जब ये ग़ज़ल लिखी गयी थी तब जयपुर में बम के धमाके नहीं हुए थे, आज सोचता हूँ अपने शहर वासियों को इस ग़ज़ल के कुछ शेर सुनाता चलूँ .
आप मुश्किल में जी कड़ा करिये
बाँध मुठ्ठी को बस लड़ा करिये
आँख में भर के ढेर से आंसू
आप दुश्मन को मत बड़ा करिये
जोर पैरों का आजमाने को
आँधियों में इन्हे खड़ा करिये
रात काली से डर लगे जब भी
आप तारों से तब जड़ा करिये
ग़र दरिंदे हैं आप तो बेशक
गैर के गम में मत पड़ा करिये
डोर जब भी हो गैर हाथों में
आप इतरा के मत उड़ा करिये
हो बदलनी जो सोच नामुमकिन
ठहरे पानी सा तब सडा करिये
बात सच्ची को मानिए "नीरज"
झूठ के दम पे क्या अडा करिये
( प्राण शर्मा जी ने इस ग़ज़ल को अपने आशीर्वाद से इसे नवाजा है )
15 comments:
very meaningful ghazal leaving deep impact.
आँख में भर के ढेर से आंसू
आप दुश्मन को मत बड़ा करिये
जोर पैरों का आजमाने को
आँधियों में इन्हे खड़ा करिये||
हम सब को आज इन पंक्तियो को बस दोहराने की जरुरत है, दुश्मन अपने आप नेस्तनाबूत हो जायेंगे। जय हिन्द, जय भारत।
"आप मुश्किल में जी कड़ा करिये
बाँध मुठ्ठी को बस लड़ा करिये
आँख में भर के ढेर से आंसू
आप दुश्मन को मत बड़ा करिये
जोर पैरों का आजमाने को
आँधियों में इन्हे खड़ा करिये"
संकट की घड़ी में बेहद प्रेरणादायक ! अगर घोर परेशानी में हम ' पैनिकी' नहीं हुए तो समझिए आतंक के खिलाफ़ आधी लड़ाई जीत ली .
क्या बात है नीरज जी !
आप तो फ़लसफा जीते हैं रोज़मर्रे में !
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ये ग़ज़ल ज़िंदगी को
नई ज़िंदगी का तोहफा दे रही है.
जी कड़ा और मन बड़ा करके
जीने वाला हर शख्स
झंझावतों में खड़ा रहने वाला
कहीं भी पड़ा नहीं रहने वाला
बल्कि जीवन के मोर-मुकुट में जड़ा रहकर
चमकने वाला वह मणि होता है
जिसे पाने के लिए अड़ा रहने का ज़ज़्बा
आदमी को बड़ा रखने का
कड़ा आधार बन जाता है.
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बधाई .....बड़े मन से !
आपका
डा.चंद्रकुमार जैन
डोर जब भी हो गैर हाथों में
आप इतरा के मत उड़ा करिये
bahut khub
नीरज जी,
प्रत्येक शेर न सिर्फ सामयिक है अपितु बेहतरीन और सशक्त भी है..
आँख में भर के ढेर से आंसू
आप दुश्मन को मत बड़ा करिये
ग़र दरिंदे हैं आप तो बेशक
गैर के गम में मत पड़ा करिये
हो बदलनी जो सोच नामुमकिन
ठहरे पानी सा तब सडा करिये
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत अच्छे शेर है नीरज भाई. शुक्रिया.
यथार्थ रचना।
आँख में भर के ढेर से आंसू
आप दुश्मन को मत बड़ा करिये
जोर पैरों का आजमाने को
आँधियों में इन्हे खड़ा करिये
रात काली से डर लगे जब भी
आप तारों से तब जड़ा करिय
डोर जब भी हो गैर हाथों में
आप इतरा के मत उड़ा करिये
हो बदलनी जो सोच नामुमकिन
ठहरे पानी सा तब सडा करिये
बात सच्ची को मानिए "नीरज"
झूठ के दम पे क्या अडा करिये
किस शेर की तारीफ करू....सब अपने आप मे मुकम्मल है.....एक बार फ़िर आपने जिंदगी की तस्वीर दिखा दी...
बहुत खूब...बहुत प्रेरणादायक...मन भर आया.
