऋणी हो गया.

हाँ एक बार और बता दूं कि मैं नहीं जानता कि विजय जी के ब्लाग पर मेरी अंतिम टिपण्णी किस तारीख कि है पर यह सच है कि मैं ब्लाग जगत से 'मज़बूरी" पर अपनी अंतिम पोस्ट पेश कर ऊपर वाले के रहमों करम से "मज़बूरी" के ही चलते मुझे ब्लाग जगत से दूर रहना पड़ा और शायद अभी कुछ और महीने दूर रहना पड़े, कारण कि मैंने तभी से "इन्डियन स्टील कारपोरेशन लिमिटेड , गांधीधाम में विधुत विभाग में सहायक महाप्रबंधक के पद पर नैकरी ज्वाइन कर ली है और वहां पर इंटरनेट की अनुपलब्धता के चलते ब्लाग जगत से दूरी एक मज़बूरी बन गयी है. परिवार जयपुर में ही है, सारी व्यवस्थाएं जयपुर में ही हैं, आज यह कमेंट या कहूँ उत्तर जयपुर से ही लिख रहा हूँ. अभी मुझे कंपनी के काम से ग्वालियर के लिए निकलना है, वहां से १ जनवरी को ही गांधीधाम पुनः जयपुर होते हुए वापस पहुँचूँगा.

जो मोबाईल नंबर अग्रज नीरज जी ने दिया है वह मेरा जयपुर का नंबर था, सो रोमिंग के कारण उसे स्विच ऑफ कर के रखा था. अब मेरे पास गांधीधाम का नया मोबाईल नंबर 09725506267 है,

आशा है, मेरी अनुपस्थिति की मज़बूरी पर लगा ग्रहण ज्यों ही ईश्वर के रहमो करम से हटेगा, अप सब के साथ एक नयी ताजगी से मिल कर अभिभूत होऊंगा, आप सब को मिस करने का मुझे भी बेहद अफ़सोस है, पर समय के आगे किसी का बस नहीं चलता.........

अंत में आप सभी का पुनः एक बार हार्दिक आभार.

चन्द्र मोहन गुप्त

शोभना चौरे said...

neerajji
aapka bahut bahut abhar itne behtreen shayar se milvane ke liye .pustak ki umda smeeksha karne ke liye badhai
ताज़ा कौन किताबें निकलीं
उतरी हुई जुराबें निकलीं

शोहरत के संदूक में अक्सर
चोरी की पोशाकें निकलीं

मैले जिस्म घरों के अन्दर
बाहर धुली कमीज़ें निकलीं

bahut bhut sachhi bat

Murari Pareek said...

एक एक अल्फाज अनमोल है यहाँ, ऊपर से पढ़ा "हैसियत देखे बिना बेख़ौफ़ पत्थर मारना
आपके बस का नहीं, बच्चा कोई बुलवाईये" ग़ज़ब की पंक्तिया है, फिर पढ़ता गया तो देखा यहाँ तो हर एक पंक्ति लाजवाब है!!

रचना दीक्षित said...

संजय जी को ब्लॉग के माध्यम से तो जानती थी मैं पर उनका ये सुंदर रूप आपके माध्यम से देखने को मिला बहुत बेमिसाल पेशकश बधाई तो क्या दूँ धन्यवाद देती हूँ इतनी अच्छी रचनाओं को पढवाने के लिए

Unknown said...

this book is really very sttupid

शारदा अरोरा said...

bahut sundar aur vajan dar sher...