Monday, July 29, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 11



यूं तो माना जाता है की ग़ज़ल का इतिहास सातवीं शताब्दी से शुरू हुआ लेकिन यदि हम अमीर खुसरो से इसकी शुरुआत मान लें तो भी ये अब तक 1200 साल पुराना हो चुका है। इन 1200 सालों में ग़ज़ल की ज़मीन पर हज़ारों की तादाद में शाइरों ने खेती की है। अब आलम ये है की खेती छोड़िए एक पौधा तक लगाने के लिए खाली ज़मीन तलाशे नहीं मिलती। इस ज़मीन पर जहां ग़ालिब, मीर, दाग़, इक़बाल, फ़िराक़, फ़ैज़ जैसे कालजयी शाइरों के जहां लहलहाते बाग़ हैं वहीं पर ढेरों शाइरों की उगाई खरपतवार की भी कमी नहीं है। अब इस ज़मीन पर अपना एक भी बूटा लगाना, जो अलग से नज़र आए, आसान काम नहीं रहा है। बड़े-बड़े बरगदों की छांव में छोटे-मोटे पौधे तो वैसे भी दम तोड़ देते हैं इस बात को जानते हुए भी बहुत से जांबाज शाइर कोशिश करना नहीं छोड़ते। उन्हीं में से एक है हमारी आज की शाइरा *आशा पांडे ओझा 'आशा'*।

अब 'आशा' जी के बारे में क्या कहूं ? क्योंकि मैं जो कहूंगा, जितना कहूंगा वो कम ही पड़ेगा। दरअसल बात ये है कि 'आशा' जी एक ज़िंदा ज्वालामुखी हैं जिसमें से प्रतिभा का लावा लगातार बहता रहता है। इस ज्वालामुखी से लावे के रूप में कभी गीत, कभी कविता, कभी हाइकु, कभी दोहे, कभी व्यंग, कभी लघु कथाएं, कभी शोध पत्र, कभी समीक्षाएं, कभी छंद, कभी कहानी तो कभी ग़ज़लें रह-रह कर फूटती रहती हैं। उनकी इस प्रतिभा से हम सब हतप्रभ हैं और दुआ करते हैं कि ये रंग-बिरंगा लावा सदा यूं ही लगातार फूटता ही रहे।

जीने को है जरूरी 
आंखों में ख़्वाब रखना

तलवार तीर तज कर 
घर में किताब रखना
*
अब मिलते हैं अक्सर दुश्मन
बांह गले में डाले पगले

चोर सभी हैं भाई भाई 
या फिर जीजा साले पगले
*
जरा ग़म के आते दफ़ा हो गई
खुशी दांव हारी जुआरी लगे

हंसता, रुलाता, नाचता वही 
ख़ुदा भी ग़ज़ब का मदारी लगे
*
फिर महकने से लगे हैं सांस के ये मोगरे 
नैन की पंखुरी तले कुछ सरसराहट सी हुई 

लौट आने से तेरे महसूस ये होने लगा 
बांझ घर में बाद में मुद्दत खिलखिलाहट सी हुई
*
कोरी छत खाली दीवारें 
प्यार बिना फिर ये घर क्या है

मन से ज्यादा क्या उपजाऊ 
मन से ज्यादा ऊसर क्या है

यदि आप उनसे परिचित हैं तो 'आशा' जी की प्रशंसा के लिए उपयुक्त शब्द आपको किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलेगा। उनके व्यक्तित्व के इतने आयाम है कि उसे एक शब्द में व्यक्त करना असंभव है, इसलिए इस असंभव काम पर वक्त जाया करने से बेहतर मुझे लगा कि मैं उनके बारे में कुछ और बात करूं। 

सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात जो 'आशा' जी में है वो है उनकी ज़िंदादिली। उनसे बात करते वक्त तो आप हंसे बिना रह ही नहीं सकते, बातचीत ख़त्म होने के महीनों बाद तक उनकी बातों को याद कर आप हंसते रहते हैं। ऐसा लगता है जैसे उनको बनाते वक्त ईश्वर इतना खुश हुआ होगा कि उसने उनमें सौ-दो सौ लोगों की बुद्धि एक साथ डाल दी।

ग़ज़लों पर उनकी कलम हाल ही में चलनी शुरू हुई है और आप उनकी किताब "कहां सांस लें खुलकर" पढ़ते हुए पाएंगे कि किस खूबी से ग़ज़ल की इस पहले से ही भरी पूरी ज़मीन पर उन्होंने अपने बूटों को रोपने के लिए जगह तलाश की और वो बूटे अलग से दिखाई भी देते हैं। 

