कोई अस्सी के दशक की बात है ,राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी जी ने मिलकर एक उपन्यास लिखा था "एक इंच मुस्कान", इसके लेखन में खूबी ये थी की दोनों ने अपने अपने अध्याय अलग अलग ढंग से लिखे थे ,जहाँ से पहला अपनी बात और कथा ख़तम करता वहीँ से दूसरा अगले अध्याय में उसे आगे ले जाता, नए पात्रों को जोड़ता घटाता और उन पात्रों का निर्वाह करता. दोनों ने इस काम को इस खूबी से अंजाम दिया की पता ही नहीं चलता ये उपन्यास दो अलग अलग व्यक्तियों ने लिखा है. पाठकों को दोनों लेखकों की लेखन शैली का मजा एक ही उपन्यास में मिल जाता है. उपन्यास लिखने की ये नयी विधा एक प्रयोग के रूप में बहुत चर्चित हुई, लेकिन प्रचिलित नहीं हुई. इसका कारण शायद ये रहा हो की जिस तरह का तालमेल इस प्रयोग में चाहिए वैसा दो लेखकों में पहले तो मिलना ही मुश्किल है और दूसरे हर लेखक का अहम् भी आड़े आ जाता है. राजेंद्र जी और मन्नू जी तब पति पत्नी थे और दाम्पत्य के सौहाद्र पूर्ण दौर से गुज़र रहे थे, तभी ये प्रयोग संभव और सफल हो पाया.
इस भूमिका की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्यूँ की गुरुदेव पंकज सुबीर जी ने ऐसा ही अद्भुत प्रयोग ग़ज़ल लेखन में करने का जिम्मा इस खाकसार पर डाल दिया और इस से पहले की मैं कुछ कह पाता उन्होंने कुछ मिसरे ये कह कर मुझे भेज दिए की नीरज जी इस में गिरह लगाईये...मेरी कुछ दिनों की चुप्पी से वे समझ गए की मेरे हाथ पाँव फूल रहे हैं...तब उन्होंने पीठ पर हाथ रखते हुए कहा की आप कोशिश तो कीजिये, डर क्यूँ रहे हैं क्या होगा ???अधिक से अधिक असफल ही तो होंगे...लेकिन तजुर्बा तो मिलेगा. उसी कोशिश का नतीजा है ये ग़ज़ल जिसका मिसरा-ऐ-सानी (दूसरी पंक्ति लाल रंग में ) गुरुदेव का है और मिसरा-ऐ-ऊला (पहली पंक्ति, नीले रंग में) खाकसार का.
अब मैं इस प्रयोग की सफलता-असफलता का निर्णय आप सुधि पाठकों पर छोड़ता हूँ.
हर बात पे अगर वो बैठेंगे मुंह फुला कर
रूठे हुओं को कब तक लायेंगे हम मना कर
काफूर हो गए जो मिलने पे थे इरादे
देखा किये हम उन को बस पास में बिठा कर
अपने रकीब को जब देखा वहां तो जाना
रुसवा किया गया है हमको तो घर बुला कर
पहले दिए हजारों जिसने थे घाव गहरे
मरहम लगा रहा है अब वो नमक मिला कर
गहरी उदासियों में आई यूँ याद तेरी
जैसे कोई सितारा टूटा हो झिलमिलाकर
हमको यकीं है उसने आना नहीं है फिर भी
बैठे हुए हैं पलकों को राह में बिछा कर
यूं लग रहा के अरमां पूरा हुआ है उनका
खुश यार हो रहे हैं मय्यत मेरी उठा कर
माना हूँ तेरा दुश्मन बरसों से यार लेकिन
मेरे भी वास्ते तू एक रोज़ कुछ दुआ कर
गर प्यार के सलीके को जानना है तूने
कहती है शम्अ हंस कर परवाने तू जला कर
उनको पता है इक दिन जायेंगें जान से हम
आता उन्हें मज़ा है हमको यूँ ही सता कर
सीखा कहाँ से बोलो यूँ दोस्ती निभाना
खूं पी रहे हमारा सोडा मिला मिला कर (मजाहिया शेर)
गर खोट मन में तेरे बिलकुल नहीं है 'नीरज'
फिर किस वजह से करते हो बात फुसफुसाकर
(ग़ज़ल मुकम्मल करने के लिए इसका मकता खाकसार ने कहा है इसलिए ये पूरा शेर नीले रंग में है और इस प्रयोग के बाहर है )
55 comments:
अगर आप न बताते तो हम न जान पाते मिसरा ऐ सानी और मिसरा ऐ ऊला दो अलग अलग उस्तादों का कारनामा है . ख़ैर पानी में पानी सा मिला है अलग सा कैसे लगेगा कोई भी शेर
अद्भुत!
