ज़िंदगी भर यहाँ वहाँ भटके
क्या मिला अंत में बता खटके
आचरण में न बात गर लाये
वक्त जाया न कर उसे रटके
आखरी जब उडान हो या रब
मन हमारा जमीं पे ना अटके
वार पीछे से कर गए अपने
काश करते मुकाबला डटके
संत है वो कि जो रहा करता
भीड़ के संग भीड़ से कटके
राह आसान हो गयी उनकी
जो चले यार बस जरा हटके
बोलना सच शुरू किया जबसे
लोग फ़िर पास ही नहीं फटके
आजमाना न डोर रिश्तों की
टूट जाती अगर लगे झटके
रहनुमा से डरा करो "नीरज"
क्या पता कब किसे कहाँ पटके
10 comments:
achchhi kvita hai.hr pristhiti me hasy.
अच्छी कही है नीरज जी ये गजल और एक बात तो आपकी माननी होगी कि आप जो काफिये लाते हैं उनका तो कोई जवाब ही नहीं होता है
नीरज जी,
लगता है लंबी उड़ान भर कर आए
लिहाज़ा उड़ान साथ लाए.... स्वागत.
तो बात ये है कि -
खट के और रट के, अटके लोगों को
आपने डट के समझा दिया कि
चाहे कोई दे झटके
चाहे कोई पटके
लेकिन जियो तो भीड़ से कट के
और ज़रा हट के !!!
क्या बात है --------- जीना इसी का नाम है !
बोलना सच शुरु किया जब से,
लोग फिर पास ही नहीं फटके.
क्या शेर कहा है मेरी जान.
सच कहने का लुत्फ़ लेना चाहते हो और लोगों की भी परवाह.
हमारे जैसे फकीरों की दुआलो अल्लाह करे जोरे कलम और ज्यादा.
बहुत खूब...बहुत बढ़िया..बहुत दिनों बाद...बहुत अच्छा लगा..
स्वागत - [परिवार का काम भी करना ज़रूरी है ]
"आप थे कहाँ गुरूजी, हम सोच सोच लटके
पी-पी के छान गए, सब ईंधन के मटके "
राह आसान हो गयी उनकी
जो चले यार बस जरा हटके
बहुत खूबसूरत भाव ...
बहुत दिनों बाद आपको पढ़ा ..हमेशा की तरह दिल में उतरने वाली रचना..
बहुत अच्छी, अपनी सी और अपनी से थोड़ी हट के प्रस्तुति। शानदार।
भाई नीरज जी,
जिंदगी की कडुवी सच्चाई को बेबाक रूप से गजल-बंद करना भी एक अनोखी विधा है, जिसे देख- पढ़ कर सकून मिला.
ऐसा ही हमारा एक प्रयास आप के नज़ारे-इनायत है. पेश है
हमारे हर प्रयास जब होने लगे विफल
धारणा बनी है,किसी ने किए हैं टुटके
ता -जिंदगी जिन्दादिली क्या खाक दिखाते
इंसानियत गुम सी हो गई चाकरी में लुटके
करे नाटक कोई कितना भी व्यस्तता का
पर जवानी सभी की,है"तनाव"ने गुटके
खोजने लगे "मुमुक्षु" जब खुशी का पिटारा
दिखा गए सारा नज़ारा घरके ही ये छुटके
शेष फिर कभी ,
आपका,
चंद्र मोहन गुप्ता "मुमुक्षु"
आजमाना न डोर रिश्तों की
टूट जाती अगर लगे झटके
bahut hi sundar ghazal
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