आपके दांत न हो और उंगलियों पर चोट लगी हो तो अलग बात है वरना उनके ये आंकड़े आपको दांतों तले उंगलियां दबाने पर मजबूर कर देंगे। आप ध्यान से पढ़ें:

उनके चार काव्य संग्रह, दस साझा संग्रह, एक हाइकू संग्रह, एक दोहा संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 
वो पचास से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्य गोष्ठियों में शिरकत कर चुकी हैं।
उनके बीस से अधिक शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। 
उनकी 250 से अधिक विभिन्न पत्र पत्रिकाओं एवं ई पत्रिकाओं में रचनाएं छप चुकी हैं। 
वो रेडियो और टेलीविजन पर न जाने कितनी बार आ चुकी हैं और 
वो 150 से अधिक विभिन्न संस्थाओं व अकादमियों द्वारा सम्मानित हो चुकी हैं 

इतना सब कुछ हो चुकने की बावजूद भी वो कभी फोन करके कहती हैं कि "भाई जी कोई काम हो तो बताओ टाइम ही पास नहीं हो रहा" इससे आप उनमें बह रही ऊर्जा का अंदाजा लगा सकते हैं।

रोकना चाहती हूं तुझे ज़िंदगी 
तू पिघलने लगी कुल्फ़ियों की तरह

रूपकों की तरह गीत में तू रहा 
हर ग़ज़ल में रहा काफ़ियों की तरह
*
लोग रस्ता बना के निकलेंगे
दिल की गलियों आम मत करना
*
किसने सोचा देख दुपहरी चढ़ते तेवर सूरज के
शाम ढले तक कोई इतना धीमा भी हो सकता है
*
तोता-मैना जिसमें प्रीत रचा करते 
बाग़ हमारा कौओं की जागीर हुआ
*
ज़बान खोलने से टूटती है ज़ंजीरें
रहे क्यों बर्फ के जैसे, उबल के देखते हैं

25 अक्टूबर को ओसियां जिला जोधपुर में पैदा हुई 'आशा' जी ने बी.ए. के बाद लाॅ किया और जोधपुर हाई कोर्ट में प्रैक्टिस भी की। इसी दौरान स्वयं पाठी के रूप में हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। साहित्यिक अभिरुचियों के चलते वकालत को उन्होंने नमस्कार किया और लेखन को समर्पित हो गईं।

मुझे गर्व है कि वो मुझ जैसे अनाड़ी को अपना बड़ा भाई मानती हैं। लोग कहते हैं 'नीरज' जी आपके पांव ज़मीन पर क्यों नहीं है? आप हवा में क्यों रहते हो? तो मैं कहता हूं कि जिसकी इतनी प्रतिभाशाली छोटी बहन हो उस भाई के पांव जमीन पर टिक ही नहीं सकती चाहे वो कितना भी जोर लगा ले। 

अब बात उनकी ग़ज़लों की पहली किताब "कहां हम सांस लें खुलकर" की। ये किताब 'श्वेत वर्ण' प्रकाशन नई दिल्ली से राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के आर्थिक सहयोग से सन 2023 में प्रकाशित हुई थी, जिसे आप प्रकाशक से 8447540078 पर फोन कर मंगवा सकते हैं। वैसे ये किताब अमेजॉन से ऑनलाइन भी मंगवाई जा सकती है। इस किताब की ग़ज़लों में मुहावरे दार भाषा और दिलचस्प रदीफ़ काफियों के प्रयोग से कमाल की ग़ज़लें कहीं गई हैं। अधिकतर ग़ज़लें छोटी बहर में है और उनके लिए "सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगै, घाव करें गंभीर" वाली बात सटीक बैठती है।

जहां तक 'आशा' जी से बात का प्रश्न है तो उसके लिए आप उनके फेसबुक पेज Asha Pandey Ojha Asha के लिंक https://www.facebook.com/kavyatri.asha?mibextid=ZbWKwL से जुड़कर उनसे संपर्क कर सकते हैं अथवा उन्हें उनके ई मेल asha09.pandey@gmail.com पर मेल कर सकते हैं।

पीपल बड़ से बाबा मेरे 
तुलसी केली जैसी अम्मा 

न्यारी न्यारी उंगली बच्चे 
और हथेली जैसी अम्मा
*
रिश्ते नाटक ऐसे करते 
बिगड़ी जैसे घोड़ी साहब

