Tuesday, January 29, 2008

कौवा सुर में गाता है


आज आप को मशहूर शायर प्राण शर्मा जी की ग़ज़ल से रूबरू करवाता हूँ. प्राण साहेब यू. के. में पिछले कई सालों से रहते हैं, उनकी एक किताब "ग़ज़ल कहता हूँ" बहुत चर्चित हो चुकी है. बुजुर्ग शायर प्राण शर्मा जी ने मुझे अपने ब्लॉग पर उनकी ग़ज़ल पोस्ट करने की अनुमति देकर बहुत उपकार किया है. देखिये उनकी शायरी का एक दिलचस्प और निराला अंदाज़.

वो सबके दिल लुभाता है कभी हमने नहीं देखा
की कौवा सुर में गाता है कभी हमने नहीं देखा

ये सच है झोपड़े ढ़ाते हुए सब ही को देखा है
कोई महलों को ढ़ाता है कभी हमने नहीं देखा

जवानी सबको भाती है चलो हम मान लेते हैं
बुढापा सबको भाता है कभी हमने नहीं देखा

उड़ाओ तुम भले ही,पर कोई बरखा के मौसम में
पतंगों को उडाता है कभी हमने नहीं देखा

वे आपस में तो लड़ते हैं मगर पंछी को पंछी से
कोई पंछी लड़ाता है कभी हमने नहीं देखा

बहुत कुछ देखा है जग में मगर ऐ "प्राण" दुश्मन को
गले दुश्मन लगाता है कभी हमने नहीं देखा

Sunday, January 27, 2008

पीछे निशाँ रखना


(मरियम आपा की ग़ज़ल)

सफर
में खुशनुमा यादों का कोई कारवाँ रखना
बुजुर्गों की दुआ का धूप में एक सायबाँ रखना

भुलाने का तरीका ये नहीं है अपने साथी को
जला देना खतों को और फ़िर दिलमें धुआँ रखना

नहीं परवा लुटा देना सभी दुनिया के मालो-ज़र
ज़मीं पैरों तले और सर पे अपने आसमाँ रखना

गंवाना मत सफर का तजुर्बा दे जाना औरों को
जिधर से भी गुज़र जाओ उधर पीछे निशाँ रखना

सफर सहरा की तपती धूप में तय तुमको करना है
नज़र में फूल दिल में तुम खयाले गुलिस्ताँ रखना

"ग़जा़ला" मशवरा यह है हमारे नौजवानों कों
अदा में बांकपन अपनी नज़र में शौखियाँ रखना

Thursday, January 24, 2008

हसरतों की इमलियाँ


(एक बच्चों जैसी व्यस्क गुड़िया के नाम जिसका आज जन्म दिन है )

याद करने का सिला मैं इस तरह पाने लगा
मुझको आईना तेरा चेहरा ही दिखलाने लगा

दिल की बंजर सी ज़मी पर जब तेरी नज़रें पड़ी
ज़र्रा ज़र्रा खिल के इसका नाचने गाने लगा

ज़िस्म के ही राजपथ पर मैं जिसे ढ़ूढ़ा सदा
दिलकी पगडंडी में पे वोही सुख नज़र आने लगा

हसरतों की इमलियाँ गिरती नहीं हैं सोच से
हौसला फ़िर पत्थरों का इनपे बरसाने लगा

रोक सकता ही नहीं हों ख्वाइशें जिसकी बुलंद
ख़ुद चढ़ा दरिया ही उसको पार पहुँचने लगा

तेरे घर से मेरे घर तक रास्ता मुश्किल सही
मैं चला तो रास्ता आसान हो जाने लगा

बावरा सा दिल है मेरा कितना समझाया इसे
ज़िंदगी के अर्थ फ़िर से तुझ में ही पाने लगा

सोचने में वक्त "नीरज" मत लगाना भूल कर
प्यार का़तिल से करो गर वो तुम्हे भाने लगा

Tuesday, January 22, 2008

कोई फूल खिलता नहीं


आज आपको मरियम आपा (मैं उनको इसी नाम से बुलाता हूँ, वैसे वो मरयम ग़जा़ला के नाम से लिखती हैं) की शायरी से रूबरू करवाता हूँ.आपा एक ऐसी शाख्शियत हैं जिनसे मिलते ही लगता है जैसे बरगद की ठंडी छाँव मिल गयी हो. मुम्बई में बसी जिंदा दिल आपा ने खूब लिखा है. उनकी गज़लें मैं अपने ब्लॉग पर नियमित रूप से पोस्ट करता रहूंगा.

