Monday, July 29, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 11



यूं तो माना जाता है की ग़ज़ल का इतिहास सातवीं शताब्दी से शुरू हुआ लेकिन यदि हम अमीर खुसरो से इसकी शुरुआत मान लें तो भी ये अब तक 1200 साल पुराना हो चुका है। इन 1200 सालों में ग़ज़ल की ज़मीन पर हज़ारों की तादाद में शाइरों ने खेती की है। अब आलम ये है की खेती छोड़िए एक पौधा तक लगाने के लिए खाली ज़मीन तलाशे नहीं मिलती। इस ज़मीन पर जहां ग़ालिब, मीर, दाग़, इक़बाल, फ़िराक़, फ़ैज़ जैसे कालजयी शाइरों के जहां लहलहाते बाग़ हैं वहीं पर ढेरों शाइरों की उगाई खरपतवार की भी कमी नहीं है। अब इस ज़मीन पर अपना एक भी बूटा लगाना, जो अलग से नज़र आए, आसान काम नहीं रहा है। बड़े-बड़े बरगदों की छांव में छोटे-मोटे पौधे तो वैसे भी दम तोड़ देते हैं इस बात को जानते हुए भी बहुत से जांबाज शाइर कोशिश करना नहीं छोड़ते। उन्हीं में से एक है हमारी आज की शाइरा *आशा पांडे ओझा 'आशा'*।

अब 'आशा' जी के बारे में क्या कहूं ? क्योंकि मैं जो कहूंगा, जितना कहूंगा वो कम ही पड़ेगा। दरअसल बात ये है कि 'आशा' जी एक ज़िंदा ज्वालामुखी हैं जिसमें से प्रतिभा का लावा लगातार बहता रहता है। इस ज्वालामुखी से लावे के रूप में कभी गीत, कभी कविता, कभी हाइकु, कभी दोहे, कभी व्यंग, कभी लघु कथाएं, कभी शोध पत्र, कभी समीक्षाएं, कभी छंद, कभी कहानी तो कभी ग़ज़लें रह-रह कर फूटती रहती हैं। उनकी इस प्रतिभा से हम सब हतप्रभ हैं और दुआ करते हैं कि ये रंग-बिरंगा लावा सदा यूं ही लगातार फूटता ही रहे।

जीने को है जरूरी 
आंखों में ख़्वाब रखना

तलवार तीर तज कर 
घर में किताब रखना
*
अब मिलते हैं अक्सर दुश्मन
बांह गले में डाले पगले

चोर सभी हैं भाई भाई 
या फिर जीजा साले पगले
*
जरा ग़म के आते दफ़ा हो गई
खुशी दांव हारी जुआरी लगे

हंसता, रुलाता, नाचता वही 
ख़ुदा भी ग़ज़ब का मदारी लगे
*
फिर महकने से लगे हैं सांस के ये मोगरे 
नैन की पंखुरी तले कुछ सरसराहट सी हुई 

लौट आने से तेरे महसूस ये होने लगा 
बांझ घर में बाद में मुद्दत खिलखिलाहट सी हुई
*
कोरी छत खाली दीवारें 
प्यार बिना फिर ये घर क्या है

मन से ज्यादा क्या उपजाऊ 
मन से ज्यादा ऊसर क्या है

यदि आप उनसे परिचित हैं तो 'आशा' जी की प्रशंसा के लिए उपयुक्त शब्द आपको किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलेगा। उनके व्यक्तित्व के इतने आयाम है कि उसे एक शब्द में व्यक्त करना असंभव है, इसलिए इस असंभव काम पर वक्त जाया करने से बेहतर मुझे लगा कि मैं उनके बारे में कुछ और बात करूं। 

सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात जो 'आशा' जी में है वो है उनकी ज़िंदादिली। उनसे बात करते वक्त तो आप हंसे बिना रह ही नहीं सकते, बातचीत ख़त्म होने के महीनों बाद तक उनकी बातों को याद कर आप हंसते रहते हैं। ऐसा लगता है जैसे उनको बनाते वक्त ईश्वर इतना खुश हुआ होगा कि उसने उनमें सौ-दो सौ लोगों की बुद्धि एक साथ डाल दी।

ग़ज़लों पर उनकी कलम हाल ही में चलनी शुरू हुई है और आप उनकी किताब "कहां सांस लें खुलकर" पढ़ते हुए पाएंगे कि किस खूबी से ग़ज़ल की इस पहले से ही भरी पूरी ज़मीन पर उन्होंने अपने बूटों को रोपने के लिए जगह तलाश की और वो बूटे अलग से दिखाई भी देते हैं। 