टूट टूट फिर से जुड़ जाती 
होती आस निगोड़ी साहब
*
समय नहीं था पल भर हमको भागा दौड़ी इतनी थी 
आज समय को काटे कैसे प्रश्न पकड़ कर कान खड़ा
*
उसने पहले ईट उठाई हमने पत्थर फिर मारा 
जैसे को तैसा करने की अपनी भी लाचारी है





Monday, July 22, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 10


तुम्हीं ने बनाया तुम्हीं ने मिटाया
मैं जो कुछ भी हूं बस इसी दरमियां हूं
*
उंगली तो उठाना है आसां
पर कौन यहां कब कामिल है
कामिल: पूर्ण, पूरा
*
गुमराह हो गया तू भटक कर इधर-उधर
इक राह ए इश्क़ भी है कभी इख़्तियार कर
*
ऐ शेख! सब्र कर तू नसीहत न कर अभी
आता हूं मैकदे से जरा इंतज़ार कर
*
जब से तुम हमराह हुए हो 
साथ हमारे खुद ही मंज़िल

सबसे पहले रुबरु होते हैं हमारे आज के शाइर जनाब *आनन्द पाठक'आनन* साहब के इन विचारों से जिन्हें उन्होंने अपनी ग़ज़लों की किताब *मौसम बदलेगा* के फ्लैप पर प्रकाशित किया है :-

प्रकृति का यही नियम है और यही जीवन दर्शन भी कि मौसम एक सा नहीं रहता। वक्त भी एक सा नहीं रहता।
पतझड़ है तो बहार भी, उम्र भर किसी का इंतज़ार भी, मिलन के लिए बेकरार भी। जीवन में सुख-दुख आशा-निराशा विरह-मिलन का होना, नई आशाओं के साथ सुबह का होना, शाम का ढलना, एक सामान्य क्रम और एक शाश्वत प्रक्रिया है, फिर विचार करना कि जीवन में क्या खोया क्या पाया। दिन भर की भाग दौड़ का क्या हासिल रहा और यही सब हिसाब किताब करते-करते एक दिन आदमी सो जाता है। यही जीवन का क्रम है यही शाश्वत नियम है। बहुत सी बातों पर हमारा आपका अधिकार नहीं होता। सब नियति का खेल है। कोई एक अदृश्य शक्ति है जो हम सबको संचालित करती है।

सुख का मौसम दुख का मौसम, आंधी पानी का हो मौसम
मौसम का आना-जाना है, मौसम है मौसम बदलेगा

दांव पर दांव चलती रही ज़िंदगी
शर्त हारे कभी हम, कभी ज़िंदगी
*
मिलेगी जब कभी फुर्सत तुम्हें रोटी भी दे देंगे
अभी मसरूफ़ हूं तुमको नए सपने दिखाने में
*
'आनन' तू खुशनसीब है दस्तार सर पे है 
वरना तो लोग बेच कमाई में आ गए
*
पूछ लेना जमीर ओ ग़ैरत से 
पांव पर जब किसी के सर रखना
*
आप जो मिल गए मुझको
आप से और क्या मॉंगू

उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में 31 जुलाई 1955 को जन्मे आनंद पाठक ने सिविल इंजीनियरिंग क्षेत्र में देश के सर्वश्रेष्ठ इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक आई.आई.टी. रुड़की से सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 

सन 1978 में ऑल इंडिया इंजीनियरिंग सर्विस में चयनित होने के बाद बिहार, बंगाल, असम, झारखंड, गुजरात एवं राजस्थान राज्यों में योगदान दिया और अंततः जयपुर से मुख्य अभियंता (सिविल) भारत संचार निगम लिमिटेड के पद से रिटायर हुए। 

सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में दक्षता के साथ-साथ उनकी अभिरुचि कविता, गीत, ग़ज़ल, माहिया, व्यंग, अरूज तथा अन्य विविध लेखन में भी रही। एक ही व्यक्ति में इतने गुण होना साधारण बात नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि वो विलक्षण प्रतिभा वान हैं। सबसे बड़ी बात तो ये है कि इतनी उपलब्धियां प्राप्त करने के बाद भी वो बेहद सरल सहज सच्चे इंसान हैं। उनसे बात करके आपको लगेगा जैसे आप अपने किसी परिवार जन से ही बात कर रहे हैं। उनका ये गुण उन्हें सबसे अलग करता है। 