कैसी ये इबादत या खुदा तेरे नाम पे
कत्ल बन्दो का तेरे, तेरे नाम पे
जो चला था घर से नाम लेके तेरा
हुआ हलाक़ वो शख्स तेरे नाम पे
वो माने हैं शैतान को खुदा, या रब
पर कारनामा ये किया तेरे नाम पे
अब दुआ क्या करूं, तुझसे ऐ खुदा
बेटा मरियम का मरा, तेरे नाम पे
ये नापाक इरादे, ये हवस, ये कुफ्र
सब कुछ चलता है खुदा, तेरे नाम पे
बहुत अच्छे अशआर हैं. बतौर-ए-ख़ास ये शेर-
आँख में भर के ढेर से आंसू
आप दुश्मन को मत बड़ा करिये.
क्या बात है नीरजजी!
लगता ऐसे है जैसे इन धमाकों को मद्दे नजर लिखी गई है. वाकई प्रेरणादायक.
"ग़र दरिंदे हैं आप तो बेशक
गैर के गम में मत पड़ा करिये" क्या खूब कहा आपने..
भाई नीरज जी,
जब से होश संभाला है, सबको कोई न कोई राय बताते ही पाया है. आम आदमी से लेकर सर्वोच्च सत्ता प्राप्त प्रधान मंत्री तक किसी को भी कुछ करते नही पाया.
समस्याएं क्यों पनपती हैं, हर कोई जानता है , पर जिसे जो करना चाहिए उसे वह न कर के बाकि सब कुछ कर रहा है.
आज के प्रोफेशनल लोग हर हादसे में दिखावे का तो नाटक करते हैं , पर नज़र इस हादसे के बाद इससे फायदा कैसे उठाया जाय, सिर्फ़ और सिर्फ़ इस पर ही टिकी रहती है.
दोषियों को बख्सा नही जाएगा, सुन-सुन कर कण तो पक गए, पर सरकार आज तक न दोषी पकड़ पाई और न उन्हें सज़ा दे पाई. ले-दे कर संसद कांड आरोपी को कोर्ट ने तो सज़ा सुना दी, पर "दोषियों को बख्सा नही जाएगा" कहने वालो में इतनी भी हिम्मत नही , कि कोर्ट के फैसले को अमली जमा पहना सके.
आज जरूरत बयां देने कि नही, किसी गाँधी या सुभाष सरीखे कर्मवीर देशभक्त कि आवश्यकता है, जो हर समस्याओं के मूल कारणों का विश्लेषण कर उसी के अनरूप कार्य को अंजाम दी.
गाँधी और सुभाष ने भी देश की सरकार ( भले ही आप उसे विदेशी नाम दे) के विरुद्ध मोर्चा खोला था, पर सत्ता पाने के लिए नही, बल्कि बुराइयों का अंत करने के लिए. ये आदर्श आज लुप्त से हो गए लगता है.
स्वार्थ- सत्ता, पैसा-ताकत, अराजकता-मनमर्जी, अहम्-शोषण, भोग-विलास, चका- चौंध जहाँ अपने पैर पसार कर संस्कार का रूप लेने लग जाए, वंहा विनाश प्रकर्ति द्वारा स्व-निर्धारित है, क्योंकि लोहा ही लोहे को काटता है.
आतंकवादी भी स्वार्थी , सत्तानशी भी स्वार्ती, एक गैरकानूनी होते हुवे भी कार्य को अंजाम दे रहा है, दूसरा सम्पूर्ण कानूनी ताकत रखते हुए भी असहाए सा दिखता है. भोगना तो सब बेचारी, असहाये, निरीह जनता को ही पड़ता है.
हम उपदेश देने के बजाये कर्मवीर बनाना कब सीखेंगे. आज उपदेश देने वाले, दोषारोपण करने वाले, अपराध करने वाले नेता, आफिसर, मैनेजर कहला कर अधिक पैसा तो वसूलते हैं पर काम करने वाले, योग्य, ईमानदार, कर्तव्यनिस्ठ लोग पॉलिटिक्स का शिकार होकर अपने इन संस्कारों पर ही संदेह करने लगते हैं कि मैंने ये संस्कार ही क्यों स्वीकार किए.
पुरातन संस्कार के बजाय आज जो स्वार्थ भरे संस्कार हमारी पीढियाँ अपनी नई पीढियों को कैंसर की तरह जिस प्रायोगिक रूप से परोस रहीं हैं, उसमे भुक्त-भोगी होने के बाद पुरातन संस्कारों की दुहाई एक प्रकार से आत्मा की वह आवाज है जो सदा ही सत्य है यह स्वत सिद्ध करता है, पर जैसे नक्कारखाने में तूती की आवाज नही गूंजती वैसे ये मानवीय गुहार भी स्वार्थी- बहरे लोगों को प्रभावित नही कर पाती.
थोड़ा लिखा, ज्यादा समझना.
आपका अनुज,
चन्द्र मोहन गुप्ता "मुमुक्ष"
जयपुर
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