Wednesday, August 27, 2008

कभी फरियाद मत करना




लगभग एक पखवाडे के जयपुर प्रवास के दौरान ब्लॉग जगत और उसकी गतिविधियों से दूर रहा...जयपुर में मिष्टी के साथ बिताये वक्त में और कुछ याद ही नहीं रहा(अगर कुछ याद आने दे तो फ़िर वो मिष्टी ही क्या).प्राण साहेब के आशीर्वाद से एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ, उम्मीद है पसंद आएगी.

अगर दिल टूटने का डर सताए, प्यार मत करना
नहीं मजबूत बाजू तो, समंदर पार मत करना

नफा नुक्सान हर व्यापार का होता अहम् हिस्सा
नफा होगा सदा, ये सोच कर व्यापार मत करना

कयामत से क़यामत तक, की बातें यार झूटी हैं
यहाँ पल का भरोसा भी, मेरे सरकार मत करना

दिखाई दे वोही सच हो, नहीं मुमकिन हमेशा ही
गरजती सब घटाओं का, कभी इतबार मत करना

ग़लत है बात ये कोई अगर, कहता है उल्फत में
कभी फरियाद मत करना, कभी तकरार मत करना

सलीका सीखिए, दुश्मन से पहले आप लड़ने का
कि उसकी पीठ पर, भूले से भी तुम वार मत करना

कटा कर सर कमाई है, बुजुर्गों ने ये आज़ादी
इसे नीलाम तुम यारों, सरे बाजार मत करना

शराफत का तकाजा है, तभी खामोश है "नीरज"
फिसल जाए जबां इतना, कभी लाचार मत करना


Tuesday, August 12, 2008

चाहतें मेमने सी भोली हैं




प्यार की तान जब सुनाई है
भैरवी हर किसी ने गाई है

लाख चाहो मगर नहीं छुपता
इश्क में बस ये ही बुराई है

खवाब देखा है रात में तेरा
नींद में भी हुई कमाई है

बाँध रख्खा है याद ने हमको
आप से कब मिली रिहाई है

जीत का मोल जानिए उस से
हार जिसके नसीब आई है

चाहतें मेमने सी भोली हैं
पर जमाना बड़ा कसाई है

आस छोडो नहीं कभी "नीरज"
दर्दे दिल की यही दवाई है

Sunday, August 10, 2008

आयीये बारिशों का मौसम है



सुबह सो कर उठा तो बाहर बारिश गिरने की आवाज आ रही थी...बालकनी का दरवाजा खोला तो मुंह खुला का खुला ही रह गया...चारों तरफ़ पानी ही पानी था...सारी रात बारिश होती रही. सामने के पहाड़ मानो गा गा कर बुला रहे थे.."आयीये बारिशों का मौसम है....."
अब भला कोई मूर्ख ही होगा जो इस न्योते को मना करे... और आप तो जानते ही हैं की मूर्खता में अपना कोई सानी नहीं है...लेकिन कभी कभी अपने आप को ग़लत सिद्ध करने में भी मजा आता है, इसलिए चाय पी और निकल लिए घर से...



जहाँ सड़क हुआ करती थी वहीँ पानी था..ये तो भला हो मेरे ड्राईवर का, जिसे इस सड़क के कंकर पत्थर तक का भान है, जिसने मुझे आराम से पहाडों के नजदीक पहुँचा दिया...
घर से कोई एक किलो मीटर की दूरी से ही लोनावला की चडाई शुरू हो जाती है... अभी हम कुछ मीटर ही आगे गए थे की एक शानदार झरना हमारे स्वागत को बहता मिला...



थोडी ही दूर आगे गए थे की उसी झरने के बड़े भाईसाहेब हँसते हुए मिल गए, बड़ी अदा से इठलाते हुए पाँव पर लोट लगाते हुए...फुहारों की मनुहार से भिगोते हुए



उनसे मिल कर आगे चले तो तो "ऐ भाई जरा देख के चलो...आगे ही नहीं पीछे भी...दायें ही नही बाएं भी...ऊपर ही नहीं नीचे भी..ऐ भाई... गाते हुए झरनों की कतार दिखाई दी....और सच ही सब तरफ़ सिर्फ़ और सिर्फ़ झरने ही झरने थे...



रास्ते में एक बोगदा याने टनल आती है जिस में से एक तरफा ट्राफिक चलता है उसके ऊपर तो झरने बहुत ही मेहरबान दिखाई दिए.



ऐसा लगता था मानो झरनों ने अपनी चादर पहाड़ से नीचे गिरा रखी है जो हवा के जोर से हिलती थी ,फड़फड़ाती थी और गाती थी...



हम प्रकृति इस छटा पर मुग्ध आगे चले जा रहे थे की आवाज आयी..."आजा आजा मैं हूँ प्यार तेरा...अल्लाह अल्लाह इनकार तेरा हो...ओ आजा आजा आजा आ आजा आ आ आ... उतर कर देखा तो एक झरने महाशय दूर पहाड़ की चोटी से ये गीत गा रहे हैं...मैंने उन्हें कहा की आप बुला रहे हैं ठीक है लेकिन एक तो आप दूर बहुत हैं फिसलन भी है और सच ये भी है अब उम्र आप का गीत सुनके झूमने लायक तो है लेकिन वहां आ कर गले मिलने लायक नहीं है इसलिए क्षमा करें.