इश्क़ भी क्या अजब शै है 
रोज़ लगता नया क्यों है
*
ज़ाहिरी तौर पर हों भले हमसुखन 
आदमी आदमी से डरा उम्र भर 
हमसुखन: आपस में बात करने वाला
*
जादूगरी थी उसकी दलाइल भी बाकमाल
उसके फ़रेब को भी ज़हानत समझ लिया 
दलाइल: दलीलें, ज़हानत: प्रतिभा
*
जब सामने खड़ा था भूखा गरीब कोई 
फिर ढूंढता है किसको दैर ओ हरम में जाकर
*
जहां सर झुक गया आनन वहीं काबा वहीं काशी 
वो चलकर खुद ही आएंगे, बड़ी ताकत मुहब्बत में

*आनन्द पाठक* जी का गीत- ग़ज़ल संग्रह, *मौसम बदलेगा* जिसमें उनकी 99 ग़ज़लें और 9 गीत हैं सन 2022 में 'अयन प्रकाशन' नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ था। इससे पूर्व आनंद पाठक जी की 9 किताबें मंजर ए आम पर आ चुकी हैं जिन में चार 'व्यंग्य संग्रह' तीन 'गीत-ग़ज़ल संग्रह एक गीति काव्य संग्रह और एक माहिया संग्रह है। इससे पता चलता है कि उनके लेखन का कैनवास कितना विशाल है।

यूं तो मैं उनकी प्रतिभा का कायल उनके ब्लॉग लेखन के दौर से ही रहा हूं ।सन 2018 के विश्व पुस्तक मेले में उनसे पहली मुलाकात हुई जब उन्होंने रोष जताते हुए कहा था कि क्या भाईसाहब जयपुर रहते हुए भी नहीं मिलते हो।जयपुर में उनसे जब जब बात हुई तो ठहाकों से शुरू हो कर ठहाकों पर ही रुकी। उनके बार बार "घर पर आइए" के निमंत्रण को मूर्त रूप देने से पहले ही वो रिटायरमेंट के बाद जयपुर छोड़ कर गुरुग्राम बस गये। देखिए अब कब उनसे मुलाक़ात होती है। खैर!! हमारा उनसे दुबारा मिलना तो जरूर होगा , लेकिन हां आप चाहें तो उनसे उनके मोबाइल नं 8800927181 पर फोन कर उन्हें बधाई दे सकते हैं।


Monday, July 15, 2024

किताब मिली - शुक्रिया 9


कभी तो इनकी गर्माहट मिलेगी मेरे अपनों को 
जो रिश्ते बुन रहा हूं मैं मुहब्बत की सलाई से
*
उसूलों की तरफ़दारी का यह इनाआम है 
उधर सारा जमाना है, इधर तन्हा है हम
*
जहां से हम चले थे फिर वहीं आखिर में जा पहुंचे
हमारी सोच ने हमको क़बीलाई बना डाला
*
उसे हम पूछते हैं रोटियों का घर 
वो हमको चांद का रस्ता बताता है
*
यूं तो हमारी बेटियां बेटों से कम न थीं
हम ही थे बदनसीब कि बेटों के साथ थे

किसी भी शाइर या लेखक की पहचान उसकी स्पष्टवादिता से होती है। मेरी नज़र में जो भी अपनी बात बिना लाग लपेट के सबके सामने रखने में सक्षम है वही सच्चा साहित्यकार है।

हमारे आज की शाइर 'श्री संजीव गौतम'  की यही ख़ासियत सबसे पहले आकृष्ट करती है। पहली बात तो ये है कि वो ग़ज़ल की भाषा को लेकर किसी भ्रम में नहीं है इसलिए लिखते हैं कि "तमाम विद्वानों ने ग़ज़ल को हिंदी या उर्दू होने पर एतराज़ किए हैं लेकिन वे मात्र आभासी तौर पर ही सही प्रतीत होते हैं। मुझे लगता है कि ये बात सिर्फ़ हिंदी और उर्दू के सगेपन के कारण ऐसी महसूस होती है। एक अर्थ में ग़ज़ल तो ग़ज़ल ही है और हिंदी ग़ज़ल अलग कोई विद्या नहीं है।" दूसरी बात, वो देश की आज की स्थिति पर बेबाकी से अपनी राय रखते हुए कहते हैं कि "आज सबसे बड़ा अंतर जो उत्पन्न हुआ है और जो आजादी के संघर्ष काल एवं आपातकाल के दिनों से भी अलग है वो है कि आज समाज में उदार तत्व कम होता जा रहा है। जैसे-जैसे हम महात्मा गांधी से दूर होते जा रहे हैं वैसे-वैसे भारतीय समाज से नैतिकता का ह्रास होता जा रहा है। वर्तमान समय को यदि मैं एक पंक्ति में व्यक्त करना चाहूं तो आज नकारात्मकता वैद्यानिकता हासिल करना चाहती है। आपके चारों ओर ऐसे व्यक्तियों का बहुमत है जो अन्य के विषय में उदारता से नहीं सोचते। आज चिंतनशील होना अभिशाप जैसा है और बुद्धिजीवी होना गाली।

