है सख्त हथेली बड़ा दिल जिसका नरम है
उसपर यकीन मानिए मालिक का करम है
लायक नहीं कहलाने के इंसान वो जिसमें
ना सच है ना इमां ना शराफत ना शरम है
इक पत्ता हिलाने की भी ताकत नहीं जिसमें
दुनिया को चलाने का महज़ उसको भरम है
जो चुक गए मजबूर वो सहने को सितम हैं
पर क्यों सहें वो खून अभी जिनका गरम है
महसूस गर किया है तो फिर मान जाओगे
मिटने का अपनी बात पे आनंद परम है
मासूम की मुस्कान में मौजूद है हरदम
तुम उसको ढूढते हो जहाँ दैरो - हरम है
गीता कुरान ग्रन्थ सभी पढ़ के रह गए
"नीरज" ना जान पाये क्या इंसां का धरम है
6 comments:
बहुत बढ़िया, भैया..
इतने दिनों के बाद....लेकिन इंतजार का फल मीठा होता है....फिर से साबित हो गया.
इक पत्ता हिलाने की भी ताकत नहीं जिसमें
दुनिया को चलाने का महज़ उसको भरम है
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इतने दिन बाद आये और आते ही हमारा "कर्ता" पन का गुमान धो डाला।
यह गज़ल तो एक लुहार की है - बीच में हम लोग पोस्ट लिख-लिख सौ सुनार की ठुकठुकाते भर रहे!
बहुत सुंदर, सटीक पर अफ़सोस कि हम जानकर भी इस बात को समझना ही नही चाहते!!
नीरज जी,
बहुत सुन्दर लिखा है.. सच्चाई यही है.. आपने सुन्दर लफ़्जों में इसे बयान किया है... बधाई
जो चुक गए मजबूर वो सहने को सितम हैं
पर क्यों सहें वो खून अभी जिनका गरम है
--बहुत उम्दा. दाद कबूलें.
लायक नहीं कहलाने के इंसान वो जिसमें
ना सच है ना इमां ना शराफत ना शरम है
तुसी ग्रेट हो पापाजी !
ज्ञान भइया की बात सोलह आने सच.
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