आपके गुरुदेव और आप, दोनों इस प्रयोग के लिए बधाई स्वीकार करें. पता ही नहीं चला कि दो अलग-अलग लोगों ने इस गजल को लिखा है. श्याद इसलिए गजल भले ही अलग-अलग लगे, शायर की सोच हमेशा एक सी होती है. और वह उम्दा सोच.
आशा है, इस तरह के प्रयोग आगे भी होंगे.
वाह अदभुत सुन्दर बहुत अच्छा लगा यह मिला जुला रूप .शुक्रिया
shandaar.......adbhut,gazab ka prayog aur utni gazab ki gazal hai.
bahut badhiya laga ye prayog.waah!
यूँ लग रहा कि अरमां पूरा हुआ है उनका
दोस्त चल रहे हैं मय्यत मेरी उठा कर
बहुत ही लाजवाब जिस गज़ल मे पंकज सुबीर जी और आप दोनो आ जयें वो गज़ल तो वेसे भी अद्भुत हो जायेगी बहुत बहुत मुबारक्
पसंद आया आपका ये प्रयोग। हर शेर नई कहानी कहता है। बहुत ही जबरद्स्त।
नीरज भायी गज़ब की परिकल्पना और उतनी ही अछ्छी प्रयोग कुशलता . और मजाहिया शेर तो बाकी शेरों पर भी सवा शेर !
हमेशा ही कुछ नया और आपके अनोखे अन्दाज़ के साथ .
ऐसे ही मह्फ़िल सजी रहे ......
इस अन्जुमन मे कौन ना आयेगा बार बार ?
तो आते ही रहेन्गे ......हजार बार !
नीरज जी मुझे यह डाय्लॉग याद आ गया: वाह उस्ताद वाह!
नीरज जी लगता है ये प्रयोग बहुत आगे तक जाने वाला है आपने एक रास्ता दे दिया है नये लोंगों को कि सहकार से भी उद्धार होता है । जहां तक गिरह लगाने की बात है तो आप तो ठहरे स्टील वाले लोग आप तो फौलादी गिरह लगाओगे ही । मजा आ गया आपके प्रयोग से । सबसे अच्छी गिरह आपने मजाहिया पर बांधी है । वो चलने वाला शेर है ।
गुरु और शिष्य का अनोखा,अद्भुत संगम !