सीधी सरल बात है कि ऐसी सोच और विचारधारा का शाइर अनूठा ही होगा। धारा के विपरीत बहने का साहस करने वाले बिरले ही हुआ करते हैं और 'संजीव गौतम' उन बिरले शाइरों में से एक है।

अगर चाहें कि धरती पर रहे इंसान ज़िंदा तो
बचानी ही पड़ेंगी नरमिंया हमको जबानों में
*
समझता था तुझे मैं सिर्फ़ शाइर 
ग़ज़ब है तू भी हिंदू हो रहा है
*
हमें तो फ़िक्र है उसकी सो हम तो टोकेंगे 
हमें पता है वो हमको बुरा समझता है
*
हुई है दोस्ती जो ज़िंदगी से 
भरेंगे उम्र भर चालान हम भी
*
ज़रूरत आ पड़ी है जब तभी खामोश है ये 
हमारे दौर की भी शाइरी क्या शाइरी है

उनकी ग़ज़लें पढ़ते हुए वरिष्ठ ग़ज़ल कार श्री 'अशोक रावत' जी की इस किताब में 'संजीव गौतम' के बारे में लिखी बात पर आसानी से यक़ीन किया जा सकता है की 'संजीव गौतम की ग़ज़लों में जो आत्मविश्वास नज़र आता है वो किसी के लिए भी ईर्ष्या का विषय हो सकता है। इस आत्मविश्वास के पीछे ग़ज़ल के शिल्प का पूरा ज्ञान तो है ही उनकी स्पष्ट दृष्टि और मानवीय मूल्यों के प्रति गहरा लगाव भी है। उनके विचार और आचरण में फ़ासले नहीं है इसलिए कथ्य स्वत: ही विश्वसनीय बन जाता है जो पाठक के दिल तक पहुंचता है।

जाने माने ग़ज़ल कार 'ओमप्रकाश नदीम' जी लिखते हैं कि आम तौर पर इतिहास शासक वर्ग के आसपास ही चक्कर लगाता है लेकिन आम जन के पक्षधर प्रगतिशील चेतना के रचनाकार शोषित पीड़ित मानवता के प्रतिरोध को आवाज़ देकर प्रजा का इतिहास भी लिखते हैं। व्यवस्था के प्रति आक्रोश के साथ-साथ परिवर्तन की उम्मीद से लबरेज़ चिंतन को नुमायां करती हैं 'संजीव गौतम' की ग़ज़लें।

अब तो रिश्तों की हवेली में कहां शर्मो- हया 
सारे दरवाज़े खुले हैं कोई पर्दा ही नहीं
*
चलो तुम आखिरश खुश तो हुए 
हमें रोना पड़ा तो क्या हुआ
*
बंद करते जा रहे हो सारे दरवाज़े तो तुम
ये बताओ कैसे होगी फिर तुम्हारी वापसी
*
दुनिया जिससे दुनिया है
वो ढाई आखर हूं मैं
*
मई और जून में भी क्या पिघलना
दिसंबर में पिघल कर देखिए तो

श्री 'संजीव गौतम' का जन्म 3 जनवरी 1973 को आगरा में हुआ था। आपने हिंदी में एम.ए. किया है और अब सहकारिता विभाग में अपर जिला सहकारी अधिकारी के रूप में कार्यरत हैं। 


'बुतों की भीड़ में' उनका पहला ग़ज़ल संग्रह है जो सन 2021 में 'अयन प्रकाशन' महरौली से प्रकाशित हुआ था। इस ग़ज़ल संग्रह में उनकी 90 बेहतरीन ग़ज़लें संग्रहीत हैं। उनकी रचनाएं देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपती रहती हैं।
 
इस किताब को आप 'अयन प्रकाशन' से 92113 12372 पर फोन करके या अमेजॉन से ऑनलाइन मंगवा सकते हैं और पढ़ कर संजीव जी को उनके मोबाइल नं 94562 39706 पर बात कर बधाई दे सकते हैं।

बेहतरीन शाइर डॉक्टर 'त्रिमोहन तरल' साहब की इस बात से पूरी तरह सहमत होते हुए मैं आपसे विदा लेता हूं कि "हम यहां कितना भी लिख ले अंततः इन ग़ज़लों का असली मूल्यांकन तो इनके पाठकों को ही करना है और वही आंकलन सबसे अधिक महत्वपूर्ण होता है।