ठोकरें खा के भी वो संभलता नहीं
आदमी अपनी फितरत बदलता नहीं

हम भी डूबे सनम तुम भी डूबे सनम
इश्क दरया है जिस का किनारा नहीं

मुझसे लिपटा है ये वक्त का अज़दहा( अजगर )
थूंकता भी नहीं वो निगलता नहीं

बंद कमरे में है एक घुटन हर घड़ी
खिड़कियों को कभी तूने खोला नहीं

इश्क का आशिकी का चलन अब कहाँ
कोई मजनू नहीं कोई लयला नहीं

आरजू तितलियां बन उडीं हर तरफ
पर ग़जा़ला कोई फूल खिलता नहीं

Monday, January 21, 2008

मैं तन्हा हूँ समंदर में



तुम्हे जो याद करता हूँ तो अक्सर गुनगुनाता हूँ
हमारे बीच की सब दूरियों को यूँ मिटाता हूँ

इबादत के लिए तुम ढ़ूंढ़ते फिरते कहाँ रब कों
गुलों कों देख डाली पर मैं अपना सर झुकाता हूँ

नहीं औकात अपनी कुछ मगर ये बात क्या कम है
मैं सूरज कों दिखाने को सदा दीपक जलाता हूँ

मुझे मालूम है तुम तक नहीं आवाज़ पहुँचेगी
मगर तन्हाईयों में मैं तुम्हे अक्सर बुलाता हूँ

मैं तन्हा हूँ समंदर में मगर डरता नहीं यारों
जो कश्ती डगमगाती है तुझे मैं साथ पाता हूँ

अँधेरी सर्द रातों में ठिठुरते उन परिंदों कों
अकेले देख कर कीमत मैं घर की जान जाता हूँ

घटायें, धूप, बारिश, फूल, तितली, चांदनी "नीरज"
इन्ही में दिल करे जब भी तुझे मैं देख आता हूँ

Wednesday, January 9, 2008

दूध पी के भी नाग डसते हैं



ये न समझो के अश्क सस्ते हैं
जान लेकर ही तो बरसते हैं

दलदली है ज़मीन चाहत की
लोग क्यों जाके इसपे बसते हैं

टूटते गर करें ज़रा कोशिश
आज कल के ऊसूल खस्ते हैं

यार आदत बदल नहीं सकते
दूध पी के भी नाग डसते हैं **

है बड़ी दूर प्यार की मंजिल
खार वाले जनाब रस्ते हैं

नाते रिश्ते हैं रेत से "नीरज"
हम जिन्हें मुटठियों में कसते हैं



(** ये कथन ग़लत है क्यों की सांप दूध नहीं पीते)

Saturday, January 5, 2008

फैसले की घड़ी जो आयी हो


झूठ कहने की चाह की जाए
ज़िंदगी क्यों तबाह की जाए

दिल लगाया तो ये ज़रूरी है
चोट खा करके वाह की जाए

वो अदाओं से मारते हैं पर
चाहते ये न आह की जाए

है खुदा गर बसा तेरे दिल में
काहे काबे की राह की जाए

हो न गर जो उमीद मरहम की
किस लिये फिर कराह की जाए

फैसले की घड़ी जो आयी हो
अपने दिल से सलाह की जाए

चाँदनी हो या रात हो काली
संग तुम्हारे निबाह की जाए

जो मिला उस में खुश रहो नीरज
ना किसी से भी डाह की जाए.

Tuesday, January 1, 2008

झूट जब बोला तो ताली हो गई


बात सचमुच में निराली हो गई
झूट जब बोला तो ताली हो गई

फेर ली जाती झुका कर थी कभी
उस शरम से आँख खाली हो गई

ये असर हम पे हुआ इस दौर का
भावना दिल की मवाली हो गई

मिल गई उनको इजाज़त जुल्म की
अपनी तो फ़रियाद गाली हो गई

इक नदी बहती कभी थी जो यहाँ
बस गया इंसा तो नाली हो गई

डाल दीं भूखे को जिसमें रोटियां
वो समझ पूजा की थाली हो गई

हाथ में कातिल के नीरज फूल है
बात अब घबराने वाली हो गई