बहुत ही लाजवाब............खूबसूरत............अच्छा.............मुकम्मल................अद्वितीय प्रयोग, लग रहा है जैसे गुरु गुड और चेला शक्कर........या........पता ही नहीं चल रहा कौन गुरु और कोन चेला.......... एक ही शिल्पी द्बारा बुनी हुयी ग़ज़ल लग रही है..... एक से बढ़ एक शेर ............. गुरु जी ने कमाल किया है इस प्रयोग द्बारा
बहुत सफ़ल प्रयोग और इस सफ़ाई के साथ किया गया है कि आप खुलासा ना करते तो मालुम ही नही पडता. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
बहुत अद्भुत.. शानदार.. बहुत सुन्दर बन पड़ी है ये गजल... बधाई
नीरज जी, वाकई आनंद आ गया। पिछले दिनों मैंने गुरूदेव के पास इस्लाह के लिये एक गज़ल भेजी थी और जब वो वापस आई तो अंत में गुरूदेव ने एक मिसरा लिख भेजा कि इसे पूरा करो। मिसरा था-" और सूरज जाके पश्चिम में यूं ही ढलता रहा" अब गुरूजी के मुकाबले का मिसरा उला लिखना तो अपने बस का रोग था नहीं पर अंततः ये शेर बना-"सोचता था वो छुएगा अब नई ऊंचाइयां
किन्तु सूरज जाके पश्चिम में यूं ही ढलता रहा" ये तो आज मालूम हुआ कि इतने धांसू आईडिया पर आप काम कर रहे हैं। और आप खुद न बताते तो भला कौन माई का लाल बता पाता कि कौन सी लाईन आपकी है और कौन गुरूदेव की। युगल जोड़ी सलामत रहे।
अद्भुत,आनंद आ गया .
vaakai laajawaab....
adbhut prayog...gazab ka talmel. ek idea jisne badal diya sochne ka nazaria :)
संगम के बाद गंगा और यमुना में फर्क होता है क्या? वैसी ही गंगा-यमुनी गजल है.
wakai .. bahut hi badhiya..
भैया प्रणाम
बहुत अच्छा लगा आप दोनों गुरुयों का यह प्रयोग.
सच है - जब सोच एक हो तो सामंजस्य हो हि जाता है.
यह शेर मुझे बहुते अच्छा लगा.
"गर प्यार के सलीके को जानना है तूझे
कहती है शमा हंस कर परवाने तू जला कर
[लो दाता के नाम तुमको अल्लाह रक्खे,
करता हूँ प्रणाम तुमको अल्लाह रक्खे].
तब 'लाल-पीला' होना ज़ख्मो पे मिर्च जैसे,
अब 'लाल-नीला' होना घी में शकर मिला कर.
म. हाश्मी
ये फ्यूसन भी खूब रंग लाया है सरकार......उम्मीद है ओर भी कई मतले निकलेगे जब मिल बैठेंगे दीवाने दो.....
पँकज भाई और नीरज भाई
दोनोँ ने अपना लाल और नीला रँग साथ साथ मिलाकर आज एक नया और उम्दा प्रयोग किया और उम्दा गज़ल तैयार हो गई !
दोनोँ को बधाई और हम सभी के लिये मिला ये नायाब तोहफा :)
मुबारक ~~
-- लावण्या
वाह... ये भी खूब रही.. उस्ताद-शागिर्द रिवायत का शानदार नमूना.. जो पहले लोकप्रिय था. अब तो ये रिवायत ही खत्म होती जा रही है, लेकिन सुबीर जी की प्रेरणा से इसे आपने खूब निबाहा और आप ही निभा सकते हैं... दोनों को नमन..
बढ़िया लगी यह जुगलबन्दी।
वाह नीरज जी क्या खूब कही आपने..वेसे मुझे इस दिन का बहोत दिन से इंतज़ार था कारन की इस फ्यूजन का मुझे पता चल गया था ... चुपके से बता रहा हूँ गुरु जी से छुपके बताना नहीं... मगर साहिब क्या खूब लगाई है आपने भी ... वाह खूब मजा आया की शे'र नहीं लिखूंगा कारन के मुझे तो कम से कम पाप का भागी नहीं बनाना ....बहोत बहोत बधाई आपको और गुरु देव को सादर प्रणाम...
अर्श
योगेश गाँधी जी का कमेन्ट जो ई- मेल द्वारा प्राप्त हुआ ...