उस झरने ने क्षमा किया या नहीं ये तो कह नहीं सकते लेकिन आगे जब "नैना बरसे रिमझिम रिमझिम......" गाती एक झरनी( झरने का स्त्री लिंग) जंगल में दिखाई दी तो हम भी आहें भर के रह गए.



मेरा ड्राईवर अब मेरी इस यात्रा से ऊब चुका था बोला सर भूख लगी है वापस चलें...मैं जैसे नींद से जगा...ये कमबख्त भूख भी क्या शै है इंसान को,जो वो करना चाहता है कभी करने ही नहीं देती...इश्वर अगर इंसान को भूख नहीं देता तो ना जाने कितनी समस्याएँ जन्म ही ना लेतीं...अस्तु ये समय दार्शनिक होने का नहीं था, अपने ड्राईवर की बात मानने का था. लौटते हुए देखा खोपोली पर झरनों की बरसात हो रही है, ये दृश्य गगन गिरी महाराज के आश्रम के पीछे का है( गगन गिरी महाराज के बारे में जानकारी मेरी "चलो खोपोली-परलोक सवारें " पोस्ट में है)



आख़िर में एक झरने ने उछालते हुए मचलते हुए हमसे कहा " ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना..."मैंने मन में सोचा की मैं तो लौट के आ जाऊंगा लेकिन उनका क्या होगा जो मेरे लाख बुलाने पर भी नहीं आए और इन सब दृश्यों से महरूम रहे.



सब पूर्व जन्म के कर्मों का फल है. क्या किया जा सकता है. मैंने तो भरसक प्रयास किया था की आप लोग भी इन खूबसूरत वादियों में गिरते झरनों की जलतरंग सुने, देखें लेकिन हे पाषाण हृदय ब्लोगरो आप लोगों ने मेरी एक ना सुनी. अब इन तस्वीरों को देख कर मन मसोसने से अच्छा है की आगे से मेरी बात को जरा ध्यान से सुना करें, कभी कभी हम जैसे भी बहुत काम की बात कर जाते हैं.

Friday, August 8, 2008

मेरे वतन के लोगों



आज आठ अगस्त दो हज़ार आठ ( 08-08-08 ) के विशेष दिन आप को आदरणीय प्राण शर्मा साहेब की एक कविता पढ़वाता हूँ जो उन्होंने देशवासियों के लिए लिखी है और वो चाहते हैं की हम सब इसे पढ़ कर इसमें लिखी नसीहत का अनुसरण करें:


मेरे वतन के लोगों मुखातिब मैं तुमसे हूँ

क्यूँ कर रहे हो आज तुम उल्टे तमाम काम
अपने दिलों की तख्तियों पे लिख लो ये कलाम
तुम बोवोगे बबूल तो होंगे कहाँ से आम

सोचो जरा विचारो कि तुम से ही देश है
हर गन्दगी बुहारों कि तुमसे ही देश है
तुम देश को संवारों कि तुमसे ही देश है

कहलाओगे जहान में तब तक फ़कीर तुम
बन पाओगे कभी नहीं जग में अमीर तुम
जब तक करोगे साफ़ न अपने जमीर तुम

देखो तुम्हारे जीने का कुछ ऐसा ढंग हो
अपने वतन के वास्ते सच्ची उमंग हो
मकसद तुम्हारा सिर्फ़ बुराई से जंग हो

उनसे बचो सदा कि जो भटकाते हैं तुम्हें
जो उलटी सीधी चाल से फुसलाते हैं तुम्हें
नागिन की तरह चुपके से डस जाते हैं तुम्हें

जो कौमें एक देश की आपस में लड़ती है
कुछ स्वार्थों के वास्ते नित ही झगड़ती है
वे कौमें घास फूस के मानिंद सड़ती हैं

चलने न पायें देश में नफरत की गोलियां
फिरका परस्ती की बनें हरगिज न टोलियाँ
सब शख्स बोलें प्यार की आपस में बोलियाँ

मिल कर बजें तुम्हारी यूँ हाथों की तालियाँ
जैसे कि झूमती हैं हवाओं में डालियाँ
जैसे कि लहलहाती हैं खेतों में बालियाँ

जग में गंवार कौन बना सकता है तुम्हे
बन्दर का नाच कौन नचा सकता है तुम्हे
तुम एक हो तो कौन मिटा सकता है तुम्हे

मेरे वतन के लोगों मुखातिब मैं तुमसे हूँ

Monday, August 4, 2008

गिरे पत्ते शजर से धूल खायें




मिलेंगी तब हमें सच्ची दुआयें
किसी के साथ जब आंसू बहायें

बहुत बातें छुपी हैं दिल में अपने
कभी तुम पास बैठो तो सुनायें

फकीरों का नहीं घर बार होता
कहाँ इक गाँव ठहरी हैं हवायें

बनालें दोस्त चाहे आप जितने
मगर हरगिज़ ना उनको आजमायें

बिछुड़ कर घर से हम भटके हैं जैसे
गिरे पत्ते शजर से धूल खायें

लगा गलने ये चमड़े का लबादा
चलो बदलें रफू कब तक करायें

अजब रिश्ता है अपना तुमसे "नीरज"
करें जब याद तुमको मुस्कुरायें
( प्राण साहेब से आशीर्वाद लिए बिना ये ग़ज़ल मुकम्मल नहीं हो सकती थी )