लगाया था किसी ने आंख से काजल छुटाकर जो
मेरे बचपन के अल्बम में वो टीका मुस्कुराता है
दिया था उनको हामिद ने कभी लाकर जो मेले से
अमीना की रसोई में वो चिमटा मुस्कुराता है
किताबों से निकलकर तितलियां ग़ज़लें सुनाती हैं
टिफिन रखती है मेरी मां तो बस्ता मुस्कुराता है
*
मुझे रदीफ़ बनानी पड़ी उदासी की
कि काफ़ियों से तो बनना था क्या उदासी का
*
किसी के हाथ में सिक्के कभी नहीं डाले
जो हाथ ख़ाली थे उनको कुदाल दी मैंने
*
निहारता रहा दरिया वो देर तक बैठा
फिर उसके बाद उठा और उसी में डूब गया
*
एलान फ़त्ह का न अभी से करें रक़ीब
ज़ख़्मी हुआ हूं क़ब्र के अंदर नहीं हूं मैं
ये शेर जो आपने अभी पढ़े हमारे आज के शायर की उस किताब से नहीं है जिसकी बात हम करने वाले हैं। अब आप पूंछेंगे ही तो फिर किस किताब से हैं? बताते हैं, ये हमारे आज के शायर की पहली किताब "क्या तुम्हें याद कुछ नहीं आता" से हैं जो 2021 में 'एनी बुक्स' इंदौर से छपी थी और मक़बूल हुई थी। इससे पहले कि आप पूछें हम बता देते हैं कि इन शेरों को पढ़वाने का मक़सद आपको सिर्फ़ युवा शायर 'सिराज़ फ़ैसल ख़ान' की शायरी की बानगी देने का था।
अपनी पहली किताब से ही हमारे आज की युवा शायर ने अपनी कलम का लोहा मनवा लिया था। जिस युवा शायर को 'मयंक अवस्थी' और 'सर्वत जमाल' जैसे कद्दावर शायरों का मार्गदर्शन मिला हो उसकी शायरी तो पुख़्ता होनी ही है।
हमारे सामने 'सिराज फ़ैसल ख़ान' साहब की दूसरी किताब "चांद बैठा हुआ है पहलू में" खुली हुई है। ये किताब हाल ही में याने इसी साल One Align Publication - Delhi से प्रकाशित हो कर मंजर ए आम पर आई है और धूम मचा रही है। इस किताब को आप अमेज़न से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं या प्रकाशक को उनके मोबाइल नंबर 6264443917 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।
रात हर कोई बिता लेगा मगर उम्र नहीं
उसको ये बात समझ आई मगर मेरे बाद
*
मानता हूं नहीं मिली मंज़िल
दाद दीजे कि चल रहा हूं मैं
*
ग़ज़ल के फूल अपनी डायरी में टांक देता हूं
किसी की गोद में बच्चा कोई जब मुस्कुराता है
*
क्यों मरें अश्क बहते हुए हम सहरा में
आइए पेड़ लगाते हुए मर जाते हैं
*
न जाने उसको सिखाया है किस रक़ीब ने ये
कि हो ख़फ़ा तो बुके में गुलाब कम कर दे
शहीदों के नगर 'शाहजहांपुर' के गांव 'महानंदपुर' में 10 जुलाई 1991 को 'सिराज' का जन्म हुआ। 'सिराज' अपने पुराने दिनों को याद करते हुए लिखते हैं कि "ना तो घर ना ही गांव में शायरी पढ़ने लिखने का कोई माहौल था और ना ही कहीं साहित्यिक किताबें मिलती थीं। कोर्स की हिंदी की किताबों के अलावा साहित्य पढ़ने के लिए उस वक्त कुछ भी नहीं होता था। ये वो दौर था जब गांव में अख़बार भी नहीं पहुंचते थे। वालिद साहब तहसील में 'संग्रह अमीन' के पद पर कार्यरत थे और वो इतवार का 'अमर उजाला' सोमवार को घर लाया करते थे। साहित्य से मेरा परिचय इस इतवार की अख़बार से हुआ था क्योंकि उस दिन उसमें कहानियां, कविताएं और ग़ज़लें प्रकाशित होती थीं। मैं उन्हें काटकर एक फाइल में रख लेता था। कोर्स की किताबों में मेरी सबसे पसंदीदा किताब हिंदी की होती थी और मैं अपने से बड़े बच्चों की भी हिंदी की किताबें घर लाकर पढ़ा करता था।"
सिराज आगे लिखते हैं की "पांचवी क्लास के बाद मैं शाहजहांपुर चला गया और इस्लामिया इंटर कॉलेज में दाखिला ले लिया यहां मुझे मोइनुद्दीन आजाद मिले जिनकी दिलचस्पी साहित्य में थी। हमने साथ मिलकर बहुत सी किताबें खरीदी।"
साहित्य में उनकी रुचि इस क़दर बढ़ती चली गई की हाई स्कूल में आते-आते उन्होंने अपने हॉस्टल की सीनियर साथियों की भी और एम.ए की अंग्रेजी किताबों तक में शामिल सभी कहानियां, कविताएं गाइड की मदद से पढ़ डालीं।