नमस्कार नीरज जी,
आप दोनो की जुगलबन्दी बहुत पसन्द आई, वैसे तो सभी शेर ही बहुत अच्छे हैं लेकिन ये शेर मुझे खास पसन्द आये। क्या कमाल का मेल है, विचारों का
यूं लग रहा के अरमां पूरा हुआ है उनका
खुश यार हो रहे हैं मय्यत मेरी उठा कर
~
योगेश !!
नीरज जी
सुन्दर प्रयोग रहा इस बाबत गुरु जी ने हिंट दे दिया था की नीरज जी कुछ नया ले कर आ रहे है अगर सफल रहा तो आगे भी इस्तेमाल किया जायेगा तब से उत्सुकता थी अब बस ये जानने की उत्सुकता है की क्या आगे भी ऐसे सुन्दर प्रयोग पढने को मिलेंगे ?
venus kesari
सबसे पहले तो गुरुदेव और आपको दोनों को नमन ....!!
ग़ज़ल का हर शे'र उम्दा है किसकी तारीफ करूँ किसकी न करू ....?
औरये मेरे साथ हर बार होता है जब भी आपके ब्लॉग पे आती हूँ ......
अपने रकीब को देखा वहाँ तो जाना
रुसवा किया गया है हमें तो घर बुला कर ...
वाह ....वाह....!! आपके लिए भी और सुबीर जी के लिए भी .....!
पहले दिए हजारों जिसने थे घाव गहरे
मरहम लगा रहा है अब वो नमक मिला कर
लाजवाब......!!
ग़ज़ल तो जैसा कि जाहिर है समस्त तारिफ़ों से परे है....और क्यों न हो, जब दो धुरंधर एक साथ बैठे हों, तो कयामत ही आयेगी ग़ज़ल का रूप धरे।
एक बात सोच रहा हूँ बस कि ये सारे मिस्रे आप दोनों ने एक-दूसरे को मेल किया, एसएमएस किया या फिर फोन पर बुनी गयी ये कयामत?
wah neeraj ji , sadharan shabdon men asadharan rachna.
har sher shaandaar.
anand aa gaya. badhai sweekaren.
सफ़ल जुगलबन्दी. बनारस में पता ही नहीं चलता कि कहां गंगा कहां जमुना.
बहुत अच्छी ग़ज़ल है नीरज जी,
बहुत खूब है यह एक नया अद्भुत प्रयोग!
गुरु-शिष्य की जुगलबंदी से बनी एक नायाब एक ग़ज़ल है .
नीरज भाई , आदाब !
एक बहुत ही कामयाब तज्रबा रहा ये अपने आप में
आप की ग़ज़ल कह लेने की सलाहियत और
लहजे का तो मैं पहले से ही कायल हूँ ....
हर शेर खुद बोल रहा है ,,,
हर बात.....,
पढने wale ko अपनी-सी लग रही है ....
गुरुदेव को मेरा सादर अभिवादन कहियेगा .
"मुर्शिद की हर नसीहत शागिर्द ने निभा दी ,
मिस्ले-गुहर हुआ है हर लफ्ज़ मिल-मिला कर"
मुबारकबाद कुबूल फरमाएं
---मुफलिस---
ghahree udasyoN me yaad yuN aayee
koii tara toota ho jhilmilakar..
kya baat hai.bahut hi umda she'r aur ye anootha pryog bhi achcha laga.
pankaj ji ko aur aapko dhanyavaad !
तारीफ करूँ तो कैसे ? और किस की ? लाल पंक्तियों की या नीली पंक्तियों की ?? बस तक रही हूँ ये कमाल..! मजा आ गया..!!!!!!!!
जुगलबन्दी की बात ही कुछ और होती है........बधाई
वाह ....वाह....!!
नीरज गोस्वामी जी।
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया और प्रभावित हुए बिना न रह सका।
बढ़िया पोस्ट लगाई है।
साधुवाद।
AAj aap kisee blog paheli pe hain sarkaar
zaraa dekhiye
आनंद आ गया नीरज जी! एक इंच मुस्कान से कहीं बेहतरीन जुगलबंदी है ये..