आपके दांत न हो और उंगलियों पर चोट लगी हो तो अलग बात है वरना उनके ये आंकड़े आपको दांतों तले उंगलियां दबाने पर मजबूर कर देंगे। आप ध्यान से पढ़ें:

उनके चार काव्य संग्रह, दस साझा संग्रह, एक हाइकू संग्रह, एक दोहा संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 
वो पचास से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्य गोष्ठियों में शिरकत कर चुकी हैं।
उनके बीस से अधिक शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। 
उनकी 250 से अधिक विभिन्न पत्र पत्रिकाओं एवं ई पत्रिकाओं में रचनाएं छप चुकी हैं। 
वो रेडियो और टेलीविजन पर न जाने कितनी बार आ चुकी हैं और 
वो 150 से अधिक विभिन्न संस्थाओं व अकादमियों द्वारा सम्मानित हो चुकी हैं 

इतना सब कुछ हो चुकने की बावजूद भी वो कभी फोन करके कहती हैं कि "भाई जी कोई काम हो तो बताओ टाइम ही पास नहीं हो रहा" इससे आप उनमें बह रही ऊर्जा का अंदाजा लगा सकते हैं।

रोकना चाहती हूं तुझे ज़िंदगी 
तू पिघलने लगी कुल्फ़ियों की तरह

रूपकों की तरह गीत में तू रहा 
हर ग़ज़ल में रहा काफ़ियों की तरह
*
लोग रस्ता बना के निकलेंगे
दिल की गलियों आम मत करना
*
किसने सोचा देख दुपहरी चढ़ते तेवर सूरज के
शाम ढले तक कोई इतना धीमा भी हो सकता है
*
तोता-मैना जिसमें प्रीत रचा करते 
बाग़ हमारा कौओं की जागीर हुआ
*
ज़बान खोलने से टूटती है ज़ंजीरें
रहे क्यों बर्फ के जैसे, उबल के देखते हैं

25 अक्टूबर को ओसियां जिला जोधपुर में पैदा हुई 'आशा' जी ने बी.ए. के बाद लाॅ किया और जोधपुर हाई कोर्ट में प्रैक्टिस भी की। इसी दौरान स्वयं पाठी के रूप में हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। साहित्यिक अभिरुचियों के चलते वकालत को उन्होंने नमस्कार किया और लेखन को समर्पित हो गईं।

मुझे गर्व है कि वो मुझ जैसे अनाड़ी को अपना बड़ा भाई मानती हैं। लोग कहते हैं 'नीरज' जी आपके पांव ज़मीन पर क्यों नहीं है? आप हवा में क्यों रहते हो? तो मैं कहता हूं कि जिसकी इतनी प्रतिभाशाली छोटी बहन हो उस भाई के पांव जमीन पर टिक ही नहीं सकती चाहे वो कितना भी जोर लगा ले। 

अब बात उनकी ग़ज़लों की पहली किताब "कहां हम सांस लें खुलकर" की। ये किताब 'श्वेत वर्ण' प्रकाशन नई दिल्ली से राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के आर्थिक सहयोग से सन 2023 में प्रकाशित हुई थी, जिसे आप प्रकाशक से 8447540078 पर फोन कर मंगवा सकते हैं। वैसे ये किताब अमेजॉन से ऑनलाइन भी मंगवाई जा सकती है। इस किताब की ग़ज़लों में मुहावरे दार भाषा और दिलचस्प रदीफ़ काफियों के प्रयोग से कमाल की ग़ज़लें कहीं गई हैं। अधिकतर ग़ज़लें छोटी बहर में है और उनके लिए "सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगै, घाव करें गंभीर" वाली बात सटीक बैठती है।

जहां तक 'आशा' जी से बात का प्रश्न है तो उसके लिए आप उनके फेसबुक पेज Asha Pandey Ojha Asha के लिंक https://www.facebook.com/kavyatri.asha?mibextid=ZbWKwL से जुड़कर उनसे संपर्क कर सकते हैं अथवा उन्हें उनके ई मेल asha09.pandey@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।

पीपल बड़ से बाबा मेरे 
तुलसी केली जैसी अम्मा 

न्यारी न्यारी उंगली बच्चे 
और हथेली जैसी अम्मा
*
रिश्ते नाटक ऐसे करते 
बिगड़ी जैसे घोड़ी साहब

टूट टूट फिर से जुड़ जाती 
होती आस निगोड़ी साहब
*
समय नहीं था पल भर हमको भागा दौड़ी इतनी थी 
आज समय को काटे कैसे प्रश्न पकड़ कर कान खड़ा
*
उसने पहले ईट उठाई हमने पत्थर फिर मारा 
जैसे को तैसा करने की अपनी भी लाचारी है





1 comments:

Onkar said...

बहुत अच्छा