Monday, July 1, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 7

तो क्यों रहबर के पीछे चल रहे हो 
अगर रहबर ने भटकाया बहुत है 
मैं छोड़ कर चला आया हूं शहर में जिसको 
मुझे वो गांव का कच्चा मकान खींचता है 
ज़ालिम को ज़ुल्म ढाने से मतलब है ढायेगा 
तुम चीखते रहो की गुनहगार हम नहीं 
तलाशे ज़र में भटकता फिरा ज़माने में 
जो मेरे पास था मैं वो ख़ज़ाना भूल गया 
मंजिल मिली न हमको मगर ये भी कम नहीं 
हमसे किसी के पांव का कांटा निकल गया 

आप सोचते होंगे की आसान है, जी नहीं आप ग़लत सोचते हैं, चूड़ी बनाना और वो भी कांच की, बेहद मुश्किल काम है. कांच को न जाने कितनी बार आग में तपना, गलना और फिर पिटना पड़ता है तब कहीं जाकर वो तार बनता है जिसे एक गोल घूमते हुए पाइप पर लपेटकर चूड़ी बनाई जाती है.चूड़ी बनाने से कम मुश्किल नहीं है शेर कहना...अच्छा शेर कहना समझिए सबसे मुश्किल कामों में से एक है. 
इंसान की फितरत है कि उसे मुश्किल काम करने में मजा आता है, जितना ज्यादा मुश्किल काम उतना ही ज्यादा मजा. तभी एक अच्छा शेर शायर को तो दिली सुकून देता ही है पढ़ने सुनने वाले के दिलों दिमाग पर भी छा जाता है.आप सोच रहे होंगे कि मैं चूड़ी और शेर इन दोनों की बात एक साथ क्यों कर रहा हूं। सही सोच रहे हैं, मैं बताता हूं। 
 हमारे आज के शाइर जनाब अनवर कमाल 'अनवर' जिनकी किताब "जहां लफ़्ज़ों का" हमारी सामने है, फिरोजाबाद की कांच की चूड़ी के व्यवसाय से जुड़े है इसीलिए तो उनके शेर चूड़ियों की तरह ही नाज़ुक दिलकश और खनखनाते हुए हैं। उस्ताद शायर जनाब 'हसीन फिरोजाबादी' साहब के शागिर्द 'अनवर कमाल' साहब फिरोजाबाद ही नहीं इसके बाहर भी पूरी दुनिया में अपनी बेहतरीन शायरी का डंका बजवा चुके हैं। बड़ा फनकार वो है जो अपने लहज़े में अपनी बात कहने का हुनर जानता हो और ये हुनर 'अनवर कमाल' साहब को खूब आता है। 

 नहीं था कोई खरीददार खुशबुओं का 'कमाल' 
 मगर चमन में वो पैदा गुलाब करता रहा 
बेकार जिसको जान के हमने गंवा दिया 
वो वक्त क़ीमती था बहुत अब पता चला 
यूं तो मुझे तलाश उजाले की है मगर 
जो भीख में मिले महे कामिल नहीं पसंद 
महे कामिल: चौदहवीं का चांद 
हज़ार कांटों ने एहसास को किया जख़्मी 
मुझे पसंद थी ख़ुशबू गुलाब उगाता रहा 
चांद से प्यार करके ये हासिल हुआ 
नींद आंखों की अक्सर गंवानी पड़ी

 'अनवर'साहब की शायरी के बाबत डॉक्टर 'अपूर्व चतुर्वेदी ' साहब लिखते हैं की 'इजाफ़त से परहेज और बातचीत की भाषा में शाइरी 'अनवर' साहब की ख़ासियत रही है। वो शेर, बल्कि चुभते हुए शेर इतनी सफाई से कहते हैं कि मुंह से वाह वाह निकल जाए। शाइरी में बोलचाल की भाषा के जनाब अनवर कमाल 'अनवर' भी कायल हैं।
 'अनवर' साहब के बहुत से कामयाब शागिर्द भी हैं जिनमें से एक हैं जनाब 'हरीश चतुर्वेदी' जी जिन्होंने 'अनवर' साहब की शाइरी को हिंदी में 'जहां लफ़्ज़ों का' के नाम से प्रकाशित करवा कर उसे उन लोगों तक पहुंचाने में मदद की है जो उर्दू लिख पढ़ नहीं सकते। हिंदी में प्रकाशित इस किताब से पहले 'अनवर' साहब के दो दीवान 'धूप का सफर' और 'बूंद बूंद समंदर' उर्दू में छप कर पूरी दुनिया में मशहूर हो चुके हैं। उनकी ग़ज़लों की हिंदी में दूसरी किताब 'इब्तिदा है ये तो इश्क़ की' सन 2021 में निखिल पब्लिशर आगरा से प्रकाशित होकर धूम मचा चुकी है। 

अनवर साहब को शाइरी विरासत में नहीं मिली, उनके वालिद मोहतरम जनाब बसीरउद्दीन का फिरोजाबाद में चूड़ियों का बहुत बड़ा व्यवसाय है जिसे अब 'अनवर' साहब और उनके बेटे संभालते हैं।भले ही उन्हें शाइरी विरासत में नहीं मिली लेकिन उर्दू शाइरी से मुहब्बत तो उन्हें बचपन से ही हो गई थी जिसे बाद में उसे उनके उस्ताद ए मोहतरम ने तराशा और उसमें पुख्तगी पैदा की। 

 'अनवर' साहब की किताब 'जहां लफ़्ज़ों का' को आप उनके शागिर्द जनाब 'हरीश चतुर्वेदी' जी को 9760014590 पर फोन कर मंगवा सकते हैं। वैसे इस किताब को 'रेख़्ता' की साइट पर ऑनलाइन भी पढ़ा जा सकता है। आप पढ़िए और 'अनवर' साहब को 9837775811 पर फोन कर दाद देना मत भूलियेगा। 

बताओ ऐसी सूरत में बुझाये प्यास किसकी कौन 
समंदर भी यह कहता है कि पानी ढूंढ कर लाओ
 * 
ऐसी सूरत में बताओ क़ाफ़िला कैसे बने 
साथ कोई भी किसी के दो क़दम चलता नहीं
 * 
ख़ाक वो दिन में मिलायेंगे नजर सूरज से 
रात में जिन से सितारे नहीं देखे जाते 
मसअला तो यही है लोगों को 
मसअले करने हल नहीं आते 
मेरा दामन मिल गया जब से तुम्हें 
आंसुओं क़ीमत तुम्हारी बढ़ गई 
*