राहत इंदौरी साहब की किताब 'चांद पागल है' पढ़ने के बाद सब कुछ बदल गया। जैसे बारूद के ढेर में कोई चिंगारी गिरे, ठीक इसी तरह राहत साहब की शायरी ने सिराज की मन को छुआ। वो अपने दोस्तों और सहपाठियों को राहत साहब के शेर सुनाया करते थे। उन दिनों उनकी कॉपियां पर नोट्स कम और राहत साहब के शेर ज्यादा लिखे मिलते थे।
आज ढीला था बाजुओं में वो
इब्तिदा है ये क्या जुदाई की
*
उतर जाता है कुछ नोटों पे सब कुछ
तवायफ़ की अदा क़ानून में है
वतन दुनिया मैं रुसवा हो रहा है
रिआया धर्म की पतलून में है
*
अगर मतलब है केवल जीत से तो
करो पीछे से उस पर वार अब के
बहुत महंगा पड़ेगा ख़ूं बहाना
कि हैं मज़लूम भी तैयार अब के
*
फिर कोयले सुलग उठे उसके ख़्याल के
फिर आज मैं घुटन में बहुत देर तक रहा
*
जाने कब के मर गए होते बिछड़ कर उससे हम
'मीर' के शेरों ने जीने के वसीले कर दिए
सिराज अपनी इस किताब की भूमिका में आगे लिखते हैं कि "मैं अपने आसपास जो घटित होते देखता था या अखबारों में पढ़ता था वो मेरी शायरी का हिस्सा बनता चला गया। इसके चलते अक्सर मुझे कई लोगों के मैसेज मिला करते थे कि मैं जो लिख रहा हूं वह ग़ज़ल नहीं है बल्कि ग़ज़ल की रवायत से खिलवाड़ है। कई बार इस तरह के मैसेज मुझे डिमोटिवेट भी करते थे लेकिन मैं खुशनसीब रहा कि मुझे "मयंक अवस्थी" भाई और "सर्वत जमाल" साहब का साथ और मार्गदर्शन मिला जिन्होंने मेरी रचनात्मकता को किसी दायरे में सीमित नहीं किया और ना ही हिंदी उर्दू ग़ज़ल के बंटवारे में उलझने दिया।"
उर्दू के मशहूर शायर जनाब "हसीब सोज़" साहब लिखते हैं की "नई नस्ल के शायरों की एक लंबी फेहरिस्त है मगर कभी-कभी कोई नाम इस तरह चौंकाता है कि मजबूरन पन्ने पलटना पढ़ते हैं। 'सिराज फ़ैसल ख़ान' उन्हीं शायरों में शामिल हैं जिनके लिए पन्ने पलटना पढ़ते हैं।"
अपनी तरह के अकेले लाज़वाब शायर जनाब 'मयंक अवस्थी' साहब ने इस किताब की भूमिका में लिखा है की "जिस तरह एक फूल सिर्फ पंखुड़ियां और खुशबू का जोड़ नहीं है बल्कि उससे अधिक है ठीक उसी तरह ग़ज़ल के शेर के दो मिसरों के बीच अगर शायर खुद मौजूद नहीं है तो उसकी शायरी भावानुवाद से अधिक कुछ नहीं होती और मुझे फ़ख़्र है कि सिराज अपनी शायरी में अपने इब्तिदाई दौर से ही मौजूद था। मुकम्मल मिसरों की टहनियां, पत्ते पत्ते, बूटे बूटे में मिज़ाज का तसलसुल,जदीदियत की कोंपलें ,सड़क पर चलने वाले लफ़्ज़ों को ऐशो इशरत की छांव अता करना अपने अशआर में और पूरी ग़ज़ल में शेरियत की फ़ज़ा क़ायम रखने के हुनर ने सिराज को बेहद खूबसूरत शायरी का दरख़्त बना दिया है।
सिराज खूबसूरत शायरी ही नहीं करते बल्कि बेखौफ हो कर ऐसे तमाम लोगों को गरियाते भी हैं जो इंसानियत के दुश्मन हैं। मुहब्बत में यकीन रखने वाले युवा सिराज फेसबुक के अपने चाहने वालों के ही नहीं बल्कि इस दौर के कद्दावर शायरों के भी चहेते हैं।
"चांद बैठा हुआ है पहलू में" से पहले उनकी नज़्मों की किताब 'परफ्यूम' बहुत चर्चित हो चुकी है।
सिराज खूबसूरत शायरी ही नहीं करते बल्कि बेखौफ हो कर ऐसे तमाम लोगों को गरियाते भी हैं जो इंसानियत के दुश्मन हैं। मुहब्बत में यकीन रखने वाले युवा सिराज फेसबुक के अपने चाहने वालों के ही नहीं बल्कि इस दौर के कद्दावर शायरों के भी चहेते हैं।
"चांद बैठा हुआ है पहलू में" से पहले उनकी नज़्मों की किताब 'परफ्यूम' बहुत चर्चित हो चुकी है।
'सिराज' जी को आप उनकी बेहतरीन ग़ज़लों के लिए
+91 76686 66278 पर फोन कर मुबारकबाद दे सकते हैं।
+91 76686 66278 पर फोन कर मुबारकबाद दे सकते हैं।
इसका नहीं मलाल उन्हें ख़ुद ना उठ सके
उनको ख़ुशी ये है कि मुझे भी गिरा दिया
ये डर भी इब्तिदा से मोहब्बत में साथ है
इक रोज़ तुम कहोगी मुझे तुमने क्या दिया
*
पहले पहल तो सबने दिखाई बड़ी ही फ़िक्र
कुछ दिन में ऊब हर कोई बीमार से गया
*
बात तो कोई बची नहीं है कहने को
फिर भी दोनों फ़ोन लगाए बैठे हैं
*
जो शख़्स अंजुमन में हुआ ही नहीं शरीक
वो शख़्स अंजुमन में बहुत देर तक रहा
1 comments:
शानदार
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