इसे मुश्किल तो हम ही मान बैठे हैं नहीं तो 
अभी भी झूठ को ललकारना कुछ भी नहीं है
*
ये दुनिया जैसी थी अब भी वैसी है 
अच्छे-अच्छे आये आकर चले गये
*
जाने कितने ख़तरे सर पर रहते हैं
हम अपने ही घर में डर कर रहते हैं

मेरे चुप रहने की वजहें पूछो मत
मेरे भीतर कई समंदर रहते हैं
*
बात बिल्कुल साफ़ है अब आइने सी
दीमको की ज़द में अब अल्मारियां हैं















Monday, July 8, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 8


अपने दुश्मन तो हम खुद हैं 
हमसे हमको कौन बचाए
*
बेवजह जो दाद देते हैं
कैक्टस को खाद देते हैं
*
इस नदी का जल कहीं भी अब लगा है फैलने
बांध कोई इस नदी पर अब बनाना चाहिए
*
लोग कुर्सी पर जो बैठे हैं ग़लत हैं माना
प्रश्न ये है जो सही हैं वो कहां बैठे हैं
*
ज़माने से तुमको शिक़ायत बहुत
क्या तुमसे किसी को शिकायत नहीं

आपको याद होगा कि देश में 1975 में इमरजेंसी घोषित हुई थी, यानी अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी।1977 में जैसे ही इमरजेंसी हटी, जनता का गुस्सा फूट कर सामने आया और सत्ता के विरोध में कहानियों, उपन्यासों कविताओं और ग़ज़लों की बाढ़ सी आ गई जैसे कोई बांध टूट गया हो। 

सत्ता के विरोध में और आम इंसान के दुख- तकलीफों पर लिखने वाले सफल रचनाकारों में से एक थे 'दुष्यंत कुमार' जिनकी ग़ज़लों ने जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला। बहुत से नए ग़ज़ल कारों ने उन्हें अपना आदर्श माना। आम बोलचाल की भाषा में हुस्न और इश्क़ के रुमानी संसार से निकल कर हक़ीक़त की खुरदरी ज़मीन पर ग़ज़ल कहने का दौर आया। 

हमारे आज के ग़ज़लकार श्री सुरेश पबरा 'आकाश' ने भी दुष्यंत जी को आदर्श मानते हुए ग़ज़लें कहना शुरू किया। उन्होंने अपनी ग़ज़लों की किताब 'वो अकेला' जो अभी हमारे सामने है में लिखा है कि 'ग़ज़ल अब केवल मनोरंजन ही नहीं कर रही बल्कि समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा रही है। कभी-कभी किसी ग़ज़ल का एक शेर भी आदमी की जीने की दिशा बदल देता है। मेरी ग़ज़लें आम आदमी की भाषा में कही गई आम आदमी की ग़ज़लें हैं। ये ग़ज़लें ईमानदार आदमी पर हुए अत्याचार की, उसके साथ हुई पक्षपात की ग़ज़लें हैं। आम ईमानदार आदमी इन ग़ज़लों में अपनी पीड़ा महसूस करेगा और बेईमान आदमी इनको पढ़कर तिलमिलाएगा और ये तिलमिलाहट ही इन ग़ज़लों की सफलता होगी।'

बहुत मिले रावण से भी बढ़कर रावण
पर इस युग में नकली सारे राम मिले
*
अपनी तो ये इच्छा है सब दुष्टों को
जल्द सुदर्शन चक्र लिए घनश्याम मिले
*
शराफ़त से सहना ग़लत बात को
मियां बुजदिली है शराफ़त नहीं
*
साफ कहने का मुझे अंजाम भी मालूम है
जानता हूं मैं कहां हूं और कहां हो जाऊंगा
*
ये सही है मैं बहुत तन्हा रहा हूं उम्र भर
एक दिन तुम देखना मैं कारवां हो जाऊंगा

