गुणी जनों ब्लॉग जनों...देश के बदलते हुए हालात पर लिखी कुछ पंक्तियाँ कभी लिखी थीं जिन्हें आज सुनाने का मन हो रहा है...ना ये ग़ज़ल है, कविता, रुबाई, छंद या मुक्तक सिर्फ़ अंतरात्मा की आवाज है... इसलिए इसमें व्याकरण की अशुद्धि आप को मिल सकती है लेकिन भाव शुद्ध हैं मेरा सिर्फ़ ये ही कहना है...अगर लगे की जो कहा गया है सच है तो आशीर्वाद दीजिये...
शायद ये रिवायत है
नेताओं की आदत है
जब चाहें देश अपना
मिल बाँट कर के खाएं!!
ये खेल है कुर्सी का
इसमें तो यही देखा
कव्वे बदलके सुर को
कोयल से गीत गायें !!
बेशर्म कौम सारी
अब बन गयी मदारी
तहजीब को सड़क पे
बन्दर सा ये नचायें !!
जब हो न मुंह मैं दाना
तब तुम हमें बताना
मजलूम इमाँ-इज्ज़त
फिर किस तरह बचाएं!!
“नीरज" हुए पुराने
जैसे “तलत" के गाने
ना क़द्र दाँ रहे अब
दिल की किसे सुनाएँ???
26 comments:
बहुत बढिया व्यंग्य रचना है।
ये खेल है कुर्सी का
इसमें तो यही देखा
कव्वे बदलके सुर को
कोयल से गीत गायें !!
चटखदार व्यंग!!!
कल दिल्ली में बंदर-मदारी सम्मेलन के लिए उपयुक्त रचना!!!
भाई नीरज जी,
नेताओं, जिन्हें हम जब नन्हें बच्चे हुआ करते थे, तब उन्हें आदर्श मानते थे और उन जैसा बनने के सपने देखा करते थे, पर शायद तब मूल्यों का अर्थ उच्च संस्कार, सदाचार, त्याग, सेवा-भावना हुआ करती थी, पर आज के अर्थ प्रधान कलियुग में मूल्यों के अर्थ परिवर्तित से हो गए हैं, इसे लिए हर कोई इन्हे देखकर आदर्श रूप में मदारी सा ही बनना चाह रहा है, क्योंकि तभी चारो ओर से "अर्थ" (धन) बरसता है. अपने ठीक ही कहा है
बेशर्म कौम सारी
अब बन गयी मदारी
तहजीब को सड़क पे
बन्दर सा ये नचायें !!
पर पुराने संस्कारों की नए संस्कारों के साथ तुलना शायद आप को मेरी निम्न कविता में नज़र आ जाए:
श्रद्धा
(३८)
है जुड़ा हर कर्म आज फायदे से
फायदा भी क्या, बस पैसा मिलना चाहिए
है अपेक्षा दूसरों से संस्कार, तहजीब की
ख़ुद का कैसे भी काम निकलना चाहिए
स्वार्थ से आदमी चालाक हो गया है
संस्कारित लगता है नालायक हो गया है
थे बुद्ध पढ़े-लिखे, पर ज्ञान कब मिला
श्रद्धा मिलते ही अज्ञान निकलना चाहिए
एक और बानगी उनके अन्तिम हस्र पर भी देखिये:
श्रद्धा
(३४)
कर्म करोगे हैवानों सद्रश्य
तो सबकी गाली खानी होगी
पा प्रतिस्पर्धा चरम दौर में
गला काटने की ठानी होगी
मिला है जीवन इंसानों का तो
कुछ इंसानों सा कर दिखलाओ
रमे श्रद्धा से सेवा-भावों में तो
चन्द्र मोहन गुप्त
नीरज जी,
आज के हालात को बयान कर दिया। वाह बहुत खूब।
ये खेल है कुर्सी का
इसमें तो यही देखा
कव्वे बदलके सुर को
कोयल से गीत गायें !!
नीरज जी दो तीन दिन से देख सुन रहा हूँ। कि नेताओ की आत्मा जाग गई है। भगवान ही जाने आगे क्या होगा?
बरसो से बाँट रहे है साहब ओर अब तो सुना है की चीथडो की भी बोली लग रही है.....आपकी व्यथा स्वाभाविक है.......
शायद ये रिवायत है
नेताओं की आदत है
जब चाहें देश अपना
मिल बाँट कर के खाएं!!
bilkul sahi kaha...is mil baant kar khane mein bechare desh ki fazeehat ho rahi hai.
"ये खेल है कुर्सी का
इसमें तो यही देखा
कव्वे बदलके सुर को
कोयल से गीत गायें !!"
बिलकुल सही फरमाया है आपने।
मिल बाँट कर खाना तो सबको बचपन में सिखाया ही जाता है... बड़े आज्ञाकारी हैं ये नेता :-)
बहुत अच्छा व्यंग मारा है !
बहुत सामयिक नीरज जी! मान गये कि गज़ल भी केवल भाव अभिव्यक्ति नहीं, मौके पर "पंच (punch)" दे सकती है।
जबरदस्त!
