Saturday, March 1, 2008

साथ गर अपने चले साया नहीं



कह दिया वो साफ जो भाया नहीं
तीर हम ने पीठ पर खाया नहीं

अर्थ जीवन में कहाँ बचता बता
साथ गर अपने चले साया नहीं

तोड़ दी हर शाख पहले पेड़ की
काट डाला बोल कर छाया नहीं

सिर्फ़ सूली क्यों बनी सच के लिए
कोई पाया जान ये माया नहीं

खोट था जिसमें वोही दौड़ा किया
पर खरा ही यार चल पाया नहीं

हाथ फैलाने पे ही तुमने दिया
उसपे दावा ये की तरसाया नहीं

दिल लगाये किस तरह रब से बशर
प्यार का गर गीत ही गाया नहीं

आँख से आंसू अगर नीरज गिरें
रोक पाएं ये हुनर आया नहीं

15 comments:

Shiv Kumar Mishra said...

बहुत खूबसूरत गजल भैया. बहुत बढ़िया....

सब से पहले पढ़ के कर दी टिपण्णी
फिर न कहियेगा कि शिव आया नहीं
:-)

Dr. Chandra Kumar Jain said...

khoob kahee...lekin ye sher bhee
qakile gaur hai NEERAJ JI...

ASHKA JO PALKON PE THAHAR JAYEN TO
MOTEE SAMJHO
AUR JO AANKHA SE BAH JAYEN TO KEEMAR NA RAHE...

रंजना said...

बहुत बहुत सुंदर,मर्मस्पर्शी.
ranjana

अजित वडनेरकर said...

खूबसूरत ग़ज़ल

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बेहतरीन गजल है।बधाई स्वीकारे।

पंकज सुबीर said...

नीरज जी सबसे अच्‍छी बात आपकी ग़ज़लों में ये होती हैं कि वे पूरी बहर में होती हैं और उस कारण से पढ़ने में भी आनंद देती हैं फाएलातुन-फाएलातुन-फाएलुन बहरे रमल मुसद्दस महजूफ की ग़ज़ल है जिस पर कई शायरों ने उम्‍दा ग़ज़लें कहीं हैं इसमें आखिर के रुक्‍न में 212 और 2121 दोनों करने की स्‍वतंत्रता रहती है । मतलब आख्रिर का फाएलुन या फाएलान दोनों हो सकता है ये इसीमें स्‍वतंत्रता है जैसे ग़ालिब ने कहा हो चुकी ग़ालिब बलाएं सब तमाम, एक मर्गे नागहानी और है अब इसमें लगेगा तो ये कि पहला मिसरा खारिज हो रहा है तमाम शब्‍द के कारण क्‍योंक‍ि केवल तमा की ग़जाइश है पर ये जायज है बहर में कहा गया है है कि इस बहर में आख्रिर में एक लघु मात्रा बढ़ने की गुंजाइश है । आपको बधाई अच्‍छी जमीन पर अच्‍छी ग़ज़ल के लिये ( एक बात बताइयेगा कहीं ये तो नहीं कि आप बहरों के अच्‍छे जानाकार है और मेरी परीक्षा ले रहे हों क्‍योंकि आपकी गज़लें तो ये ही कह रहीं हैं )

नीरज गोस्वामी said...

पंकज जी
सबसे पहले तो हौसला अफ्जाही का तहे दिल से शुक्रिया. आप कहते हैं की मैं आप की परीक्षा ले रहा हूँ ये सरासर ग़लत है. मेरी बहर के बारे में जितनी समझ है वो आप से छुपी नहीं है. गुरु हर हाल में गुरु ही रहेगा. अगर ये ग़ज़ल बहर में है तो इसके पीछे आप का ही आशीर्वाद है ये कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है. आप की बताई समझाई हुई बातों को ध्यान से पढ़ा गुणा तब कहीं थोड़ा बहुत समझ पाया हूँ. आप ऐसे ही मार्गदर्शन देते रहें.
नीरज

Udan Tashtari said...