स्व.श्रीमति विद्यावती एवं स्व.श्री कर्म चंद पबरा के यहां चार जून 1954 को सुरेश जी का जन्म हुआ। अपने बारे में सुरेश जी बताते हैं कि "मैंने 1973 से व्यंग्य कवितायें लिखना प्रारम्भ किया मैंने दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें पत्रिकाओं में पढ़ी उनसे प्रभावित हुआ। मैं मंचों पर भी जाया करता था एक कवि सम्मेलन में 'माणिक वर्मा' जी ने व्यंग के साथ कुछ ग़ज़लें भी सुनायीं बाद में उनमें से एक ग़ज़ल सारिका में भी छपी थी जिसका मिसरा था 'आज अपनी सरहदों में खो गया है आदमी' मैंने इसी  बहर पर एक ग़ज़ल लिखी 'जुल्म हँस हँस के सभी सहने लगा है आदमी' और सारिका को भेजी । ये ग़ज़ल 1977 में लिखी थी जो 1979 में सारिका में प्रकाशित हुई। उसके बाद मैंने ग़ज़लें कहना शुरू किया और आज तक कह   रहा हूँ ।

मेरी ग़ज़लें कादम्बिनी एवं नवनीत आदि बहुत सी पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। मेरा कोई उस्ताद नहीं रहा। 'डा आज़म' की आसान उरूज़' एवं 'वीनस केसरी' की किताब 'ग़ज़ल के बहाने' से बहर सीखी। अधिकांश ग़ज़लें स्वतः ही बहर में आयीं। शंका समाधान मैंने कइयों से किया।

मैंने 2003 में भेल (BHEL)शिक्षा मण्डल, भोपाल से व्याख्याता के रूप में VRS लिया उसके बाद पन्द्रह वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों में प्राचार्य रहा सन् 2020 में, मैं प्राचार्य के रूप में सेवानिवृत्त हुआ फिर उसके बाद वकालत करने लगा जो अभी तक कर रहा हूँ ।"
'वो अकेला' सुरेश जी का पहला ग़ज़ल संग्रह है जो 'पहले पहल प्रकाशन' भोपाल से सन 2018 में प्रकाशित हुआ था। उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह ' सितारों को जगाना है' सन 2022 में प्रकाशित हुआ है।

सुरेश जी की ग़ज़लें पढ़ कर आप उन्हें उनके मोबाइल +91 98932 90590 पर बात कर बधाई दे सकते हैं।

जाग कर इक रात काटी यार तेरी याद में
याद महकी रात भर और रात रानी हो गई
*
पल भर जिधर ठहरना हमको लगता है दूभर
मजबूरी में उधर उम्र भर रहना पड़ता है
*
भाईचारे की बात होती है
भाईचारा जहां नहीं होता
*
उम्र भर तन्हा रहा है जो
भीड़ में वो खो नहीं सकता
*
मखमल के गद्दों पर बैठे गीत गरीबी पर लिखते
बातें करते इंकलाब की दारू पीकर जाड़े में







Monday, July 1, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 7

तो क्यों रहबर के पीछे चल रहे हो 
अगर रहबर ने भटकाया बहुत है 
मैं छोड़ कर चला आया हूं शहर में जिसको 
मुझे वो गांव का कच्चा मकान खींचता है 
ज़ालिम को ज़ुल्म ढाने से मतलब है ढायेगा 
तुम चीखते रहो की गुनहगार हम नहीं 
तलाशे ज़र में भटकता फिरा ज़माने में 
जो मेरे पास था मैं वो ख़ज़ाना भूल गया 
मंजिल मिली न हमको मगर ये भी कम नहीं 
हमसे किसी के पांव का कांटा निकल गया 

आप सोचते होंगे की आसान है, जी नहीं आप ग़लत सोचते हैं, चूड़ी बनाना और वो भी कांच की, बेहद मुश्किल काम है. कांच को न जाने कितनी बार आग में तपना, गलना और फिर पिटना पड़ता है तब कहीं जाकर वो तार बनता है जिसे एक गोल घूमते हुए पाइप पर लपेटकर चूड़ी बनाई जाती है.चूड़ी बनाने से कम मुश्किल नहीं है शेर कहना...अच्छा शेर कहना समझिए सबसे मुश्किल कामों में से एक है. 
इंसान की फितरत है कि उसे मुश्किल काम करने में मजा आता है, जितना ज्यादा मुश्किल काम उतना ही ज्यादा मजा. तभी एक अच्छा शेर शायर को तो दिली सुकून देता ही है पढ़ने सुनने वाले के दिलों दिमाग पर भी छा जाता है.आप सोच रहे होंगे कि मैं चूड़ी और शेर इन दोनों की बात एक साथ क्यों कर रहा हूं। सही सोच रहे हैं, मैं बताता हूं। 
 हमारे आज के शाइर जनाब अनवर कमाल 'अनवर' जिनकी किताब "जहां लफ़्ज़ों का" हमारी सामने है, फिरोजाबाद की कांच की चूड़ी के व्यवसाय से जुड़े है इसीलिए तो उनके शेर चूड़ियों की तरह ही नाज़ुक दिलकश और खनखनाते हुए हैं। उस्ताद शायर जनाब 'हसीन फिरोजाबादी' साहब के शागिर्द 'अनवर कमाल' साहब फिरोजाबाद ही नहीं इसके बाहर भी पूरी दुनिया में अपनी बेहतरीन शायरी का डंका बजवा चुके हैं। बड़ा फनकार वो है जो अपने लहज़े में अपनी बात कहने का हुनर जानता हो और ये हुनर 'अनवर कमाल' साहब को खूब आता है। 