बेशर्म कौम सारी
अब बन गयी मदारी
तहजीब को सड़क पे
बन्दर सा ये नचायें !!
नीरज जी बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति है। बधाई स्वीकारें।
नीरज जी,
अंतरात्मा की आवाज़ को
व्याकरण की नहीं
आयतन की ज़रूरत है.
और उसके आप मालिक हैं.
तलत की तलब
और नीरज जैसी तड़प
हमेशा जिंदा रहने वाली धरोहर है.
आपने तब की कही आज सुनाई,
हम आज की सुनी देर तक सुनायेंगे.
नीरज की नेक गलियों में
फिर लौट-लौट आयेंगे.
=============================
फोटो भी लाज़वाब है.
बधाई
डा.चन्द्रकुमार जैन
बहुत शानदार रचना.
लिक्खें गजल या कविता
या व्यंग की हो सरिता
जब भी यहाँ से गुजरे
कुछ बढ़िया सा ही पाएं
बेशर्म कौम सारी
अब बन गयी मदारी
तहजीब को सड़क पे
बन्दर सा ये नचायें !!
जब हो न मुंह मैं दाना
तब तुम हमें बताना सही व्यंग किया है आपने आज कल के हालत पर .....
बाकी सारे छंद ठीक हैं..मगर निम्न छंद सिरे से गलत है:
“नीरज" हुए पुराने
जैसे “तलत" के गाने
ना क़द्र दाँ रहे अब
दिल की किसे सुनाएँ???
-इसे हम मानने से इंकार करते हैँ. :)
अजी, आपको कद्रदानों की कब से कमी आन पडी??
एक ओर भँसाळी काका वाली
जनरेशन थी --
( देखिये अफलातून जी की पोस्ट शैशव )
और आज ये नेतागण हैँ -आपकी कविता ने सच को दर्शाया है -बहुत सही लिखा है !
-लावण्या
वाह नीरज जी, बहुत सही और सामयिक व्यंग्य-रचना है। हर बात सही है लेकिन रास्ता नहीं मिल रहा है। कुर्सी का किस्सा हज़ारों बरसों से चला आरहा है। औरंगज़ेब ने बाप को जेल में डाल दिया और हक़दार भाई दारा को मरवा दिया। यही किस्सा महाभारत में भी देखा गया है।
जहां तक आपने कहा है कि 'दिल की किसे सुनाएं' - ऐसी बात नहीं है, आपके और आपकी रचनाओं के क़द्रदानों की बहुत लंबी क़तार है और तलत साहेब के और दूसरे पुराने गानों के तो अगर देखें तो आज भी उसी तरह दिल को छूते हैं।
Neerajbhai
Good sarcastic poem. Can u write the meaning of Ravayat and Majloom plz?
Thanx & Rgds.
-Harshad Jangla
Atlanta, USA
बेशर्म कौम सारी
अब बन गयी मदारी
तहजीब को सड़क पे
बन्दर सा ये नचायें !!
"behtreen"
वाह ! करारी रचना है.. बहुत ही धारधार
Neeraj nahi puraane !
aur na talat ke gaane !!
Bavvaal aa raha hai !
Phir se unhe sunane !!
Kya kahna hai Neeraj jee ! Hum is gazal ko bagair aapkee ijaazat stage par aapkee vahevahee main kahin na kahin gaa baiThenge. Aap jab chaahain hamaaree kaan khinchaai ba-ikhtiyaar kar leejiyega. Aapka apna Bavaal
बेशर्म कौम सारी
अब बन गयी मदारी
तहजीब को सड़क पे
बन्दर सा ये नचायें !!
niraj ji aap bahut achcha likhte hai,
बहुत सामयिक शानदार रचना.
है.
“नीरज" हुए पुराने
जैसे “तलत" के गाने
ना क़द्र दाँ रहे अब
दिल की किसे सुनाएँ???
नीरज जी करारा तमाचा मारा हे, लेकिन यह सब बेशर्म हे, इन्हे तमाचे क्या जुते भी मारो कोई फ़र्क नही, बहुत सुन्दर रचना कही हे आप ने, धन्यवाद
“नीरज" हुए पुराने
जैसे “तलत" के गाने
ना क़द्र दाँ रहे अब
दिल की किसे सुनाएँ???
जितना तंज़ छिपा है इन लाइनों में उतना ही दर्द भी...
बहुत शानदार नीरज जी,पूरी कविता में बहुत कुछ छिपा है...बस समझने की बात है..बहुत सुंदर...
aapki rachna pehli baar padhi...
suna bahut hai aapke vyang ke baare mein..ab padh bhi liya...bahut hi umda vyang..jo ab sachhai ban aankhon ke saamne naach raha hai..
jab aapne likhi thi ye rachna..gar tab aaj jaise hi haalat hai..to ye keh sakte hai..netaon ki jamaat ko bhagwaan ne fursat mei banaya hai...unhe na badal ne ki zaroorat hai na sudharne ki...
bahut badhiya rachna baantne ke liey shukriya
शायद ये रिवायत है
नेताओं की आदत है
जब चाहें देश अपना
मिल बाँट कर के खाएं!!
wah wah kya baat hai.yahi sach hai.
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