आँख से आंसू अगर नीरज गिरें
रोक पाएं ये हुनर आया नहीं


--आप जैसे साफ और नरम दिल आदमी यह हुनर न ही सीखें तो बेहतर. :)

बहुत उम्दा गजल.बधाई.

Unknown said...

आज लेट नहीं हैं गुरुवर - तीर खाएं आपके दुश्मन - ख़ास पसंद - " सिर्फ़ सूली क्यों बनी सच के लिए / कोई पाया जान ये माया नहीं" - और [शिव जी के साथ परम्परा कायम रखते हुए - बगैर अंगूठे (और तर्जनी) के साथ] - "कदरदां कोशिश में हैं ऐ सुखनवर/ समझ लें वो भी जो फ़रमाया नहीं" - मनीष [ p.s. are you accessing your e-mails ?]

Dr. Chandra Kumar Jain said...

NEERA JI,
MERE BLOG PAR AAPKEE UDAAR SHUBHKAMNAON KE LIYE SHUKRIYA KAHNA PARYAAPTA NAHEEN HAI.
MUJHE TO AAPKEE CREATIVITY SE BAHUT KUCH SEEKHNA HAI.
SHABD-SANSAAR KE NAYAAB MOTI CHUNKAR,AAGE BHEE...AAP
CHAMKTE-CHAMKATE RAHIYE,
ZAZBAATON KEE ZAMEEN PAR
SAMAJH KE PHOOL MAHKATE RAHIYE.
ANTARMAN SE SHUBHKAMNAYEN...

haidabadi said...

आ गया हूँ मैं तेरी महफिल मैं दोस्त
देर तक बेशक मैं टिक पाया नही
नीरज भाई
आपके ब्लोगिस्तान मैं कभी कभी
जब मैं आता हूँ तो अपना ज़हनी तवाज़न
मकतुश हो जाता है
आया था दिल में सैंकडो अरमां लिए हुए
लौटा हूँ तेरे ब्लॉग से रुस्वाइओं के साथ
चाँद शुक्ला डेनमार्क

कंचन सिंह चौहान said...

तोड़ दी हर शाख पहले पेड़ की
काट डाला बोल कर छाया नहीं
vah

Dr. Chandra Kumar Jain said...

NEERAJ JI,

AUR KAHO KAB TAK KAREN HAM INTZAAR
POST KYON, KOII NAYAA AAYAA NAHEEN?

महावीर said...

सुबीर भाई, मैं आपकी इस बात से सहमत नहीं हूं कि नीरज भाई आपकी परीक्षा ले रहे हों। नीरज के विषय में यही जान पाया हूं कि अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं और इसी लिए अपनी जानकारी के आधार पर लिखी हुई ग़ज़ल में अगर कहीं कोई कमी हो भी, तो आप जैसे गुरु की सलाह और आशीर्वाद लेते हैं जिससे रचना में निखार आजाए।
आजकल लोग ख़ुद अपनी महज़ूफ़ शक्ल में बहर ईजाद कर लेते हैं जो कोई पाप नहीं है लेकिन याद रहे कि अरकान का लगभग हर मुमकिन मुरक्कब बना कर देखा जा चुका है। इसी लिए नए तजुर्बात में मौसीक़ियत या लयात्मक की कमी नज़र आती है।
अरे हाँ, हम कहां पहुंच गए। बात तो इस ग़ज़ल की कर रहे थे। सहज भाव, सहज अभिव्यक्ति, स्पष्ट भाषा, लयात्मक और सही बहरो-वज़न सभी कुछ है।
उम्दा ग़ज़ल है। ऐसे ही लिख कर दिल खुश करते रहिए।

Unknown said...

apne aap se apne ko juda kaishe kar sakta koi bhala.apne kast to sahniye ho bhi jata hai lekin apno ko diye kast se mukti ..... apne aanshu to rokne main kamyabi bhi mil jaati hai jab hum nirvikar ho jatyen hain, lekin apno ki aanshu nahi rok pane ki vivsta badi hi asahniye hoti hai. kuch nidan ho to batyen sir