 नहीं था कोई खरीददार खुशबुओं का 'कमाल' 
 मगर चमन में वो पैदा गुलाब करता रहा 
बेकार जिसको जान के हमने गंवा दिया 
वो वक्त क़ीमती था बहुत अब पता चला 
यूं तो मुझे तलाश उजाले की है मगर 
जो भीख में मिले महे कामिल नहीं पसंद 
महे कामिल: चौदहवीं का चांद 
हज़ार कांटों ने एहसास को किया जख़्मी 
मुझे पसंद थी ख़ुशबू गुलाब उगाता रहा 
चांद से प्यार करके ये हासिल हुआ 
नींद आंखों की अक्सर गंवानी पड़ी

 'अनवर'साहब की शायरी के बाबत डॉक्टर 'अपूर्व चतुर्वेदी ' साहब लिखते हैं की 'इजाफ़त से परहेज और बातचीत की भाषा में शाइरी 'अनवर' साहब की ख़ासियत रही है। वो शेर, बल्कि चुभते हुए शेर इतनी सफाई से कहते हैं कि मुंह से वाह वाह निकल जाए। शाइरी में बोलचाल की भाषा के जनाब अनवर कमाल 'अनवर' भी कायल हैं।
 'अनवर' साहब के बहुत से कामयाब शागिर्द भी हैं जिनमें से एक हैं जनाब 'हरीश चतुर्वेदी' जी जिन्होंने 'अनवर' साहब की शाइरी को हिंदी में 'जहां लफ़्ज़ों का' के नाम से प्रकाशित करवा कर उसे उन लोगों तक पहुंचाने में मदद की है जो उर्दू लिख पढ़ नहीं सकते। हिंदी में प्रकाशित इस किताब से पहले 'अनवर' साहब के दो दीवान 'धूप का सफर' और 'बूंद बूंद समंदर' उर्दू में छप कर पूरी दुनिया में मशहूर हो चुके हैं। उनकी ग़ज़लों की हिंदी में दूसरी किताब 'इब्तिदा है ये तो इश्क़ की' सन 2021 में निखिल पब्लिशर आगरा से प्रकाशित होकर धूम मचा चुकी है। 

अनवर साहब को शाइरी विरासत में नहीं मिली, उनके वालिद मोहतरम जनाब बसीरउद्दीन का फिरोजाबाद में चूड़ियों का बहुत बड़ा व्यवसाय है जिसे अब 'अनवर' साहब और उनके बेटे संभालते हैं।भले ही उन्हें शाइरी विरासत में नहीं मिली लेकिन उर्दू शाइरी से मुहब्बत तो उन्हें बचपन से ही हो गई थी जिसे बाद में उसे उनके उस्ताद ए मोहतरम ने तराशा और उसमें पुख्तगी पैदा की। 

 'अनवर' साहब की किताब 'जहां लफ़्ज़ों का' को आप उनके शागिर्द जनाब 'हरीश चतुर्वेदी' जी को 9760014590 पर फोन कर मंगवा सकते हैं। वैसे इस किताब को 'रेख़्ता' की साइट पर ऑनलाइन भी पढ़ा जा सकता है। आप पढ़िए और 'अनवर' साहब को 9837775811 पर फोन कर दाद देना मत भूलियेगा। 

बताओ ऐसी सूरत में बुझाये प्यास किसकी कौन 
समंदर भी यह कहता है कि पानी ढूंढ कर लाओ
 * 
ऐसी सूरत में बताओ क़ाफ़िला कैसे बने 
साथ कोई भी किसी के दो क़दम चलता नहीं
 * 
ख़ाक वो दिन में मिलायेंगे नजर सूरज से 
रात में जिन से सितारे नहीं देखे जाते 
मसअला तो यही है लोगों को 
मसअले करने हल नहीं आते 
मेरा दामन मिल गया जब से तुम्हें 
आंसुओं क़ीमत तुम्हारी बढ़ गई 
*