वाह क्या बात है, बहुत ही सुंदर..
पहले दिये हजारो जिसने थे घाव गहरे
मरहम लगा रहा है अब वो नमक मिला कर.
जबाब नही गुरु ओर चेले का.
आप दोनो का धन्यवाद
... बधाई ... बधाई... बधाईयाँ !!!!!!!
वाह वाह क्या अद्भुत प्रयोग है । एकदम हिट । आप और आपके गुरू दोनों को बहुत बहुत बधाई इस प्रयोग की सफलता के लिये ।
ये शेर तो कमाल है ।
पहले दिये थे जिसने घाव हजारों गहरे
अब वो लगा रहा है मरहम नमक मिलाकर ।
HINDI SAHITYA MEIN KAEE PRAYOG
HO RAHE HAIN.UNMEIN PANKAJ
SUBEER JEE AUR AAP KAA YE PRAYOG
BHEE HAI.BAHUT HEE SARAAHNIY.
MEREE BADHAAEE SWEEKAR KIJIYE.
sundar evam safal prayog laga. badhai.
नमस्कार नीरज जी,
बहुत ही अच्छा प्रयोग है मगर अपने बस से बाहर लगता है, ऐसा तो आप दोनों दिग्गज ही कर सकते हैं. दो ख्यालों का संगम इतनी खूबसूरती से देखकर, कुछ कहने के लिए लफ्ज़ ही नहीं रह जाते है.
वाह वाह नीरज दा ! अहा!!! क्या ही ख़ूब बात बन पड़ी है भाई । एकदम बेहतरीन प्रयोग और बहुत ही सफल। आप एक इंच मुस्कान से बात चलाकर कई इंच मुस्कान बाँट चले। आफ़रीन! पंकज जी को भी आपके माध्यम से ध्न्यवाद और बधाई।
prypgvadi hona rachnatmakta ki nishaani he, fir aap thare rachnakaar vo bhu UMDA to mazaa aanaa hi tha so aayaa/
शानदार,,,,,
हम तो समझे थे के अब आजकल गुरु -शिष्य वाली बाय ख़त्म सी हो गयी है,,पर यहाँ पर आपका काम देखा ,,,,,वो भी पूरी निष्ठा से,,,
मजा आ गया नीरज साहब,,,,
एक और शेर ,,जीके हम फैन हैं,,,
देश जले, नेता खेलें,,
अक्कड़ बक्कड़ बाम्बे बो,,,,,,,
आपके प्रयोग हमारे दिल को तो बड़े भाते हैं,,
अपने समय में क्रिकेट खेलते समय फिफ्टी मारने में खूब मजा आता था । आज जब यहां देखा कि स्कोर 49 हो गया है तो सोचा कि 1 रन मैं ही बना कर टिप्पणियों की 50 बना दूं । सबको आभार कि इस प्रयोग को इतना पसंद किया । कहीं पढ़ा था कि सफलता पाने का एक सबसे अच्छा तरीका ये है कि प्रयोग करते रहो । प्रयोग उर्जा तो देते ही हैं साथ में ये प्रयोग हमको कुछ नया दे जाते हैं । नीरज जी जैसे रचनाकार के साथ जुगलबंदी करना मेरा सौभाग्य है । नीरज जी भी प्रयोगवादी कवि हैं और कुछ नया करने में विश्वास रखते हैं उनकी कुछ विशिष्ट रचनायें जो प्रयोगवादी हैं वो काफी पसंद की जाती रहीं हैं । नीरज जी ने मुझसे पूछा है कि यदि मैं इस ग़ज़ल की पहली पंक्ति लिखता तो क्या लिखता । इस प्रश्न पर जब मैंने गज़ल को फिर से देखा तो पाया कि नीरज जी ने लगभग वही भाव लिये हैं जो दूसरी पंक्ति लिखते समय मेरे दिमाग़ में थे । ये भी स्वीकार करता हूं कि दो शेरों एक तो 'गहरी उदासियों में आई यूं याद तेरी' और 'सीखा कहां से बोलो ये दोस्ती निभाना' के जो मिसरे नीरज जी ने रचे हैं मैं उतने अच्छे नहीं रच पाता । विशेषकर गहरी उदासियों में वाला मिसरा तो सातवें आसमान का है । उसमें वो सब कुछ है जो एक जिंदा रह जाने वाले शेर में होता है । नीरज जी की प्रतिभा का मैं हमेशा से कायल रहा हूं । ये पूरी ग़ज़ल वास्तव में नीरज जी की ही है । क्योंकि ये मिसरे उनकी ही एक ग़ज़ल के हैं ।
