Tuesday, November 6, 2007

गीत भंवरे का सुनो



जब भी होता है तेरा जिक्र कहीं बातों में
यूं लगे जुगनू चमकते हैं सियाह रातों में

खूब हालात के सूरज ने तपाया मुझको
चैन पाया है तेरी याद की बरसातों में

रूबरू होके हक़ीक़त से मिलाओ आँखें
खो ना जाना कहीं जज़्बात की बारातों में

झूठ के सर पे कभी ताज सजाकर देखो
सच ओ ईमान को पाओगे हवालातों में

आज के दौर के इंसान की तारीफ़ करो
जो जिया करता है बिगड़े हुए हालातों में

सच तो हैके अभी आना नहीं मुमकिन तेरा
दिल मगर कहता यकीं करले करामातों मैं

सबसे दिलचस्प घड़ी पहले मिलन की होती
फिर तो दोहराव है बाकी की मुलाक़ातों में

गीत भंवरे का सुनो किससे कहूँ मैं नीरज
जिसको देखूँ वोही उलझा है बही खातों में

17 comments:

रंजना said...

अति सुंदर..............

Shiv said...

बात ही बात में ये बात समझ में आई
बड़ी ताकत है इन जज्बात भरी बातों में

बहुत खूब नीरज भैया...

haidabadi said...

जिंदगी कैदे मुशक्कत की तरह काटी है
जीस्त अपनी को बिताया है हवालातो मैं .

चाँद शुक्ला हदियाबादी डेनमार्क

बालकिशन said...

वाह! क्या बात कही वड्डे वापाजी आपने. कहाँ से लाते है ये विचार आप. पढ़ हम तो गद-गद हो गए.
जब से शुरू किया पढ़ना गजलें आपकी
आप ही छाये रहते हो मेरे ख्यालातों में.
आपका मुरीद हो गया हूँ.

Kavi Kulwant said...

मुंबई में कभी आना हो तो अवश्य मिलिए..
कवि कुलवंत

Kavi Kulwant said...

मुंबई में भी गोष्ठी शुरू करने का आपक विचार अच्चा है.. चलिए मिल कर शूरू करते है..

बसंत आर्य said...

नीरज भाई , एक सत्य तो ये कि पहले मुलाकात के बाद की सारी मुलाकात सिरफ दुहराव है और इसका तो जवाब नही
गीत भंवरे का सुनो किससे कहूँ मैं नीरज
जिसको देखूँ वोही उलझा है बही खातों में
हम बही खाते से समय निकाल कर आपकी गुनगुन सुनते रहेंगे . सुनाते रहिए.

Gyan Dutt Pandey said...

एक एक पंक्ति अप्रतिम है। भंवरे का ही नहीं हमारा भी गीत है यह। बही खाता तो एक क्षण छूट जाता है हाथ से।

Mohinder56 said...

नीरज जी,

बहुत सुन्दर लिखा है आपने..जीवन चित्रण जैसे.
आपके शब्दों में
गीत भंवरे का सुनो किससे कहूँ मैं नीरज
जिसको देखूँ वोही उलझा है बही खातों में

मेरे शब्दों मे

लगता नही है कुछ भी उसके हाथ
आखिर में जब हिसाव करता है आदमी

डॉ० अनिल चड्डा said...

प्रोत्साहन के लिये आभारी हूँ । आशा भविष्य में भी ऐसे ही प्रोत्साहन मिलता रहेगा ।

आपकी रचना भी अत्यंत मार्मिक है ।

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।

subhash Bhadauria said...

नीरजजी आपने अपने ब्लाग पर मुझे आने की दावत दी.तो लीजिए बरदाश्त कीजिये.
आपकी ग़ज़ल के मतले की दूसरी पंक्ति वज़न से गिर रही है जैसे
जब भी होता है तेरा जिक्र कहीं बातों में.
लगे जुगनू से चमकते हैं सियाह रातों में.

यहां लगे में शुरूआत का रुक्न ल लघु है उसे दीर्घ होना चाहिए- इसे इस तरह करें तो वज़न में आ जायेगा.
यूँ लगे जुगनू चमकते हैं सियाह रातों में.
ये उर्दू की मश्हूर बहर
बहरे रमल मुसम्मन मखबून महज़ूफ़ है.
इसके अरकान है
फाइलातुन,फइलातुन,फइलातुन,फेलुन.
2122 1122 1122 22
ग़ालिब की मश्हूर ग़ज़ल इसी बहर में है.
इश्क पर जोर नहीं है ये वो आतिश गालिब
जो लगाये न लगे और बुझाये न बने.

कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो.दुष्यन्तकुमार
आप मेरी बात शायद समझेंगे.
रही कथ्य की बात तो रवानी है बनाये रखिये.

नीरज गोस्वामी said...

सुभाष जी
बहुत शुक्रिया
मैंने ग़ज़ल को, जैसा आपने बताया,ठीक कर दिया है.
यूं ही आते रहिये और सिखाते रहिये.
नीरज

Devi Nangrani said...

Neerajji

aapki kalam ki shiddat pad kar mehsoos kar rahi hoon.
Agar Bombay aap aa rahe hai sabhi se milne to main bhi miloongi.Kulwant ji se to mili hoon
Devi

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 14/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

अनुपमा पाठक said...

सबसे दिलचस्प घड़ी पहले मिलन की होती
फिर तो दोहराव है बाकी की मुलाक़ातों में
बहुत खूब!

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

आज के दौर के इंसान की तारीफ़ करो
जो जिया करता है बिगड़े हुए हालातों में

वाह! सर... तमाम अशार कमाल हैं...
आद सुभाष जी ने महत्वपूर्ण जानकारी दी...
सादर बधाई/आभार...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

खूबसूरत गज़ल