काफूर हो गये तो मिलने पे थे इरादे, इस शेर में नीरज जी ने जो मिसरा डाला है वो मिसरा सानी को सटीक तरीके से निर्वाह कर गया है । कुल मिलाकर बात ये कि कहीं की ईंट और कहीं के रोड़े से भानुमति का कुनबा बनता है किन्तु नीरज जी ने इस ग़ज़ल को भानुमति का कुनबा नहीं बनने दिया और ताजमहल की तरह सुंदर बना दिया है । मेरे उस्ताद कहते हैं कि हर तरफ ये जो मूर्ख लोगों का राज दिखाई दे रहा है उसके पीछे कारण ये है कि मूर्ख लोग संगठित हो जाते हैं किन्तु अक्लमंद लोग प्रतिभावान लो ईगों के टकराव के कारण संगठित नहीं हो पाते । उनकी ये बात मुझे काफी अपील करती है । और इसी कारण मैं ये कहने का साहस कर पा रहा हूं कि इस ग़ज़ल में नीली पंक्ति ने लाल को पराजित कर दिया है । नीरज जी ने निश्चित रूप से मेरे मिसरा सानी से कहीं जियादह वज़नदा मिसरा उला लिखे हैं । ये उनकी प्रतिभा का एक शानदार प्रदर्शन है । दो अलग शब्द हैं एक होता है जलन और दूसरा रश्क । एक नकारात्मक शब्द है और दूसरा सकारात्मक । जलन गैरों से होती है रश्क अपनों से होता है । सच कहूं तो मुझे नीरज जी की लेखनी से रश्क हो रहा है । ईश्वर करे ये लेखनी यूं ही सतत प्रवाहमान रहे, बहती रहे । आमीन
itani SAMAJH nahin ki sahi-galat bataa saken par........ LAJAWAAB.
BADHAAAAIIII
आपने एक इंच मुस्कान के खूबसूरत प्रसंग से रूबरू करवाया, और गजल का तो कहना ही क्या। मोतियों से पिरोये गए लफ्ज़ हैं एक-एक शेर में।
neeraj ji
yakin nahi hota ki gazal do alag -alag shayroN ki likhi hui hai .
vo bhi ek line ek ki or ek doore ki
daad kubool karen
aap jaise shayar ka meri rachna ko padhna or sarahna ..khushkismati hai
neeraj ji, is anokhe experiment ke aise successful hone ki badhai.
vakai lag hi nahin raha hai ki alag alag logon ne likhe hain sher...aur maayne to aise mil gaye hain jaise vakai yahi soch kar pahli line likhi gyai thi.
P.S: aaj pahli baar aapke comment box ke message par dhyan gaya, thahaka maar kar hansi main. behtarin hain aapka sense of humor. its the best message i have ever read in a comment box :)
Har sher apne aap me mukammal! Kaheen, kaheen to lagta hai, mere mooh se alfaaz chheen, likha ho!
Khair...itnee achhee tarah se mai apnee bhawnayen kabhi abhiwyakt nahee kar sakti...!
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